शिक्षा/ गोविन्द सिंह
कहा जाता है कि यदि
किसी राज्य की तरक्की का जायजा लेना हो तो वहाँ के बच्चों को देखिए, वहाँ की
शिक्षा का हाल देखिए. शिक्षा से ही सामाजिक संभावनाओं के द्वार खुलते हैं, शिक्षा
से ही समाज की खुशहाली का पता चलता है. इस लिहाज से देखा जाए तो उत्तराखंड में
शिक्षा का अनुभव मिला-जुला रहा है. नया राज्य होने के नाते यहाँ बदलाव तो बहुत हुआ
है, ‘तरक्की’ भी हुई है, लेकिन उस अनुपात में शिक्षा की स्थिति बहुत नहीं सुधरी
है. इस बात को यहाँ के मुख्यमंत्री, विधान सभाध्यक्ष सहित तमाम बड़े नेता स्वीकार
चुके हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि जो कुछ ‘विकास’ या बदलाव हुआ है, वह
बेतरतीब और अनियोजित हुआ है. चूंकि बीते वर्षों में स्वस्थ राजनीतिक विकास नहीं हो
पाया, इसलिए प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी उसका असर पड़ा. हमारे नेता यही तय
नहीं कर पाए कि हमें किस तरह का समाज चाहिए, लिहाजा उस लक्ष को हासिल करने के लिए
किस तरह के युवाओं की जरूरत होगी, यह भी उनकी समझ में नहीं आया.
ऊपरी तौर पर देखें
तो उत्तराखंड आज शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है. यहाँ साक्षरता का प्रतिशत
राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है. सबको शिक्षा का अधिकार के तहत सब बच्चे शिक्षा
ग्रहण कर ही रहे हैं. गाँव-गाँव में सरकारी स्कूल खुल गए हैं. जरूरत नहीं है, तब
भी खुल रहे हैं. जहां एक जिले में मुश्किल से एक-दो डिग्री कालेज हुआ करते थे, आज
छोटे-छोटे कस्बों में खुल रहे हैं. उनमें पढने को बच्चे नहीं हैं. राज्य में जहां
कभी मुश्किल से दो-तीन विश्वविद्यालय हुआ करते थे आज 23 विश्वविद्यालय हैं. अभी और
खुल रहे हैं. यानी देखने को तस्वीर बड़ी गुलाबी दिखाई पड़ती है. लेकिन भीतर से हालात
बहुत अच्छे नहीं हैं. आकार फ़ैल रहा है किन्तु उसमें गुणवत्ता का घोर अभाव है. गांवों
में पुराने जमाने में खुले हुए स्कूल बंद हो रहे हैं. अतिशय पलायन की वजह से वहाँ
बच्चे पढने के लिए बचे ही नहीं. वर्ष 2000 में राज्य बनने के
बाद से जहां 1700 गाँव उजड़ चुके हैं, वहीं 12 सौ स्कूल बंदी के
कगार पर खड़े हैं. 2040 प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में छात्रों
की संख्या दस से भी कम रह गयी है. 7000 ऐसे स्कूल हैं, जिनमें छात्र संख्या 25 रह गयी है. स्कूली शिक्षा में विषमता की खाई
लगातार फैलती जा रही है. चूंकि गांवों से शहरों-कस्बों कि ओर पलायन बढ़ रहा है,
इसलिए बच्चे शहर के निजी स्कूलों में आ रहे हैं. बल्कि परिवार के पलायन करने से भी
पहले बच्चों का पलायन हो रहा है. इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि गाँव के स्कूलों
का स्तर सुधर नहीं रहा, अध्यापक कक्षा में नहीं जाता, उसके भीतर बच्चों को प्रेरित
करने की क्षमता नहीं है. दूसरी, लोगों में शहरी तथाकथित ‘अंग्रेज़ी स्कूल’ में
बच्चा भेजने की भेडचाल है. शहर में या दूर फ़ौज में काम करने वाले व्यक्ति के मन
में यह बात बैठा दी गयी है कि गाँव में बच्चा नहीं पढता. लिहाजा वह अपनी पत्नी और
बच्चे को पड़ोस के शहर में भेजता है, ताकि उसे वहाँ अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा दी
जा सके. भलेही शहरी स्कूल घटिया ही क्यों न हो. यहाँ यह बात भी देखने की है कि
जहां जिले के कस्बों-शहरों में ज्यादातर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल घटिया दर्जे के
हैं, वहीं यह भी गौर तलब है कि लगभग हर बड़े शहर में कुछ ऐसे स्कूल भी खुल गए हैं, जो
अंग्रेज़ी माध्यम की अच्छी-खासी पढ़ाई करवाते हैं. केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय
विद्यालय, सेना के स्कूल और धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के आवासीय स्कूलों ने भी पर्वतीय बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों के
दरवाजे खोले हैं. नैनीताल-अल्मोडा, देहरादून-मसूरी के उच्च स्तरीय अंग्रेज़ी
स्कूलों का भलेही उत्तराखंड के बच्चों से कोइ लेना-देना नहीं रहता लेकिन
इक्का-दुक्का बच्चे इस रास्ते से भी तथाकथित अंग्रेज़ी शिक्षा पा ही लेते हैं.
चूंकि अंग्रेज़ी शिक्षा को ही प्रगति का राजमार्ग समझ लिया गया है, इसलिए उच्च और
माध्यम दर्जे के निजी स्कूलों में अमूमन यही माध्यम पढाई का है. इन स्कूलों से बड़ी
संख्या में बच्चे इंजिनीयरिंग, मेडिकल और दिल्ली या पुणे के उच्च रैंकिंग वाले
कालेजों में दाखिला पा रहे हैं, जहां से वे अपने भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे
हैं. भारतीय सैन्य अकादमी के आंकड़े देखें तो पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड देश को
सर्वाधिक अफसर देने वाला दूसरा बड़ा प्रदेश है. बच्चों की कुल संख्या को देखें तो बेहतर
या निजी स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की यह संख्या बहुत थोड़ी है. फिर भी जो
मुकम्मल तस्वीर बनती है, वह खराब नहीं है.
दूसरी तरफ शिक्षा का
सरकारी तंत्र काफी चरमराया गया है. जबकि इसी तंत्र ने एक समय देश को बहुत अच्छे
नौजवान दिए थे. चूंकि आज भी लगभग 70 प्रतिशत बच्चे
इन्हीं स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, इसलिए राज्य में उच्च शिक्षा की जमीन
इन्हीं बच्चों से बनती है. लेकिन इसे विडम्बना ही कहिए कि उच्च शिक्षा की तस्वीर
बेहद निराशाजनक है.
उत्तराखंड की कुल
आबादी एक करोड़ से कुछ ही अधिक है. फिर भी हमारे पास 23 विश्वविद्यालय और 90 से ज्यादा सरकारी और 300
से ज्यादा निजी महाविद्यालय और उच्च शिक्षा के संस्थान हैं. मात्रा
के हिसाब से देखा जाए तो यह तस्वीर बुरी नहीं है. लेकिन गुणवत्ता और पूरे प्रदेश
के संतुलित विकास को देखते हुए यह हालत कुछ अच्छी नहीं दिखती. वर्ष 1973 से पहले हमारे पास एकमात्र पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय था. लेकिन
उसकी ख्याति पूरे देश में थी. वह देश में हरित क्रान्ति का अग्रदूत बना. उसके बाद
कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालय आये. अल्प संसाधनों के बावजूद उन्होंने देश को अनेक
हीरे दिए, जिन्होंने देश-विदेश में नाम कमाया और
राष्ट्र-मुकुट की शोभा बने. उन्होंने न सिर्फ अपना नाम किया बल्कि प्रदेश का भी सर
ऊंचा किया. इन कालेजों-विश्वविद्यालयों ने देश भर में शिक्षा के मानक कायम किये.
घास-फूस के छप्परों और टूटी-फूटी इमारतों से बड़े-बड़े वैज्ञानिक निकले, लेखक-बुद्धिजीवी उभरे और सरहद पर रखवाली करने वाले वीर सैनिक पैदा हुए.
अब हमारे पास बहुत से कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, फिर भी
श्रेष्ठ छात्र नहीं निकल रहे. फ़ौज को छोड़ दिया जाए, तो जिस
अनुपात में यहाँ से पहले श्रेष्ठ विद्यार्थी निकल कर देश सेवा में जाते थे,
अब नहीं निकल पा रहे. पढाई का स्तर निरंतर गिर रहा है. हमारे
शिक्षा-मंदिरों से डिग्रीधारी तो हर साल बहुत निकल रहे हैं, पर
उनमें कितने वाकई काबिल हैं, कहना मुश्किल है. सरकारी कालेज,
जहां से देश और राज्य की सेवाओं में लोग जाया करते थे, आज पूरे प्रदेश से साल में
बमुश्किल 6-7 युवा सिविल सेवा में सेलेक्ट हो पा रहे हैं. यहाँ भी सरकारी बनाम
निजी विश्वविद्यालयों ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. पहाड़ और दुर्गम इलाके आज
भी उपेक्षित हैं. 23 में से १८ विश्वविद्यालय केवल देहरादून और हरिद्वार जिलों तक
सीमित हैं. जिस प्रकार निजी स्कूलों ने कुछ तो ख्याति अर्जित की है, प्रदेश के निजी
संस्थान कोई ख़ास झंडे नहीं गाड पाए हैं. व्यापार के अतिरिक्त उनका कोइ और मकसद हो,
लगता नहीं. यही वजह है कि वे वे पहाड़ नहीं चढ़ना चाहते. इसलिए पहाड़ के बच्चे वंचित
ही हैं.
स्कूली शिक्षा की ही तरह उच्च शिक्षा
में भी पलायन जारी है. जो भी लोग खर्च उठा सकते हैं, वे अपने बच्चों को दिल्ली-पुणे
भेज रहे हैं. जो ज्यादा खर्च नहीं उठा सकते, वे देहरादून, हल्द्वानी ही भेज कर
संतुष्ट हो ले रहे हैं. चूंकि आम तौर पर लड़कियों को अभिभावक बाहर नहीं भेजते,
इसलिए दुर्गम इलाकों के कालेजों में लडकियां ही बची रह गयी हैं. दुर्गम इलाकों में
56 सरकारी कालेज हैं, जहां लड़कियों की संख्या 60
से 80 फीसदी है. लिहाजा, यहाँ शिक्षा का स्तर सुधारने के
प्रति न सरकार गंभीर दिखाई देती है और न ही अभिभावक. राजनीतिक दलों ने अपनी
राजनीति चमकाने के लिए डिग्री कालेज तो खोल दिए हैं, लेकिन वहाँ संसाधनों का घोर
अभाव है. न शिक्षक हैं, न भवन. फिर पढाई के विषय भी पिटे-पिटाए हैं. कहीं कोई
कल्पनाशीलता नहीं दिखाई देती. कुछ समय तक बच्चे यहाँ इंतज़ार करते हैं, बाद में वे
भी भाग खड़े होते हैं. लिहाजा जहां हरिद्वार, रूडकी, देहरादून, ऋषिकेश, रुद्रपुर और
हल्द्वानी में छात्रों को दाखिला नहीं मिल पाता, वहीं पहाड़ों में छात्रों के लाले
पड़े रहते हैं. बावजूद इसके, उत्तराखंड में उच्च शिक्षा में
सकल दाखिला अनुपात (जी ई आर) 30 फीसदी से अधिक पहुँच चुका है. देश के अन्य राज्यों की तुलना में यह
बहुत उत्साहजनक दिखता है, क्योंकि देश का औसत दाखिला अनुपात 20 फीसदी के आसपास ही है. सबको शिक्षित करने के लक्ष
का हमें अवश्य ध्यान होना चाहिए, लेकिन हम यह न भूलें कि कहीं हम शिक्षा की गुणवता
से समझौता तो नहीं कर रहे? (अमर उजाला: उत्तराखंड उदय- २०१५ से साभार)