भाषा/ गोविन्द सिंह
भाषा के
मोर्चे पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक ऐसी रेखा खींच दी है, जिसके सामने अब
तक की सारी रेखाएं छोटी पड़ गयी हैं. यह रेखा है कूटनीति की मेज पर हिन्दी की.
राजनीति यदि जनपथ है तो कूटनीति राजपथ. कोई भाषा कूटनीति की भाषा यों ही नहीं बन
जाती. उसे जनता की भाषा तो होना ही पड़ता है, साथ ही अभिजात्य वर्ग की भाषा भी बनना
होता है. फ्रेंच भाषा को दुनिया भर में कूटनीति की भाषा के रूप में जाना जाता है
तो सिर्फ इसीलिए कि वह दुनिया भर में अभिजात्य वर्ग की भाषा रही है. उसमें
साहित्यिक ऊंचाई है तो नफासत भी. दुनिया के अनेक देशों तक उसकी पहुँच रही है.
अमेरिका के उत्कर्ष के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ी ने उसकी जगह
लेने की कोशिश की है, लेकिन अभी तक वह पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पायी है.
औपनिवेशिक दासता झेल चुके देश ही उसे वैश्विक कूटनीति की भाषा बनाना चाहते हैं. भाषाई
कूटनीति का दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर स्वतंत्र-चेता देश अपनी भाषा में ही
कूटनीति करना चाहते हैं. जबकि वर्चस्ववादी देश चाहते हैं कि उनकी भाषा वैश्विक
कूटनीति की भाषा बने. आज अधिसंख्य ताकतवर देश अपनी भाषा में ही कूटनीति करते हैं. ब्रिटेन,
अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, चीन और जापान इनमें कुछ हैं. ऐसा नहीं है कि
इन देशों के नेता अपने पड़ोसी देश की भाषा नहीं जानते. अपनी सामान्य बातचीत में
भलेही वे अन्य भाषा में बात करते हों, लेकिन कूटनीति की मेज पर अपनी भाषा ही बोलते
हैं, भलेही उसके लिए दुभाषिया ही क्यों न बैठाना पड़े. वे भारत में अपना राजदूत
हिन्दी सिखा कर नहीं भेजते.
लेकिन भारत
की स्थिति उल्टी रही है. यहाँ कूटनीतिक काबिलियत के लिए अंग्रेज़ी जानना जरूरी है.
हमारे यहाँ यह आवाज उठती रही है कि हमें अपनी कूटनीति में अपनी राजभाषा अर्थात
हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए. आजादी से पहले इसमें कोई मतभेद नहीं था. लगभग
आमराय थी कि स्वाधीन भारत को अपनी ही भाषा में सब काम करने चाहिए. लेकिन आजादी के
बाद, जब हिन्दी-विरोध एक राजनीतिक हथियार बन गया, तब यह काम कुछ मुश्किल हो गया. इसमें
सबसे बड़ा विरोध तो ब्यूरोक्रेसी की तरफ से ही आया, जो अपने मूल चरित्र में ही
यथास्थितिवादी होती है. उसमें भी हमारी विदेश सेवा हमारी दासवृत्ति का सबसे प्रबल
उदाहरण रही है. लम्बे अरसे तक उन्हीं युवाओं को विदेश सेवा में एंट्री मिलती थी,
जो ऐसे चुनींदा स्कूलों से पढ़े होते थे, जहां पूरी तरह से अंग्रेज़ी संस्कार दिए
जाते थे. उनका भाषाई उच्चारण, चाल-ढाल, खान-पान के तौर-तरीके पूरी तरह से अंग्रेज़ी
की चाशनी में डुबोये होते थे. इसलिए आपको याद होगा कि पुराने राजनयिकों में
सामंतों-रजवाड़ों के लोग, विदेशों से शिक्षित धनी-मानी लोग ही प्रायः मिलते हैं. आज़ादी
के लगभग तीस साल बाद जब सिविल सेवा परीक्षा में सुधार हुए तब जाकर मध्यवर्गीय
युवाओं को विदेश सेवा में जगह मिलने लगी. आशय यह है कि वे लोग क्योंकर हिन्दी जैसी
जनभाषा को कूटनीति की भाषा बनने देते, जो अंग्रेज़ी संस्कारों में पले-बढ़े हों?
इसलिए हिन्दी वालों की यह मांग बनी ही रही कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा
बनाया जाये.
उनकी यह
हसरत तब पूरी हुई, जब 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में
हिन्दी में भाषण दिया. यह भाषण शुरू में अंग्रेज़ी में लिखा गया था. जब अटलजी को यह
भरोसा हो गया कि हिन्दी में भी भाषण दिया जा सकता है, तब अनुवाद करके पढ़ा गया.
लेकिन आज तक हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा नहीं बन पायी है क्योंकि हमारी सरकार
उसके जरूरी बंदोबस्त नहीं कर रही है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का प्रयोग दूसरी
बार 23 नवम्बर, 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने
दक्षेस देशों के माले सम्मलेन में किया. इन दो प्रयासों के अतिरिक्त कोई और उदाहरण
सामने नहीं आता, जब हमारे किसी नेता ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिन्दी में बोला हो.
ये दो घटनाएं भी एक तरह से प्रतीकात्मक ही थीं, क्योंकि वास्तव में इनकी वजह से व्यवहार
में कोई ख़ास सुधार नहीं आया.
लेकिन जब
नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आये सात पड़ोसी देशों के नेताओं के साथ
हिन्दी में बातचीत की तो पहली बार लगा कि अब कूटनीति के अन्तःपुर में हिन्दी पहुँच
रही है. उसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी हिन्दी में कामकाज शुरू किया.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी संयुक्त राष्ट्र में गए तो हिन्दी में ही बोले. मोदी ने
नेपाली संसद में हिन्दी में भाषण दिया, भूटानी संसद में हिन्दी में भाषण दिया.
जापान में भी वे हिन्दी में ही बोले. वे न सिर्फ बोले बल्कि अपनी भाषा में बोलकर
वहाँ के लोगों पर भारतीयता की छाप भी छोडी. अब वे संयुक्त राष्ट्र जा रहे हैं, फिर
हिन्दी में बोलेंगे. अमेरिका, रूस और चीनी नेताओं के साथ भी वे हिन्दी में ही
बोलने वाले हैं, ऐसी सूचना है. प्रधान मंत्री के इस कदम से न सिर्फ हिन्दी का भला
होगा, बल्कि कूटनीति भी पटरी पर आयेगी. क्योंकि कूटनीतिक वार्ताओं में भाषा आपके
देश और जनता का प्रतिनिधित्व करती है. उससे देश का सर ऊंचा होता है. देश के
स्वाभिमान की भाषा कोई देशी भाषा ही हो सकती है. मोदी की पहल पर अनेक पूर्व विदेश
सचिवों, राजनायिको की प्रतिक्रियाएं आयीं हैं. सबने इस कदम की सराहना ही की
है.
कूटनीति
में भाषा की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए दो उदाहरण काफी होंगे. आजादी
के तुरंत बाद विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत बनायी गयीं. वे 17 अगस्त, 1947 को मास्को में जोजेफ स्टालिन के पास अपना अंग्रेज़ी में लिखा प्रत्यय पत्र
लेकर पहुंची तो स्टालिन ने उसकी भाषा पर आपत्ति की. कहा कि इसकी भाषा न आपके देश
की है और न मेरे देश की है. तब कहते हैं कि रातोरात हिन्दी में लिखा पत्र दिल्ली
से मास्को भेजा गया. लेकिन भारत के प्रति सोवियत नेताओं का दिल नहीं पसीजा. वे
भारत को अंग्रेजों का पिट्ठू ही समझते रहे. ढाई साल तक विजयलक्ष्मी पंडित मास्को
में रहीं, स्टालिन ने कभी उन्हें तवज्जो नहीं दी. चीनी प्रधानमंत्री चाओ एन लाई ने
नेहरू से कहा कि काश आप अपनी भाषा में हमसे द्विपक्षीय मुद्दों पर बात कर पाते.
नेहरू के पास कोई जवाब नहीं था, तो उन्हें अपनी हाजिर जवाबी का सहारा लेना पडा, ‘सबसे
बड़ी भाषा तो प्रेम की होती है’. सच बात यह है कि कूटनीति में प्रेम की भाषा नहीं
चलती. कूटनीति की कामयाबी इसी में है कि आप अपनी बात मनवा लें. इसके लिए शायद किसी
अन्य देश की भाषा की बजाय अपनी भाषा ज्यादा मुफीद होती है. बेहतर हो कि हमारे तमाम
राजनेता, मंत्री, राजनयिक और अन्य ब्यूरोक्रेट अपने सरकारी कामों में हिन्दी का
प्रयोग करें और राष्ट्रीय स्वाभिमान को बढायें. (अमर उजाला, २१ सितम्बर, २०१४ से साभार)