भाषा विवाद/ गोविन्द
सिंह
यह बात
सही है कि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) भारतीय नौकरशाही का मेरुदंड रहा है, लेकिन
यह भी उतना ही सही है कि उसके भीतर अंग्रेजियत के विषाणु जन्मजात रूप से जमे हुए
हैं. आज तो फिर भी बहुत कुछ बदल गया है, १९७९ से पहले तो लगता ही नहीं था कि भारत
आज़ाद भी हो गया है. भारतीय विदेश सेवा में तो चुनींदा स्कूल-कॉलेजों से निकले हुए,
एक ख़ास उच्चारण और चाल-ढाल वाले युवा ही लिए जाते थे. इसके लिए हमें निश्चय ही
दौलत सिंह कोठारी जैसे विद्वानों का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने भारतीय भाषाओं के
लिए रास्ता बनाया. लेकिन १९७९ से अब तक गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है और
यूपीएससी का रवैया भी काफी हद तक बदल चुका है. पर अंग्रेजियत का विषाणु सर उठाकर
बाहर आने के मौके तलाशता रहता है. जैसे ही सरकार या निगरानी समूहों का ध्यान हटा,
वह घुसपैठ करने लगता है. वह सुई की तरह से घुसता है, तलवार बनकर निकलता है. तीन
वर्ष पहले जब वह घुसा था तो किसी ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि उसके परिणाम इतने
भयावह निकलेंगे. पिछले तीन वर्ष से लोग इस विषाणु को निकालने में लगे हुए हैं,
लेकिन वह नहीं निकल रहा है. इसलिए यूपीएससी से अंग्रेजियत को निकाल फेंकने के लिए
मेजर ऑपरेशन की जरूरत है.
चूंकि
यूपीएससी ब्यूरोक्रैसी के हाथों में खेलती है, इसलिए कभी भी वह अंग्रेजियत को
मजबूत करने का मौक़ा नहीं छोडती. १९९० में सतीश चन्द्र समिति तक भारतीय भाषाओं का
वर्चस्व नहीं दिख रहा था. लेकिन नब्बे और २००० के दशक में भारतीय भाषाओं को माध्यम
बनाकर सिविल सेवक बनने वालों की तादात तेजी से बढ़ने लगी. इससे अंग्रेज़ी परस्त लोग
घबराने लगे. यही नहीं, उन्होंने पोप तक को चिट्ठी लिख कर यह गुजारिश की थी कि वे भारत सकरार पर दबाव डालें
कि ब्यूरोक्रेसी के चरित्र को बदलने न दें. सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं का सीधा
से मतलब शहरों के दुर्ग को तोड़कर गांवों को प्रतिष्ठित करना था. जब हाकिम भी देसी
उच्छारण वाली अंग्रेज़ी बोलने लगे और देसी लोगों के हक़ में फैसले करने लगे तो
अंग्रेज़ी परस्त परेशान होने लगे. इसीलिए वर्ष २०१० में बनी निगवेकर समिति ने सिविल
सेवा की प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षाओं को ही बदल डाला. जहां प्रारम्भिक परीक्षा
में सी-सैट के जरिये अंग्रेज़ी जानने-समझने वालों को तरजीह दी गयी, वहीं मुख्य परीक्षा
में भी अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया. तर्क यह दिया गया कि बदलते वैश्विक
माहौल में अंग्रेज़ी जानना जरूरी है. वर्ष २०११ से यह व्यवस्था लागू कर दी गयी. तब
से लगातार भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने और पास करने वालों की संख्या
घटने लगी. जहां २०१० तक हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण करने वालों की संख्या ४०० से
अधिक होती थी, वहीं २०१३ में यह घट कर सिर्फ २६ रह गयी. इससे यह स्पष्ट हो गया कि
नई व्यवस्था पूरी तरह से देसी युवाओं को बहार रखने के मकसद से बनाई गयी है. इस बीच
यह भी देखने में आया है कि अंग्रेज़ी माध्यम वाले, शहरी पृष्ठभूमि वाले और कोचिंग
लेकर परिक्षा देने वाले युवा ही परीक्षा में निकल रहे हैं. गत वर्ष मुख्य परीक्षा
से अंग्रेज़ी को ख़त्म करने के लिए आन्दोलन हुआ. और संसद में तमाम भारतीय भाषाओं के
सांसद एकजुट होकर उसे हटाने में कामयाब हुए. तभी भेदभावपूर्ण सी-सैट के खिलाफ आवाज
उठी तो अरविन्द वर्मा समिति बैठा दी. समिति को शीघ्र अपनी रिपोर्ट देनी थी. लेकिन वह
नहीं दे पाया. उसका कार्यकाल तीन महीने बढ़ा दिया गया, ताकि परीक्षा पूर्ववत जारी
रखी जाए. ज्ञात हुआ है कि प्रारम्भिक रिपोर्ट में कहा गया था कि सी-सैट का पलड़ा अंग्रेज़ी
के पक्ष में झुका हुआ है, इससे भारतीय भाषाओं वाले युवाओं के प्रति पक्षपात हो रहा
है. लेकिन नौकरशाह इसे मानने को तैयार नहीं हैं. उसी के विरोध में यह आन्दोलन है.
अजीब बात
यह है कि आन्दोलन के विरोध में कोई नहीं है. हर कोई कह रहा है कि भाषाई आधार पर
किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए. भाजपा भी और कांग्रेस भी. सपा भी और बसपा भी.
उत्तर भी और दक्षिण भी. संसद के दोनों सदन चाहते हैं कि भारतीय भाषा-भाषियों के
साथ भेदभाव न हो, लेकिन फिर भी ब्यूरोक्रेसी है कि मानती नहीं. अंग्रेज़ी मीडिया
जरूर फूट डालने की कोशिश करता है. कुछ अंग्रेज़ी अखबार इसे हिन्दी बनाम अन्य भारतीय
भाषाओं के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि जितना नुकसान हिन्दी माध्यम
वालों को है, उतना ही नुकसान अन्य भाषा भाषियों को है. अभी तक हम यह मानते थे कि
भाषा को लेकर राजनेता संसद और संसद से बाहर अलग-अलग व्यवहार करते हैं. इसलिए
हिन्दी कभी राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा नहीं बन पायी. पहली बार एक ऐसे प्रधान
मंत्री आये हैं, जो हिन्दी को लेकर स्पष्ट हैं. इसलिए अब तो भाषा को लेकर
छल-प्रपंच की नीति बंद होनी ही चाहिए.( अमर उजाला, २९ जुलाई, २०१४ से साभार)