सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

वसंत यानी नव सृजन


ललित निबंध/ गोविन्द सिंह
माघ शुक्ल पंचमी या श्री पंचमी या वसंत पंचमी से वसंत ऋतु का आरम्भ होता है. भारतीय ऋतुओं के हिसाब से देखें तो माघ और फागुन के महीने शिशिर ऋतु की झोली में आते हैं. यदि मौसम यानी तापमान के हिसाब से देखें तो यह समय सचमुच हेमंत का है, कड़ाके की ठण्ड का है. आधे माघ तक सर्दी का असर रहेगा और उसके बाद सरसराती हवाओं की ऋतु शिशिर आयेगी और तब जाकर कहीं वसंत ऋतु आयेगी. तो क्या हमारे पंचांगकारों को मतिभ्रम हो गया था? या हमारे उत्सव-त्यौहार मनाने वालों को इस बात का भान नहीं रहा कि वे वसंत पंचमी को किस ऋतु में रख रहे हैं?
कुछ गहराई से सोचने पर लगेगा कि दोनों अपने स्थान पर सही हैं. हिसाब-किताब लगाने वाले पंचांगकार यांत्रिक तरीके से ऋतुओं की गणना करते हैं तो मानव हृदय की गहराइयों में गोते लगाने वाले उत्सवकार मनुष्य की उमंगों- आकांक्षाओं के लिहाज से सोचते हैं. एक तरफ मनुष्य की आदिम इच्छाएं हैं, निरंतर प्रगतिकामी मानव स्वभाव है, तो दूसरी तरफ यांत्रिक तरीके से सोचने वाले योजनाकार. वसंत ऋतु आने वाली है, यह सोचना ही हमें कितना हर्षोल्लास से भर देता है! हेमंत की कड़कती ठण्ड के बाद यों तो शिशिर की उड़ाती हवाओं से हमारा पाला पड़ता है, लेकिन हम हेमंत से सीधे वसंत में छलांग लगा लेना चाहते हैं. जैसे हम शिशिर के अस्तित्व को ही सिरे से नकार देते हैं. क्योंकि शिशिर जीवन की सांझ का प्रतीक है. बार्धक्य का प्रतीक है. उसमें कुछ भी नयापन नहीं. जो कुछ जर्जर हो चुका है, वह उसे उड़ाकर फेंक देना चाहता है. यदि दिन के हिसाब से देखें तो वसंत नई सुबह का प्रतीक है. सुबह की पुरवाई, सुबह की लालिमा, सुबह की ऊष्मा किसे अच्छी नहीं लगती! सुबह निश्चय ही नवजीवन का सन्देश लेकर आती है. हेमंत की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड के बाद स्वाभाविक परिणति शिशिर ही हो सकती है. लेकिन हम हैं कि उसे और नहीं सह सकते. इसलिए हम सीधे नवजीवन में कदम रखना चाहते हैं. यानी वसंत हमारी आकांक्षा है. जो हम हैं, वह हमें स्वीकार्य नहीं है. जो हम होना चाहते हैं, वह वसंत है. सचमुच वह हमारा सपना है. इसीलिए गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं, मैं ऋतुओं में ऋतुराज वसंत हूँ.
जो श्रेष्ठतम है, जहां पहुंचकर कल्पना का भी चरमोत्कर्ष हो जाता है, वहाँ वसंत है. इसीलिए उसे ऋतुराज कहा जाता है. कवि उसे प्रेम की ऋतु भी मानते हैं. लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. जैसे कृष्ण का चरित्र है, वैसे ही वसंत का स्वरुप है. कृष्ण केवल प्रेम के देवता नहीं हैं. वे योद्धा हैं, सारथी हैं, रणनीतिकार हैं, मददगार हैं, तारणहार हैं और सबसे ऊपर योगेश्वर भी हैं. इसलिए वसंत को आप किसी देश-काल से निबद्ध नहीं कर सकते. वह एक तरह का एहसास है. इसलिए वह शिशिर ऋतु के आरम्भ अर्थात माघ शुक्ल पंचमी को ही आ पहुंचता है. पूरे डेढ़ महीने पहले. आप भलेही उसे हरे-भरे मैदानों में, वन-प्रान्तरों में, हेमंत-शिशिर में ठूंठ हो गए वृक्षों में आयी नई कोंपलों में, कलियों में, फूलों में, पराग कणों में, कोयल की कुहुक में, घुघूती के बासने में तलाशें, लेकिन सचाई यही है कि तब तक आपकी तलाश अधूरी रहेगी, जब तक कि आप उसे अपने भीतर नहीं तलाशेंगे. असली वसंत सचमुच हमारे अपने भीतर होता है. वह हमारी चाहत में निहित है.
बेशक वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है, अपने पुराख्यानों में हमें मदनोत्सव के उल्लेख भी प्रचुरता में मिलते हैं, और वसंत का एक रूप यह है भी. लेकिन उसे केवल प्रेम की ऋतु कहना भी भूल ही होगी. यदि ऐसा होता तो हम वसंत पंचमी को सरस्वती पूजा के रूप में न मनाते. सरस्वती हमारे समस्त देवी-देवताओं में सतोगुण की अधिष्ठात्री देवी हैं. उनके जिस  स्वरुप की हम पूजा-अर्चना करते हैं, उसे देखते ही हमारी आँखें श्रद्धा से नम हो जाती हैं. उसमें रूप है, सौन्दर्य है, सबकुछ है, लेकिन फिर भी उसकी आँखों में जो मौन है, जो गहराई है, वह उसे सहज ही मां बना देता है. इसलिए जब हुसैन सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाते हैं, तो हमारे गले नहीं उतरती. सरस्वती को हम हजारों वर्षों से कला-संस्कृति की देवी मानते आये हैं. वह अक्षर की देवी है. विद्या की देवी है. विद्या हमें विनयी बनाती है, वह मुक्ति प्रदान करती है. मुक्ति बाह्य वर्जनाओं से, अंतस के बंधनों से. कहा भी गया है, ‘सा विद्या या विमुक्तये’. मुक्ति का एहसास शायद दुनिया का सबसे श्रेष्ठ एहसास है.
सरस्वती शुभ की देवी है. इसीलिए इस दिन हम बिना दिन-बार निकाले कोई भी शुभ कार्य कर लेते हैं. श्रीपंचमी को हम धनधान्य का पर्व भी मानते हैं. कुमाऊं में तो इस दिन जौ के तिनाड़े शिरोधार्य करने की परम्परा है. यह हजारों वर्षों से जीवित हमारी कृषक सभ्यता को मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है. इस दिन गृह प्रवेश करते हैं, शिशुओं को अन्न प्राशन करते हैं, बच्चों के हाथ में कलम देते हैं, कर्णवेध, यज्ञोपवीत संस्कार, और विवाह से जुडी रस्में निभाते हैं. अर्थात कोई भी काम, जो हमारी चाहत होता है, उसे हम वसंत पंचमी से करते हैं. इसी से सिद्ध होता है कि वसंत वह है, जो हम चाहते हैं. इसलिए निराला यदि देवी सरस्वती से ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव’ मांगते हैं तो सुभद्रा कुमारी चौहान ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ में शौर्य की कामना करती हैं. आज़ादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों का प्रिय गीत भी ‘मेरा रंग दे वसंती चोला’ यों ही नहीं बना था. अर्थात वसंत को केवल प्रेम की ऋतु कहना हमारी नासमझी होगी. वसंत इस सबसे कहीं ऊपर है. वह प्रेम का उदात्त स्वरूप है, वह नव-सृजन का प्रेरक है. प्रकृति और पुरुष के एकाकार होने का पर्व है वसंत. आओ इस का स्वागत करें. (जनपक्ष आजकल, फरवरी, २०१४ में प्रकाशित) 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

धर्मगुरु का पतन कैसे हुआ

धर्म/ गोविन्द सिंह
एक ज़माना था जब धर्मगुरुओं ने हमें विश्व भर में प्रतिष्ठा दिलाई थी. लेकिन हाल के वर्षों में उन्होंने हमें बहुत लज्जित किया है. लगातार एक के बाद एक ऐसे किस्से सामने आये हैं, जिनके बारे में सुनते ही उबकाई आने लगती है. हम यह नहीं कहते कि सभी धर्मगुरु एक से हैं या जो आरोप उन पर लगे हैं, वे सही ही हैं. वह सब साबित करना क़ानून का काम है, लेकिन जिस तरह से धर्मगुरुओं की बाढ़ आ गयी है और जिस तरह की पंचतारा कम्पनियां उन्होंने खोल ली हैं, ये बहुत अच्छा संकेत नहीं हैं. वे लगातार धन-संचय, व्यापार और ऐय्याशी के आरोपों से घिरते जा रहे हैं. धर्मगुरुओं के ज्यादातर संगठन अवैध कारोबार के अड्डे बनते जा रहे हैं. समाज में धर्म का प्रचार-प्रसार हो, यह अच्छी बात है लेकिन धर्म के नाम पर कुछ लोगों का व्यापार देखते ही देखते अरबों का हो जाए, और उनकी ऐय्याशी के चर्चे समाज में हर आम-ओ-ख़ास की जुबां पर आ जाएँ, इससे बुरी बात और क्या हो सकती है? इससे तो धर्म की हानि ही होगी.
यह सोचने की बात है कि समाज में अचानक यह धर्म की बाढ़ कैसे आ गयी? यही वह बिंदु है, जहां इस बीमारी का मूल कारण छिपा है. आजादी के बाद हमारे समाज-जीवन से वास्तविक धर्म धीरे-धीरे गायब होता गया है. जो जीवन शैली हमने अपना ली है, उसमें धन की, भौतिक समृद्धि की तो पर्याप्त जगह है, लेकिन जिन कारणों से हमारा समाज जाना जाता था, वे सब लुप्त होते गए. त्याग और सादगी हमारी मुख्य पहचान थी, उन्हें हमने भुला दिया. जीवन में से जैसे अध्यात्म गायब हो गया. धर्म और अध्यात्म हमारे कदम-कदम पर था. उनके बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकते थे. लेकिन अंग्रेज़ी शिक्षा ने वह सब हमसे छीन लिया. भारतीय जीवन मूल्य जैसे भुला दिए गए. किसी भी राष्ट्र के जीवन में संस्कार भरती है शिक्षा. और जब शिक्षा ही पराये अर्थात पश्चिम का गुणगान करने लगे तो भावी संतानें दोगली होनी ही थीं. हम आधुनिक और विज्ञान सम्मत शिक्षा के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हर बात के लिए पश्चिम की ओर मुंह ताकना कहाँ तक जायज है?अंग्रेजों ने समझा कि हमारे जाने के बाद भी हमारी शिक्षा बरकरार रहेगी. हमारे जीवन मूल्य सुरक्षित रहेंगे. हम चले जायेंगे लेकिन हमारे मानस-पुत्र राज करेंगे. बहुत हद तक यह हुआ भी है. लेकिन आप किसी भी सभ्यता को इतनी जल्दी समाप्त नहीं कर सकते. आप हमसे हमारा वर्तमान छीन सकते हैं, हमारे वर्तमान को अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. लेकिन हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता को नहीं मिटा सकते. हमारे इतिहास और परम्पराओं को हमसे नहीं छीन सकते. बिना हमसे छीने हमारे भूगोल को नहीं बदल सकते. इस प्रकार पिछले १५-२० वर्षों से, ख़ासकर विश्व फलक पर भारत के अभ्युदय के बाद दुनिया भर में भारत को जानने-समझने की ललक बढ़ी है. फिर हमने जिस तरह की समाज-व्यवस्था और अर्थनीति को अंगीकार किया है, जिस तरह का इंसान हम बना रहे हैं, उसने आग में घी डालने का काम किया. अर्थात पश्चिम आधारित हमारे विकास मॉडल ने जिस तरह की आपाधापी को जन्म दिया है, जिस तरह से शहरीकरण बढ़ रहा है, उसमें मनुष्य लगातार भीड़ में भी अकेला महसूस कर रहा है. वह धन के पीछे दौड़ रहा है. यह एक अंतहीन दौड़ है. ऐसे में जब आधुनिक मानव थक-हार कर बैठ जाता है, ‘सब कुछ’ प्राप्त कर लेने के बाद भी अतृप्त रह जाता है, तब उसे धर्म की याद आती है. अपनी जड़ों की ओर मुड़ने का मन होता है. आपको आश्चर्य होगा कि हमारे ज्यादातर साधु-सन्यासी भी अमेरिका जाकर ही तृप्त होते हैं. बिना अमेरिका का ठप्पा लगे उन्हें बड़ा धर्मगुरु नहीं मन जता. जो लोग धर्म-विरोधी, भारतीयता-विरोधी शिक्षा ग्रहण कर अमेरिका पहुँचते हैं, एक समय आता है, जब वे मोहभंग के शिकार बनते हैं. उन्हें रह-रह कर अपनी परम्पराएं याद आती हैं. अपने पूजा-विधान, कर्मकांड याद आते हैं. ऐसी अवस्था में जैसे ही कोई ‘संत’ चार शब्द संस्कृत के बोल देता है, उसे सर-आँखों पर बिठा लिया जाता है. यही वजह है की हर स्वामी अमेरिका से लौट कर ही अपना मठ बनाता है. यही हालत अब अपने देशवासियों की भी हो रही है. इसीलिए वे भी धर्म की ओर लौट रहे हैं. एकाकी परिवार में सुकून के पल खोजने वे अक्सर धर्मगुरुओं के पास जा पहुँचते हैं. यही नहीं कभी ज्योतिषियों के पास, कभी ओझे-सयानों के पास तो कभी तांत्रिकों के पास जा पहुँचते हैं. जब घर के गुरु उपलब्ध न हों तो बाहरी गुरुओं की तलाश ही होनी है. इस तरह हाल के वर्षों में गुरुओं की डिमांड बेतहाशा बड़ी है. जब धर्मगुरुओं की मांग बढ़ी तो आपूर्ति भी बढनी ही थी. वह बात अलग है कि मांग के अनुपात में प्रशिक्षित गुरुओं की आपूर्ति नहीं हो सकती थी. इतनी बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे ही नहीं. यही वजह है जो भी चालाक थे, वे इस पेशे में घुसने लगे. एक बार एक व्यक्ति दफ्तर में मिलने आये. उनका रंगरूप देखकर मैं हैरत में आ गया. युवावस्था में तो वह ऐसे न थे. वह तो निहायत बदमाशों की श्रेणी में आते थे. अब प्रौढावस्था में अचानक उन्हें गेरुए वस्त्र पहने, गले में रुद्राक्ष की माला लटकाए देख आश्चर्य हुआ. आखिर किसी व्यक्ति का इतना हृदय परिवर्तन कैसे हो सकता है? हमने पूछा कि काम कैसा चल रहा है. बोले बहुत अच्छा. ईश्वर-कृपा से किसी चीज की कमी नहीं. गाडी है, बँगला है, नौकर-चाकर हैं. राजनीतिक पहुँच है. क्या नहीं है? इस समृद्धि का राज खोलते हुए अंत में जाते-जाते बोल गए कि ‘राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे तीन शनि-मंदिर डाल लिए हैं’.     
तो मित्रो टीवी पर प्रवचन देते जो सैकड़ों धर्मगुरु दिखाई पड़ते हैं, उनमें से अधिकाँश ऐसे ही ‘गुरु’ हैं. उनके चोले को देखकर हमें गलतफहमी में नहीं आ जाना चाहिए. थोडा-सा भजन-कीर्तन कर लेने, गीता-रामायण के कुछ श्लोक-चौपाइयां रट लेने, प्रवचन के चार-छः शब्द सीख लेने, कुछ हास्य, कुछ सेक्स और कुछ लटके-झटके अपनाकर भक्त मंडली का मनोरंजन कर लेने भर से कोई संत नहीं बन सकता. इसलिए सावधान होकर चुनिए अपना गुरु. बेहतर तो यह होगा की अपने अंतर के गुरु को पहचानिए. बाह्य गुरु इतनी आसानी से नहीं मिला करते. (नैवेद्य, देहरादून, दिसम्बर २०१३ में प्रकाशित)   

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

टीआरपी का गोरखधंधा


मीडिया/ गोविन्द सिंह
देर से ही सही, टीवी चैनलों की व्यूअरशिप को जांचने के फर्जी तरीकों पर सरकार का ध्यान गया. केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों की रेटिंग्स पर नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिन्हें लेकर चैनलों की दुनिया में खलबली मची हुई है. अभी तक सर्वे कराने वाली एजेंसी टैम की सांझीदार कम्पनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गयी है. वह इन दिशा निर्देशों को किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देना चाहती. यही नहीं, अभी तक फायदा ले रहे चैनलों के मालिक भी नई व्यवस्था को फेल करने पर तुले हुए हैं, लेकिन बाक़ी चैनल खुश हैं कि टीआरपी के इस गोरखधंधे पर कोई तो नकेल कसेगा. लेकिन चूंकि अभी तक नए दिशा-निर्देश लागू नहीं हो पाए हैं, इसलिए यह भी स्थिति आ सकती है कि कुछ अरसे तक रेटिंग की कोई व्यवस्था ही ना रहे. इसे टीआरपी ब्लैक आउट की स्थिति कहा जा रहा है.   
टीआरपी के गोरख धंधे ने जिस तरह से पिछले १५ वर्ष से देश की जनता और टीवी चैनलों को भ्रमित कर रखा है  और देश की संस्कृति को प्रदूषित करने का खेल चला रखा है, वह किसी आपराधिक षड़यंत्र से कम नहीं है. लेकिन हमारी सरकारों को अपने राजनीतिक जोड़-तोड़ से फुर्सत ही कहाँ जो संस्कृति जैसे विषयों पर ध्यान देतीं. लेकिन समाज में टैम की टीआरपी व्यवस्था की घोर निंदा होती रही है. क्योंकि बहुत थोड़े सैम्पल लेकर पूरे देश की व्यूअरशिप का फतवा जारी कर देने से टीवी चैनलों के कंटेंट पर बेहद बुरा असर पड़ रहा था. टैम का सर्वे दर्शकों के बीच एक खाई भी पैदा कर रहा था. 
पिछली सदी के आख़िरी दशक में जब देश में निजी टीवी चैनलों का जाल बिछने लगा तो टीआरपी जैसी अवधारणा सामने आयी. उससे पहले चूंकि देश में केवल सरकारी टीवी अर्थात दूरदर्शन था, इसलिए उसे कभी इस तरह की प्रतिस्पर्धी व्यवस्था की जरूरत नहीं पडी. व्यूअरशिप जांचने का उसका अपना तंत्र था, दूरदर्शन और आकाशवाणी का अपना ऑडिएन्स रिसर्च यूनिट हुआ करता था. वह तमाम कार्यक्रमों की व्यूअरशिप जांचता था. लेकिन जब देश में बहुत से निजी चैनल आ गए तो एक निष्पक्ष एजेंसी की जरूरत आन पडी. जो घर-घर जाकर यह सर्वे कर सके और यह बता सके कि कौन-सा चैनल कितना देखा जा रहा है. किस कार्यक्रम की कितनी लोकप्रियता है? यह काम निश्चय ही सरकार को करना चाहिए था, जिसने निजी और सेटेलाईट चैनलों के लिए दरवाजे खोले थे. पर सरकार को कहाँ इस सबकी फुर्सत? न फुर्सत और न ही वैसी दृष्टि. नतीजा यह हुआ की टैम जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां कूद पड़ीं. लेकिन चूंकि देश में कोई कायदा-क़ानून नहीं था, इसलिए जिसकी जैसी मर्जी आयी, वैसा किया.
आपको आश्चर्य होगा कि सन २००० तक खबरिया चैनलों की टीआरपी जांचने के लिए सिर्फ ढाई हजार घरों में पीपुल्स मीटर लगे हुए थे. वह भी बड़े-बड़े महानगरों, अमीर राज्यों के अमीर घरों में ही ये मीटर लगे हुए थे. यानी ढाई हजार घरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरे देश की पसंद-नापसंद बताया जा रहा था. आप हैरान होंगे  कि पूरे बिहार और पूरे उत्तराखंड में एक भी मीटर नहीं था. वे चैनलों के विज्ञापनदाताओं के सामने एक ऐसा भारत पेश कर रहे थे, जो अमीर था, खुशहाल था, जिसकी कोई समस्या नहीं थी. उसकी पसंद को गरीब देश की पसंद बताया जा रहा था. जाहिर है वैसे ही कार्यक्रम भी बनने लगे. यह टीआरपी कंपनी का जाल-फरेब था, जो आम दर्शक को मूर्ख समझता था. टीवी कंपनियों को यह व्यवस्था मुफीद आती थी, क्योंकि इससे विज्ञापन उठाने में आसानी होती थी. जो चैनल आपको बहुत पसंद हो, जिसके कार्यक्रम आपको बहुत अच्छे लगते हों, जरूरी नहीं कि वे इन मुट्ठी भर दर्शकों को भी अच्छे लगें. लिहाजा हुआ यह कि सारे चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों का स्तर खराब होने लगा. खबरिया चैनलों पर दिखाए जाने वाले समाचार का स्वरुप विकृत होने लगा. न्यूज के नाम पर सांप-छछूंदर दिखाए जाने लगे. जादू-टोना और अंध विश्वास ने तर्क और प्रगतिशील विचारों की जगह ले ली. गाय को उड़ते हुए दिखाया जाने लगा. बेतूल के कुंजीलाल की मरने की घोषणा का लाइव प्रसारण हुआ. बड़े-बड़े खुर्राट पत्रकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आने लगे. बल्कि उन्होंने घुटने टेक दिए टीआरपी के सामने. इसलिए ऐसे फर्जी समाचारों को दिखाने वाले चैनलों के पौ-बारह होने लगे. सारे चैनल उसी राह पर चल पड़े. नतीजा यह भी हुआ कि जो संवाददाता खबरों की बात करता, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता. समाचार चैनलों से विचारवान पत्रकारों की छंटनी होने लगी और चालाक, बाजीगर किस्म के प्रोड्यूसरों की बन आयी. जब बहुत विरोध होने लगा तो सैम्पल साइज कुछ बढाया गया. पहले चार हजार, फिर छः हजार अब आठ हजार तक ही पहुँच पाया है टैम. आज की तारीख में भी ८१५० सैम्पल साइज के भरोसे पूरे देश का मूड बताने का दावा करता है टैम. क्या भारत जैसे बहुरंगी देश में यह संभव है?
अब सरकार कह रही है कि सैम्पल साइज बढाओ. कम से कम २० हजार करो. हर साल दस-दस हजार बढ़ाना  होगा. चार साल में ५० हजार करना होगा. यह देख कर टैम वालों को नानी याद आ रही है. मिल बाँट कर खाने-खिलाने का खेल ख़त्म होने वाला है. आखिर नौ हज़ार करोड़ के टीवी विज्ञापनों पर एकाधिकार का मामला है. मिल-बाँट कर खाने का खेल है. इसलिए अदालत की शरण में जा रहे हैं. लेकिन अदालत भी सब समझती है, इसलिए उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है. अब ब्लैक आउट का डर दिखा कर ब्लैकमेल किया जा रहा है. ब्लैक आउट होता है तो होने दो, पर टीआरपी की नयी व्यवस्था ईमानदारी से लागू होनी ही चाहिए. टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना देश के साथ धोखा है. (कैनविज टाइम्स, बरेली, ३ फरवरी, २०१४ को प्रकाशित)