भाषा की राजनीति/ गोविंद सिंह
दलीय सरहदों को लांघ कर संसद में भारतीय भाषाओं
के पक्ष में विभिन्न राजनेताओं को बोलते देखना सचमुच सुखद आश्चर्य की तरह था. दक्षिण
भारत के नेता अब तक हिन्दी के विरोध में तो बोलते थे, पर बदले में वे अकसर अंग्रेजी
का समर्थन कर बैठते थे. लेकिन इस बार संघ लोक सेवा आयोग और प्रो. अरुण निगवेकर ने उन
सब नेताओं को एक पाले में ला खड़ा कर दिया जो अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं और अपनी-अपनी
भाषाओं की उन्नति चाहते हैं. हिन्दी वालों को अब तक यही लगता था कि जिस दिन हिन्दी
राजनीतिक मुद्दा बन जायेगी, उस दिन सत्ता में उसका हक भी सुनिश्चित हो जाएगा. कहा
जा सकता है कि इस बार उसकी थोड़ी-सी झलक मिली है. जिस तरह से तमाम भारतीय भाषाओं के
पैरोकारों ने समवेत स्वर में अंग्रेजी की अनिवार्यता का विरोध किया, उसे एक शुभ
संकेत माना जाना चाहिए कि चलो हमारे राजनेताओं को देर से ही सही, हकीकत का एहसास
हुआ और भविष्य में वे बिल्लियों के हिस्से की रोटी हड़पने वाले बन्दर को पहचान
सकेंगे. साठ के दशक में शुरू हुए अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन की याद ताज़ा हो गयी. लेकिन
यहीं ध्यान देने की बात यह भी है कि सरकार ने अभी इस मसले को पूरी तरह खारिज नहीं
किया है, ठंडे बस्ते में ही डाला है. अंग्रेजी-परस्ती का विषधर कभी भी फन उठा सकता
है. यानी लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. उसे सिरे तक पहुंचाना आसान नहीं है.
सरकार द्वारा सिविल सेवा परीक्षा में किये जाने
वाले तथाकथित सुधारों को ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने के बाद जिस तरह से निगवेकर
साहब ने अपना विरोध दर्ज किया है, वह और भी चौंकाने वाला है. वे कहते हैं कि हमारा
मकसद ऐसे लोगों को सिविल सेवा में लाना था, जिनके पास संवाद कर सकने की बेहतर
योग्यता हो, जो अपने अफसरों से अच्छी अंग्रेजी में बात कर सकें. यानी जिस जनता की
सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया जा रहा है, वह जाए भाड़ में. अंग्रेज़ी के जरिये यह
वर्ग अपने वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है. जनता की भाषा की उसे क्या परवाह! जैसे
संवाद केवल अंग्रेज़ी में ही होता हो! निगवेकर कहते हैं, हम चाहते थे कि सिविल सेवा
में ‘वायब्रेंट’ उम्मीदवार आयें. उन्हें कौन समझाए कि ‘वायब्रेंट’ सिर्फ अंग्रेज़ी
बोलकर नहीं पैदा होते. एक और चौंकानेवाली बात वे यह कहते हैं कि हमने अंग्रेज़ी की
अनिवार्यता की बात नहीं कही थी. तो किसने कही? आपकी सिफारिशों में साफ़-साफ़ कहा गया
है कि अंग्रेज़ी का 100 अंकों का एक पर्चा न
सिर्फ पास करना अनिवार्य होगा, बल्कि उसके अंक भी अंतिम मेरिट में जुडेंगे. इसी पर
तो आपत्ति थी, वरना दसवीं स्तर की अंग्रेज़ी तो पहले भी पास करनी होती थी, बस उसके अंक
मेरिट में नहीं जुड़ते थे. निगवेकर साहब कहते हैं कि इधर के वर्षों में ऐसे लोग अधिकारी
बन रहे थे, जो एक पेज साफ़ हिन्दी या अंग्रेज़ी नहीं लिख पाते, इसलिए यह करना जरूरी
था. लेकिन 1993 में शुरू किया गया 200 अंक का निबंध का पर्चा फिर क्या घास छील रहा था? यदि एक पूरा पर्चा निबंध
लिखवाकर भी आप भाषा ज्ञान नहीं जांच सकते तो फिर इसमें उम्मीदवार नहीं, महाशय आप
गुनाहगार हैं. एक अजीब तर्क यह दिया जा रहा है कि हाल के वर्षों में लोग तकनीकी
विषयों की जगह भाषा को ले रहे थे. सच बात तो यह है कि केवल भाषाओं को ही नहीं, वे
हर उस विषय को ले रहे थे, जिसे आसानी से रटा जा सके, और जो अच्छे अंक दिला सके.
इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन आदि ऐसे ही विषय हैं, जो विज्ञान, इंजीनियरिंग और
चिकित्सा के विद्यार्थी ले रहे थे. फिर आपकी आरी सिर्फ भारतीय भाषाओं की गरदन पर
ही क्यों चली? शायद ऐसे सवालों के जवाब उनके पास नहीं होंगे क्योंकि उनके मन में
पहले ही एक मैकालेभक्त बैठा था.
इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में
अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका या किसी और विदेशी भाषा
का ज्ञान आज की जरूरत है. लेकिन सिर्फ इसी कारण से अपनी भाषाओं को डुबो देना कहाँ
की समझदारी है?
भारतीय नौकरशाही के सामंती चरित्र के कारण ही 1979 में डीएस कोठारी ने सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं को जगह दिलाई थी और
अंग्रेज़ी के वर्चस्व को तोड़ा था. उसी के बाद गाँव-देहात के, निर्धन तबकों के,
दबी-कुचली जातियों के लोग भी इस प्रभु वर्ग में शामिल होने लगे थे. धीरे-धीरे वे
अपने वर्गीय हितों की बात भी उठाने लगे हैं. हाल के वर्षों में आपने पढ़ा होगा कि
किस तरह से किसी रिक्शे वाले का बेटा, किसी जूते गांठने वाले का बेटा, किसी चौकीदार-चपरासी
का बेटा या बेटी, किसी छोटे दूकानदार का बेटा आईएएस बन गया है. हर साल 4-5 सौ ऐसे युवा भारतीय भाषाओं के जरिये इस प्रतिष्ठित सिविल सेवा में अपनी
पैठ बना रहे थे. ऐसा नहीं कि वे अंग्रेज़ी जानते ही नहीं थे. अपनी भाषा के साथ वे
अंग्रेज़ी भी कामकाजी स्तर की जानते थे. प्रभु वर्ग को असली दिक्कत इन्हीं लोगों से
थी कि धीरे-धीरे वे उनके बीच जगह बना रहे हैं. अभी तक वे अंग्रेज़ी के आवरण में
अपनी कमियों को छिपा लिया करते थे. अब यह काम मुश्किल हो रहा था. इसीलिए उन्होंने
एक झटके में भारतीय भाषाओं को रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया. वे तो कामयाब भी
हो गए थे. यह तो तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें थीं कि सरकार को झुकना पड़ा और
मसले को ठंडे बस्ते में डाला गया.
अब असली मसले पर आयें. समस्त भारतीय भाषाओं के
बीच अंग्रेजियत के विरुद्ध आज जो राजनीतिक सहमति बनी है, इसे अभूतपूर्व समझना
चाहिए. ऐसा आज़ादी के आंदोलन के दौरान भलेही हुआ हो, पर उसके बाद कभी नहीं हुआ.
इसलिए यह टेम्पो बना रहना चाहिए. प्रभु वर्ग यही चाहेगा कि भारतीय भाषाओं के बीच
फूट पड़ी रहे, और अंग्रेज़ी राज करती रहे. हिन्दी वाले यह न समझें कि यह क्षणिक जीत
उनकी वजह से हुई है. वास्तव में सरकार को क्षेत्रीय ताकतों के डर से अपने कदम पीछे
खींचने पड़े हैं. इसमें दक्षिण भारतीय नेताओं की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है.
इसलिए भविष्य में भी भारतीय भाषाओं की इस लड़ाई में उनकी सक्रियता बनी रहे, इसके
लिए हिन्दी वालों को विशेष प्रयास करना चाहिए.
(साभार: अमर उजाला, २० मार्च)