विमर्श/ गोविंद सिंह
अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा है, ‘भारत मानव जाति का अवलम्ब है,
मानवीय आवाज की जन्मभूमि है, इतिहास की जननी है, महान गाथाओं की दादी है,
परम्पराओं की परदादी है. भारत सचमुच मानव इतिहास की सबसे मूल्यवान चीजों का खजाना
है.’ इतना सब होते हुए भी भारत स्वयं को विदेशी आक्रान्ताओं से बचा नहीं पाया और
अंततः उसे दो शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा. और इन दो सौ वर्षों में हम एकदम पैदल
हो गए. हमारे पास जो कुछ अच्छा था, श्रेयस्कर था, हमसे लूट लिया गया. दो सौ वर्षों
के शासन में अंग्रेजों ने ऐसा आर्थिक कुचक्र चलाया कि हम सोने चिड़िया से भिखारी बन
गए. हमारी आजादी की लड़ाई इसी कुचक्र के खिलाफ बगावत थी. और 1947 में आज़ाद होने के
बाद हमने एक ऐसे गणतंत्र की नींव रखनी चाही जो टिकाऊ हो, जिसे कोई और पराई ताकत
फिर से गुलाम न बना ले और जिसमें गण का महत्व सर्वोपरि हो.
आजादी के बाद हमने उन तमाम बुराइयों से लड़ाई लड़ी, जिनकी वजह से हम गुलाम
हुए थे. 1952 में जब पहली बार
देश में आम चुनाव हुए थे और देश की आम जनता को वयस्क मताधिकार इस्तेमाल करने का
मौक़ा मिला था, तब इसे ‘इतिहास का सबसे बड़ा जुआ’ करार दिया गया था. लोगों को भरोसा
ही नहीं था कि भारत जैसे देश में इस तरह की कवायद कामयाब हो सकती है. किसी भी
नव-स्वतंत्र देश में ऐसी परिपक्वता नहीं देखी गयी थी. लेकिन वही चुनाव भारतीय
लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद साबित हुआ. तब से अब तक 15 आम चुनाव हो चुके हैं, राज्यों में, शहरों में, स्थानीय
निकायों, पंचायतों के सैकड़ों चुनाव हो चुके हैं, और हमारा लोकतंत्र तमाम झंझावातों
से जूझते हुए आगे बढ़ता ही जा रहा है. हमारे आस-पास लगभग 100 देश आज़ाद हुए थे,
उनमें से चीन, दक्षिण कोरिया और इजराइल को छोड़ दें तो बाक़ी के देश लोकतांत्रिक दृष्टि
से हमसे बहुत पीछे हैं. ज्यादातर देश आपस में ही लड़-झगड कर मर-खप रहे हैं. पाकिस्तान,
म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश का हाल तो हम जानते ही हैं, अफ्रीकी देशों का
हाल भी किसी से छिपा नहीं है. लेकिन भारत लगातार आगे बढ़ रहा है. दुनिया में यह
कहने वाले विचारक कम नहीं हैं, जिनका मानना है कि यह सदी भारत की होगी. हमारी तमाम
बुराइयों के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को अपने देश के युवाओं से कहना पड़ता
है कि जाग जाओ, वरना बंगलूर आ जाएगा.
यह ठीक है कि हम कई मामलों में दुनिया के उन्नत देशों से बहुत पीछे हैं.
हमारे यहाँ अमीरी-गरीबी की खाई काफी चौड़ी है, हमारे यहाँ आज भी बीस करोड लोगों के
पास दिन भर में खर्च करने को बीस रुपये भी नहीं होते, अनपढों और पढ़े-लिखे अनपढों
की तादात बढ़ती ही जा रही है, गाँव और शहर के बीच एक चौड़ी खाई है, जो न गांवों का
विकास होने दे रही है और न ही शहरों को नियोजित होने दे रही. संसाधनों के वितरण
में बहुत घालमेल हैं, लेकिन फिर भी देश बिना किसी खास बाधा के आगे बढ़ रहा है. एक
तरफ अमर्त्य सेन कहते हैं, इस देश में एक साथ दो धाराएं दिखाई देती हैं. एक वे लोग
हैं, जिनकी जीवन शैली कैलीफोर्निया के लोगों को भी मात दे दे. वहीं ऐसे लोग भी
हैं, जो अफ्रीकी सब-सहारा के लोगों से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं. तो दूसरी
तरफ ऐसे भी विचारक ( राम चंद्र गुहा) भी हैं, जो कहते हैं कि औद्योगीकरण के
शुरुआती दौर में अक्सर विषमताएं आ ही जाती हैं. लेकिन जैसे-जैसे लोगों में
जागरूकता आती जाती हैं, इस तरह की विषमता दूर होती जाती है. ब्रिटेन और अमेरिका भी
इस दौर से गुजर चुके हैं.
देखिए, गणतंत्र किसी एक की बपौती नहीं होती. यदि वह गण का तंत्र है तो
उसे संभाल कर रखना भी गण का ही काम है. सरकारें तो आती-जाती रहती हैं. यदि गण ढाल
बनकर खड़ा हो जाए तो ऐसे गणतंत्र को कोई ताकत पराजित नहीं कर सकती. महर्षि अरविन्द ने
कहा था कि ‘भारत को खतरा बाहर से नहीं अपने भीतर से है.’ इस भीतरी खतरे के ही कारण
हम गुलाम हुए और इसी वजह से हम आज बांछित रफ़्तार से तरक्की नहीं कर पा रहे हैं. दरअसल
गुलामी ने हमारी सोच को इतना कुंद बना दिया है कि हम हर कदम पर पर-निर्भर हो गए.
अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में फैसले लेने में भी हमें संकोच होता है और हम
पश्चिम की ओर देखते हैं. हमारा ज्ञान, हमारा विज्ञान तब तक पुष्ट नहीं होता जब तक
कि पश्चिम की मोहर नहीं लग जाती. इसके लिए कौन दोषी है? हमारे पड़ोस में आतंकवादी
रहता है, हम पुलिस को नहीं बताते, हमारे सामने कोई दुर्घटना होती है, हम मदद के
लिए आगे नहीं आते. हम भ्रष्टाचार से आहत रहते हैं लेकिन खुद की सुविधा के लिए
रिश्वत देने में संकोच नहीं करते. हमने भ्रष्टाचार का जनतंत्रीकरण कर दिया है.
गुलामी ने हमें हर काम के लिए परमुखापेक्षी बना दिया है. पहले हम अपने गाँव का
रास्ता खुद बना लिया करते थे, अब उसके लिए सरकारी योजना की बात जोहते रहते हैं. हम
अपने राजनेताओं को कोसते रहते हैं लेकिन मतदान के वक्त हमारे विवेक पर पर्दा पड़
जाता है और हमें अपनी जाति-बिरादरी, धर्म और जान-पहचान वाले में ही सब गुण नज़र आते
हैं. यानी जो कुछ इस गणतंत्र में स्याह है, उसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं. सच
बात यह है कि हमें अभी स्वायत्त गण की तरह व्यवहार करना ही नहीं आया है. गणतंत्र
ने हमें स्वाभिमान का दर्जा दिया है. इस गणतंत्र पर हम आत्मालोचन करें कि कि हमने
इसे क्या दिया? परमुखापेक्षी होना स्वाभिमान का लक्षण नहीं है. इस गणतंत्र पर हम
सचमुच स्वाभिमानी बनें, यही कामना है. ( दैनिक जागरण, २० जनवरी, २०१३ से साभार)