शिक्षा/ गोविंद सिंह
वर्ष 2012 में भारतीय
शिक्षा का फलक विस्तृत हुआ है, लेकिन उसकी गुणवत्ता में कोई
सुधार नहीं दिखाई देता। देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 450 से बढ़ कर 612 हो गई है। कालेजों की संख्या भी 33
हजार को पार कर गई है। लेकिन विश्व स्तर पर हुए सर्वे में इस साल एक
भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान 200 के भीतर जगह नहीं
बना पाया। हाल तक 2-4 संस्थान इसमें जगह बना लेते थे।
संयुक्त राष्ट्र की विश्व शिक्षा सूची में शामिल कुल 181 देशों
में भारत का स्थान 150वें करीब है। एक और अंतरराष्ट्रीय
संस्था आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने कहा है कि 2015 तक भारत में स्नातकों की संख्या अमेरिका से ज्यादा हो जाएगी और चीन के बाद
वह दूसरे नंबर पर आ जाएगा। हमारी आबादी चीन के बाद सबसे ज्यादा है तो हमारे
ग्रेजुएट भी ज्यादा होंगे। लेकिन इसी संस्था का सर्वे आगे कहता है कि गुणवत्ता के
लिहाज से हम 73 देशों में 72वें स्थान
पर हैं।
खाली पदों का चक्रव्यूह मैकिन्से का
हाल का एक अध्ययन कहता है कि भारत के 10 कला स्नातकों और चार
इंजीनियरिंग स्नातकों में से एक-एक ही नौकरी के लायक हैं। ऐसी 'निर्गुण' शिक्षा का क्या फायदा? जहां तक विस्तार का सवाल है, वह तो होना ही है। आज
भी हमारे देश में स्कूलों में दाखिले का अनुपात 78 प्रतिशत
ही है। उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते यह 13 प्रतिशत रह
जाता है। अमेरिका का उच्च शिक्षा में दाखिले का अनुपात ही 83 फीसदी है। इससे जाहिर होता है कि गुणवत्ता तो दूर, हम
अभी दाखिले के स्तर पर ही बहुत पीछे हैं। हमारी सरकारों की प्राथमिकता सूची में
शिक्षा कहीं है ही नहीं। केंद्र में तो फिर भी शिक्षा की बात करने वाले मिल जाते
हैं, राज्यों की राजनीति का तो मिजाज ही बदल गया है। वहां
शिक्षा का कभी कोई जिक्र तक नहीं करता। देश में 13 लाख स्कूली
अध्यापकों के पद खाली हैं। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में 40
फीसदी पद रिक्त हैं। सर्व शिक्षा अभियान जैसे महत्वाकांक्षी
कार्यक्रम में भी सात लाख अध्यापकों का टोटा है।
एजुकेशनल इमर्जेंसी उच्च शिक्षा
संस्थानों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाली संस्था नैक का कहना है कि 90
फीसदी कालेज और 70 फीसदी विश्वविद्यालय औसत
दर्जे से नीचे हैं। व्यावसायिक संस्थानों का नियमन करने वाली संस्था एआईसीटीई के
मुताबिक़ 90 प्रतिशत कालेज उसके मानकों का पालन नहीं करते।
इसीलिए हमारे नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था
आपात स्थिति में है। ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा को कहना पड़ता है कि
हमारे विश्वविद्यालय 19वीं सदी के माइंड सेट में जी रहे हैं।
अमर्त्य सेन को विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के लिए
कुलाधिपति बनाया गया। इस बात को पांच साल होने को आए, लेकिन
इस साल भी वह शुरू नहीं हो पाया। यहां की लाल फीताशाही से वे आजिज आ चुके हैं।
मनमोहन सरकार के पिछले कार्यकाल में उच्च शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालयों के
प्रवेश का बड़ा शोर था। लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक इस साल भी पास नहीं हो पाया।
असल बात यह है कि यहां आने में किसी महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय की दिलचस्पी भी नहीं
रह गई है।
अभी तक महज छह विदेशी विश्वविद्यालय थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी के साथ
भारत में हैं। हार्वर्ड ने मुंबई में भारतीय उद्यम में एक कोर्स चलाने की घोषणा की
थी लेकिन अभी तक उसका खाका सामने नहीं आया है। शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी निवेश
का लक्ष्य 30 फीसदी है, लेकिन अभी तक
यह सिर्फ 15 प्रतिशत पर अटका हुआ है। दो लाख से अधिक
विद्यार्थी हर साल पढ़ने के लिए विदेश चले जाते हैं और हर साल सात अरब डॉलर पानी
में बहा देते हैं। उन्हें अपने देश के किसी विश्वविद्यालय पर भरोसा क्यों नहीं
होता? यहां कालेज की दहलीज पर पैर रखने वाले छात्रों की
सालाना तादाद साढ़े चार करोड़ है। ज्ञान आयोग कहता है कि 2020 तक 800 विश्वविद्यालय और होने चाहिए। क्योंकि तभी हम
उच्च शिक्षा में 30 फीसदी दाखिले तक पहुच पाएंगे। यह अकेले
सरकार के वश की बात नहीं है। जो स्वदेशी निजी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं, उनका स्तर बहुत नीचे है, और विदेशी विश्वविद्यालय
दृश्य से गायब हैं। यानी 2012 में भी हमारी शिक्षा का
परिदृश्य कोई ऐसा संकेत नहीं दे गया, जिससे हम कह सकें कि अब
हम बाकी दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल सकते हैं। हम तो आज थाईलैंड, सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, कोरिया
से भी बहुत पीछे हैं। आखिर ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हम
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन उन्हें धरातल पर उतारने में
हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती।
डिजिटल रेवॉल्यूशन फिर भी कुछ चीजें
हैं जो आशा जगाती हैं। जाते-जाते यह साल आकाश टैबलेट का सुधरा हुआ संस्करण दे गया,
जो छात्रों को 1800 रुपए का पडे़गा। इससे
शिक्षा के क्षेत्र में एक डिजिटल क्रांति आने की उम्मीद है। राष्ट्रीय शिक्षा मिशन
के तहत देश के 25 हजार कॉलेजों और 419 विश्वविद्यालयों
को सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये आपस में जोड़ने की शुरुआत हो चुकी है। आपस में
जुड़कर ये संस्थान पढ़ाई की सामग्री साझा कर सकते हैं। भारतीय शिक्षा में अभी तक
आईसीटी का खास इस्तेमाल नहीं हो पाया है। लेकिन यदि यह हो गया तो दूसरे और तीसरे
दर्जे के शहरों के विद्यार्थी इससे बहुत लाभान्वित हो सकेंगे। नए वर्ष में एक बात
यह अच्छी हो रही है कि तमाम इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी संस्थानों की एक ही प्रवेश
परीक्षा होने जा रही है, जिसमें 12 वीं
के अंकों का भी महत्व रहेगा। इससे कोचिंग संस्थानों का दबदबा शायद कुछ कम हो। सुप्रीम
कोर्ट की हरी झंडी मिल जाने के बाद शिक्षा के अधिकार को भी अब शायद पूरी तरह लागू
किया जा सके। नए आर्थिक माहौल में हमारी शिक्षा व्यवस्था भी नई उड़ान भरना चाहती
है। इसके लिए निजीकरण जरूरी है, लेकिन ध्यान रखना होगा कि
निजी संस्थान कहीं डिग्री बांटने की दुकान बन कर न रह जाएं। (नवभारत टाइम्स | Dec 27, 2012 से साभार )