मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

केजरीवाल की कंटीली राह

राजनीति/ गोविंद सिंह  
अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के राजनीति में उतरने के फैसले को किसी गुनाह की तरह से नहीं, एक जनांदोलन की स्वाभाविक परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए। यह घोषणा ऐसे समय में हुई है, जब भारत की जनता पारंपरिक राजनीति से आजिज आ चुकी है और शिद्दत से विकल्प की जरूरत महसूस कर रही है। हमारा संसदीय लोकतंत्र असहाय अवस्था में पड़ा हुआ है। वह लंगोटिया पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म का पोषक भर बनकर रह गया है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल का ऐलान ताजा हवा के झोंके की तरह है। राजधानी दिल्ली में निजी वितरण कंपनियों द्वारा रातोंरात बिजली की दरें बढ़ाए जाने के खिलाफ जिस तरह से उन्होंने उग्र आंदोलन छेड़ रखा है, उससे यह एहसास मजबूत ही होता है। इसीलिए उन्हें देख कर अन्य दलों के पैर तले की जमीन खिसकती नजर आ रही है।
नई पीढ़ी का आंदोलन
आजादी के बाद से ही हम सुनते आए हैं कि राजनीति में अच्छे लोगों को आना चाहिए। पर सचाई यह है कि अच्छे लोग राजनीति से दूर छिटकते गए हैं। नतीजा यह हुआ कि हमारी राजनीति वंशवाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार की बंधक बनकर रह गई है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के भीतर ये अवगुण जरूरी बुराइयों की तरह पसर गए हैं। टीएन शेषन की तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव प्रक्रिया इतनी खर्चीली है कि अकूत धन के बिना कोई ईमानदार व्यक्ति चुनाव जीतने की कल्पना ही नहीं कर सकता। पिछले साल अन्ना आंदोलन शुरू हुआ, तो उसमें बड़ी संख्या में उन युवाओं ने शिरकत की, जो देश में परिवर्तन चाहते थे। वे किसी पार्टी या विचार को नहीं पहचानते थे। सिर्फ देश को वर्तमान बदहाली से बाहर निकालना चाहते थे। वे एक ऐसे विकल्प का सपना देख रहे थे, जो देश को सुरक्षित भविष्य की गारंटी देता हो। इस फेसबुक पीढ़ी को अनायास ही जैसे आशा की एक किरण नजर आने लगी थी।
अन्ना की दुविधा
यह ठीक है कि अन्ना आंदोलन इस जन सैलाब को इकट्ठा नहीं रख पाया। यह आंदोलन कोई काडर, राजनीतिक दल या संगठन तो था नहीं। यह तो भावनाओं का स्वत:स्फूर्त उद्रेक था। लेकिन इससे यह साबित होता है कि देश में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत अंतर्धारा बह रही है। अरविंद केजरीवाल ने इस अंतर्धारा को बखूबी पहचाना है। बदलावकामी नई पीढ़ी को राजनीतिक ताकत में बदल पाना अरविंद केजरीवाल के लिए अत्यंत दुष्कर होगा, लेकिन यह प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जहां तक अन्ना का सवाल है, उनकी स्थिति गांधी की तरह है। वे दलगत राजनीति में शामिल नहीं हो सकते थे। वे बदलाव की बात तो करते थे लेकिन सत्ता सौंपने के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं था। कांग्रेस की बुराई करते हैं तो उन पर भाजपाई होने का ठप्पा लगता है, भाजपा की बुराई करते हैं तो वामपंथी होने का। इसलिए केजरीवाल अन्ना आंदोलन के सिद्धांतों को व्यावहारिक अंजाम दे रहे हैं। 
हमें नहीं मालूम कि केजरीवाल कहां तक अपने उसूलों पर टिके रह पाते हैं , लेकिन उनकी यह पहल गलत नहीं है। केजरीवाल की खूबी यह है कि वे संपूर्ण विकल्प का खाका पेश कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के बाद यह पहला मौका है जब कोई आमूल परिवर्तन की बात कर रहा है। पिछले दिनों आई उनकी किताब ' स्वराज ' को पढ़ते हुए लगा कि हमारे राजनेताओं ने जिस तरह से लोकतंत्र को अपने सुविधातंत्र में बदल दिया है , उसको वह उखाड़ फेंकना चाहते हैं और इसके लिए उनके पास पूरी रणनीति है। केजरीवाल के विरोधी उन्हें लोकतंत्र विरोधी कहते हैं , जबकि उनकी किताब बताती है कि वह गांधीगीरी के रास्ते पर हैं। अरविंद केजरीवाल प्रत्यक्षत : जनता का राज चाहते हैं। आज लोकतंत्र में से लोक नदारद है। केजरीवाल कहते हैं कि विकास की योजनाएं ऊपर से थोपी नहीं जाएंगी , वे जरूरत के हिसाब से व्यवस्था के निचले पायदान पर बनेंगी और लागू होंगी। इस तरह सौंदर्यीकरण जैसी बेतुकी योजनाओं पर खर्च नहीं होगा और दलाली भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।
जनता ही तय करेगी कि खर्च कहां और कैसे होगा। ग्राम पंचायतों से लेकर शहरी निकायों तक व्यवस्थापिका से जुड़े कर्मचारी और अफसर जनता के सीधे नियंत्रण में होंगे। आज की तारीख में गांवों की सेवा में नियुक्त व्यक्ति दरअसल गांव वालों पर हुक्म चलाता है। केजरीवाल का सिद्धांत विधानसभा और संसद तक पहुंचकर विधायिका और कार्यपालिका पर नकेल डालने की बात करता है। यानी नेता सदन में वही बात उठाए , जिसे जनता चाहती है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो जनता को राइट टु रिकॉल यानी वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए। वे मतदान में राइट टु रिजेक्ट के पैरोकार हैं। यानी चुनाव में जनता को हक़ होगा कि अगर कोई भी प्रत्याशी उन्हें पसंद हो तो वे सबको नकार सकें।
जनता का फैसला
केजरीवाल की आर्थिक रणनीति का खाका भी जनता के ही इर्द - गिर्द घूमता है। उनका कहना है कि संसद में जो नीतियां बनती हैं , वे जनता से पूछ कर तो बनती नहीं। ही हमारे नेता बहस करने या सवाल पूछने से पहले अपनी जनता से सलाह - मशविरा करते हैं। हाल के वर्षों में जिस तरह से एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण का हिंसक विरोध अलग - अलग सरकारों को झेलना पड़ा , वह इसी नीति का नतीजा था। यदि पहले ही जनता से विचार - विमर्श करके फैसला किया होता तो सिंगूर या भट्टा - पारसौल जैसी घटनाएं घटी होतीं। ऊपर से थोपी गई योजनाएं ( चाहे वे बड़े बांध हों या आदिवासी इलाकों में खनन के ठेके ) बिना जनता की सहमति के लागू नहीं की जा सकेंगी। ये बातें पहले भी कही गई हैं , लेकिन केजरीवाल जिस तरह से आमूल बदलाव के पैरोकार बनकर उभरे हैं , उसमें इन्होंने नया अर्थ ग्रहण किया है। केजरीवाल मध्यवर्ग के लिए नई आशा लेकर आए हैं , हालांकि राजनीति में उनकी सफलता की बात अभी बेमानी होगी।