बौद्धिक जगत/ गोविंद सिंह
भलेही फरीद ज़कारिया को टाइम पत्रिका ने फिर से स्तंभकार की नौकरी पर रख लिया हो, लेकिन इस घटना ने एक बार फिर साहित्यिक चोरी की हमारी राष्ट्रीय बीमारी की तरफ ध्यान आकर्षित किया है. इसमें कोई दो राय नहीं कि फरीद ज़कारिया देश के अत्यंत प्रतिभाशाली और विचारवान लेखक-पत्रकार हैं. अमेरिका जाकर जिस बुलंदी पर वह पहुंचे, वहाँ तक कोई भारतीय पत्रकार नहीं पहुँच पाया. इसीलिए वे जो भी लिखते हैं, उसके शब्द-शब्द पर नज़र रहती है. उनके लिखे से प्रामाणिकता और मौलिकता की अपेक्षा रहती है. लेकिन फरीद ज़कारिया इस कसौटी पर दो बार विफल हो चुके हैं. एक बार २००७ में, जब उन पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने अपनी किताब में २००५ में छपी एक अमेरिकी लेखक की किताब से अंश लेकर छाप दिया था और दूसरी बार अब जब उन्होंने बिना श्रेय दिए अपने कालम में न्यूयाँर्कर पत्रिका में छपे लेख के अंश ले लिए थे. उन्होंने इसे भूल बताकर माफी भी माँगी. खैर पत्रिका की जांच में इसे उतनी बड़ी गलती नहीं माना गया कि उन्हें एक महीने तक निलंबित किया जाता. लिहाजा निलंबन एक हफ्ते में ही वापस हो गया.
भलेही फरीद ज़कारिया को टाइम पत्रिका ने फिर से स्तंभकार की नौकरी पर रख लिया हो, लेकिन इस घटना ने एक बार फिर साहित्यिक चोरी की हमारी राष्ट्रीय बीमारी की तरफ ध्यान आकर्षित किया है. इसमें कोई दो राय नहीं कि फरीद ज़कारिया देश के अत्यंत प्रतिभाशाली और विचारवान लेखक-पत्रकार हैं. अमेरिका जाकर जिस बुलंदी पर वह पहुंचे, वहाँ तक कोई भारतीय पत्रकार नहीं पहुँच पाया. इसीलिए वे जो भी लिखते हैं, उसके शब्द-शब्द पर नज़र रहती है. उनके लिखे से प्रामाणिकता और मौलिकता की अपेक्षा रहती है. लेकिन फरीद ज़कारिया इस कसौटी पर दो बार विफल हो चुके हैं. एक बार २००७ में, जब उन पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने अपनी किताब में २००५ में छपी एक अमेरिकी लेखक की किताब से अंश लेकर छाप दिया था और दूसरी बार अब जब उन्होंने बिना श्रेय दिए अपने कालम में न्यूयाँर्कर पत्रिका में छपे लेख के अंश ले लिए थे. उन्होंने इसे भूल बताकर माफी भी माँगी. खैर पत्रिका की जांच में इसे उतनी बड़ी गलती नहीं माना गया कि उन्हें एक महीने तक निलंबित किया जाता. लिहाजा निलंबन एक हफ्ते में ही वापस हो गया.
लेकिन सवाल यह है कि क्यों इस तरह की साहित्यिक-वैचारिक
चोरी में भारतीय ही सबसे ज्यादा फंसते हैं? इसलिए कि चोरी हमारा राष्ट्र धर्म बन
गया है. फरीद जकारिया तो अमेरिका में थे, इसलिए पकडे गए लेकिन भारत में तो हर रोज
सैकड़ों पन्ने चोरी होते हैं. कोइ चर्चा तक नहीं करता. यहाँ पत्र-पत्रिकाओं में तो
चोरी होती ही है, साहित्य, शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में भी बेतहाशा चोरी होती
है. यहाँ उन्हें ससम्मान ‘टीपू सुलतान’ का दर्जा प्राप्त है, जो एक-दो पैरा नहीं,
पूरे के पूरे अध्याय, पूरी की पूरी थीसिस उड़ा देते हैं, फिर भी उनके चेहरे पर शिकन
तक नहीं आती. दिल्ली-मेरठ में आपको ऐसी गालियाँ मिल जायेंगी जहां आपको बनी-बनायी
थीसिस मिल जाती हैं, शोध पत्र मिल जाते हैं. ऐसे गुरुजन उपलब्ध रहते हैं, जो २०
हज़ार से ५० हजार तक में शिष्य की थीसिस लिख देते हैं. और ऐसे परीक्षक मिल जाते
हैं, जो रिश्वत लेकर डिग्री अवार्ड कर देते हैं.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब प्रधानमंत्री के
वैज्ञानिक सलाहकार सी एन आर राव पर यह आरोप लगा था कि उनके सह-लेखन में प्रकाशित
शोध पत्र में चोरी की सामग्री चस्पां है. २००७ में सीएसआईआर के महानिदेशक माशेलकर ने
स्वीकार किया कि उनके नाम से छपे शोध पत्र में उनके सहयोगी शोधार्थियों ने चोरी के
आंकड़े दिए थे, जिनकी जांच वे समयाभाव में नहीं कर पाए थे. ये तो हाल के तथ्य हैं.
चंडीगढ़ के विश्वजीत गुप्ता, कुमाऊं के बीएस राजपूत, पुणे के गोपाल कुंडू,
वेंकटेश्वर के पी चिरंजीवी जैसे वैज्ञानिकों-विचारकों को नहीं भूले होंगे,
जिन्होंने न सिर्फ वैज्ञानिक शोध में चोरी के तथ्य पेश किये बल्कि पोल न खुलने तक उसकी
वाह-वाही भी लूटी. वैज्ञानिक चोरी के मामले तो फिर भी प्रकाश में आ जाते हैं,
साहित्य और अन्य समाज विज्ञानों से सम्बंधित चोरियां अब हमारी शिक्षा का अभिन्न
हिस्सा हैं.
इन दिनों अपने देश में साहित्यिक चोरी का व्यापार
इतना फल-फूल रहा है कि दुनिया का शायद ही कोई देश हमारा मुकाबला कर पाए. कपिल
सिब्बल ने क्या कह दिया कि हम पीएच डी में चीन से पीछे हैं, तो धडाधड पी एच डी अवार्ड
होने लगी. जो डिग्री हमने लगभग मुफ्त में प्राप्त की अब निजी विश्वविद्यालय उसके
लाखों रुपये पीट रहे हैं. शोध पत्रिकाओं का बाजार सज गया है. शोध पत्र लेखकों की
दुकानें सज गयी हैं. और खरीदार मुंहमांगी कीमत लिए खड़े हैं. इस देश के चौर्य-अनुसंधान
का इश्वर ही मालिक है. ( हिंदुस्तान, २१ अगस्त को प्रकाशित. साभार)