गुरुवार, 26 जनवरी 2012

बचपन के गणतंत्र दिवस की यादें

आज बहुत वर्षों बाद किसी शिक्षा संस्थान में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने का अवसर मिला. किस तरह आज भी शिक्षक बिरादरी बड़े उत्साह के साथ गणतंत्र दिवस को मनाती है, इसका नजदीक से एहसास हुआ. सचमुच मुझे अपने बचपन के दिन स्मरण हो आये.
बचपन में जिस प्राइमरी पाठशाला में शुरुआती शिक्षा मिली, वहाँ छब्बीस जनवरी बेहद धूमधाम से मनाई जाती थी. हमारा स्कूल एक छप्पर वाले बड़े से कमरे में चलता था. पहली से पांचवीं तक कुल तीस बच्चे थे. सब एक ही कमरे में अलग-अलग पंक्तियों में बैठते थे. गाँव से एक किलोमीटर दूर खेतों और जंगल के बीच यह स्कूल था. हम लोग महीने भर पहले से तैय्यारी करते थे. तरह-तरह के गाने-तराने याद करते थे. ‘इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन-जापान देश.’ ‘जो हमसे टकराएगा, चूर चूर हो जाएगा’, ‘नागाहिल लड़ाई लागी भट्टम भट्टम गोली, सिपाई दाज्यू लड़ना ज्ञान, छाती खोली खोली.’ आदि-आदि. कुछ नारे हिंदी में थे तो कुछ कुमाऊनी में. हम लोग आठ बजे स्कूल में इकट्ठे होते थे और वहाँ से प्रभात फेरी निकालते हुए पूरे गाँव का चक्कर लगाते थे. हर घर से कुछ पैसे बख्शीश के रूप में मिलते थे. फिर एक जगह पर खेल-कूद की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं. दोपहर बाद नदी के उस पार दूसरे स्कूल में इकट्ठे होते थे. उस स्कूल के बच्चों के साथ. और फिर सामूहिक प्रतिस्पर्धाएं हुआ करती थीं. फिर पुरस्कार मिलते थे. पेन्सिल, रबर, कापी, पेन्सिल बॉक्स आदि. जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें गुड़ की डली से संतोष करना पड़ता था. आखीर में गला फाड कर ‘हर्ष हर्ष, जय जय!!’ बोलना पड़ता था. फिर बहुत दिनों तक इसके संस्मरण सुना सुना कर हम लोग समय काटा करते थे. अहा, वे क्या दिन थे!!
गणतंत्र दिवस के प्रति यह उत्साह, जूनिअर हाई स्कूल और हाई स्कूल तक जारी रहा. फिर मैं चंडीगढ़ आ गया कालेज की पढाई के लिए. वहाँ के कालेज इतने बड़े थे कि वहाँ इस तरह के आयोजनों में वैसा अपनत्व नहीं दिखाई देता था. मैं अपने बच्चों के स्कूल-कालेजों में भी देखता हूँ, कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता. शायद समाज में भी गणतंत्र दिवस को लेकर अब वैसा उत्साह नहीं रह गया है. लोग इसे भी एक छुट्टी का दिन मान बैठते हैं. अमेरिकियों की तरह.
पत्रकारिता में आने के बाद मुझे याद नहीं पड़ता कि कहीं किसी संस्थान में कोई आयोजन होता हो. हमारे लिए ऐसे दिवस का मतलब मन में फर्जी जोश जगा कर लेख लिख देना या कुछ लोगों से लेख मंगवा कर छाप देना या कोई सप्प्लीमेंट प्लान कर देना भर रह गया था. कुछ अरसा सरकारी नौकरियों में भी रहा, वहाँ भी झंडा फहराने के अलावा कभी कोई आयोजन नहीं होता था. कोलकाता में जरूर जिस कालोनी में हम रहते थे, वहाँ कुछ आयोजन होता था लेकिन लोग दस बजे की बजाये ११ बजे आयोजन स्थल पर पहुँचते. वैसे कोलकाता की बंगाली बस्तियों में जोर-शोर से छब्बीस जनवरी मनाई जाती थी. कुछ वर्षों से दिल्ली की जिन हाउसिंग सोसाइटियों में मैं रहा हूँ, वहाँ भी झंडारोहण होता है, लेकिन जो बात आज मुझे अपने विश्वविद्यालय में देखने को मिली, वह बीच के तीस वर्षों में नहीं दिखी. शायद इसलिए कि हमारा विश्वविद्यालय अभी नया नया है, और हर किसी के मन में कुछ न कुछ अरमान हैं. देश और समाज के प्रति यह भाव बना रहे, यही कामना है.   

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर निराश करती हवाएं

देश तिरसठवां गणतंत्र दिवस मना रहा है. इधर पूरा उत्तराखंड चुनाव प्रचार के आगोश में है. इस प्रदेश को बने हुए ११ साल हो गए हैं. खूब नारे उछाले जा रहे हैं. एक से बढ़ कर एक वायदे किये जा रहे हैं. लेकिन मतदाता जानता है कि इन ग्यारह वर्षों में वह बार बार छला गया है. चुनाव एक तरह से लोकतंत्र का उत्सव न हो कर छल और धोखा खा जाने का समय बन गया है. क्योंकि उत्तराखंड आंदोलन के वक्त जो सपने बुने गए थे, उन्हें बार बार विखरते देखा है.
कल के अखबार में एक शीर्षक था, अंग्रेजो तुम फिर से लौट आओ. बहुत देर तक इस शीर्षक पर नजरें टिकी रहीं. जिस आम वोटर के कथन पर यह शीर्षक रखा गया था, उसकी मनःस्थिति की कल्पना करता रहा. यह केवल एक व्यक्ति की मनःस्थिति नहीं है. देश में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो ऐसा सोचते हैं. सन चौरानबे में पूरे उत्तराखंड के युवा जब उबल रहे थे, तब वे भी यही सोच रहे थे कि इस उपेक्षा से तो अंग्रेजों का ही शासन बेहतर था. सन २००० में उत्तराखंड बना, तथाकथित रूप से अपने लोग सत्ता में आये, लेकिन सपने फिर भी अधूरे ही रहे. इस बीच लोगों को यह कहते सुना गया कि इस से तो यू पी में ही भले थे. और यह बात वे लोग ज्यादा कहते रहे हैं, जो उत्तराखंड को लेकर सबसे ज्यादा उग्र थे. आज ग्यारह साल बाद फिर आम मतदाता खुद को छला गया महसूस कर रहा है. क्यों? क्योंकि हमारे रहनुमाओं ने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा. एक नए राज्य के निर्माण के लिए जितनी मेहनत, ईमानदारी और दृष्टि की जरूरत थी, क्या वह हमारे नेताओं में है? आज हिमाचल सचमुच हिमाचल बना है तो उसके पीछे यशवंत परमार की १५ साल की अथक मेहनत और ईमानदार प्रशासन है.  
लोग यों ही नहीं फेंकते नेताओं पर जूते-चप्पल. आप भले ही उन्हें पागल कह दें, लेकिन वे भी हमारे ही सामूहिक मनोविज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं. विखरे लोगों के भाव जब घनीभूत होकर किसी एक कमजोर व्यक्ति के मन में उतरते हैं, तब इस तरह की घटनाएं बढ़ती हैं. यह गुस्सा अलग अलग रूपों और लोगों पर उतरता है. आज पूरे देश में ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं तो इसीलिए कि हमारे राजनेताओं के प्रति जनता के मन में नफरत घर कर गयी है. कहीं न कहीं तो उसका विस्फोट होना ही है. राजनीति में अब विचारों की कोई जगह नहीं रह गयी है. जो पार्टियां पहले विचारों की राजनीति किया करती थीं, वे भी अब दूकान लगाए बैठी हैं. सचमुच अब राजनीति एक वेश्या की तरह हो गयी है. कहा जा सकता है कि उत्तराखंड भी देश के भीतर ही है. उसकी राजनीति यूपी की राजनीति से कैसे भिन्न हो सकती है? जी हाँ, भिन्न नहीं हो सकती है, लेकिन भिन्न होने की कोशिश तो कर सकती है. क्या पिछले ११ वर्षों में हमारे नेताओं ने राज्य की हालत उत्तर प्रदेश से भी बदतर नहीं कर दी है! इसके लिए हम सब दोषी हैं. चुनाव एक मौका जरूर है, अच्छे लोग चुनने का, लेकिन पता नहीं क्यों, कहीं से भी आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती.  
    

बुधवार, 18 जनवरी 2012

अच्‍छे लोगों को लाइए, राजनीति बचाइए

गोविंद सिंह
मजबूत लोकपाल के लिए अन्‍ना हजारे के संघर्ष से एक बात जाहिर हो गई है कि आने वाले दिनों की राजनीति अब वैसी नहीं रहने वाली है, जैसी कि वह आज है। इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया है कि भारत की जनता भ्रष्‍टाचार से आजिज आ चुकी है और वह बहुत दिनों तक इसे बरदाश्‍त  नहीं करेगी। उसने यह मान लिया है कि राजनीति ही भ्रष्‍टाचार की गंगोत्री है। इसलिए राजनीति के इस चेहरे को बदलना ही होगा। आज नहीं तो कल। ये अन्‍ना नहीं तो कोई और अन्‍ना। भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध अब भारत जाग उठा है। लोकपाल सिर्फ एक चिंगारी भर है। बन भी गया तो वह सिर्फ एक प्रतीक ही होगा, भ्रष्‍टाचार के खिलाफ असली लड़ाई अभी बाकी है।
इसलिए राजनीतिक दलों को अभी से संभल जाना चाहिए। ठीक उसी तरह, जैसे मिस्र और टयूनीशिया के हालात देख अन्‍य अरब देशों के शासक अचानक से जन हितैषी घोषणाएं करने लगे हैं। क्‍योंकि उन्‍होंने देख लिया है कि यदि वे नहीं बदले तो जनता उन्‍हें बदल देगी। ऐसा ही नब्‍बे के दशक में साम्‍यवादी विश्‍व में भी हुआ था। सोवियत संघ की उथल-पुथल देख कर अन्‍य साम्‍यवादी देश भी धड़ाधड़ अपना चोला बदलने लगे। यहां तक कि चीन ने साम्‍यवादी चोले के भीतर से ही अपनी जड़ों को पूंजीवादी खुराक देनी शुरू कर दी। भारत के सत्‍ताधारी और सत्‍ताकांक्षी दलों को भी जनता के मूड को भांपना चाहिए कि वे लोकतंत्र की इस आंधी में खुद को कैसे बचाए रख सकते हैं। इसमें किसी एक दल के सुधरने की बात नहीं है। लगभग हर दल को बदलना है, सुधरना है। क्‍योंकि अपने देश में लोकतंत्र का जो स्‍वरूप आज है, उसके लिए कमोबेश हर दल बराबर का भागीदार है। हां, सुधार की दिशा में जरूरी कदम उठाने में सत्‍तारूढ़ होने के नाते कांग्रेस की जिम्‍मेदारी कुछ ज्‍यादा है। इसलिए यदि वह मजबूत और कारगर लोकपाल कानून बना लेती तो उसका श्रेय  उसे मिलता। लेकिन लगता है अभी कांग्रेस पार्टी की आंखें नहीं खुलीं। और वह अब भी इसे टीम अन्‍ना की मांग समझ रही है, इसलिए उसके साथ आंख मिचौली खेल रही है।
हम सबको यह समझ लेना चाहिए कि भ्रष्‍टाचार इस देश की सबसे गंभीर समस्‍या है। और उसे इस देश के राष्‍ट्रीय चरित्र से नत्‍थी करने में राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका रही है। आज यदि हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं तो उसके मूल में भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक अक्षमता ही है। यदि राजनीति संकल्‍पवान हो तो भ्रष्‍टाचार पर नकेल कसी जा सकती है। एक बार यदि समाज भ्रष्‍टाचारमुक्‍त हो जाए तो लोकतंत्र को फलने-फूलने से कोई रोक नहीं सकेगा। तो सवाल यह है कि राजनीति सुधरे तो कैसे सुधरे। इसे सुधारने की एक कोशिश टीएन शेषन ने की थी, चुनाव प्रक्रिया को कड़ाई से लागू कर के। लेकिन वह प्रक्रिया अभी अधूरी है। क्‍योंकि उसके आगे के चुनाव सुधार लागू नहीं हो पाए हैं। यदि चुनाव सुधारों को ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो कुछ हद तक राजनीति की बीमारियों को दूर किया जा सकता है। लेकिन राजनीति में वास्‍तविक सुधार राजनीतिक दलों के अंदर से शुरू होगा। इसके लिए उन्‍हें अपने भीतर इच्‍छाशक्ति जगानी होगी। उन्‍हें अपने भीतर आमूल परिवर्तन के लिए न सिर्फ तैयार रहना होगा, बल्कि उसके लिए अभी से पहल भी शुरू कर देनी होगी।
देश के पांच राज्‍यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मणिपुर और गोवा को छोड़ भी दिया जाए तो उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड और पंजाब हमारे लिए काफी अहम हैं। उम्‍मीदवारों का चयन चल रहा है। लेकिन अभी तक कहीं से भी ऐसा नहीं दिख रहा है कि राजनीतिक दलों में आमूल बदलाव की कोई चाह है। इसका पता इसी से चल जाता है कि वे किन लोगों को टिकट दे रहे हैं। यही समय था, जब राजनीतिक दल स्‍वच्‍छ छवि के लोगों को उम्‍मीदवार बनाकर बदलाव की पहल कर सकते थे। लेकिन अभी वे पुराने फारमूले पर ही चल रहे हैं।
पिछले छह दशकों में हमने देखा कि किस तरह से राजनीति से पढ़े-लिखे और ईमानदार लोग दूर छिटकते गए। आजादी से पहले बड़ी संख्‍या में वकील, शिक्षक और पत्रकार राजनीति में आते थे। गांधी जी स्‍वयं एक बड़े पत्रकार थे। धीरे धीरे दूसरे पेशों के लोग भी राजनीति में आने लगे। फिर राजनीति ही एक पेशा बनने लगा। लोग कॉलेज-विश्‍वविदयालय कैंपस से, ग्राम पंचायत-ब्‍लॉक और जिला परिषद होते हुए विधान सभा और संसद पहुंचने लगे। बीच-बीच में हुए आंदोलनों के जरिये भी लोग विभिन्‍न पेशों से राजनीति में आए। मसलन अयोध्‍या आंदोलन के दिनों भाजपा में बड़ी संख्‍या में सेवानिवृत्त ब्‍यूरोक्रेट और फौजी अफसर शामिल हुए। फिर एक दौर ऐसा भी आया, जब आपराधिक पृष्‍ठभूमि के लोग बड़ी संख्‍या में चुनाव जीतकर संसद पहुंचने लगे। किन्‍नर कहे जाने वाले उभयलिंगी लोगों को भी जनता ने वोट देकर विधान सभाओं में भेजा। जनता ने ऐसे निर्णय इसलिए लिए क्‍योंकि पारंपरिक तौर पर राजनीति करने वाले लोग उनकी उम्‍मीदों पर खरे नहीं उतर रहे थे। ऐसे लोगों को चुन कर जनता ने पेशेवर राजनेताओं के प्रति अपने गुस्‍से का ही इजहार किया। दस साल पहले उत्‍तराखंड में एक अद्भुत किस्‍सा हुआ। गगन सिंह रजवार नाम के एक ऐसे अल्‍पशिक्षित वनराजी युवक को चुन कर विधान सभा में भेजा गया, जिसकी जनजाति के लोगों की संख्‍या महज कुछ सौ में थी, और जो आज भी जंगलों में ही रहना पसंद करते हैं। यानी राजनेता नहीं सुधरेंगे तो जनता विरोध में कुछ भी कदम उठा सकती है। लेकिन ये कदम हमारी राजनीति के लिए कोई स्‍वस्‍थ लक्षण नहीं हैं। इसलिए यही वक्‍त है, जब राजनीतिक दलों को ईमानदार और योग्‍य लोगों को आगे लाना चाहिए। 
लोकसभा में तो फिर भी कुछ पढ़े-लिखे लोग पहुंच जाते हैं, विधान सभाओं का हाल वाकई बुरा है। हाल के वर्षों में जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग विधान सभाओं से गायब ही हो गए हैं। बड़ी संख्‍या में बिल्‍डर, प्रॉपर्टी डीलर और ठेकेदार लोग राजनीति में आ गए हैं। बल्कि हर राजनीतिक दल को उन्‍होंने अपनी गिरफत में ले लिया है। राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा का कोई अर्थ नहीं रह गया है। विधान सभाओं में पहुंच कर वे क्‍या फैसले करेंगे और क्‍या नीतियां और कार्यक्रम बनाएंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारा कहना यह नहीं है कि हर ठेकेदार बेईमान ही होता है, हमारा आशय उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करना है, जो हमारी राजनीति को अंदर से खोखला कर रही है। इसी प्रवृत्ति के विरुद्ध जनता जाग रही है। राजनीति के पुराने और जर्जर मॉडल को वह उखाड़ फेंकना चाहती है। काश, हमारे राजनीतिक दल इसे समय रहते भांप पाते।  
अमर उजाला, १३ जनवरी २०१२ से साभार.

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

कौन समझेगा गौला नदी का दर्द


हल्द्वानी पहुँचने से पहले गौला 
हल्द्वानी पहुँच कर गौला अस्तित्वहीन सी लगने लगती है. हम हल्द्वानी वासी बस, इसे रेता-बजरी की खान से अधिक कुछ नहीं समझते. रेत, बजरी, रोड़ियों और पत्थरों से भरा इसका विशाल पाट हमारे मनों में कोई भावना नहीं जगाता. क्योंकि नदी तो बस एक पतली सी जलधारा रह जाती है. इसकी छाती पर सवार सैकड़ों ट्रक और डम्पर इसके अक्षय उदर से रेत और बजरी निकालते ही रहते हैं. और पूरे भाबर और कुमाओं के अन्य शहरों की जरूरतें पूरी करते हैं. सोचता हूँ जहां ऐसी रेत दायिनी नदियाँ नहीं होती होंगी, वहाँ के लोग घर कैसे बनाते होंगे?
खैर, पिछले दिनों हैडाखान आश्रम देखने का मन हुआ तो गौला नदी का एक और ही रूप सामने आया. वहाँ नदी के पार नवदुर्गा मंदिर के पुजारी जी से अच्छी जान-पहचान हो गयी तो उन्होंने गौला का भी महात्म्य सुनाया. उन्होंने बताया कि किस तरह यहाँ इसको गौला की बजाय गौतमी गंगा के नाम से जाना जाता है. इसका पानी भी उतना ही पवित्र है, जितना गंगा का. उन्होंने हमें एक बोतल में भर कर गौतमी गंगा का पानी दिया. हैडाखान में सचमुच गौतमी गंगा का पानी बेहद साफ़ है. कल कल छल छल करता एकदम पारदर्शी पानी. छोटी-बड़ी मछलियाँ अठखेलियाँ करती हुईं. इसका यह रूप देख कर लगता ही नहीं कि यही नदी हल्द्वानी पहुँच कर इतनी असहाय होकर रह जाती है. एकदम निष्प्राण. जैसे बंगाल के घरों में सूखी मछलियाँ बास मारती हुई दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही दशा गौला की हल्द्वानी और उसके नीचे के इलाकों में हो जाती है.
२००८ में जब गौला का पुल महज ८ साल में टूट गया 
गौला नदी का उद्गम भीडापानी, मोरनौला- शहर फाटक की ऊंची पर्वतमाला के जलस्रोतों से होता है. उसके बाद भीमताल, सात ताल की पहाडियों से आने वाली छोटी नदियों के मिलने से यह हैड़ाखान तक काफी बड़ी नदी बन जाती है. बाद में रानीबाग, काठगोदाम, हल्द्वानी होते हुए यह बरेली के पास रामगंगा में मिल जाती है. इस बीच यह नदी करीब ५०० किलोमीटर की यात्रा तय करती है. काठगोदाम पहुँचने पर इसके दोहन की प्रक्रिया शुरू होती है. वहाँ बने जमरानी बाँध से न केवल पूरे भाबर क्षेत्र के खेतों में सिचाई होती है, अपितु हल्द्वानी के तीन-चार लाख लोगों की प्यास भी बुझती है. लेकिन सचमुच हमारे हुक्मरान, हमारे नौकरशाह और हम लोग इसके महत्व को नहीं समझ रहे  हैं. यदि समझते होते तो गौला के गर्भ से इस कदर खनन करने की इजाजत नहीं देते. तीन साल पहले हल्द्वानी और गौलापार क्षेत्र को जोड़ने वाला पुल आठ साल की उम्र में ही बाढ़ की मार को नहीं झेल पाया और धराशायी हो गया. जांच के बाद पाया कि लोगों ने नदी को इतना खोद डाला कि पुल के खम्भे बरसाती बहाव को सहन नहीं कर पाए. तीन साल बाद अब फिर से पुल बन कर तैयार होने को है, लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा. सुप्रीम कोर्ट की नज़र में अवैध खनन अब भी जारी है, शायद और भी ज्यादा रफ़्तार से.
पुराने लोग कहते हैं कि दो-तीन दशक पहले तक भी गौला की यह हालत नहीं थी. बाँध तब भी था. लेकिन पानी भी भरपूर था. गौला खेतों के साथ ही लोगों की प्यास भी बुझाती थी. कुछ वनों के कटाव से, कुछ अतिशय विकास से और कुछ अवैध खनन से आज गौला जैसे अंतिम साँसें ले रही है. वह नहीं रहेगी तो हम नहीं रहेंगे. फिर भी वह कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बनती, क्यों?