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हल्द्वानी पहुँचने से पहले गौला |
खैर, पिछले दिनों हैडाखान आश्रम देखने का
मन हुआ तो गौला नदी का एक और ही रूप सामने आया. वहाँ नदी के पार नवदुर्गा मंदिर के
पुजारी जी से अच्छी जान-पहचान हो गयी तो उन्होंने गौला का भी महात्म्य सुनाया.
उन्होंने बताया कि किस तरह यहाँ इसको गौला की बजाय गौतमी गंगा के नाम से जाना जाता
है. इसका पानी भी उतना ही पवित्र है, जितना गंगा का. उन्होंने हमें एक बोतल में भर
कर गौतमी गंगा का पानी दिया. हैडाखान में सचमुच गौतमी गंगा का पानी बेहद साफ़ है.
कल कल छल छल करता एकदम पारदर्शी पानी. छोटी-बड़ी मछलियाँ अठखेलियाँ करती हुईं. इसका
यह रूप देख कर लगता ही नहीं कि यही नदी हल्द्वानी पहुँच कर इतनी असहाय होकर रह
जाती है. एकदम निष्प्राण. जैसे बंगाल के घरों में सूखी मछलियाँ बास मारती हुई
दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही दशा गौला की हल्द्वानी और उसके नीचे के इलाकों में हो
जाती है.
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२००८ में जब गौला का पुल महज ८ साल में टूट गया |
गौला नदी का उद्गम भीडापानी, मोरनौला- शहर
फाटक की ऊंची पर्वतमाला के जलस्रोतों से होता है. उसके बाद भीमताल, सात ताल की
पहाडियों से आने वाली छोटी नदियों के मिलने से यह हैड़ाखान तक काफी बड़ी नदी बन जाती
है. बाद में रानीबाग, काठगोदाम, हल्द्वानी होते हुए यह बरेली के पास रामगंगा में
मिल जाती है. इस बीच यह नदी करीब ५०० किलोमीटर की यात्रा तय करती है. काठगोदाम
पहुँचने पर इसके दोहन की प्रक्रिया शुरू होती है. वहाँ बने जमरानी बाँध से न केवल
पूरे भाबर क्षेत्र के खेतों में सिचाई होती है, अपितु हल्द्वानी के तीन-चार लाख
लोगों की प्यास भी बुझती है. लेकिन सचमुच हमारे हुक्मरान, हमारे नौकरशाह और हम लोग
इसके महत्व को नहीं समझ रहे हैं. यदि
समझते होते तो गौला के गर्भ से इस कदर खनन करने की इजाजत नहीं देते. तीन साल पहले
हल्द्वानी और गौलापार क्षेत्र को जोड़ने वाला पुल आठ साल की उम्र में ही बाढ़ की मार
को नहीं झेल पाया और धराशायी हो गया. जांच के बाद पाया कि लोगों ने नदी को इतना
खोद डाला कि पुल के खम्भे बरसाती बहाव को सहन नहीं कर पाए. तीन साल बाद अब फिर से
पुल बन कर तैयार होने को है, लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा. सुप्रीम कोर्ट की नज़र
में अवैध खनन अब भी जारी है, शायद और भी ज्यादा रफ़्तार से.
पुराने लोग कहते हैं कि दो-तीन दशक पहले
तक भी गौला की यह हालत नहीं थी. बाँध तब भी था. लेकिन पानी भी भरपूर था. गौला
खेतों के साथ ही लोगों की प्यास भी बुझाती थी. कुछ वनों के कटाव से, कुछ अतिशय
विकास से और कुछ अवैध खनन से आज गौला जैसे अंतिम साँसें ले रही है. वह नहीं रहेगी
तो हम नहीं रहेंगे. फिर भी वह कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बनती, क्यों?