गुरुवार, 23 जुलाई 2015

हिंदी के विस्तार को व्यवस्था दीजिए

भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
क्या आप जानते हैं कि हिंदी की झोली में कितने शब्द हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हम भी नहीं जानते थे। जानें भी कैसे? कौन बताए? भला हो ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर का, जिसने गत वर्ष अपनी सालाना रिपोर्ट में यह बताया था कि हिंदी में महज एक लाख 20 हजार शब्द हैं। जबकि तभी अंग्रेजी ने 10 लाखवां शब्द अपने शब्द भंडार में शामिल करने की घोषणा की थी। है ना आश्चर्य की बात? दुनिया में जितनी बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है, लगभग उतनी ही अंग्रेजी बोलने वालों की भी होगी। यह ठीक है कि अंगे्रजी का फैलाव बहुत ज्यादा रहा है, दुनिया के लगभग हर महाद्वीप में उसके बोलने वाले हैं, और हर भाषा से उसने कुछ न कुछ लिया ही है, इसलिए उसके पास शब्दों का भंडार भी उतना ही समृद्ध है, जबकि हम लगातार सिमटते जा रहे हैं। तो शब्दों का भंडार भरे भी तो कैसे? सतही तौर पर देखने पर यह एक जायज तर्क लगता है, लेकिन थोड़ा सा गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि हिंदी का क्षेत्र भी कम चौड़ा नहीं है। हिंदी की मां तो संस्कृत है ही, उसकी अपनी बहनें भी कम नहीं हैं। 22 तो संविधान में सूचीबद्ध भाषाएं हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों बोलियां और उपबोलियां हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशी पहुंचे हैं, उनकी अपनी भाषाएं बन गई हैं, वे भी हिंदी का विस्तार ही हैं। फिर अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, चीनी और जापानी  जैसी दर्जनों भाषाएं हैं, जिनके साथ हमारा आदान-प्रदान हो रहा है, जहां से हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं या करना चाहिए।
आश्चर्य की बात यह है कि दस लाख से अधिक शब्द होते हुए भी अंग्रेजी भाषा का मूल स्वरूप बना हुआ है या कहिए कि वह विकृत नहीं हुई है, जबकि हिंदी हर रोज लांछित होती रहती है। हिंदी से परहेज रखने वाले लोग हिंदी पर आरोप लगाते हैं कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरी हुई है, कि हिंदी के कुछ ठेकेदार उसे कुएं के मेंढक की तरह बनाए रखना चाहते हैं, उसे अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकलने देते। जबकि हिंदीवाले इसलिए खफा हैं कि उसमें जबरन अंग्रेजी के शब्द ठूंसे जा रहे हैं। ऐसा है भी। कुछ अखबार बीच-बीच में सिर्फ इसलिए अंग्रेजी के शब्द छिड़क देते हैं ताकि लगे कि उनके अखबार को अमीर वर्ग के लोग पढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी विकृत लगेगी ही। लेकिन सोचने की बात यह है कि लाखों शब्द बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी नहीं बिगड़ी, जबकि हिंदी एक ही झोंके में धराशायी होती नजर आ रही है। इसलिए कि हमारे यहां भाषा के स्वरूप और पहचान को बचाए रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। 
दरअसल शब्द तो इस सारे परिदृश्य का एक छोटा सा पहलू हैं, जिनसे हिंदी लड़खड़ाती नजर आ रही है। आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी के लिए देवनागरी के बजाए रोमन का इस्तेमाल कर रहा है, उससे हिंदी के पारंपरिक रूप को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। जितनी तरह की सूचनाएं और ज्ञान की सामग्री बाहर से आ रही है, उसे अपनी भाषा में अपने बच्चों को देने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। जितने बड़े पैमाने पर अनुवाद की तैयारी होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखाई देती। जिस तरह से हिंदी अपने ही देश में फैल रही है, उसकी वजह से सहोदरा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ उसके रिश्तों में खटास पैदा हो रही है, उसे संभालने के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं है। आरंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा के मुद्दे को जिस संवेदनशीलता के साथ लिया जाना चाहिए था, वह नहीं लिया गया, लिहाजा जिस गति से हिंदी बढ़ रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है। पहले वह बड़े शहरों तक ही सीमित थी, आज वह गांव-गांव तक पहुंच रही है। इससे मुकाबले के लिए कहीं कोई छटपटाहट नहीं दिखाई पड़ती।  
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आज की तुलना में आजादी से पहले हिंदी का विकास बेहतर और समन्वित तरीके से हुआ। हिंदी साहित्य, भाषा, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बीच जैसा तालमेल उस दौर में दिखाई देता है, वह अद्भुत है। आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी से पहले बनी दो संस्थाएं - नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन की ही गतिविधियों पर एक नजर डालें तो आश्चर्य होता है। जहां नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी में तमाम तरह के विषयों पर साहित्य निर्माण करवा रही थी, वहीं साहित्य सम्मेलन राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में उसके लिए ठोस जमीन तैयार कर रही थी। सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन भी लगभग उतनी ही गर्मजोशी के साथ होते थे, जितने कि कांग्रेस पार्टी के। मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोग इन अधिवेशनों की अध्यक्षता किया करते थे। इन अधिवेशनों में न सिर्फ साहित्य सृजन पर विमर्श होता था, बल्कि भाषा, पत्रकारिता, अनुवाद और उसके मानकीकरण पर भी गंभीर चर्चा होती थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सम्मेलनों में जितने जोश के साथ हिंदी भाषी भाग लेते थे, उसी गर्मजोशी के साथ अहिंदी भाषी नेता, विचारक भी भाग लेते थे। आजादी के बाद हमने चूंकि हिंदी के काम को सरकार को सौंप दिया, और सरकार के मन में इसको लेकर सदा एक खोट रहा, इसलिए यह काम पतन के गर्त में धंसता चला गया। गोष्ठियां आज भी हो रही हैं, सरकार के हर पायदान पर हिंदी कार्यान्वयन समितियां हैं, संसदीय सलाहकार समिति है, केंद्रीय हिंदी समिति है, लेकिन परिणाम फिर भी सिफर ही है। जिस व्यवस्था में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में एजेंडा अंग्रेजी में परोस दिया जाता है, उस व्यवस्था से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

हमारा निवेदन यह है कि तमाम अवरोधों के बावजूद आज हिंदी अपने ही बूते पर फैल रही है, उसका बाजार फैल रहा है, दुनिया भर में उसे लेकर एक जागरूकता बनी है, इसलिए आज चुनौतियां कहीं ज्यादा हैं। क्योंकि फैलना या विस्तार पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसे बनाए रख पाना। हम उसे तभी बनाए रख पाएंगे, जबकि हमारे पास एक मजबूत व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से आज संस्थाओं को बनाए रखने में हिंदी समाज की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। आजादी से पहले जिन संस्थाओं ने हिंदी के लिए महान कार्य किए, वे आज मृतप्राय हैं। आजादी के बाद सरकार ने जो संस्थाएं बनाईं, वे सरकार की लालफीताशाही का शिकार हैं। नख-दंत विहीन राजभाषा अधिनियम की तरह सरकारी संस्थाओं की दिलचस्पी भी हिंदी को लागू करने की बजाए उसे उलझाए रखने में रहती है। और निजी क्षेत्र यानी प्रकाशन ग्रहों, मीडिया घरानों के बीच कोई एकता नहीं दिखती। तो हिंदी को कौन बचाएगा? उसका विस्तार अवश्यंभावी है, लेकिन वह अराजक नहीं होना चाहिए। उसे व्यवस्था चाहिए। इसलिए हिंदी समाज अपनी निद्रा तोड़ कर जागे ताकि अपनी भाषा को बचाया जा सके। (दैनिक हिन्दुस्तान, १४ सितम्बर, २०१० से साभार)        

बुधवार, 1 जुलाई 2015

हिन्दी को चाहिए राम चौधरी जैसे सेवक

श्रद्धांजलि/ गोविन्द सिंह 
पिछले दिनों (२० जून, २०१५) अमेरिका में हिन्दी की छत्र-छाया समझे जाने वाले डॉ राम चौधरी का निधन हो गया. डॉ चौधरी के जाने का तो दुःख है ही, लेकिन इससे भी दु:खद यह है कि हिन्दी मीडिया में इसकी सूचना तक नहीं दिखी. आप कहेंगे कौन थे डॉ. चौधरी? 
संक्षेप में उनका परिचय कुछ यों है: वे उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के भूलपुर गाँव में १९२७ में पैदा हुए थे. अपने गाँव के  हाईस्कूल से ही उन्होंने आरंभिक शिक्षा ली. अपने गाँव के वे पहले हाई स्कूल पास थे. बाद में आगरा विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पाई. कुछ साल भोपाल के मोतीलाल नेहरू कालेज में पढ़ाया भी लेकिन उनकी प्रतिभा ने उन्हें अमेरिका पहुंचा दिया, जहां उन्होंने पीएच डी और उससे आगे की पढाई की और न्यूयॉर्क के राज्य विश्वविद्यालय, ओसवेगो में भौतिक शास्त्र के प्रोफ़ेसर बन गए. जहां वे मृत्युपर्यंत (८८ साल की उम्र में) एमिरेटस प्रोफ़ेसर रहे. बेशक फिजिक्स शिक्षा में उनका बड़ा योगदान था, लेकिन हम उन्हें यहाँ उनकी हिन्दी सेवा के लिए याद कर रहे हैं.
प्रो. चौधरी भलेही अमेरिका में थे, लेकिन वे अपने गाँव को कभी नहीं भूले. उन्होंने अपने गाँव में गरीब लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला, जो किसान इंटर कॉलेज नाम से विख्यात हुआ. जिसमें खुद की जेब से एक लाख डॉलर और अपनी पैत्रिक संपत्ति दी और अमेरिका से काफी चन्दा जुटाया. वे आजीवन हिन्दी को उसका स्थान दिलाने के लिए संघर्षरत रहे. उनका कहना था कि हमारे बच्चे अपनी पूरी ऊर्जा अंग्रेज़ी सीखने में ही लगा देते हैं, जिससे मूल विषयों में ध्यान ही नहीं दे पाते.
उन्होंने अमेरिका में हिन्दी के विकास हेतु पहले अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति और बाद में विश्व हिन्दी न्यास गठित कर संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को पहुंचाने की भरसक कोशिशें कीं. जो लोग कहते थे कि विज्ञान को हिन्दी में नहीं पढ़ाया जा सकता, उन्हें उन्होंने हिन्दी में विज्ञान की पुस्तकें लिखकर करारा जवाब दिया. हिन्दी जगत, बाल हिन्दी जगत और विज्ञान प्रकाश आदि पत्रिकाएं प्रकाशित कर हिन्दी की मशाल जलाए रखी. ये पत्रिकाएं अमेरिका में तो हिन्दी भाषियों के बीच सेतु का काम करती ही थीं, साथ ही विश्व भर में फैले हिन्दी प्रेमियों के लिए भी संबल थीं. हिन्दी जगत अब भी डॉ सुरेश ऋतुपर्ण के सम्पादन में सफलतापूर्वक निकल रही है. कुछ समय मुझे भी विज्ञान प्रकाश के प्रकाशन से जुड़ने का मौक़ा मिला. तब उनसे वार्तालाप का अवसर मिला. वे अक्सर रात को फोन करते और देर तक अपने मंतव्य को समझाते. उनका दृढ विश्वास था कि हिन्दी में विज्ञान के गूढ़ विषयों को आसानी से व्यक्त किया जा सकता है. विज्ञान प्रकाश का प्रकाशन इसीलिए किया गया था. वे चाहते थे कि विज्ञान प्रकाश बंद नहीं होना चाहिए, इससे भारत में विज्ञान-शिक्षण हिन्दी में करने में मदद मिलेगी. विज्ञान प्रकाश में विज्ञान के इतिहास पर उनका लंबा कॉलम काफी ज्ञानवर्धक हुआ करता था. वे अंग्रेज़ी शिक्षण के विरोधी नहीं थे, बल्कि हिन्दी का हक छीने जाने के विरुद्ध थे. उन्होंने बताया कि किस तरह एक बार उन्होंने अपने स्कूल में आये अँगरेज़ स्कूल इन्स्पेक्टर के अंग्रेज़ी सवाल का सही उत्तर दे दिया था और बदले में अफसर ने उन्हें पुरस्कार स्वरुप पेन भेंट किया था. वे अक्सर कहा करते थे कि डेढ़-दो सौ साल पहले मॉरिशस, फिजी, ट्रिनिडाड पहुंचे गिरिमिटिया मजदूरों से हमें सबक लेना चाहिए, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी भाषा और संस्कृति को बचा कर रखा. अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों से उनका कहना था कि हम लोग तो सम्पन्न हैं. हम लोगों ने तरक्की के लिए देश छोड़ा है. हम तो अपनी बोली-भाषा को आसानी से बचा सकते हैं. 
अमेरिका में रह रहे सम्पन्न भारतीयों से वे हिन्दी के लिए धन की गुहार लगाते हुए कहते थे कि हिन्दी को मजबूत करने से केवल हिन्दुस्तान ही मजबूत नहीं होगा बल्कि यह प्रवासी भारतीयों के भी हित में है. उनका कहना था कि भारतीय सरकारों ने हिन्दी की अवहेलना करके संविधान का अनादर किया है.
वे हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनवाने के लिए भी निरंतर सक्रिय रहे. इसके लिए वे अमेरिका में सकारात्मक माहौल बनाने में लगे हुए थे. वे इस बात पर दुखी थे कि अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में हिन्दी की पढाई बहुत कम होती है जबकि हिन्दी से कमजोर भाषाओं की पढाई बेहतर तरीके से हो रही है. विश्व हिन्दी न्यास के प्रयासों से रटगर्स विश्वविद्यालय में सन २००१ में आरंभिक हिन्दी कक्षाएं शुरू हो पायीं, इसके लिए न्यास को ८००० डॉलर का अनुदान विश्वविद्यालय को देना पड़ा. उसके बाद १०,००० डॉलर देकर माध्यमिक स्तर की कक्षाएं शुरू की गयीं. उनके मुताबिक़ यदि “ हमें भारत सरकार एवं अमेरिका के धन कुबेरों का समर्थन मिल जाए तो वहाँ एक हिन्दी पीठ की स्थापना की जा सकती है”. एक पीठ के लिए तब तीस लाख डॉलर विश्वविद्यालय को देने होते थे. वर्ष २००८ में उन्होंने लिखा था कि ‘अमेरिका में हिन्दी का कोइ पीठ नहीं है. जबकि कोरियाई भाषा के २७ पीठ हैं. 
अमेरिका के पांच राज्यों में, जहां हिन्दुस्तानियों की संख्या अच्छी-खासी है, वहाँ हिन्दी पीठ बनने चाहिए.’ इसमें भारत सरकार और अमेरिका के भारतवंशी समान भागीदारी करें.’ दुर्भाग्य से बाद के वर्षों में उनकी सेहत कम्रजोर होने लगी और अमेरिकी धन कुबेर भी आगे नहीं आये. वे इस बात के लिए चिंतित रहते थे कि भारतीय धनकुबेर धार्मिक कार्यों के लिए तो जी भर के धन देते हैं लेकिन हिन्दी के लिए नहीं देते. वे चीनियों का उदाहरण देते थे कि किस तरह से वे अपनी भाषा-संस्कृति को दुनिया भर में स्थापित करने की जुगत में लगे रहते हैं. भारत सरकार ने डॉ. राम चौधरी को उनकी हिन्दी सेवा के लिए विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर सर्वोच्च सम्मान दिया. साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ से भी सामुदायिक सेवा के लिए पुरस्कृत किया. 
बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कूटनीतिक स्तर पर हिन्दी कुछ आगे बढी है, पर हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने का उनका सपना अब भी अधूरा है. सिर्फ संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को स्थापित कर देने भर से यह सपना पूरा नहीं होगा. देश के भीतर और बाहर दोनों जगह हिन्दी को उसका जायज हक मिलना चाहिए. हिन्दी को आगे बढाने के लिए चहुंमुखी प्रयास करने होंगे. देश से बाहर बसे ढाई करोड़ भारतवंशियों को जोड़ने का इससे बेहतर और कोई उपाय नहीं हो सकता. (गर्भनाल, भोपाल, अगस्त,२०१५ से साभार)