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बुधवार, 16 सितंबर 2015

पहले शिक्षा में तो हिन्दी को लाइए


हिन्दी दिवस/ गोविन्द सिंह
हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी मास. यानी सरकारी कामकाज में हिन्दी लागू करने-कराने का अभियान. इस अभियान के तहत हम अक्सर उन नौकरशाहों को जी-भर के कोसते हैं, जो हिन्दी को सरकारी फाइलों में नहीं घुसने देते, जो सरकारी चिट्ठियों में हिन्दी नहीं लिखने देते. हम उस सरकारी व्यवस्था को भी कोसने से नहीं चूकते, जो हर साल हिन्दी लागू करने के फर्जी आंकड़े पेश करवाती है और सरकार के पास यह रिपोर्ट भेजती है कि हिन्दी 99 फीसदी आ चुकी है. जबकि सचाई यह होती है कि हिन्दी वहीं की वहीं होती है. लेकिन कई बार मुझे लगता है कि हम फिजूल ही नौकरशाहों को कोसते हैं. हम उनसे यह अपेक्षा रखते हैं कि वे मरियल पौधों के फूलों को सींचें और पूरी फुलवारी लहलहा उठे.
असल चुनौती है जड़ों को सींचने की. लेकिन दुर्भाग्य से अपने यहाँ जड़ों में पानी डालने की सख्त मनाही है. हमारी सरकार, हमारे नेता, हमारे राजनीतिक दल, हमारे शिक्षक, हमारे नौकरशाह और समूचे तौर पर हमारा समाज भी इस गुपचुप अभियान में शामिल है कि जड़ों में पानी न दिया जाए. जी हाँ, मैं शिक्षा में हिन्दी की बात कर रहा हूँ. आप राजभाषा के तौर पर हिन्दी को लागू करने के लाख जतन कर लें, वह तब तक लागू नहीं हो सकती, जब तक कि आप शिक्षा में अंग्रेज़ी को बढ़ावा देने की अपनी नीति को नहीं बदल लेते. आप लाख विश्व हिन्दी सम्मलेन कर लें, आप उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना डालें, लेकिन जब तक अपने नौनिहालों के मन से हिन्दी के प्रति घृणा को नहीं निकाल फेंकेंगे, तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला. क्षमा कीजिए, नौनिहाल ही नहीं, उनके मन में घृणा-भाव भरने वाले अध्यापक भी. हम कैसी दोमुंही बात करते हैं? एक तरफ बच्चों को जबरन अंग्रेज़ी बोलने, लिखने और उसी में सपने देखने को कहते हैं, क्लास में हिन्दी बोलने पर प्रताड़ित करते हैं, यही नहीं उन्हें हिन्दी से घृणा करने की हिदायत देते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं स्कूलों-कालेजों से पढ़कर ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे अंग्रेज़ी छोड़ कर हिन्दी को अपनाएँ. वे ऐसा क्यों करें? उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए?
अनेक बार ऐसा लगता है कि शिक्षा की दुनिया का इस देश से, इस राष्ट्र के लक्ष्यों से कोई लेना-देना नहीं है. शिक्षा नीति के करता-धरता चाहते ही नहीं कि अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी को स्कूलों-कालेजों में पढ़ाया जाना चाहिए. इस देश का शिक्षाविद, अपना शोध पत्र यूरोप-अमेरिका की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाना चाहता है. हिन्दी में छपने वाले पत्र-पत्रिकाओं का उसके लिए कोई महत्व नहीं है. आज भी अध्यापक के चयन में विषय-ज्ञान की जगह अंग्रेज़ी भाषा ज्ञान को तरजीह दी जाती है. अब, हिन्दी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में लागू करवाने के लिए हर साल तरह-तरह के संकल्प लिए जाते हैं. लक्ष निर्धारित किये जाते हैं. हर मंत्रालय से कहा जाता है कि वह इस लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भरसक कोशिश करे. लेकिन शिक्षा जगत इस सबसे अछूता रहता है. पता नहीं शिक्षा मंत्रालय क्यों चुप्पी साध लेता है? यहाँ लगातार हिन्दी पिछडती जा रही है. जब मैं बच्चा था, मेरे जिले में एक भी अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल नहीं था. अमीर-गरीब सब हिन्दी माध्यम की समान शिक्षा ग्रहण करते थे. आज उस जिले के दो जिले हो गए हैं और अकेले मेरे जिले में ही तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के 500 स्कूल खुल गए हैं. वे अंग्रेज़ी सिखा रहे हों या नहीं, नहीं मालूम, इतना तय है कि वे हिन्दी से दूर रहने की हिदायत जरूर देते हैं. गाँव-गाँव तक यह सन्देश पहुंचा दिया गया है कि यदि आगे बढना है तो अंग्रेज़ी सीखना जरूरी है. हम यह नहीं कहते कि हिन्दी नहीं बढ़ रही. वह भी बढ़ रही है लेकिन अंग्रेज़ी उससे दस गुना तेज रफ्तार से बढ़ रही है. पहले समझा जाता था कि हिंदी दलितों-पिछड़ों की भाषा है. लेकिन उन्हें भी यह समझ में आ गया है कि हिन्दी के भरोसे वे बहुत आगे नहीं बढ़ पायेंगे. उनके एक नेता चन्द्रभान प्रसाद ने इसीलिए ‘अंग्रेज़ी देवी’ की पूजा करने का आह्वान किया है. उनका कहना है कि तरक्की का राजमार्ग अंग्रेज़ी से होकर ही गुजरता है.
आजादी के समय कहा गया था कि दस साल के भीतर हिन्दी में अनुवाद की सारी व्यवस्था कर ली जाये. विज्ञान और इंजीनियरिंग की किताबों को हिन्दी में कर लिया जाए. यानी भविष्य में उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी में हो. उसके लिए कोशिशें भी हुईं. वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान बना, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय बना, राज्यों के भाषा विभाग और हिन्दी अकादमियां बनीं. शब्दकोष बने. किताबें लिखी गयीं. लेकिन हिन्दी माध्यम लागू करने की दिशा में हम एक कदम आगे तो दो कदम पीछे ही रहे. गणतंत्र हुए 65 साल हो गए. 1950 में हिन्दी माध्यम की जो किताबें थीं, वे भी गायब हो गयीं. जिन राज्यों में छठी कक्षा से अंग्रेज़ी लागू होती थी, उन्हें भी लगा कि उनके बच्चे पिछड़ रहे हैं. लिहाजा वहाँ भी पहली से ही अंग्रेज़ी लागू होने लगी. उच्च शिक्षा तो दूर, स्कूलों से ही हिन्दी-माध्यम गायब होता जा रहा है. हिन्दी पढ़ना मजबूरी की भाषा बन गयी है. इस देश में जर्मन को तो पिछले दरवाजे से जबरन लागू किया जा सकता है, लेकिन हिन्दी को नहीं.
यही हाल उच्च शिक्षा में हिन्दी का है. एक तरफ कहा जाता है कि हिन्दी में विज्ञान की किताबें नहीं हैं. केंद्र सरकार की राजभाषा नीति के तहत ही हर मंत्रालय हिन्दी में मौलिक लेखन के लिए, अंग्रेज़ी किताबों को हिन्दी में अनूदित करने के लिए लेखकों को हर साल लाखों रुपये के पुरस्कार देता है. इस नज़रिए से देखें तो विज्ञान की सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं. समाज विज्ञानों में तो पहले ही हिन्दी में पुस्तकें हैं. लेकिन ये किताबें पुस्तकालयों में घुन का भोजन बनती रहती हैं. क्योंकि इन्हें विद्यार्थियों तक नहीं पहुँचने दिया जाता. हिन्दी माध्यम लागू हो तब न! अब पत्रकारिता का ही उदाहरण लीजिए. यहाँ 70 प्रतिशत नौकरियाँ हिन्दी में हैं. लेकिन नए खुले केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता का माध्यम केवल अंग्रेज़ी रखा गया है. हिन्दी माध्यम से स्नातक परिक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रो के लिए इन विश्वविद्यालयों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं. पिछले दिनों दिल्ली से दूर एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में जाने का मौक़ा मिला. वहां जो छात्र स्नातकोत्तर कर रहे थे, उन्हें देखकर कहीं से भी नहीं लग रहा था कि वे अंग्रेज़ी वाले होंगे. फिर उसी शहर के एक प्रमुख हिन्दी अखबार के सम्पादक से मिलना हुआ. (वहाँ से हिन्दी के ही अखबार छपते हैं.) उनका कहना था कि जो बच्चे उनके पास प्रशिक्षण के लिए आते हैं, उन्हें भाषा आती ही नहीं. कहाँ से आयेगी? उन्हें तो जबरन अंग्रेज़ी रटाई जा रही थी. वास्तव में वे न हिन्दी के रह गए थे और न अंग्रेज़ी ही सीख पाए थे. यानी गणतंत्र के 65 वर्ष बाद भी जिस देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालय हिन्दी के साथ इस तरह का भेदभाव बरतते हैं, उस देश में आप किस भाषाई आजादी की बात करते हैं? तमाम निजी विश्वविद्यालयों से हिन्दी बाहर है. इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन संस्थानों में हिन्दी के लिए कोई स्थान नहीं है. सब जगह अंग्रेज़ी के विभाग हैं, हिन्दी के नहीं. ऐसे में आप हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा भी बना लेंगे तो कौन-सा एवरेस्ट फतह कर लेंगे?    
हम चाहे लाख विश्व हिन्दी सम्मलेन आयोजित कर लें, जब तक शिक्षा से हिन्दी को दूर रखेंगे, तब तक कोई लाभ होने वाला नहीं है.( हिंदुस्तान, १४ सितम्बर, २०१५ को प्रकाशित लेख का विस्तारित रूप.)  

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

हिंदी के विस्तार को व्यवस्था दीजिए

भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
क्या आप जानते हैं कि हिंदी की झोली में कितने शब्द हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हम भी नहीं जानते थे। जानें भी कैसे? कौन बताए? भला हो ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर का, जिसने गत वर्ष अपनी सालाना रिपोर्ट में यह बताया था कि हिंदी में महज एक लाख 20 हजार शब्द हैं। जबकि तभी अंग्रेजी ने 10 लाखवां शब्द अपने शब्द भंडार में शामिल करने की घोषणा की थी। है ना आश्चर्य की बात? दुनिया में जितनी बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है, लगभग उतनी ही अंग्रेजी बोलने वालों की भी होगी। यह ठीक है कि अंगे्रजी का फैलाव बहुत ज्यादा रहा है, दुनिया के लगभग हर महाद्वीप में उसके बोलने वाले हैं, और हर भाषा से उसने कुछ न कुछ लिया ही है, इसलिए उसके पास शब्दों का भंडार भी उतना ही समृद्ध है, जबकि हम लगातार सिमटते जा रहे हैं। तो शब्दों का भंडार भरे भी तो कैसे? सतही तौर पर देखने पर यह एक जायज तर्क लगता है, लेकिन थोड़ा सा गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि हिंदी का क्षेत्र भी कम चौड़ा नहीं है। हिंदी की मां तो संस्कृत है ही, उसकी अपनी बहनें भी कम नहीं हैं। 22 तो संविधान में सूचीबद्ध भाषाएं हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों बोलियां और उपबोलियां हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशी पहुंचे हैं, उनकी अपनी भाषाएं बन गई हैं, वे भी हिंदी का विस्तार ही हैं। फिर अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, चीनी और जापानी  जैसी दर्जनों भाषाएं हैं, जिनके साथ हमारा आदान-प्रदान हो रहा है, जहां से हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं या करना चाहिए।
आश्चर्य की बात यह है कि दस लाख से अधिक शब्द होते हुए भी अंग्रेजी भाषा का मूल स्वरूप बना हुआ है या कहिए कि वह विकृत नहीं हुई है, जबकि हिंदी हर रोज लांछित होती रहती है। हिंदी से परहेज रखने वाले लोग हिंदी पर आरोप लगाते हैं कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरी हुई है, कि हिंदी के कुछ ठेकेदार उसे कुएं के मेंढक की तरह बनाए रखना चाहते हैं, उसे अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकलने देते। जबकि हिंदीवाले इसलिए खफा हैं कि उसमें जबरन अंग्रेजी के शब्द ठूंसे जा रहे हैं। ऐसा है भी। कुछ अखबार बीच-बीच में सिर्फ इसलिए अंग्रेजी के शब्द छिड़क देते हैं ताकि लगे कि उनके अखबार को अमीर वर्ग के लोग पढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी विकृत लगेगी ही। लेकिन सोचने की बात यह है कि लाखों शब्द बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी नहीं बिगड़ी, जबकि हिंदी एक ही झोंके में धराशायी होती नजर आ रही है। इसलिए कि हमारे यहां भाषा के स्वरूप और पहचान को बचाए रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। 
दरअसल शब्द तो इस सारे परिदृश्य का एक छोटा सा पहलू हैं, जिनसे हिंदी लड़खड़ाती नजर आ रही है। आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी के लिए देवनागरी के बजाए रोमन का इस्तेमाल कर रहा है, उससे हिंदी के पारंपरिक रूप को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। जितनी तरह की सूचनाएं और ज्ञान की सामग्री बाहर से आ रही है, उसे अपनी भाषा में अपने बच्चों को देने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। जितने बड़े पैमाने पर अनुवाद की तैयारी होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखाई देती। जिस तरह से हिंदी अपने ही देश में फैल रही है, उसकी वजह से सहोदरा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ उसके रिश्तों में खटास पैदा हो रही है, उसे संभालने के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं है। आरंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा के मुद्दे को जिस संवेदनशीलता के साथ लिया जाना चाहिए था, वह नहीं लिया गया, लिहाजा जिस गति से हिंदी बढ़ रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है। पहले वह बड़े शहरों तक ही सीमित थी, आज वह गांव-गांव तक पहुंच रही है। इससे मुकाबले के लिए कहीं कोई छटपटाहट नहीं दिखाई पड़ती।  
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आज की तुलना में आजादी से पहले हिंदी का विकास बेहतर और समन्वित तरीके से हुआ। हिंदी साहित्य, भाषा, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बीच जैसा तालमेल उस दौर में दिखाई देता है, वह अद्भुत है। आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी से पहले बनी दो संस्थाएं - नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन की ही गतिविधियों पर एक नजर डालें तो आश्चर्य होता है। जहां नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी में तमाम तरह के विषयों पर साहित्य निर्माण करवा रही थी, वहीं साहित्य सम्मेलन राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में उसके लिए ठोस जमीन तैयार कर रही थी। सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन भी लगभग उतनी ही गर्मजोशी के साथ होते थे, जितने कि कांग्रेस पार्टी के। मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोग इन अधिवेशनों की अध्यक्षता किया करते थे। इन अधिवेशनों में न सिर्फ साहित्य सृजन पर विमर्श होता था, बल्कि भाषा, पत्रकारिता, अनुवाद और उसके मानकीकरण पर भी गंभीर चर्चा होती थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सम्मेलनों में जितने जोश के साथ हिंदी भाषी भाग लेते थे, उसी गर्मजोशी के साथ अहिंदी भाषी नेता, विचारक भी भाग लेते थे। आजादी के बाद हमने चूंकि हिंदी के काम को सरकार को सौंप दिया, और सरकार के मन में इसको लेकर सदा एक खोट रहा, इसलिए यह काम पतन के गर्त में धंसता चला गया। गोष्ठियां आज भी हो रही हैं, सरकार के हर पायदान पर हिंदी कार्यान्वयन समितियां हैं, संसदीय सलाहकार समिति है, केंद्रीय हिंदी समिति है, लेकिन परिणाम फिर भी सिफर ही है। जिस व्यवस्था में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में एजेंडा अंग्रेजी में परोस दिया जाता है, उस व्यवस्था से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

हमारा निवेदन यह है कि तमाम अवरोधों के बावजूद आज हिंदी अपने ही बूते पर फैल रही है, उसका बाजार फैल रहा है, दुनिया भर में उसे लेकर एक जागरूकता बनी है, इसलिए आज चुनौतियां कहीं ज्यादा हैं। क्योंकि फैलना या विस्तार पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसे बनाए रख पाना। हम उसे तभी बनाए रख पाएंगे, जबकि हमारे पास एक मजबूत व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से आज संस्थाओं को बनाए रखने में हिंदी समाज की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। आजादी से पहले जिन संस्थाओं ने हिंदी के लिए महान कार्य किए, वे आज मृतप्राय हैं। आजादी के बाद सरकार ने जो संस्थाएं बनाईं, वे सरकार की लालफीताशाही का शिकार हैं। नख-दंत विहीन राजभाषा अधिनियम की तरह सरकारी संस्थाओं की दिलचस्पी भी हिंदी को लागू करने की बजाए उसे उलझाए रखने में रहती है। और निजी क्षेत्र यानी प्रकाशन ग्रहों, मीडिया घरानों के बीच कोई एकता नहीं दिखती। तो हिंदी को कौन बचाएगा? उसका विस्तार अवश्यंभावी है, लेकिन वह अराजक नहीं होना चाहिए। उसे व्यवस्था चाहिए। इसलिए हिंदी समाज अपनी निद्रा तोड़ कर जागे ताकि अपनी भाषा को बचाया जा सके। (दैनिक हिन्दुस्तान, १४ सितम्बर, २०१० से साभार)        

रविवार, 14 सितंबर 2014

पत्रकारिता की भाषा में सुनामी का दौर

हिन्दी दिवस/ गोविन्द सिंह
यों तो परिवर्तन जीवन का नियम है और भाषा का भी अपना जीवन होता है. उसमें भी वक़्त के साथ परिवर्तन आते हैं. ‘उदन्त मार्तंड’ की भाषा आज एकदम अजीब-सी लगती है. कई-कई बार तो समझ में भी नहीं आती. लेकिन परिवर्तन जब स्वाभाविक न होकर एकदम सुनामी की तरह आता है तो चिंतित होना स्वाभाविक है. हिन्दी पत्रकारिता की भाषा के साथ भी पिछले 15-20 वर्षों में यही हुआ है. एक साथ इतने सारे परिवर्तन आये कि वे सब हजम नहीं हो पा रहे हैं.
अंग्रेज़ी से अनुवाद की मजबूरी तो हिन्दी पत्रकारिता के साथ शुरू से ही रही. जिस वजह से हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्र तरीके से कभी अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं हो पायी. आजादी के बाद बड़े समाचार पत्र घरानों ने दिखाने के लिए एक-एक अखबार हिन्दी का भी ‘डाल’ लिया था, जिसके साथ सदैव दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहा. अंग्रेज़ी पत्रकारों की कॉपी को हिन्दी में अनुवाद की अनिवार्यता के कारण ही हिन्दी का मुहावरा विकसित नहीं हो पाया. ऐसे घराने भी थे, जो सिर्फ हिन्दी अखबार प्रकाशित करते थे, लेकिन वे सामर्थ्य में बहुत छोटे होने से कोई रुझान विकसित नहीं कर पाए. फिर भी 1990 तक हिन्दी का कुछ तो अपना चरित्र बचा हुआ था.
1987 में इंडिया टुडे का हिन्दी संस्करण निकला तो उसका नाम हिन्दी में न रख कर देवनागरी में भी वही रख दिया गया. इससे पहले भी ऐसे कुछ प्रयास हुए थे लेकिन सीधे-सीधे अंग्रेज़ी नाम को हिन्दी में रख देने से लगा कि हिन्दी के प्रति पत्र-स्वामियों का व्यवहार बदल गया है. उन्हें हिन्दी पर भरोसा नहीं था. यहाँ पहुँच कर पत्र-पत्रिकाओं की विषय-वस्तु पर उसका ब्रांड हावी होने लगा था. उसके बाद निकले संडे ऑब्जर्वर और संडे मेल ने भी यही किया. फिर तो सभी को जैसे पंख लग गए. टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह ने एक तरफ अपने अंग्रेज़ी अखबार का हिन्दी संस्करण निकालने की योजना बनाई तो दूसरी तरफ हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को बंद करने की ठान ली. हिन्दी की पत्रिकाओं को अकाल मृत्यु देकर फिल्म फेयर और फेमिना को इन्हीं नामों से हिन्दी में निकालने की कोशिशें हुईं, जबकि हिन्दी की ‘माधुरी’ बहुत अच्छी पत्रिका थी. वर्ष दो हजार तक आते-आते यह प्रवृत्ति तेजी से आगे बढ़ी. अन्य घरानों को भी पंख लगे. नवभारत टाइम्स ने अपने संस्करणों, कालमों के नाम बदल कर अंग्रेज़ी में रखने शुरू कर दिए. खबरों और लेखों की भाषा में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी शब्दों को घुसाने की कोशिश की. दैनिक भास्कर ने दो कदम आगे बढ़कर शीर्षकों में ज्यादा से ज्यादा शब्द अंग्रेज़ी के रखने शुरू कर दिए. यहाँ तक कि इन दो अखबारों ने शीर्षकों में रोमन लिपि को घुसाना भी शुरू कर दिया. यह काम चोरी-छिपे नहीं हुआ, बाकायदा घोषणाओं के साथ हुआ. इन अखबारों ने हिंगलिश के पक्ष में लेख लिखे और अपने प्रयोगों का औचित्य समझाया. चूंकि हिन्दी जगत में इन कुप्रयोगों पर कोई ख़ास विरोध नहीं हुआ, इसलिए अन्य अखबारों को लगा कि शायद यही सफलता का राजमार्ग है. जाहिर है वे भी इसी रास्ते पर चल पड़े. खबरों में थोड़ी-बहुत हिंगलिश को अपनाएँ तो बात फिर भी समझ में आती है, फीचर परिशिष्टों, सम्पादकीय पृष्ठों में भी जम कर हिंगलिश का इस्तेमाल होने लगा. ऐसा नहीं कि इससे भाषा सरल और बोधगम्य होती है, बल्कि इससे तो आप अपने अखबार को आम जनता से दूर ही ले जाते हैं. हाँ, इससे आपकी ब्रांडिंग जरूर होती है कि आप ऐसे पाठकों के अखबार हैं, जो अंग्रेजीदां हैं. यानी वे ‘अप-मार्केट’ हैं. यह प्रवृत्ति एक भाषा के लिए तो अपमानजनक है ही, उस समाज के लिए भी घातक है, जिसकी वह भाषा है. सहज रूप से होने वाले परिवर्तन का स्वागत होना चाहिए. लेकिन बनावटी बदलाव उचित नहीं है. लोग कह रहे हैं कि यह सहज विकास है. वास्तव में यह सहज नहीं है. इसके मूल में ‘लोभ’ है. यह एक फर्जी प्रवृत्ति है. इसका विरोध होना ही चाहिए. (samachar4media.com , १४ सितम्बर, २०१४ से)
http://samachar4media.com/senior-journalist-Govind-Singh-wrote-an-article-on-hindi.html