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गुरुवार, 23 जुलाई 2015

हिंदी के विस्तार को व्यवस्था दीजिए

भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
क्या आप जानते हैं कि हिंदी की झोली में कितने शब्द हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हम भी नहीं जानते थे। जानें भी कैसे? कौन बताए? भला हो ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर का, जिसने गत वर्ष अपनी सालाना रिपोर्ट में यह बताया था कि हिंदी में महज एक लाख 20 हजार शब्द हैं। जबकि तभी अंग्रेजी ने 10 लाखवां शब्द अपने शब्द भंडार में शामिल करने की घोषणा की थी। है ना आश्चर्य की बात? दुनिया में जितनी बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है, लगभग उतनी ही अंग्रेजी बोलने वालों की भी होगी। यह ठीक है कि अंगे्रजी का फैलाव बहुत ज्यादा रहा है, दुनिया के लगभग हर महाद्वीप में उसके बोलने वाले हैं, और हर भाषा से उसने कुछ न कुछ लिया ही है, इसलिए उसके पास शब्दों का भंडार भी उतना ही समृद्ध है, जबकि हम लगातार सिमटते जा रहे हैं। तो शब्दों का भंडार भरे भी तो कैसे? सतही तौर पर देखने पर यह एक जायज तर्क लगता है, लेकिन थोड़ा सा गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि हिंदी का क्षेत्र भी कम चौड़ा नहीं है। हिंदी की मां तो संस्कृत है ही, उसकी अपनी बहनें भी कम नहीं हैं। 22 तो संविधान में सूचीबद्ध भाषाएं हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों बोलियां और उपबोलियां हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशी पहुंचे हैं, उनकी अपनी भाषाएं बन गई हैं, वे भी हिंदी का विस्तार ही हैं। फिर अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, चीनी और जापानी  जैसी दर्जनों भाषाएं हैं, जिनके साथ हमारा आदान-प्रदान हो रहा है, जहां से हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं या करना चाहिए।
आश्चर्य की बात यह है कि दस लाख से अधिक शब्द होते हुए भी अंग्रेजी भाषा का मूल स्वरूप बना हुआ है या कहिए कि वह विकृत नहीं हुई है, जबकि हिंदी हर रोज लांछित होती रहती है। हिंदी से परहेज रखने वाले लोग हिंदी पर आरोप लगाते हैं कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरी हुई है, कि हिंदी के कुछ ठेकेदार उसे कुएं के मेंढक की तरह बनाए रखना चाहते हैं, उसे अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकलने देते। जबकि हिंदीवाले इसलिए खफा हैं कि उसमें जबरन अंग्रेजी के शब्द ठूंसे जा रहे हैं। ऐसा है भी। कुछ अखबार बीच-बीच में सिर्फ इसलिए अंग्रेजी के शब्द छिड़क देते हैं ताकि लगे कि उनके अखबार को अमीर वर्ग के लोग पढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी विकृत लगेगी ही। लेकिन सोचने की बात यह है कि लाखों शब्द बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी नहीं बिगड़ी, जबकि हिंदी एक ही झोंके में धराशायी होती नजर आ रही है। इसलिए कि हमारे यहां भाषा के स्वरूप और पहचान को बचाए रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। 
दरअसल शब्द तो इस सारे परिदृश्य का एक छोटा सा पहलू हैं, जिनसे हिंदी लड़खड़ाती नजर आ रही है। आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी के लिए देवनागरी के बजाए रोमन का इस्तेमाल कर रहा है, उससे हिंदी के पारंपरिक रूप को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। जितनी तरह की सूचनाएं और ज्ञान की सामग्री बाहर से आ रही है, उसे अपनी भाषा में अपने बच्चों को देने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। जितने बड़े पैमाने पर अनुवाद की तैयारी होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखाई देती। जिस तरह से हिंदी अपने ही देश में फैल रही है, उसकी वजह से सहोदरा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ उसके रिश्तों में खटास पैदा हो रही है, उसे संभालने के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं है। आरंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा के मुद्दे को जिस संवेदनशीलता के साथ लिया जाना चाहिए था, वह नहीं लिया गया, लिहाजा जिस गति से हिंदी बढ़ रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है। पहले वह बड़े शहरों तक ही सीमित थी, आज वह गांव-गांव तक पहुंच रही है। इससे मुकाबले के लिए कहीं कोई छटपटाहट नहीं दिखाई पड़ती।  
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आज की तुलना में आजादी से पहले हिंदी का विकास बेहतर और समन्वित तरीके से हुआ। हिंदी साहित्य, भाषा, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बीच जैसा तालमेल उस दौर में दिखाई देता है, वह अद्भुत है। आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी से पहले बनी दो संस्थाएं - नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन की ही गतिविधियों पर एक नजर डालें तो आश्चर्य होता है। जहां नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी में तमाम तरह के विषयों पर साहित्य निर्माण करवा रही थी, वहीं साहित्य सम्मेलन राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में उसके लिए ठोस जमीन तैयार कर रही थी। सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन भी लगभग उतनी ही गर्मजोशी के साथ होते थे, जितने कि कांग्रेस पार्टी के। मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोग इन अधिवेशनों की अध्यक्षता किया करते थे। इन अधिवेशनों में न सिर्फ साहित्य सृजन पर विमर्श होता था, बल्कि भाषा, पत्रकारिता, अनुवाद और उसके मानकीकरण पर भी गंभीर चर्चा होती थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सम्मेलनों में जितने जोश के साथ हिंदी भाषी भाग लेते थे, उसी गर्मजोशी के साथ अहिंदी भाषी नेता, विचारक भी भाग लेते थे। आजादी के बाद हमने चूंकि हिंदी के काम को सरकार को सौंप दिया, और सरकार के मन में इसको लेकर सदा एक खोट रहा, इसलिए यह काम पतन के गर्त में धंसता चला गया। गोष्ठियां आज भी हो रही हैं, सरकार के हर पायदान पर हिंदी कार्यान्वयन समितियां हैं, संसदीय सलाहकार समिति है, केंद्रीय हिंदी समिति है, लेकिन परिणाम फिर भी सिफर ही है। जिस व्यवस्था में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में एजेंडा अंग्रेजी में परोस दिया जाता है, उस व्यवस्था से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

हमारा निवेदन यह है कि तमाम अवरोधों के बावजूद आज हिंदी अपने ही बूते पर फैल रही है, उसका बाजार फैल रहा है, दुनिया भर में उसे लेकर एक जागरूकता बनी है, इसलिए आज चुनौतियां कहीं ज्यादा हैं। क्योंकि फैलना या विस्तार पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसे बनाए रख पाना। हम उसे तभी बनाए रख पाएंगे, जबकि हमारे पास एक मजबूत व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से आज संस्थाओं को बनाए रखने में हिंदी समाज की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। आजादी से पहले जिन संस्थाओं ने हिंदी के लिए महान कार्य किए, वे आज मृतप्राय हैं। आजादी के बाद सरकार ने जो संस्थाएं बनाईं, वे सरकार की लालफीताशाही का शिकार हैं। नख-दंत विहीन राजभाषा अधिनियम की तरह सरकारी संस्थाओं की दिलचस्पी भी हिंदी को लागू करने की बजाए उसे उलझाए रखने में रहती है। और निजी क्षेत्र यानी प्रकाशन ग्रहों, मीडिया घरानों के बीच कोई एकता नहीं दिखती। तो हिंदी को कौन बचाएगा? उसका विस्तार अवश्यंभावी है, लेकिन वह अराजक नहीं होना चाहिए। उसे व्यवस्था चाहिए। इसलिए हिंदी समाज अपनी निद्रा तोड़ कर जागे ताकि अपनी भाषा को बचाया जा सके। (दैनिक हिन्दुस्तान, १४ सितम्बर, २०१० से साभार)        

रविवार, 21 सितंबर 2014

कूटनीति की मेज पर हिन्दी

भाषा/ गोविन्द सिंह        
भाषा के मोर्चे पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक ऐसी रेखा खींच दी है, जिसके सामने अब तक की सारी रेखाएं छोटी पड़ गयी हैं. यह रेखा है कूटनीति की मेज पर हिन्दी की. राजनीति यदि जनपथ है तो कूटनीति राजपथ. कोई भाषा कूटनीति की भाषा यों ही नहीं बन जाती. उसे जनता की भाषा तो होना ही पड़ता है, साथ ही अभिजात्य वर्ग की भाषा भी बनना होता है. फ्रेंच भाषा को दुनिया भर में कूटनीति की भाषा के रूप में जाना जाता है तो सिर्फ इसीलिए कि वह दुनिया भर में अभिजात्य वर्ग की भाषा रही है. उसमें साहित्यिक ऊंचाई है तो नफासत भी. दुनिया के अनेक देशों तक उसकी पहुँच रही है. अमेरिका के उत्कर्ष के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ी ने उसकी जगह लेने की कोशिश की है, लेकिन अभी तक वह पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पायी है. औपनिवेशिक दासता झेल चुके देश ही उसे वैश्विक कूटनीति की भाषा बनाना चाहते हैं. भाषाई कूटनीति का दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर स्वतंत्र-चेता देश अपनी भाषा में ही कूटनीति करना चाहते हैं. जबकि वर्चस्ववादी देश चाहते हैं कि उनकी भाषा वैश्विक कूटनीति की भाषा बने. आज अधिसंख्य ताकतवर देश अपनी भाषा में ही कूटनीति करते हैं. ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, चीन और जापान इनमें कुछ हैं. ऐसा नहीं है कि इन देशों के नेता अपने पड़ोसी देश की भाषा नहीं जानते. अपनी सामान्य बातचीत में भलेही वे अन्य भाषा में बात करते हों, लेकिन कूटनीति की मेज पर अपनी भाषा ही बोलते हैं, भलेही उसके लिए दुभाषिया ही क्यों न बैठाना पड़े. वे भारत में अपना राजदूत हिन्दी सिखा कर नहीं भेजते.
लेकिन भारत की स्थिति उल्टी रही है. यहाँ कूटनीतिक काबिलियत के लिए अंग्रेज़ी जानना जरूरी है. हमारे यहाँ यह आवाज उठती रही है कि हमें अपनी कूटनीति में अपनी राजभाषा अर्थात हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए. आजादी से पहले इसमें कोई मतभेद नहीं था. लगभग आमराय थी कि स्वाधीन भारत को अपनी ही भाषा में सब काम करने चाहिए. लेकिन आजादी के बाद, जब हिन्दी-विरोध एक राजनीतिक हथियार बन गया, तब यह काम कुछ मुश्किल हो गया. इसमें सबसे बड़ा विरोध तो ब्यूरोक्रेसी की तरफ से ही आया, जो अपने मूल चरित्र में ही यथास्थितिवादी होती है. उसमें भी हमारी विदेश सेवा हमारी दासवृत्ति का सबसे प्रबल उदाहरण रही है. लम्बे अरसे तक उन्हीं युवाओं को विदेश सेवा में एंट्री मिलती थी, जो ऐसे चुनींदा स्कूलों से पढ़े होते थे, जहां पूरी तरह से अंग्रेज़ी संस्कार दिए जाते थे. उनका भाषाई उच्चारण, चाल-ढाल, खान-पान के तौर-तरीके पूरी तरह से अंग्रेज़ी की चाशनी में डुबोये होते थे. इसलिए आपको याद होगा कि पुराने राजनयिकों में सामंतों-रजवाड़ों के लोग, विदेशों से शिक्षित धनी-मानी लोग ही प्रायः मिलते हैं. आज़ादी के लगभग तीस साल बाद जब सिविल सेवा परीक्षा में सुधार हुए तब जाकर मध्यवर्गीय युवाओं को विदेश सेवा में जगह मिलने लगी. आशय यह है कि वे लोग क्योंकर हिन्दी जैसी जनभाषा को कूटनीति की भाषा बनने देते, जो अंग्रेज़ी संस्कारों में पले-बढ़े हों? इसलिए हिन्दी वालों की यह मांग बनी ही रही कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाया जाये.
उनकी यह हसरत तब पूरी हुई, जब 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण दिया. यह भाषण शुरू में अंग्रेज़ी में लिखा गया था. जब अटलजी को यह भरोसा हो गया कि हिन्दी में भी भाषण दिया जा सकता है, तब अनुवाद करके पढ़ा गया. लेकिन आज तक हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा नहीं बन पायी है क्योंकि हमारी सरकार उसके जरूरी बंदोबस्त नहीं कर रही है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का प्रयोग दूसरी बार 23 नवम्बर, 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने दक्षेस देशों के माले सम्मलेन में किया. इन दो प्रयासों के अतिरिक्त कोई और उदाहरण सामने नहीं आता, जब हमारे किसी नेता ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिन्दी में बोला हो. ये दो घटनाएं भी एक तरह से प्रतीकात्मक ही थीं, क्योंकि वास्तव में इनकी वजह से व्यवहार में कोई ख़ास सुधार नहीं आया.
लेकिन जब नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आये सात पड़ोसी देशों के नेताओं के साथ हिन्दी में बातचीत की तो पहली बार लगा कि अब कूटनीति के अन्तःपुर में हिन्दी पहुँच रही है. उसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी हिन्दी में कामकाज शुरू किया. गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी संयुक्त राष्ट्र में गए तो हिन्दी में ही बोले. मोदी ने नेपाली संसद में हिन्दी में भाषण दिया, भूटानी संसद में हिन्दी में भाषण दिया. जापान में भी वे हिन्दी में ही बोले. वे न सिर्फ बोले बल्कि अपनी भाषा में बोलकर वहाँ के लोगों पर भारतीयता की छाप भी छोडी. अब वे संयुक्त राष्ट्र जा रहे हैं, फिर हिन्दी में बोलेंगे. अमेरिका, रूस और चीनी नेताओं के साथ भी वे हिन्दी में ही बोलने वाले हैं, ऐसी सूचना है. प्रधान मंत्री के इस कदम से न सिर्फ हिन्दी का भला होगा, बल्कि कूटनीति भी पटरी पर आयेगी. क्योंकि कूटनीतिक वार्ताओं में भाषा आपके देश और जनता का प्रतिनिधित्व करती है. उससे देश का सर ऊंचा होता है. देश के स्वाभिमान की भाषा कोई देशी भाषा ही हो सकती है. मोदी की पहल पर अनेक पूर्व विदेश सचिवों, राजनायिको की प्रतिक्रियाएं आयीं हैं. सबने इस कदम की सराहना ही की है. 
कूटनीति में भाषा की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए दो उदाहरण काफी होंगे. आजादी के तुरंत बाद विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत बनायी गयीं. वे 17 अगस्त, 1947 को मास्को में जोजेफ स्टालिन के पास अपना अंग्रेज़ी में लिखा प्रत्यय पत्र लेकर पहुंची तो स्टालिन ने उसकी भाषा पर आपत्ति की. कहा कि इसकी भाषा न आपके देश की है और न मेरे देश की है. तब कहते हैं कि रातोरात हिन्दी में लिखा पत्र दिल्ली से मास्को भेजा गया. लेकिन भारत के प्रति सोवियत नेताओं का दिल नहीं पसीजा. वे भारत को अंग्रेजों का पिट्ठू ही समझते रहे. ढाई साल तक विजयलक्ष्मी पंडित मास्को में रहीं, स्टालिन ने कभी उन्हें तवज्जो नहीं दी. चीनी प्रधानमंत्री चाओ एन लाई ने नेहरू से कहा कि काश आप अपनी भाषा में हमसे द्विपक्षीय मुद्दों पर बात कर पाते. नेहरू के पास कोई जवाब नहीं था, तो उन्हें अपनी हाजिर जवाबी का सहारा लेना पडा, ‘सबसे बड़ी भाषा तो प्रेम की होती है’. सच बात यह है कि कूटनीति में प्रेम की भाषा नहीं चलती. कूटनीति की कामयाबी इसी में है कि आप अपनी बात मनवा लें. इसके लिए शायद किसी अन्य देश की भाषा की बजाय अपनी भाषा ज्यादा मुफीद होती है. बेहतर हो कि हमारे तमाम राजनेता, मंत्री, राजनयिक और अन्य ब्यूरोक्रेट अपने सरकारी कामों में हिन्दी का प्रयोग करें और राष्ट्रीय स्वाभिमान को बढायें. (अमर उजाला, २१ सितम्बर, २०१४ से साभार) 

सोमवार, 20 मई 2013

हिन्दी को चाहिए उसका हक


भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
यह महज एक संयोग ही है कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने राजभाषा हिन्दी को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जबकि दूसरी तरफ न्यायपालिका और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर राजधानी दिल्ली में दो बड़े धरने चल रहे हैं और देश के कोने-कोने से इस तरह की आवाजें उठ रही हैं. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर पिछले पांच महीनों से श्याम रूद्र पाठक सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर धरने पर बैठे हैं तो भारतीय भाषा आंदोलन के तहत पुष्पेन्द्र सिंह चौहान और अन्य लोग जंतर-मंतर पर सुप्रीम कोर्ट और यूपीएससी में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर धरना दिए हुए हैं. ये दोनों ही लोग भारतीय भाषाओं को उनका जायज हक दिलाने के लिए अतीत में भी निर्णायक लड़ाई लड़ चुके हैं. लेकिन इस बार की लड़ाई सचमुच कठिन है, क्योंकि अदालतों में भारतीय भाषाओं को लागू करने को लेकर हमारा संविधान भी चुप है. जाहिर है इसके लिए हमारी संसद को भी आगे आना होगा, तभी पूर्ण स्वराज्य का सपना साकार हो पायेगा.
खैर, अत्यंत सकारात्मक सूचना यह है कि इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले को संज्ञान में लिया और हिन्दी के पक्ष में फैसला दिया, जिसका बड़े पैमाने पर सरकारी दफ्तरों में हनन होता रहा है. मामला यह है कि भारतीय नौसेना के एक कर्मचारी मिथिलेश कुमार सिंह के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई चल रही थी. सिंह ने मांग की कि उन्हें कार्रवाई से सम्बंधित कागजात हिन्दी में दिए जाएँ. लेकिन कार्यालय ने ऐसा नहीं किया. सिंह ने भी आगे की कार्रवाई में सहयोग नहीं दिया. यह कोई नई बात नहीं है. अमूमन हर विभाग के हर दफ्तर में ऐसा होता रहा है. कार्रवाई अंग्रेज़ी में ही होती है. हिंदीभाषी इलाकों में भी. कर्मचारी भी प्रताडित होने के भय से उसे हिन्दी में करवाने की मांग नहीं करते. और न सरकारी दफ्तर और न ही अदालतें इस मामले में राजभाषा का साथ देती हैं. जैसा कि इस मामले में भी हुआ. मिथिलेश कुमार सिंह केन्द्रीय कर्मचारियों के प्रशासनिक अधिकरण (कैट) के पास भी गए और मुम्बई हाई कोर्ट भी. लेकिन दोनों ही जगहों से उन्हें दुत्कार ही मिली. यह इसलिए नहीं हुआ कि क़ानून उनके पक्ष में नहीं था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले हमारी अदालतों ने राजभाषा से सम्बंधित कानूनों पर कभी गौर ही नहीं फरमाया. वे नया कुछ करने से बचती हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और जेएस केहर ने पहली बार राजभाषा से सम्बंधित कानूनों को खंगाला और उन्हें व्यावहारिक क़ानून के दायरे में रख कर समझा. अभी तक हम इन कानूनों को नख-दन्त-विहीन क़ानून मानते आये हैं. क्योंकि संविधान में पर्याप्त स्थान पाने और राजभाषा अधिनियम, नियम, संकल्प और तरह-तरह के आदेशों के बावजूद आज भी लोग इन्हें सिर्फ सूक्ति वाक्यों की तरह ही लेते हैं, कोई इन्हें व्यवहार में लाने लायक नहीं समझता.
सरकारी कामकाज में हिन्दी को लागू करने को लेकर कोई भी  गंभीर नहीं है. हिन्दी दिवस पर हर साल एक रस्म अदायगी होती है. हिन्दी में काम करने के नाम पर कर्मचारियों को पुरस्कार बांटे जाते हैं. हर दफ्तर, शहर, विभाग, मुख्यालय, मंत्रालय और संसद, हर जगह हिन्दी कार्यान्वयन समितियां बनी हुई हैं. लोग भाषण देकर चले जाते हैं. लेकिन हिन्दी में काम नहीं होता. काम के लिए हिन्दी कक्ष बना दिए गए हैं. यह प्रक्रिया १९७६ में राजभाषा नियम बनने के बाद शुरू हुई, लेकिन इससे भी कोई गुणात्मक सुधार नहीं आ पाया. हिन्दी अनुवादकों और अफसरों की भर्ती तो हो गयी लेकिन हिन्दी में मौलिक लेखन नहीं बढ़ पाया. लिहाजा हिन्दी अनुवाद की भाषा यानी दोयम दर्जे की भाषा बनकर रह गयी. १९९१ में नयी अर्थव्यवस्था आने के बाद हिन्दीकरण की इस प्रक्रिया को भी धक्का लगा, जब हिन्दी से जुड़े स्टाफ को सरकारी दामाद समझा जाने लगा और हिन्दी अफसरों पर इस बात के लिए दबाव डाला जाने लगा कि वे हिन्दी का काम छोड़ कर किसी और विभाग का काम सीख लें. इस तरह हिन्दी कक्ष का काम सिर्फ आंकड़े पूरे करना भर रह गया है.
जहां तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में सख्ती से लागू करने का सवाल है, उसकी प्रगति एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली रही है. संविधान के अनुच्छेद ३४३ में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर हिन्दी आज तक अंग्रेज़ी की सौतेली बहन ही बनी हुई है. १९६३ में राजभाषा अधिनियम बना लेकिन साथ ही दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी दंगे करवा दिए गए. जिससे १९६७ में इसमें कुछ संशोधन करने पड़े. संशोधन के बाद हिन्दी की स्थिति और भी कमजोर हो गयी. कहा गया कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा, जब तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधान मण्डलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात्‌ ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता। अर्थात पहले सभी राज्य हाँ करें, फिर संसद के दोनों सदन हाँ कहें, तब जाकर हिन्दी पूर्ण राजभाषा हो पायेगी. यह असंभव लगता है. कोई भी अहिंदी भाषी राज्य क्यों ऐसा करेगा? इंदिरा गांधी इस बात को समझ गयीं. इसीलिए आपातकाल के दौरान उन्होंने कुछ हिन्दी प्रेमियों के आग्रह पर राजभाषा नियम बनाए. चूंकि तब आपातकाल था, इसलिए यह नियम बन गया, वरना यह भी संभव नहीं था. बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने जिस नियम को आधार बनाकर नौसेना के मिथिलेश कुमार सिंह को न्याय दिलाया है, वह यही नियम है, जिसमें १९६७ के अधिनियम के तहत राजभाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने में कुछ सख्ती बरतने की बात है.    
कहने का आशय यह है कि हमारे पास नियम है, क़ानून है, लेकिन कभी किसी ने उन्हें क़ानून की नजर से नहीं देखा. हर महीने-तीन महीने में हिन्दी कार्यान्वयन की रिपोर्ट राजभाषा विभाग को भेजी जाती है. जिनमें दवा किया जाता है कि शत प्रति शत नहीं तो ९० प्रतिशत काम हिन्दी में हो रहा है. सबको पता होता है कि ये आंकड़े झूठे हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता. सरकारी अफसर इसे एक बला की तरह से लेते हैं. यहाँ तक कि संसदीय समिति भी दौरे तो बहुत करती है, लेकिन सांसदों की दिलचस्पी भी हिन्दी को लागू करवाने में कम, ‘उपहार बटोरने में ज्यादा होती है’. इसलिए हिन्दी को लागू करने का अनुष्ठान महज एक प्रहसन बनकर रह गया था. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप हिन्दी को लागू करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है. अदालत का थोड़ा सा भी भय ब्यूरोक्रेसी को हो तो वाह राजभाषा कानूनों की अवहेलना नहीं करेगी.   (अमर उजाला, २० मई, २०१३ को प्रकाशित. साभार)