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मंगलवार, 29 सितंबर 2015

हिन्दी को अब रोमन से लड़ना होगा

भाषा समस्या/ गोविन्द सिंह
विश्व हिन्दी सम्मलेन से पहले कुछ हिन्दी प्रेमी मित्रों ने यह आशंका जताई थी कि इस बार के सम्मेलन का एक हिडन एजेंडा भी है, कि सम्मेलन में ऐसा प्रस्ताव पारित हो सकता है कि हिन्दी के विस्तार को देखते हुए देवनागरी की जगह रोमन को हिन्दी की लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया जाए. आशंका के विपरीत सम्मेलन में ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे कुछ सत्रों में यह चिंता जाहिर की गयी कि इस तरह की किसी भी कोशिश का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए. आशंका जताने वालों का तर्क यह था कि चूंकि इस बार माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, सीडेक या ऐसी ही बड़ी कंपनियों को बुलाया जा रहा है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों की मांग को देखते हुए ऐसा फैसला हो सकता है. कम्पनियां भी आयीं और उन्होंने हिन्दी में हो रहा अपना काम भी प्रदर्शित किया, लेकिन रोमन लिपि का आग्रह किसी सत्र में नहीं दिखाई पड़ा.    
भलेही इस सम्मेलन में ऐसी कोई बात नहीं हुई, लेकिन यह सच है कि हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती लिपि की ही है. इसमें कोई दो-राय नहीं कि हिन्दी का परिदृश्य लगातार बदल रहा है. उसमें विस्तार हो रहा है. लेकिन उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हो रहीं. कुछ चुनौतियां कृत्रिम हैं तो कुछ जायज भी हैं. लिपि की चुनौती को मैं जायज मानता हूँ. इसलिए कि हिन्दी भाषी समाज में यह समस्या जंगल की आग की तरह फ़ैल रही है. गिनती के मामले में अंग्रेज़ी के अंकों को स्वीकार कर हम पहले ही समर्पण कर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि आज की पीढ़ी में शायद ही हिन्दी की गिनती को कोई समझता हो. अंग्रेज़ी के अंकों को हिन्दी में क्या बोलते हैं, यह भी नई पीढी नहीं जानती है. हिन्दी चैनलों में काम करने को आने वाले युवा पत्रकारों को सबसे ज्यादा मुश्किल इसी में होती है. हिन्दी पढ़े-लिखे युवा भी अभ्यास न होने की वजह से वर्णमाला के सभी अक्षरों को नहीं बोल सकते. नई टेक्नोलोजी के आने के बाद वाकई देवनागरी में व्यवहार मुश्किल होता गया. चूंकि कम्प्यूटर का आविष्कार पश्चिम में ही हुआ, और जो भी कोई नई प्रगति होती है, वह भी वहीं से होती है, इसलिए सब कुछ अंग्रेज़ी में ही आरम्भ होता है. जो देश प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत हैं, वे जरूर अपनी भाषाओं में शुरुआत करते होंगे. लेकिन हमारे यहाँ चूंकि अंग्रेज़ी का बोलबाला है, इसलिए कोई भी नई चीज हमारे यहाँ पहले अंग्रेज़ी में ही पहुँचती है. मीडिया की जरूरतों के कारण कोई चीज हिन्दी या भारतीय भाषाओं में आती भी है तो बहुत देर से. मसलन इन्टरनेट आया तो हमारे सामने फॉण्ट की समस्या पैदा हुई. शुरुआती दिनों में हिन्दी की जो साइटें बनती थीं, पहले उनके फॉण्ट डाउनलोड करने पड़ते थे. मेल के साथ फॉण्ट भी भेजने पड़ते थे. लिहाजा हिन्दी की साइटें बड़ी बोझिल होती थीं, वे खुलने में ही बड़ी देर कर देती थीं. वर्ष 2000 में जाकर माइक्रोसॉफ्ट ने कम्प्यूटर के भीतर ही मंगल नामक यूनिकोड फॉण्ट देना शुरू किया. लेकिन यह बड़ा ही कृत्रिम लगता है. देवनागरी का सौन्दर्य उसमें दूर-दूर तक नहीं झलकता. खैर बाद में कुछ और फॉण्ट यूनिकोड पर आये और हिन्दी की दशा सुधरी. लेकिन की-बोर्ड की समस्या बरकरार रही. पुराने लोग या पारंपरिक तरीके से टाइप करने वाले लोग रेमिंगटन की-बोर्ड में काम करते हैं, सी-डेक ने फोनेटिक की-बोर्ड बनाया. यह ज्यादा वैज्ञानिक है, किन्तु पुराने लोग इसे नहीं अपनाते. इसी तरह गूगल के ट्रांसलिटरेशन सॉफ्टवेर के जरिये टाइप करने वाले रोमन के आधार पर करते हैं. इसके आने से पहले ई-मेल भी हम हिन्दी में नहीं कर पाते थे. अखबारों के दफ्तरों में अक्सर कम्प्यूटरों पर तीन तरह के की-बोर्ड बने होते हैं. ताकि किसी को मुश्किल न हो. अर्थात एक अजीब-सी अराजकता यहाँ भी व्याप्त हो गयी. इसलिए कंप्यूटर का आम उपयोगकर्ता इस झमेले में पड़े बिना सीधे रोमन में काम शुरू कर देता है. चाहे मेल करना हो या कोई छोटा-मोटा नोट लिखना हो. वरना उसे किसी पेशेवर टाइपिस्ट की शरण लेनी पड़ती है. इसी तरह अंग्रेज़ी में स्पेलिंग चेक करने वाला सॉफ्टवेर होता है, व्याकरण जांचने वाला सॉफ्टवेर होता है, हिन्दी में बीस साल बाद अब जाकर इस तरह के प्रयास सामने आ रहे हैं, फिर भी वे बहुत कम इस्तेमाल हो रहे हैं. यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है. किसी भी नई अप्लिकेशन के हिन्दी में आते-आते छः महीने लग जाते हैं. इसलिए नए बच्चे धड़ल्ले से रोमन में हिन्दी लिख रहे हैं. वे रोमन को इसलिए नहीं अपनाते कि यह बहुत अच्छी लिपि है, इसलिए कि यह सहज ही उपलब्ध है और सब तरफ इसी का माहौल है. दूसरी तरफ देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए हमने कुछ किया ही नहीं.
पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद में बड़े जोरदार तरीके से सरकार पर हमला किया. वे हिन्दी में बोल रहे थे, लेकिन उनके हाथ में जो पर्ची थी, वह रोमन में थी. इस पर बड़ा हंगामा हुआ. टीवी रिपोर्टों में दिखाया गया कि राहुल इतनी-सी हिन्दी भी नहीं जानते. वास्तव में हिन्दी तो वह जानते हैं, पर देवनागरी लिपि में अभ्यस्त न होने से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा. इसमें हाय-तौबा करने वाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि आज बड़ी संख्या में देश के युवा ऐसा ही कर रहे हैं. चूंकि हमारे यहाँ अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है, बच्चों को स्कूल से ही हिन्दी से हिकारत करना सिखाया जाता है, इसलिए उन्हें रोमन का ही अभ्यास रहता है. फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले तमाम दक्षिण भारतीय कलाकार रोमन में ही अपनी पटकथा बांचते हैं. अहिन्दी भाषियों को जाने दीजिए, पढ़े-लिखे हिन्दी भाषी ही फक्र के साथ यह कहते हुए सुने जाते हैं कि ‘आई डोंट नो हिन्दी’. विज्ञापन जगत में काम करने वाले ज्यादातर लोग यही करते हैं. कुछ हिन्दी मीडिया घराने भी चाहते हैं कि हिन्दी की लिपि देवनागरी हो जाए. वे यदा-कदा अपने अखबारों में हिन्दी के बीच में अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को रोमन लिपि में छापते भी हैं. पिछले दिनों अंग्रेज़ी के बहु-चर्चित लेखक चेतन भगत ने भी घिसी-पिटी दलीलों के साथ रोमन की वकालत करने वाला लेख लिख मारा, जिसे एक बड़े अंग्रेज़ी अखबार ने तो छापा ही, बड़े हिन्दी अखबार ने भी छाप डाला. इसमें इन युवाओं का कोई दोष नहीं है. दोष है तो हमारी सरकारों का. जिसने हिन्दी को शिक्षा से लगभग बेदखल कर रखा है, जो बचपन में ही हमारे नौनिहालों के मन में हिन्दी के प्रति घृणा भाव भर देती है और अंग्रेज़ी को श्रेष्ठ भाषा मानने को विवश कर देती है. सरकार चाहे तो नई टेक्नोलोजी को हिन्दी में लागू करवा सकती है. कम्प्यूटर में, मोबाइल में, टैबलेट में, अईपैड में, अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी को पहली भाषा बनवा सकती है. लेकिन उसने कभी ऐसा नहीं किया. पिछले छः दशकों के साथ यह हो रहा है. रोमन या देवनागरी से ज्यादा यह हमारी सरकारों के मानसिक दीवालियेपन का सबूत है.
एक बार फिर रोमन-परस्त ताकतें सर उठा रही हैं. आजादी से पहले भी ये लोग रोमन की वकालत कर रहे थे. लेकिन तब राष्ट्रवाद का ज्वार इतना तेज था कि ये अलग-थलग पड़ गए. वे यह नहीं जानते कि देवनागरी लिपि इस देश की भाषाओं की अभिव्यक्ति की सबसे उपयुक्त लिपि है. वह केवल सौ साल  में नहीं बनी. वह ब्राह्मी-खरोष्ठी और शारदा का स्वाभाविक विकसित रूप है और दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है. उन्हें यह भी नहीं पता कि रोमन लिपि अंग्रेज़ी भाषा को ही ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती. वह एक अत्यंत अराजक लिपि है. अंग्रेज़ी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ खुद इस लिपि को किसी लायक नहीं समझते थे. उन्होंने अपनी वसीयत में एक अच्छी-खासी रकम इस लिपि की जगह किसी नई लिपि के विकास के लिए रखी थी. रोमन लिपि न उच्चारण की दृष्टि से मानक है और न ही एकरूपता के लिहाज से, जबकि देवनागरी लिपि जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है. ऐसी लिपि की अवहेलना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा. (अमर उजाला, 27 सितम्बर, 2015 को प्रकाशित लेख का अविकल रूप)   

बुधवार, 16 सितंबर 2015

हिन्दी-उर्दू और देवनागरी

लिपि और भाषा/ गोविन्द सिंह
इस देश की कोई ४० फीसदी आबादी हिन्दी को अपनी पहली भाषा मानती है. बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो उसे दूसरी भाषा मानते हैं. मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनिडाड, नेपाल, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और खाड़ी देशों में भी बड़ी संख्या में हिन्दी भाषी रहते हैं. इस तरह कुल ५० करोड़ लोग अच्छी तरह से हिन्दी जानते हैं या हिन्दी को अपनी भाषा मानते हैं. इसी तरह उर्दू बोलने वाले भी कोई २५ करोड़ लोग हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दुनिया के अन्य देशों में रहते हैं. यानी दोनों को मिलाकर कुल ७५ करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी भाषा एक है, पर उन्हें पता नहीं. यदि ये सब लोग हिन्दी-उर्दू को एक भाषा मान लें तो यह वर्ग मंदारिन यानी चीनी भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन जायेगी. मंदारिन भी कौन सच्चे अर्थों में एक भाषा है! उसके भी अनेक रूप हैं. सिंगापुरी अलग है, फिलिपिनो अलग है. चीन के भीतर ही अनेक उपभाषाएँ हैं, जिन्हें एक लिपि में बाँध एक भाषा के रूप में समेट कर रखा गया है. लेकिन हिन्दी और उर्दू में तो बहुत कम फर्क है. दोनों की जन्मभूमि एक है, वाक्य-विन्यास एक है, व्याकरण एक है, लोग एक हैं. सिर्फ एक ही अंतर है- लिपि का. हाँ, जबसे सियासत के ठेकेदारों ने भाषाओं को धर्म से जोड़ दिया, तब से एक हिन्दुओं की और दूसरी मुसलामानों की भाषा बन कर रह गयी है, वरना हिन्दी के जन्मदाताओं में मुसलमान और उर्दू को बनानेवालों में हिन्दू ज्यादा थे.
दुनिया के भाषावैज्ञानिक इन दोनों भाषाओं को एक ही भाषा मानते हैं. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश के लोग इन्हें दो भाषाएँ ही मानते हैं. क्योंकि वे हिंदी या उर्दू की बजाय देवनागरी और फारसी/ नस्तालिक लिपियों को असली भाषा समझ बैठे हैं. वे यह नहीं जानते कि हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की जुगत में हिन्दी और उर्दू के बीच दरार डालने का काम अंग्रेजों ने १८३७ के आस-पास शुरू किया था. बाद के वर्षों में महात्मा गांधी द्वारा दोनों भाषाओं को मिलाकर हिन्दुस्तानी कर देने और उसे राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव को न मानकर पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन और बाद में कांग्रेस पार्टी ने बड़ी भूल कर डाली, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज दोनों भाषाएँ आमने-सामने हैं. दोनों ही सम्प्रदायों में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो हिन्दी को संस्कृत की ओर और उर्दू को अरबी-फारसी की ओर ले गए. और आज भी ले जाना चाहते हैं. लेकिन सचाई यही है कि दोनों भाषाओं में से उनके कुछ कठिन शब्द निकाल दिए जाएँ तो दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता है.
इसीलिए पिछली सदी के आखिरी दशक में क्रिस्टोफर किंग नाम के भाषावैज्ञानिक ने जब ‘वन लैंग्वेज इन टू स्क्रिप्ट्स’ नाम की किताब लिखी थी, तो दोनों ही भाषाओं के कट्टरपंथी आग-बबूला हो गए थे. लेकिन भाषा बहता नीर होती है. उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि वह सहजता की ओर चलती है. वह व्याकरण की दीवारों में नहीं बंधती. वह राजनेताओं या व्यापारियों के आदेशों को भी नहीं मानती. नतीजा यह हो रहा है कि आज उर्दू भाषी हिन्दी की ओर झुक रहे हैं और हिन्दी भाषी उर्दू की ओर. अपने ही देश में इस दिशा में अनेक प्रयास हो रहे हैं. मसलन कई उर्दू पत्रिकाएं देवनागरी लिपि में छपने लगी हैं, और अच्छा-खासा व्यवसाय कर रही हैं. इस्लामी साहित्य देवनागरी में आ रहा है. इसी तरह हिन्दी में भी उर्दू शब्दों और मुहावरों को ज्यादा से ज्यादा स्वीकार किया जा रहा है. उर्दू का साहित्य, भलेही वह पाकिस्तान का ही क्यों न हो, बड़ी मात्रा में अनुवाद हो कर हिंदी में आ रहा है. विदेशों में भी, हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है. टेक्सास विश्वविद्यालय में ‘हिन्दी-उर्दू फ्लैगशिप प्रोजेक्ट’ चल रहा है, जिसके अध्यक्ष हिन्दी विद्वान् रूपर्ट स्नेल हैं. और वहाँ हमारी बोली नाम का भी एक प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसका मकसद ही यही है कि दोनों भाषाओं के बीच की दूरियों को ख़त्म किया जाए.
इसमें ताजा मुहिम निस्संदेह ‘हमारी बोली’ आन्दोलन की ही है. जिसका झंडा अमेरिका-यूरोप में जन्मी भारतवंशियों की नई पीढी ने बुलंद कर रखा है. इस पीढ़ी को एबीसीडी अर्थात अमेरिका में पैदा हुए कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाता है. ‘कन्फ्यूज्ड’ के इस दाग को मिटाने के लिए ही शायद अमेरिका में पैदा हुई इस दूसरी-तीसरी पीढी के युवाओं में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा हो रहा है. इनमें ज्यादातर युवा पाकिस्तानी मूल के हैं. कुछ भारतीय मूल के भी हैं. उन्हें लगता है कि हिन्दी और उर्दू ने दोनों भाषाओं और भाषियों को बहुत अलग कर लिया है, अब उनकी जगह ‘हमारी बोली’ को लेना चाहिए. वे हिन्दी और उर्दू को मिटा कर नया नामकरण कर रहे हैं, ‘हमारी बोली.’ वे मानते हैं कि उर्दू में से अरबी और फारसी के शब्द हटा दो, इसी तरह से हिन्दी में से संस्कृत के कठिन शब्दों को हटा दीजिए, हमारी बोली बन जाती है. इसके पीछे भी यही तर्क है कि काश, दोनों भाषाएँ मिल जाएँ तो कितनी ताकतवर बन जाएँ! अमेरिका में सबसे लोकप्रिय भारतवंशी ट्यूटर सलमान खान भी इस आन्दोलन से जुड़ चुके हैं. दुनिया भर में इसको फैलाने के लिए कोशिशें जारी हैं. स्वयंसेवक बनाए जा रहे हैं. सोशल मीडिया और अन्य मीडिया पर जमकर प्रचार किया जा रहा है.
हमारी बोली आन्दोलन की सबसे कमजोर कड़ी है, लिपि को लेकर उसका आग्रह. वे देवनागरी या नस्तालिक की जगह रोमन को ‘हमारी बोली’ की लिपि बनाना चाहते हैं.
दरअसल उनकी भी अपनी मजबूरी है. विदेश में पले-बड़े होने के कारण वे उसी लिपि को जानते हैं. उनके मां-बाप ने कभी कोशिश ही नहीं की कि उनके बच्चे अपनी लिपियों को जानें. केवल उन्हें ही दोष क्यों दिया जाए? हमारे अपने देश के भीतर आज अंग्रेजीदां स्कूलों में पढने वाले बच्चे कितनी देवनागरी जानते हैं. जिस तरह से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी रोमन में लिखे को हिन्दी में बोलते हुए पकड़े गए, वह उच्च वर्गीय समाज में मामूली बात है. मुंबई के हिन्दी फिल्म उद्योग में रोमन ही बड़े पैमाने पर हिन्दी की लिपि बन चुकी है. शुरुआती दिनों में जब टेक्नोलोजी में हिन्दी नहीं घुसी थी, टेलीप्रोम्प्टर पर अंग्रेज़ी के ही अक्षर दिखाई देते थे, स्टार न्यूज के हिन्दी समाचारों को रोमन में ही पढ़ा जाता था. आज बड़े पैमाने पर एसएमएस, ई-मेल, सोशल मीडिया में हिन्दी की लिपि रोमन बन गयी है. इसके दो कारण हैं: पहला यह कि हमारे स्कूलों में हिन्दी को आज भी दोयम दर्जा मिला हुआ है. दूसरा, उच्च वर्गीय लोग, ब्यूरोक्रेट, शिक्षाविद, शिक्षा-प्रशासक हिन्दी के प्रति हिकारत के भाव से देखते हैं. इसलिए देवनागरी भी उपेक्षित रह गयी. नतीजा यह हुआ कि आज की अंग्रेजीदां पीढी खुद को देवनागरी की जगह रोमन के करीब पाती है.    
सच बात यह है कि हमारी नई पीढी देवनागरी की वैज्ञानिकता से एकदम नावाकिफ है. वे नहीं जानते कि देवनागरी एक ध्वन्यात्मक लिपि है. जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है. उसे नहीं मालूम कि हमारी भाषा की सबसे सबल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. आज यदि नई पीढी को लगता है कि नए जमाने की कुछ ध्वनियों को वह अभिव्यक्ति नहीं दे पा रही है तो उसमें संशोधन-परिवर्धन किया जा सकता है. आजादी के आन्दोलन के दौरान इस मसले पर लम्बी बहस हो चुकी है. आचार्य विनोबा भावे का तो यहाँ तक कहना था कि सभी भारतीय भाषाएं देवनागरी को ही अपना लें. इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा. कम से कम देवनागरी के रूपों को तो मिलाया ही जा सकता है. पूर्वी नागरी और पश्चिमी नागरी के भी अलग-अलग रूप हैं, जिनमें कुछ-कुछ ही अक्षर अलग हैं. इनसे नाहक ही अलगाव पैदा होता है. नागरी लिपि को लेकर नई पीढ़ी का अज्ञान ही उसे रोमन की ओर ले जा रहा है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. हजारों वर्षों की उसकी यह यात्रा आज हमारी सरकारों की अकर्मण्यता और दास-मनोवृत्ति के चलते खतरे में पड़ गयी है. काश! हमारी नई पीढी हिन्दी और देवनागरी के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के द्वार खोलती तो आज हमें कदम-कदम पर नीचा नहीं देखना पड़ता. हिन्दी अनुवाद की भाषा बन कर न रह जाती.   

              

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

हिंदी के विस्तार को व्यवस्था दीजिए

भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
क्या आप जानते हैं कि हिंदी की झोली में कितने शब्द हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हम भी नहीं जानते थे। जानें भी कैसे? कौन बताए? भला हो ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर का, जिसने गत वर्ष अपनी सालाना रिपोर्ट में यह बताया था कि हिंदी में महज एक लाख 20 हजार शब्द हैं। जबकि तभी अंग्रेजी ने 10 लाखवां शब्द अपने शब्द भंडार में शामिल करने की घोषणा की थी। है ना आश्चर्य की बात? दुनिया में जितनी बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है, लगभग उतनी ही अंग्रेजी बोलने वालों की भी होगी। यह ठीक है कि अंगे्रजी का फैलाव बहुत ज्यादा रहा है, दुनिया के लगभग हर महाद्वीप में उसके बोलने वाले हैं, और हर भाषा से उसने कुछ न कुछ लिया ही है, इसलिए उसके पास शब्दों का भंडार भी उतना ही समृद्ध है, जबकि हम लगातार सिमटते जा रहे हैं। तो शब्दों का भंडार भरे भी तो कैसे? सतही तौर पर देखने पर यह एक जायज तर्क लगता है, लेकिन थोड़ा सा गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि हिंदी का क्षेत्र भी कम चौड़ा नहीं है। हिंदी की मां तो संस्कृत है ही, उसकी अपनी बहनें भी कम नहीं हैं। 22 तो संविधान में सूचीबद्ध भाषाएं हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों बोलियां और उपबोलियां हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशी पहुंचे हैं, उनकी अपनी भाषाएं बन गई हैं, वे भी हिंदी का विस्तार ही हैं। फिर अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, चीनी और जापानी  जैसी दर्जनों भाषाएं हैं, जिनके साथ हमारा आदान-प्रदान हो रहा है, जहां से हम शब्द ग्रहण कर सकते हैं या करना चाहिए।
आश्चर्य की बात यह है कि दस लाख से अधिक शब्द होते हुए भी अंग्रेजी भाषा का मूल स्वरूप बना हुआ है या कहिए कि वह विकृत नहीं हुई है, जबकि हिंदी हर रोज लांछित होती रहती है। हिंदी से परहेज रखने वाले लोग हिंदी पर आरोप लगाते हैं कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरी हुई है, कि हिंदी के कुछ ठेकेदार उसे कुएं के मेंढक की तरह बनाए रखना चाहते हैं, उसे अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं निकलने देते। जबकि हिंदीवाले इसलिए खफा हैं कि उसमें जबरन अंग्रेजी के शब्द ठूंसे जा रहे हैं। ऐसा है भी। कुछ अखबार बीच-बीच में सिर्फ इसलिए अंग्रेजी के शब्द छिड़क देते हैं ताकि लगे कि उनके अखबार को अमीर वर्ग के लोग पढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी विकृत लगेगी ही। लेकिन सोचने की बात यह है कि लाखों शब्द बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी नहीं बिगड़ी, जबकि हिंदी एक ही झोंके में धराशायी होती नजर आ रही है। इसलिए कि हमारे यहां भाषा के स्वरूप और पहचान को बचाए रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। 
दरअसल शब्द तो इस सारे परिदृश्य का एक छोटा सा पहलू हैं, जिनसे हिंदी लड़खड़ाती नजर आ रही है। आज जिस तरह से युवा वर्ग हिंदी के लिए देवनागरी के बजाए रोमन का इस्तेमाल कर रहा है, उससे हिंदी के पारंपरिक रूप को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। जितनी तरह की सूचनाएं और ज्ञान की सामग्री बाहर से आ रही है, उसे अपनी भाषा में अपने बच्चों को देने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। जितने बड़े पैमाने पर अनुवाद की तैयारी होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखाई देती। जिस तरह से हिंदी अपने ही देश में फैल रही है, उसकी वजह से सहोदरा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ उसके रिश्तों में खटास पैदा हो रही है, उसे संभालने के लिए हमारे पास कोई नीति नहीं है। आरंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा के मुद्दे को जिस संवेदनशीलता के साथ लिया जाना चाहिए था, वह नहीं लिया गया, लिहाजा जिस गति से हिंदी बढ़ रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है। पहले वह बड़े शहरों तक ही सीमित थी, आज वह गांव-गांव तक पहुंच रही है। इससे मुकाबले के लिए कहीं कोई छटपटाहट नहीं दिखाई पड़ती।  
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आज की तुलना में आजादी से पहले हिंदी का विकास बेहतर और समन्वित तरीके से हुआ। हिंदी साहित्य, भाषा, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बीच जैसा तालमेल उस दौर में दिखाई देता है, वह अद्भुत है। आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आजादी से पहले बनी दो संस्थाएं - नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन की ही गतिविधियों पर एक नजर डालें तो आश्चर्य होता है। जहां नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी में तमाम तरह के विषयों पर साहित्य निर्माण करवा रही थी, वहीं साहित्य सम्मेलन राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में उसके लिए ठोस जमीन तैयार कर रही थी। सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन भी लगभग उतनी ही गर्मजोशी के साथ होते थे, जितने कि कांग्रेस पार्टी के। मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोग इन अधिवेशनों की अध्यक्षता किया करते थे। इन अधिवेशनों में न सिर्फ साहित्य सृजन पर विमर्श होता था, बल्कि भाषा, पत्रकारिता, अनुवाद और उसके मानकीकरण पर भी गंभीर चर्चा होती थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सम्मेलनों में जितने जोश के साथ हिंदी भाषी भाग लेते थे, उसी गर्मजोशी के साथ अहिंदी भाषी नेता, विचारक भी भाग लेते थे। आजादी के बाद हमने चूंकि हिंदी के काम को सरकार को सौंप दिया, और सरकार के मन में इसको लेकर सदा एक खोट रहा, इसलिए यह काम पतन के गर्त में धंसता चला गया। गोष्ठियां आज भी हो रही हैं, सरकार के हर पायदान पर हिंदी कार्यान्वयन समितियां हैं, संसदीय सलाहकार समिति है, केंद्रीय हिंदी समिति है, लेकिन परिणाम फिर भी सिफर ही है। जिस व्यवस्था में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में एजेंडा अंग्रेजी में परोस दिया जाता है, उस व्यवस्था से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

हमारा निवेदन यह है कि तमाम अवरोधों के बावजूद आज हिंदी अपने ही बूते पर फैल रही है, उसका बाजार फैल रहा है, दुनिया भर में उसे लेकर एक जागरूकता बनी है, इसलिए आज चुनौतियां कहीं ज्यादा हैं। क्योंकि फैलना या विस्तार पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसे बनाए रख पाना। हम उसे तभी बनाए रख पाएंगे, जबकि हमारे पास एक मजबूत व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से आज संस्थाओं को बनाए रखने में हिंदी समाज की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। आजादी से पहले जिन संस्थाओं ने हिंदी के लिए महान कार्य किए, वे आज मृतप्राय हैं। आजादी के बाद सरकार ने जो संस्थाएं बनाईं, वे सरकार की लालफीताशाही का शिकार हैं। नख-दंत विहीन राजभाषा अधिनियम की तरह सरकारी संस्थाओं की दिलचस्पी भी हिंदी को लागू करने की बजाए उसे उलझाए रखने में रहती है। और निजी क्षेत्र यानी प्रकाशन ग्रहों, मीडिया घरानों के बीच कोई एकता नहीं दिखती। तो हिंदी को कौन बचाएगा? उसका विस्तार अवश्यंभावी है, लेकिन वह अराजक नहीं होना चाहिए। उसे व्यवस्था चाहिए। इसलिए हिंदी समाज अपनी निद्रा तोड़ कर जागे ताकि अपनी भाषा को बचाया जा सके। (दैनिक हिन्दुस्तान, १४ सितम्बर, २०१० से साभार)        

रविवार, 21 सितंबर 2014

कूटनीति की मेज पर हिन्दी

भाषा/ गोविन्द सिंह        
भाषा के मोर्चे पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक ऐसी रेखा खींच दी है, जिसके सामने अब तक की सारी रेखाएं छोटी पड़ गयी हैं. यह रेखा है कूटनीति की मेज पर हिन्दी की. राजनीति यदि जनपथ है तो कूटनीति राजपथ. कोई भाषा कूटनीति की भाषा यों ही नहीं बन जाती. उसे जनता की भाषा तो होना ही पड़ता है, साथ ही अभिजात्य वर्ग की भाषा भी बनना होता है. फ्रेंच भाषा को दुनिया भर में कूटनीति की भाषा के रूप में जाना जाता है तो सिर्फ इसीलिए कि वह दुनिया भर में अभिजात्य वर्ग की भाषा रही है. उसमें साहित्यिक ऊंचाई है तो नफासत भी. दुनिया के अनेक देशों तक उसकी पहुँच रही है. अमेरिका के उत्कर्ष के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ी ने उसकी जगह लेने की कोशिश की है, लेकिन अभी तक वह पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पायी है. औपनिवेशिक दासता झेल चुके देश ही उसे वैश्विक कूटनीति की भाषा बनाना चाहते हैं. भाषाई कूटनीति का दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर स्वतंत्र-चेता देश अपनी भाषा में ही कूटनीति करना चाहते हैं. जबकि वर्चस्ववादी देश चाहते हैं कि उनकी भाषा वैश्विक कूटनीति की भाषा बने. आज अधिसंख्य ताकतवर देश अपनी भाषा में ही कूटनीति करते हैं. ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, चीन और जापान इनमें कुछ हैं. ऐसा नहीं है कि इन देशों के नेता अपने पड़ोसी देश की भाषा नहीं जानते. अपनी सामान्य बातचीत में भलेही वे अन्य भाषा में बात करते हों, लेकिन कूटनीति की मेज पर अपनी भाषा ही बोलते हैं, भलेही उसके लिए दुभाषिया ही क्यों न बैठाना पड़े. वे भारत में अपना राजदूत हिन्दी सिखा कर नहीं भेजते.
लेकिन भारत की स्थिति उल्टी रही है. यहाँ कूटनीतिक काबिलियत के लिए अंग्रेज़ी जानना जरूरी है. हमारे यहाँ यह आवाज उठती रही है कि हमें अपनी कूटनीति में अपनी राजभाषा अर्थात हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए. आजादी से पहले इसमें कोई मतभेद नहीं था. लगभग आमराय थी कि स्वाधीन भारत को अपनी ही भाषा में सब काम करने चाहिए. लेकिन आजादी के बाद, जब हिन्दी-विरोध एक राजनीतिक हथियार बन गया, तब यह काम कुछ मुश्किल हो गया. इसमें सबसे बड़ा विरोध तो ब्यूरोक्रेसी की तरफ से ही आया, जो अपने मूल चरित्र में ही यथास्थितिवादी होती है. उसमें भी हमारी विदेश सेवा हमारी दासवृत्ति का सबसे प्रबल उदाहरण रही है. लम्बे अरसे तक उन्हीं युवाओं को विदेश सेवा में एंट्री मिलती थी, जो ऐसे चुनींदा स्कूलों से पढ़े होते थे, जहां पूरी तरह से अंग्रेज़ी संस्कार दिए जाते थे. उनका भाषाई उच्चारण, चाल-ढाल, खान-पान के तौर-तरीके पूरी तरह से अंग्रेज़ी की चाशनी में डुबोये होते थे. इसलिए आपको याद होगा कि पुराने राजनयिकों में सामंतों-रजवाड़ों के लोग, विदेशों से शिक्षित धनी-मानी लोग ही प्रायः मिलते हैं. आज़ादी के लगभग तीस साल बाद जब सिविल सेवा परीक्षा में सुधार हुए तब जाकर मध्यवर्गीय युवाओं को विदेश सेवा में जगह मिलने लगी. आशय यह है कि वे लोग क्योंकर हिन्दी जैसी जनभाषा को कूटनीति की भाषा बनने देते, जो अंग्रेज़ी संस्कारों में पले-बढ़े हों? इसलिए हिन्दी वालों की यह मांग बनी ही रही कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाया जाये.
उनकी यह हसरत तब पूरी हुई, जब 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण दिया. यह भाषण शुरू में अंग्रेज़ी में लिखा गया था. जब अटलजी को यह भरोसा हो गया कि हिन्दी में भी भाषण दिया जा सकता है, तब अनुवाद करके पढ़ा गया. लेकिन आज तक हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा नहीं बन पायी है क्योंकि हमारी सरकार उसके जरूरी बंदोबस्त नहीं कर रही है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का प्रयोग दूसरी बार 23 नवम्बर, 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने दक्षेस देशों के माले सम्मलेन में किया. इन दो प्रयासों के अतिरिक्त कोई और उदाहरण सामने नहीं आता, जब हमारे किसी नेता ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिन्दी में बोला हो. ये दो घटनाएं भी एक तरह से प्रतीकात्मक ही थीं, क्योंकि वास्तव में इनकी वजह से व्यवहार में कोई ख़ास सुधार नहीं आया.
लेकिन जब नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आये सात पड़ोसी देशों के नेताओं के साथ हिन्दी में बातचीत की तो पहली बार लगा कि अब कूटनीति के अन्तःपुर में हिन्दी पहुँच रही है. उसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी हिन्दी में कामकाज शुरू किया. गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी संयुक्त राष्ट्र में गए तो हिन्दी में ही बोले. मोदी ने नेपाली संसद में हिन्दी में भाषण दिया, भूटानी संसद में हिन्दी में भाषण दिया. जापान में भी वे हिन्दी में ही बोले. वे न सिर्फ बोले बल्कि अपनी भाषा में बोलकर वहाँ के लोगों पर भारतीयता की छाप भी छोडी. अब वे संयुक्त राष्ट्र जा रहे हैं, फिर हिन्दी में बोलेंगे. अमेरिका, रूस और चीनी नेताओं के साथ भी वे हिन्दी में ही बोलने वाले हैं, ऐसी सूचना है. प्रधान मंत्री के इस कदम से न सिर्फ हिन्दी का भला होगा, बल्कि कूटनीति भी पटरी पर आयेगी. क्योंकि कूटनीतिक वार्ताओं में भाषा आपके देश और जनता का प्रतिनिधित्व करती है. उससे देश का सर ऊंचा होता है. देश के स्वाभिमान की भाषा कोई देशी भाषा ही हो सकती है. मोदी की पहल पर अनेक पूर्व विदेश सचिवों, राजनायिको की प्रतिक्रियाएं आयीं हैं. सबने इस कदम की सराहना ही की है. 
कूटनीति में भाषा की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए दो उदाहरण काफी होंगे. आजादी के तुरंत बाद विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत बनायी गयीं. वे 17 अगस्त, 1947 को मास्को में जोजेफ स्टालिन के पास अपना अंग्रेज़ी में लिखा प्रत्यय पत्र लेकर पहुंची तो स्टालिन ने उसकी भाषा पर आपत्ति की. कहा कि इसकी भाषा न आपके देश की है और न मेरे देश की है. तब कहते हैं कि रातोरात हिन्दी में लिखा पत्र दिल्ली से मास्को भेजा गया. लेकिन भारत के प्रति सोवियत नेताओं का दिल नहीं पसीजा. वे भारत को अंग्रेजों का पिट्ठू ही समझते रहे. ढाई साल तक विजयलक्ष्मी पंडित मास्को में रहीं, स्टालिन ने कभी उन्हें तवज्जो नहीं दी. चीनी प्रधानमंत्री चाओ एन लाई ने नेहरू से कहा कि काश आप अपनी भाषा में हमसे द्विपक्षीय मुद्दों पर बात कर पाते. नेहरू के पास कोई जवाब नहीं था, तो उन्हें अपनी हाजिर जवाबी का सहारा लेना पडा, ‘सबसे बड़ी भाषा तो प्रेम की होती है’. सच बात यह है कि कूटनीति में प्रेम की भाषा नहीं चलती. कूटनीति की कामयाबी इसी में है कि आप अपनी बात मनवा लें. इसके लिए शायद किसी अन्य देश की भाषा की बजाय अपनी भाषा ज्यादा मुफीद होती है. बेहतर हो कि हमारे तमाम राजनेता, मंत्री, राजनयिक और अन्य ब्यूरोक्रेट अपने सरकारी कामों में हिन्दी का प्रयोग करें और राष्ट्रीय स्वाभिमान को बढायें. (अमर उजाला, २१ सितम्बर, २०१४ से साभार) 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

यूपीएससी का छल-प्रपंच

भाषा विवाद/ गोविन्द सिंह
यह बात सही है कि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) भारतीय नौकरशाही का मेरुदंड रहा है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि उसके भीतर अंग्रेजियत के विषाणु जन्मजात रूप से जमे हुए हैं. आज तो फिर भी बहुत कुछ बदल गया है, १९७९ से पहले तो लगता ही नहीं था कि भारत आज़ाद भी हो गया है. भारतीय विदेश सेवा में तो चुनींदा स्कूल-कॉलेजों से निकले हुए, एक ख़ास उच्चारण और चाल-ढाल वाले युवा ही लिए जाते थे. इसके लिए हमें निश्चय ही दौलत सिंह कोठारी जैसे विद्वानों का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने भारतीय भाषाओं के लिए रास्ता बनाया. लेकिन १९७९ से अब तक गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है और यूपीएससी का रवैया भी काफी हद तक बदल चुका है. पर अंग्रेजियत का विषाणु सर उठाकर बाहर आने के मौके तलाशता रहता है. जैसे ही सरकार या निगरानी समूहों का ध्यान हटा, वह घुसपैठ करने लगता है. वह सुई की तरह से घुसता है, तलवार बनकर निकलता है. तीन वर्ष पहले जब वह घुसा था तो किसी ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि उसके परिणाम इतने भयावह निकलेंगे. पिछले तीन वर्ष से लोग इस विषाणु को निकालने में लगे हुए हैं, लेकिन वह नहीं निकल रहा है. इसलिए यूपीएससी से अंग्रेजियत को निकाल फेंकने के लिए मेजर ऑपरेशन की जरूरत है.
चूंकि यूपीएससी ब्यूरोक्रैसी के हाथों में खेलती है, इसलिए कभी भी वह अंग्रेजियत को मजबूत करने का मौक़ा नहीं छोडती. १९९० में सतीश चन्द्र समिति तक भारतीय भाषाओं का वर्चस्व नहीं दिख रहा था. लेकिन नब्बे और २००० के दशक में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाकर सिविल सेवक बनने वालों की तादात तेजी से बढ़ने लगी. इससे अंग्रेज़ी परस्त लोग घबराने लगे. यही नहीं, उन्होंने पोप तक को चिट्ठी लिख कर यह  गुजारिश की थी कि वे भारत सकरार पर दबाव डालें कि ब्यूरोक्रेसी के चरित्र को बदलने न दें. सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं का सीधा से मतलब शहरों के दुर्ग को तोड़कर गांवों को प्रतिष्ठित करना था. जब हाकिम भी देसी उच्छारण वाली अंग्रेज़ी बोलने लगे और देसी लोगों के हक़ में फैसले करने लगे तो अंग्रेज़ी परस्त परेशान होने लगे. इसीलिए वर्ष २०१० में बनी निगवेकर समिति ने सिविल सेवा की प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षाओं को ही बदल डाला. जहां प्रारम्भिक परीक्षा में सी-सैट के जरिये अंग्रेज़ी जानने-समझने वालों को तरजीह दी गयी, वहीं मुख्य परीक्षा में भी अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया. तर्क यह दिया गया कि बदलते वैश्विक माहौल में अंग्रेज़ी जानना जरूरी है. वर्ष २०११ से यह व्यवस्था लागू कर दी गयी. तब से लगातार भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने और पास करने वालों की संख्या घटने लगी. जहां २०१० तक हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण करने वालों की संख्या ४०० से अधिक होती थी, वहीं २०१३ में यह घट कर सिर्फ २६ रह गयी. इससे यह स्पष्ट हो गया कि नई व्यवस्था पूरी तरह से देसी युवाओं को बहार रखने के मकसद से बनाई गयी है. इस बीच यह भी देखने में आया है कि अंग्रेज़ी माध्यम वाले, शहरी पृष्ठभूमि वाले और कोचिंग लेकर परिक्षा देने वाले युवा ही परीक्षा में निकल रहे हैं. गत वर्ष मुख्य परीक्षा से अंग्रेज़ी को ख़त्म करने के लिए आन्दोलन हुआ. और संसद में तमाम भारतीय भाषाओं के सांसद एकजुट होकर उसे हटाने में कामयाब हुए. तभी भेदभावपूर्ण सी-सैट के खिलाफ आवाज उठी तो अरविन्द वर्मा समिति बैठा दी. समिति को शीघ्र अपनी रिपोर्ट देनी थी. लेकिन वह नहीं दे पाया. उसका कार्यकाल तीन महीने बढ़ा दिया गया, ताकि परीक्षा पूर्ववत जारी रखी जाए. ज्ञात हुआ है कि प्रारम्भिक रिपोर्ट में कहा गया था कि सी-सैट का पलड़ा अंग्रेज़ी के पक्ष में झुका हुआ है, इससे भारतीय भाषाओं वाले युवाओं के प्रति पक्षपात हो रहा है. लेकिन नौकरशाह इसे मानने को तैयार नहीं हैं. उसी के विरोध में यह आन्दोलन है.
अजीब बात यह है कि आन्दोलन के विरोध में कोई नहीं है. हर कोई कह रहा है कि भाषाई आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए. भाजपा भी और कांग्रेस भी. सपा भी और बसपा भी. उत्तर भी और दक्षिण भी. संसद के दोनों सदन चाहते हैं कि भारतीय भाषा-भाषियों के साथ भेदभाव न हो, लेकिन फिर भी ब्यूरोक्रेसी है कि मानती नहीं. अंग्रेज़ी मीडिया जरूर फूट डालने की कोशिश करता है. कुछ अंग्रेज़ी अखबार इसे हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि जितना नुकसान हिन्दी माध्यम वालों को है, उतना ही नुकसान अन्य भाषा भाषियों को है. अभी तक हम यह मानते थे कि भाषा को लेकर राजनेता संसद और संसद से बाहर अलग-अलग व्यवहार करते हैं. इसलिए हिन्दी कभी राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा नहीं बन पायी. पहली बार एक ऐसे प्रधान मंत्री आये हैं, जो हिन्दी को लेकर स्पष्ट हैं. इसलिए अब तो भाषा को लेकर छल-प्रपंच की नीति बंद होनी ही चाहिए.( अमर उजाला, २९ जुलाई, २०१४ से साभार)
        

सोमवार, 20 मई 2013

हिन्दी को चाहिए उसका हक


भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
यह महज एक संयोग ही है कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने राजभाषा हिन्दी को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जबकि दूसरी तरफ न्यायपालिका और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर राजधानी दिल्ली में दो बड़े धरने चल रहे हैं और देश के कोने-कोने से इस तरह की आवाजें उठ रही हैं. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर पिछले पांच महीनों से श्याम रूद्र पाठक सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर धरने पर बैठे हैं तो भारतीय भाषा आंदोलन के तहत पुष्पेन्द्र सिंह चौहान और अन्य लोग जंतर-मंतर पर सुप्रीम कोर्ट और यूपीएससी में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर धरना दिए हुए हैं. ये दोनों ही लोग भारतीय भाषाओं को उनका जायज हक दिलाने के लिए अतीत में भी निर्णायक लड़ाई लड़ चुके हैं. लेकिन इस बार की लड़ाई सचमुच कठिन है, क्योंकि अदालतों में भारतीय भाषाओं को लागू करने को लेकर हमारा संविधान भी चुप है. जाहिर है इसके लिए हमारी संसद को भी आगे आना होगा, तभी पूर्ण स्वराज्य का सपना साकार हो पायेगा.
खैर, अत्यंत सकारात्मक सूचना यह है कि इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले को संज्ञान में लिया और हिन्दी के पक्ष में फैसला दिया, जिसका बड़े पैमाने पर सरकारी दफ्तरों में हनन होता रहा है. मामला यह है कि भारतीय नौसेना के एक कर्मचारी मिथिलेश कुमार सिंह के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई चल रही थी. सिंह ने मांग की कि उन्हें कार्रवाई से सम्बंधित कागजात हिन्दी में दिए जाएँ. लेकिन कार्यालय ने ऐसा नहीं किया. सिंह ने भी आगे की कार्रवाई में सहयोग नहीं दिया. यह कोई नई बात नहीं है. अमूमन हर विभाग के हर दफ्तर में ऐसा होता रहा है. कार्रवाई अंग्रेज़ी में ही होती है. हिंदीभाषी इलाकों में भी. कर्मचारी भी प्रताडित होने के भय से उसे हिन्दी में करवाने की मांग नहीं करते. और न सरकारी दफ्तर और न ही अदालतें इस मामले में राजभाषा का साथ देती हैं. जैसा कि इस मामले में भी हुआ. मिथिलेश कुमार सिंह केन्द्रीय कर्मचारियों के प्रशासनिक अधिकरण (कैट) के पास भी गए और मुम्बई हाई कोर्ट भी. लेकिन दोनों ही जगहों से उन्हें दुत्कार ही मिली. यह इसलिए नहीं हुआ कि क़ानून उनके पक्ष में नहीं था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले हमारी अदालतों ने राजभाषा से सम्बंधित कानूनों पर कभी गौर ही नहीं फरमाया. वे नया कुछ करने से बचती हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और जेएस केहर ने पहली बार राजभाषा से सम्बंधित कानूनों को खंगाला और उन्हें व्यावहारिक क़ानून के दायरे में रख कर समझा. अभी तक हम इन कानूनों को नख-दन्त-विहीन क़ानून मानते आये हैं. क्योंकि संविधान में पर्याप्त स्थान पाने और राजभाषा अधिनियम, नियम, संकल्प और तरह-तरह के आदेशों के बावजूद आज भी लोग इन्हें सिर्फ सूक्ति वाक्यों की तरह ही लेते हैं, कोई इन्हें व्यवहार में लाने लायक नहीं समझता.
सरकारी कामकाज में हिन्दी को लागू करने को लेकर कोई भी  गंभीर नहीं है. हिन्दी दिवस पर हर साल एक रस्म अदायगी होती है. हिन्दी में काम करने के नाम पर कर्मचारियों को पुरस्कार बांटे जाते हैं. हर दफ्तर, शहर, विभाग, मुख्यालय, मंत्रालय और संसद, हर जगह हिन्दी कार्यान्वयन समितियां बनी हुई हैं. लोग भाषण देकर चले जाते हैं. लेकिन हिन्दी में काम नहीं होता. काम के लिए हिन्दी कक्ष बना दिए गए हैं. यह प्रक्रिया १९७६ में राजभाषा नियम बनने के बाद शुरू हुई, लेकिन इससे भी कोई गुणात्मक सुधार नहीं आ पाया. हिन्दी अनुवादकों और अफसरों की भर्ती तो हो गयी लेकिन हिन्दी में मौलिक लेखन नहीं बढ़ पाया. लिहाजा हिन्दी अनुवाद की भाषा यानी दोयम दर्जे की भाषा बनकर रह गयी. १९९१ में नयी अर्थव्यवस्था आने के बाद हिन्दीकरण की इस प्रक्रिया को भी धक्का लगा, जब हिन्दी से जुड़े स्टाफ को सरकारी दामाद समझा जाने लगा और हिन्दी अफसरों पर इस बात के लिए दबाव डाला जाने लगा कि वे हिन्दी का काम छोड़ कर किसी और विभाग का काम सीख लें. इस तरह हिन्दी कक्ष का काम सिर्फ आंकड़े पूरे करना भर रह गया है.
जहां तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में सख्ती से लागू करने का सवाल है, उसकी प्रगति एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली रही है. संविधान के अनुच्छेद ३४३ में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर हिन्दी आज तक अंग्रेज़ी की सौतेली बहन ही बनी हुई है. १९६३ में राजभाषा अधिनियम बना लेकिन साथ ही दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी दंगे करवा दिए गए. जिससे १९६७ में इसमें कुछ संशोधन करने पड़े. संशोधन के बाद हिन्दी की स्थिति और भी कमजोर हो गयी. कहा गया कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा, जब तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधान मण्डलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात्‌ ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता। अर्थात पहले सभी राज्य हाँ करें, फिर संसद के दोनों सदन हाँ कहें, तब जाकर हिन्दी पूर्ण राजभाषा हो पायेगी. यह असंभव लगता है. कोई भी अहिंदी भाषी राज्य क्यों ऐसा करेगा? इंदिरा गांधी इस बात को समझ गयीं. इसीलिए आपातकाल के दौरान उन्होंने कुछ हिन्दी प्रेमियों के आग्रह पर राजभाषा नियम बनाए. चूंकि तब आपातकाल था, इसलिए यह नियम बन गया, वरना यह भी संभव नहीं था. बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने जिस नियम को आधार बनाकर नौसेना के मिथिलेश कुमार सिंह को न्याय दिलाया है, वह यही नियम है, जिसमें १९६७ के अधिनियम के तहत राजभाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने में कुछ सख्ती बरतने की बात है.    
कहने का आशय यह है कि हमारे पास नियम है, क़ानून है, लेकिन कभी किसी ने उन्हें क़ानून की नजर से नहीं देखा. हर महीने-तीन महीने में हिन्दी कार्यान्वयन की रिपोर्ट राजभाषा विभाग को भेजी जाती है. जिनमें दवा किया जाता है कि शत प्रति शत नहीं तो ९० प्रतिशत काम हिन्दी में हो रहा है. सबको पता होता है कि ये आंकड़े झूठे हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता. सरकारी अफसर इसे एक बला की तरह से लेते हैं. यहाँ तक कि संसदीय समिति भी दौरे तो बहुत करती है, लेकिन सांसदों की दिलचस्पी भी हिन्दी को लागू करवाने में कम, ‘उपहार बटोरने में ज्यादा होती है’. इसलिए हिन्दी को लागू करने का अनुष्ठान महज एक प्रहसन बनकर रह गया था. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप हिन्दी को लागू करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है. अदालत का थोड़ा सा भी भय ब्यूरोक्रेसी को हो तो वाह राजभाषा कानूनों की अवहेलना नहीं करेगी.   (अमर उजाला, २० मई, २०१३ को प्रकाशित. साभार) 

गुरुवार, 21 मार्च 2013

संसद में भारतीय भाषाओं की एकता


भाषा की राजनीति/ गोविंद सिंह
दलीय सरहदों को लांघ कर संसद में भारतीय भाषाओं के पक्ष में विभिन्न राजनेताओं को बोलते देखना सचमुच सुखद आश्चर्य की तरह था. दक्षिण भारत के नेता अब तक हिन्दी के विरोध में तो बोलते थे, पर बदले में वे अकसर अंग्रेजी का समर्थन कर बैठते थे. लेकिन इस बार संघ लोक सेवा आयोग और प्रो. अरुण निगवेकर ने उन सब नेताओं को एक पाले में ला खड़ा कर दिया जो अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं और अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति चाहते हैं. हिन्दी वालों को अब तक यही लगता था कि जिस दिन हिन्दी राजनीतिक मुद्दा बन जायेगी, उस दिन सत्ता में उसका हक भी सुनिश्चित हो जाएगा. कहा जा सकता है कि इस बार उसकी थोड़ी-सी झलक मिली है. जिस तरह से तमाम भारतीय भाषाओं के पैरोकारों ने समवेत स्वर में अंग्रेजी की अनिवार्यता का विरोध किया, उसे एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए कि चलो हमारे राजनेताओं को देर से ही सही, हकीकत का एहसास हुआ और भविष्य में वे बिल्लियों के हिस्से की रोटी हड़पने वाले बन्दर को पहचान सकेंगे. साठ के दशक में शुरू हुए अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन की याद ताज़ा हो गयी. लेकिन यहीं ध्यान देने की बात यह भी है कि सरकार ने अभी इस मसले को पूरी तरह खारिज नहीं किया है, ठंडे बस्ते में ही डाला है. अंग्रेजी-परस्ती का विषधर कभी भी फन उठा सकता है. यानी लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. उसे सिरे तक पहुंचाना आसान नहीं है.
सरकार द्वारा सिविल सेवा परीक्षा में किये जाने वाले तथाकथित सुधारों को ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने के बाद जिस तरह से निगवेकर साहब ने अपना विरोध दर्ज किया है, वह और भी चौंकाने वाला है. वे कहते हैं कि हमारा मकसद ऐसे लोगों को सिविल सेवा में लाना था, जिनके पास संवाद कर सकने की बेहतर योग्यता हो, जो अपने अफसरों से अच्छी अंग्रेजी में बात कर सकें. यानी जिस जनता की सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया जा रहा है, वह जाए भाड़ में. अंग्रेज़ी के जरिये यह वर्ग अपने वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है. जनता की भाषा की उसे क्या परवाह! जैसे संवाद केवल अंग्रेज़ी में ही होता हो! निगवेकर कहते हैं, हम चाहते थे कि सिविल सेवा में ‘वायब्रेंट’ उम्मीदवार आयें. उन्हें कौन समझाए कि ‘वायब्रेंट’ सिर्फ अंग्रेज़ी बोलकर नहीं पैदा होते. एक और चौंकानेवाली बात वे यह कहते हैं कि हमने अंग्रेज़ी की अनिवार्यता की बात नहीं कही थी. तो किसने कही? आपकी सिफारिशों में साफ़-साफ़ कहा गया है कि अंग्रेज़ी का 100 अंकों का एक पर्चा न सिर्फ पास करना अनिवार्य होगा, बल्कि उसके अंक भी अंतिम मेरिट में जुडेंगे. इसी पर तो आपत्ति थी, वरना दसवीं स्तर की अंग्रेज़ी तो पहले भी पास करनी होती थी, बस उसके अंक मेरिट में नहीं जुड़ते थे. निगवेकर साहब कहते हैं कि इधर के वर्षों में ऐसे लोग अधिकारी बन रहे थे, जो एक पेज साफ़ हिन्दी या अंग्रेज़ी नहीं लिख पाते, इसलिए यह करना जरूरी था. लेकिन 1993 में शुरू किया गया 200 अंक का निबंध का पर्चा फिर क्या घास छील रहा था? यदि एक पूरा पर्चा निबंध लिखवाकर भी आप भाषा ज्ञान नहीं जांच सकते तो फिर इसमें उम्मीदवार नहीं, महाशय आप गुनाहगार हैं. एक अजीब तर्क यह दिया जा रहा है कि हाल के वर्षों में लोग तकनीकी विषयों की जगह भाषा को ले रहे थे. सच बात तो यह है कि केवल भाषाओं को ही नहीं, वे हर उस विषय को ले रहे थे, जिसे आसानी से रटा जा सके, और जो अच्छे अंक दिला सके. इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन आदि ऐसे ही विषय हैं, जो विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा के विद्यार्थी ले रहे थे. फिर आपकी आरी सिर्फ भारतीय भाषाओं की गरदन पर ही क्यों चली? शायद ऐसे सवालों के जवाब उनके पास नहीं होंगे क्योंकि उनके मन में पहले ही एक मैकालेभक्त बैठा था.
इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका या किसी और विदेशी भाषा का ज्ञान आज की जरूरत है. लेकिन सिर्फ इसी कारण से अपनी भाषाओं को डुबो देना कहाँ की समझदारी है?
भारतीय नौकरशाही के सामंती चरित्र के कारण ही 1979 में डीएस कोठारी ने सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं को जगह दिलाई थी और अंग्रेज़ी के वर्चस्व को तोड़ा था. उसी के बाद गाँव-देहात के, निर्धन तबकों के, दबी-कुचली जातियों के लोग भी इस प्रभु वर्ग में शामिल होने लगे थे. धीरे-धीरे वे अपने वर्गीय हितों की बात भी उठाने लगे हैं. हाल के वर्षों में आपने पढ़ा होगा कि किस तरह से किसी रिक्शे वाले का बेटा, किसी जूते गांठने वाले का बेटा, किसी चौकीदार-चपरासी का बेटा या बेटी, किसी छोटे दूकानदार का बेटा आईएएस बन गया है. हर साल 4-5 सौ ऐसे युवा भारतीय भाषाओं के जरिये इस प्रतिष्ठित सिविल सेवा में अपनी पैठ बना रहे थे. ऐसा नहीं कि वे अंग्रेज़ी जानते ही नहीं थे. अपनी भाषा के साथ वे अंग्रेज़ी भी कामकाजी स्तर की जानते थे. प्रभु वर्ग को असली दिक्कत इन्हीं लोगों से थी कि धीरे-धीरे वे उनके बीच जगह बना रहे हैं. अभी तक वे अंग्रेज़ी के आवरण में अपनी कमियों को छिपा लिया करते थे. अब यह काम मुश्किल हो रहा था. इसीलिए उन्होंने एक झटके में भारतीय भाषाओं को रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया. वे तो कामयाब भी हो गए थे. यह तो तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें थीं कि सरकार को झुकना पड़ा और मसले को ठंडे बस्ते में डाला गया.
अब असली मसले पर आयें. समस्त भारतीय भाषाओं के बीच अंग्रेजियत के विरुद्ध आज जो राजनीतिक सहमति बनी है, इसे अभूतपूर्व समझना चाहिए. ऐसा आज़ादी के आंदोलन के दौरान भलेही हुआ हो, पर उसके बाद कभी नहीं हुआ. इसलिए यह टेम्पो बना रहना चाहिए. प्रभु वर्ग यही चाहेगा कि भारतीय भाषाओं के बीच फूट पड़ी रहे, और अंग्रेज़ी राज करती रहे. हिन्दी वाले यह न समझें कि यह क्षणिक जीत उनकी वजह से हुई है. वास्तव में सरकार को क्षेत्रीय ताकतों के डर से अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं. इसमें दक्षिण भारतीय नेताओं की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. इसलिए भविष्य में भी भारतीय भाषाओं की इस लड़ाई में उनकी सक्रियता बनी रहे, इसके लिए हिन्दी वालों को विशेष प्रयास करना चाहिए. 
(साभार: अमर उजाला, २० मार्च)