शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

भारत रत्न या सरकारी रत्न?

विवाद/ गोविन्द सिंह
सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न से नवाजकर सरकार ने जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. खेल की दुनिया बंट गयी है. राजनेता मुखर होकर कह रहे हैं, क्रिकेट से अरबों रुपये कमाने वाले खिलाड़ी को क्यों भारत रत्न दिया गया? बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि जो शख्श उपहार में मिली फेरारी कार की कस्टम ड्यूटी तक नहीं देना चाहता  और मिलते ही उसे डेढ़ करोड़ में बेच देता है, उसने देश के लिए कौन-सा त्याग किया है, जो भारत रत्न से नवाजा जा रहा है? राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता एक सुर से कह रहे हैं, अटल बिहारी वाजपयी का भारत रत्न पर पहला हक़ बनता था. कोई कह रहा है कि पहले चौधरी चरण सिंह को दो, कोई कह रहा है कि डॉ लोहिया को दो. खेल प्रेमी कह रहे हैं कि गुलामी के दौर में हाकी जैसे खेल में लगातार स्वर्ण पदक दिलाकर उसे स्थापित करने वाले ध्यान चंद को सरकार ने कैसे भुला दिया? वे कह रहे हैं कि ठीक है, आप सचिन को भी दीजिए, लेकिन खेल श्रेणी से यदि किसी को भारत रत्न दिया जाता है तो उस पर पहला हक़ ध्यान चंद का बनता है. क्रिकेट में ही एक खेमा कह रहा है कि जो व्यक्ति अपनी कप्तानी में खेले गए 13 टेस्ट मैचों में से सिर्फ चार ही जिता पाया हो, और वन डे कप्तान के रूप में भी 23 के मुकाबले  43 मैच हारा हो, उसे कैसे महानतम खिलाड़ी कहा जा सकता है?
यों, भारत रत्न का विवादों में घिर जाना कोई नई बात नहीं है. सचिन की जगह किसी और को यह पुरस्कार दिया जाता, तो भी वह निर्विवाद नहीं होता. इसमें कोई  दो राय नहीं कि सचिन की विफल कप्तानी के बावजूद वे भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकते सितारे हैं. उनके अथक  स्टेमिना, धैर्य, लम्बे क्रिकेट करियर और धीर प्रशांत व्यक्तित्व की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. इसलिए सचिन को भारत रत्न की घोषणा पर कमोबेश खुशी का माहौल दिखा. लेकिन गंभीरता से विचार करने पर लगता है कि सरकार ने जल्दबाजी की है. यदि पिछले दो साल की घटनाओं पर नजर डालें तो सरकार ने ऐसा करके राजनीतिक स्वार्थ साधने की कोशिश की है. जाहिर है,  विपक्षी दलों को अब इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने का मौक़ा मिल गया है. लेकिन यह भी सही है कि भारत रत्न पर हमेशा से राजनीति का साया रहा है.
भारत रत्न देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है. पहले यह ‘कला, साहित्य और विज्ञान के उन्नयन हेतु अद्वितीय कार्य तथा श्रेष्ठतम स्तर की सार्वजनिक सेवा’ के लिए दिया जाता था. दिसंबर 2011 में इसमें संशोधन करके ‘मानवीय प्रयासों के किसी भी क्षेत्र में अद्वितीय सेवा/ प्रदर्शन’ के लिए कर दिया गया. निश्चय ही यह उपबंध खेल के हलके से उठी मांग को ध्यान में रखते हुए ही जोड़ा गया था. लेकिन अब लग रहा है कि वास्तव में यह कवायद सचिन के लिए ही की गयी थी. पहले उन्हें राज्यसभा में भेजा गया और फिर भारत रत्न की घोषणा की गयी. साथ ही यह मुद्दा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि ‘सेवा’ के बरक्स ‘प्रदर्शन’ शब्द भी बहुत छोटा पड़ता है. कहा जा रहा है कि यह शब्द भी सचिन को ध्यान में रख कर ही रखा गया था. क्योंकि खेल संसार में ही देखें तो ध्यान चंद के त्याग और शौर्य की तुलना में सचिन कहीं नहीं ठहरते. आज भलेही सचिन हमें बहुत ऊंचे दिखाई दे रहे हों लेकिन जब बात पूरे खेल जगत से चुनने की हो रही हो तो श्रेष्ठतम का ही चुनाव होना चाहिए.
दुर्भाग्य इस बात का है कि सरकार चाहे किसी की हो, भारत रत्न या अन्य पद्म-पुरस्कार हमेशा से राजनीति के शिकार रहे हैं. अब तक नवाजे गए 43 रत्नों में से 23 अकेले राजनीति से हैं. अन्य क्षेत्रों में भी समाज सेवा, शिक्षा, विज्ञान और गीत-संगीत के लोगों को ही भारत रत्न दिया गया. साहित्य में अब तक किसी को यह अलंकरण नहीं दिया गया है. जिसकी सरकार होती है, वह अपने लोगों को पुरस्कार देता है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अब तक जितनों को भी ये अलंकरण प्रदान किये गए, उनसे बेहतर नाम उपलब्ध हो सकते थे. लेकिन सत्ताएं ऐसे ही काम करती हैं.
जहां तक सचिन की पात्रता का सवाल है, वह आज की पीढी के हीरो हैं. कुछ उनके भीतर पात्रता है और कुछ मीडिया ने निर्मित की है, बाज़ार ने बनाई है. घोर पूंजीवाद के इस युग में बाज़ार ही असली सूत्रधार है. पहले बाज़ार समाज के आदर्श खड़े करता है. फिर समाज उसका अनुसरण करता है. यह जरूर है कि वह खोखले महल नहीं खड़े करता. लेकिन जिसे खडा करता है, उससे कीमत भी वसूलता है. इसलिए ऐसे व्यक्ति को भारत रत्न देना कमजोर सरकार की मजबूरी है. लोकप्रियता हमारे जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी है. बेशक उसमें सचिन खरे उतरते हैं. पर लोकप्रियता से आप सांसद भलेही बन जाएँ, भारत रत्न नहीं बन सकते. वरना अमिताभ बच्चन या किसी भी और व्यक्ति में क्या बुराई है? इस तरह तो यह भारत रत्न नहीं सरकारी रत्न बन जाएगा. (यथावत, दिसंबर, २०१३ से साभार)             

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

सर्द हवाओं का संगीत

निबंध/ गोविन्द सिंह
धान की फसल कट चुकी है. खेतों में जगह-जगह रबी की फसल बोई जा रही है. कहीं-कहीं गेहूं की नन्हीं कोंपलें फूटने लगी हैं. काली-काली मिट्टी पर हरे छींट वाली चादर की तरह. सुबह टहलने जाता हूँ तो नन्हीं कोंपलों पर मोती सरीखी ओस की बूंदों को देख मन खुशी और विस्मय से भर उठता है. कभी सूर्य की पहली किरण इन पर पड़ जाए तो यह आभा एकदम स्वर्णिम हो जाती है. कुछ ठहर कर देखता हूँ, अपनी आँखों में इन दृश्यों को भर लेना चाहता हूँ. हरे-भरे खेत में जैसे हजारों-हजार मोती बिखरे हुए हैं. बीच-बीच में इक्का-दुक्का सरसों के फूल उनकी लय को तोड़ रहे हैं. प्रकृति की कैसी लीला है! अच्छा ही हुआ, इस अलसाए-से कसबे में आ गया, वरना महानगर में इस सब से बंचित रह जाता.
दीपावली के साथ ही यहाँ मौसम में गुनगुनी ठण्ड शुरू होने लगती है. हल्द्वानी के जिस इलाके में रहता हूँ, वहाँ अप्रैल-मई में बया का शोर सुनाई देने लगा था. नवम्बर आते-आते वे अपने घोंसले छोड़ कर वन-प्रान्तरों को लौट रही हैं. सर्दी के ख़त्म होने पर वे फिर आयेंगी, फिर से घोंसले बनाने की कवायद शुरू करेंगी. मेरे पड़ोस में मेहता जी के ताड़ वृक्षों पर इन्होने घोंसले बना लिए हैं. ६-७ महीने इनकी चें-पें से मेहता जी का आँगन गुलजार रहता है. आने वाले ६ महीने वीरानी के रहेंगे. घोंसले लटके रहेंगे लेकिन उनमें कोई चहल-पहल नहीं होगी. अगले साल फिर आयेंगी और नए घरोंदे बनाएंगी. सर्दियां बहुतों को अपनी धरती से उखाड़ देती हैं. पुराने जमाने में सर्दियों में पहाड़ों से लोग घाम तापने के लिए मैदानों में पडाव डाल लिया करते थे. तराई-भाबर में बहुत सी जगहें इनके पडाव बनती थीं. मौसम अनुकूल होते ही लोग फिर पहाड़ों की ओर लौट जाया करते थे. आज भी उच्च हिमालयी इलाकों के भोटिया लोग सर्दियों के चार महीने अपने भेड़-बकरियों के साथ मैदानी तलहटियों में आ जाते हैं. लेकिन बयाओं का यह झुण्ड अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यहाँ आता है, अपनी गृहस्थी बसाने. शायद इन्हें मानव बस्तियों में सुरक्षित ठिकानों की तलाश रहती है पर  मानव-बस्तियां भी अब कहाँ सुरक्षित रहीं? इनके रहने की जगहें लगातार सिकुडती जा रही हैं.
सर्दी यानी ठण्ड यानी हेमंत ऋतु दस्तक दे चुकी है. अगहन यानी मंगसीर के आते ही मौसम में सर्द हवाओं की मादकता छाने लगती है. इन सर्द हवाओं के भी अनेक रंग देखे हैं. लेकिन प्रकृति का न्याय भी किसी समाजवाद से कम नहीं होता. अपने होने का एहसास वह सबको बराबर कराता है. जो अपनी तमाम सुख-सुविधाओं और ऐशो-आराम के जरिये गरमी या सरदी को जीत लेने का दम भरते हैं, वे गलत हैं. आप सर्दी का आनंद लेना चाहें तो तमाम अभावों के बाद भी ले सकते हैं. और ठण्ड से डरते हों तो तमाम सुविधाओं के बावजूद वह आपको डराकर रहेगी. प्रकृति एक ही कोड़े से सबको हांकती है, वह बात अलग है कि किसी को उसका अहसास होता है और किसी को नहीं.
पिथौरागढ़ जिले में सौगाँव नाम के जिस गाँव में मेरा जन्म हुआ, वहाँ ख़ास ठण्ड नहीं पड़ती है. चारों तरफ से घिरी पहाड़ियों के बीच तलहटी में जो बसा है. वहाँ प्राइमरी करने के बाद चौबाटी के मिडिल स्कूल में दाखिला लिया. चौबटी लगभग ५००० फुट ऊंचाई पर होगा. अपने गाँव के बच्चे रोज पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ के चौबाटी पहुंचते. और दोपहर के बाद लौटते. वहाँ कडाके की ठण्ड पड़ती थी. नवम्बर आते-आते ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी, लेकिन मेरे पास न कोट था और न पैंट. एक हाफ स्वेटर दीदी ने बुनकर भिजवा दिया था. वह मेरे लिए बड़े-बड़े ऊनी कोटों से बढ़कर था. लेकिन कुछ छवियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य कभी भुला नहीं पाता. ऐसा ही एक दृश्य हाजिर है. सर्दी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला तो मैं नया कोट पहन कर स्कूल गया. मेरे मामाजी ने एक कोट सिलवा कर भिजवा दिया था. मक्खन जीन का कोट. उसके आने की अद्भुत खुशी थी. हलकी बरसात हो रही थी. जिनके पास भरपूर कपडे थे, उन्हें कडाके की ठण्ड लग रही थी. पर मैं अपने कोट के नशे में था. मेरे पास न जूते थे, न पैंट. पैरों में चप्पल और कमर में नेकर. स्कूल में प्रार्थना के वक्त मेरे एक दोस्त ने देखा तो आँखों ही आँखों में खुशी जाहिर की कि आखिर मेरे पास भी कोट आ गया है. लेकिन जैसे ही उसने आँखें नीचे फेरीं तो अफ़सोस जाहिर किया कि पैंट और जूते के बिना कोट का मजा किरकिरा हो गया. लेकिन मुझे कहाँ पैंट की परवाह थी! मैंने गर्व से कहा, ‘मुझे बिलकुल भी ठण्ड नहीं लग रही. कोट जो पहन रखा है!’
एक और दृश्य सुनिए. आठवीं के बाद कनालीछीना इंटर कॉलेज में नौवीं कक्षा में भरती हुआ. यह मेरे घर से काफी दूर यानी पैदल कोई २० किलोमीटर दूर था. महीने में एक बार अपने गाँव आता और महीने भर का सामान लेकर जाता. डेरा करके रहता था. यहाँ और भी ज्यादा ठंड पड़ती थी. दो लड़कों ने एक कमरा किराए में ले रखा था.  कमरा क्या था हवामहल. किराया था नौ रुपये. खुद ही जंगल से लकडियाँ बटोरते और खुद ही खाना बनाते. तब मैं दसवीं में था. सर्दियों की छुट्टियों के बाद एक फरवरी को स्कूल खुलना था. हम दो लड़के ३१ जनवरी को ही अपने डेरे में पहुँच गए थे. हमारे पास ओढने-बिछाने को ख़ास कपडे नहीं थे. शाम होते-होते बारिश होने लगी और रात ढलते बर्फ गिरने लगी. हम कम्बल के भीतर गए तो ठण्ड और परेशान करने लगी. हमने आग जलाई और रात भर हिमपात का आनंद उठाते रहे. सुबह हुई. हमने बाहर आकर देखा कि चारों ओर धरती ने बर्फ की चादर ओढ़ रखी थी. गिरते-फिसलते स्कूल गए. लेकिन प्रिंसिपल ने छुट्टी की घोषणा कर दी. हम लोग डबुल शोर करते हुए कमरे में लौटे. मेरे पास ओढने को एक पुराना कम्बल था. रूम पार्टनर चंद्रू की स्थिति मुझ से कोई बेहतर नहीं थे. लेकिन एक दिन उसके गरीब पिताजी कहीं से जुगाड़ करके उसके लिए २२ रुपये में एक रजाई खरीद कर पहुंचा गए. शायद एक-डेढ़ किलो की थी. मैं खुश था कि चलो एक के पास तो रजाई आयी. एकाध कोना तो मुझे भी मिल ही जाएगा. लेकिन जब रात को सोने का वक्त हुआ तो चंद्रू ने सख्त रवैया अपना लिया, ‘रजाई मेरी है तो मैं ही ओढूंगा.’ मैंने कहा, ‘चल यार कोई बात नहीं.’ जब रात को उसे नींद आ गयी तो मैंने कोशिश की कि मैं भी उसके भीतर समा जाऊं. लाख कोशिश करने पर भी मैं उसके भीतर नहीं आ सका. मैं हार कर अपने कम्बल के साथ सो गया. सच, जिन्दगी कितनी मजेदार होती है! तमाम अभावों के बावजूद हमें कभी ठण्ड ने अपने होने का अहसास नहीं कराया. नाक बहती रहती थी, पर कभी परवाह नहीं की. कभी दवा नहीं खाई. हमारे पंडितजी, महीने में एक बार गाँव भर के बच्चों को एक-एक पुडिया खिला जाते, वही हमारे लिए किसी भी टॉनिक से बढ़कर होती. जिन्दगी बिद्रूपों से भरी होती है. जिस कडाके की सर्दी को बचपन में ही खेलते-कूदते परास्त कर चुका था, जिन्दगी के दूसरे पडाव में पहुंचकर उसे अपने पब्लिक स्कूली बच्चों के साथ एक पर्यटक की तरह देखना कितना अजीब लगता है. जब अपने ही बच्चे हिमपात को देखने पैसे खर्च करके मसूरी-नैनीताल जाते हैं तो लगता है कि एक दिन मैं भी अजायबघर में रखा जाऊंगा.              
दिल्ली जैसे शहरों में सर्दी की मार और भी दुधारी होती है. एक तरफ अट्टालिकाओं में रहने वाले लोग तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद ठण्ड का रोना रोते रहते हैं. घर-दफ्तर सब तरफ कृत्रिम गरमी. थोड़ी-सी भी हवा लग जाए तो बीमारी का डर. जबकि दूसरी तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों जैसी जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं. राजधानी दिल्ली में ही हजारों लोग बेघर सड़कों के किनारे उधार की रजाई लेकर रात बिताते हैं. तरक्की की तमाम कहानियों के बावजूद साल दर साल शीत लहर से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. फिर भी वे कभी किसी से शिकायत नहीं करते. करें भी तो किससे? बेशक सर्दी का रिश्ता भूख से होता है. हमारी तरफ सर्दियों की सबसे बड़ी रात को कौव्वे की मूर्छा वाली रात कहा जाता है. क्योंकि कड़कती ठण्ड में भूख के मारे इतनी लम्बी रात काट पाना जब दीर्घजीवी कौव्वे के लिए ही असह्य होता हो तो मनुष्य के लिए कितना कष्टकारी नहीं होगा. कुछ अरसा पहले राजधानी दिल्ली के ही एक उम्दा कालेज में पढने वाली एक लड़की ने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ फुटपाथ में रहने वालों के साथ रात बिताने का फैसला लिया, उनके दर्द को करीब से महसूस करने के लिए. लेकिन रात होते-होते उसे असह्य लगने लगा और उसने फोन करके अपने परिजनों को बुला लिया. कितना कठिन होता है सिद्धांत और व्यवहार में! हमारी अधिसंख्य नीतियाँ और योजनायें  इसी तरह तो बनती हैं.
उत्तर भारत के शहरों में सर्दियों की शुरुआत सप्तपर्णी के खिलने से होती है. नवम्बर आते-आते पूरे के पूरे पेड़ सफेद फूलों से लद जाते हैं, जो रात भर गमकते रहते हैं. इधर तराई के साल-शीशम के जंगल भी फूलने लगे हैं, जिनकी छटा दूर से देखते ही बनती है. हालांकि प्रेम के लिए ऋतुराज वसंत को जाना जाता है, लेकिन प्रेम की अंतिम परिणति हेमंत में ही होती है. सचमुच यह रति की ऋतु है. सृजन और विनाश साथ-साथ चलता रहता है. यही ऋतु है, जो सबसे ज्यादा जानें लेती है और यही ऋतु सर्वाधिक जीवन भी देती है. यह जीवन-कामना की ऋतु है. ऋतुसंहार में कालिदास कहते हैं, ‘अनेक गुणों से रमणीय अंगनाओं के चित्तों को हरनेवाला, परिपक्व धानों से ग्रामों की सीमाओं की शोभा बढ़ानेवाला, चारों ओर पाला पड़ा, क्रौंच पक्षियों के गीतों से व्याप्त, बरफयुक्त यह हेमंत ऋतु आप सबको सुख प्रदान करे.
पद्मावतकार जायसी से इस मौसम में अपनी नायिका का वियोग सहा नहीं गया. विरह विदग्ध नायिका कहती है:
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा। चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी। उन्ह लेखे सब सिस्टि जुडानी॥
हंसा केलि करहिं जिमि , खूँदहिं कुरलहिं दोउ ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥

तो भोजपुरी बारहमासा का रचनाकार कह उठता है:

अगहन ए सखी गवना करवले, तब सामी गईले परदेस ।
जब से गईले सखि चिठियो ना भेजले,तनिको खबरियो ना लेस ॥
पुस ए सखि फसे फुसारे गईले, हम धनि बानि अकेली ।
सुन मन्दिलबा रतियो ना बीते, कब दोनि होईहे बिहान ॥

यानी सर्दियां अपने साथ जीवन-मृत्यु, सृजन और विनाश, राग-विराग सबकुछ लेकर आती है. इसमें शिव और ब्रह्मा दोनों सक्रिय रहते हैं. हेमंत ऋतु हमें कष्ट जरूर देती है, लेकिन उसके बाद का आनंद अनुपमेय होता है. घने कोहरे के बाद सूर्योदय की ऊष्मा हमें जीवन की तमाम हकीकतो से सामना करने की ताकत देती है. सचमुच यह हमें पूर्णता देती है. (कादम्बिनी, दिसंबर, २०१३ से साभार)  



मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

पंजाब यूनिवर्सिटी कैसे बनी अव्वल?

शिक्षा/ गोविन्द सिंह

जब दुनिया के २५० श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ का नाम आया तो देश भर के शिक्षाविदों की आँखें फटी रह गयीं. जिस विश्वविद्यालय का नाम देश के अंदरूनी संस्थानों की सूची में ही कहीं न हो, कैसे उसने इतनी ऊंची छलांग लगाई? लेकिन यह सच है. और चूंकि लन्दन टाइम्स का सर्वे निर्विवाद रहा है, इसलिए उस पर भरोसा न करने का कोई कारण भी नहीं है. यही नहीं, एक बार फिर इसी विश्वविद्यालय ने ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) और दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्था वाले १७ देशों के विश्वविद्यालयों में १३वां स्थान पाया है. यह सर्वे भी टाइम्स उच्च शिक्षा रैंकिंग ने ही करवाया है. आलोचक कह रहे हैं कि चूंकि देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह इसी विश्वविद्यालय से निकले हैं, इसलिए उन्होंने इसकी सिफारिश की होगी. कोई कह रहा है कि इन सर्वे एजेंसियों पर बिलकुल भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि ये पैसा लेकर सर्वे करवाती हैं. अर्थात लोगों को पंजाब विश्वविद्यालय की रैंकिंग हजम नहीं हो रही है. वे टाइम्स की रैंकिंग को ही कोस रहे हैं.
लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को पंजाब विश्वविद्यालय की इस छलांग पर कतई आश्चर्य नहीं हुआ. बल्कि हैरत होती है कि उसे यह सम्मान इतनी देर से क्यों मिला? हर साल होने वाले देशी सर्वेक्षणों की साख पर भी सवालिया निशान लगता है कि कैसे वे अपने देश के एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय को नजरअंदाज करते रहे हैं? लगता है कि जो आरोप आज टाइम्स के सर्वे पर लगाए जा रहे हैं, वास्तव में वे इन स्वदेशी सर्वे एजेंसियों पर लगते हैं, जो ईमानदारी के साथ सर्वे नहीं करते हैं. भारत में सर्वे एजेंसियों की विश्वसनीयता आज भी नहीं बन पायी है तो इसीलिए कि वे अपने काम में पारदर्शिता और निष्पक्षता  नहीं बरतते.
संभव है कि पंजाब विश्वविद्यालय ने आज तक अपने आपको मार्केट करने की कोई कोशिश नहीं की हो, संभव है कि उसने इस बार टाइम्स के सर्वे में शामिल होने के लिए अपने आंकड़ों को अच्छी तरह से तराश लिया हो, संभव है कि आंकड़े कुछ बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए हों. ये सारी बातें संभव हैं, लेकिन फिर भी क्या किसी गली छाप संस्थान को आप देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थान घोषित कर सकते हैं? वह भी वैश्विक साख वाला टाइम्स संस्थान कैसे ऐसी गलती कर सकता है?
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आकलन के कुछ मानदंड हैं, जिनके बिना आप उस दौड़ में कहीं नहीं ठहरते. अधिकाँश भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए इन्हें छू पाना भी संभव नहीं हो पाता. इनमें प्रमुख हैं: छात्र- शिक्षक अनुपात, कितने नोबेल विजेता विद्वान विश्वविद्यालय ने पैदा किये, अनुसंधान का स्तर और परिमाण, अंतर्राष्ट्रीय फैकल्टी, अंतर्राष्ट्रीय छात्र, कितने पुरस्कार अध्यापकों और छात्रों को मिले हैं, अनुसंधान और नव-प्रवर्तन में निवेश, पढ़ाई का स्तर, नियोक्ताओं की नजर में प्रतिष्ठा, उद्योग जगत से होने वाली आय अर्थात विश्वविद्यालय किस हद तक उद्योग जगत से जुड़ा हुआ है, कितने और कैसे अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान होते हैं और कुल मिलाकर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा कैसी है? ये कुछ मानदंड हैं, जिनमें भारतीय विश्वविद्यालय बहुत पीछे हैं. तीसरी दुनिया में ही हम चीन, ताइवान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया से बहुत पीछे हैं. आज की दुनिया में यह सब अर्जित करने के लिए धन खर्च करना पड़ता है, जिसमें हम बहुत पिछड़ जाते हैं. पहली बात तो यह है कि हमारे यहाँ अभी तक ज्यादातर विश्वविद्यालय सरकारी क्षेत्र में रहे हैं. वहाँ धन का सदा ही अकाल रहता है. हाल के वर्षों में निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोले तो हैं, लेकिन हमारे देश में व्यापारी लोग शिक्षा के क्षेत्र में भी विशुद्ध मुनाफे के मकसद से उतर रहे हैं. ऐसे में शिक्षा के स्तर की किसे परवाह! सबसे बड़ी बात यह है कि किसी विश्वविद्यालय की साख दो-चार रोज में नहीं बनती. न ही दूसरे ही वर्ष से धन-वर्षा होने लगती है. आप खुद ही तुलना कीजिए: दुनिया के पहले-दूसरे स्थान पर रहने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय का सालाना बजट जहां २२,५०० करोड़ रुपये है, वहीं हमारे श्रेष्ठ संस्थानों का बजट भी बमुश्किल ५००-६०० करोड़ का होता है. ऐसे भी विश्वविद्यालय हैं, जिनका बजट फक्त दस करोड़ भी नहीं होता है. ऐसे में आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले की सोच भी कैसे सकते हैं?
स्टूडेंट्स सेंटर : कॉफ़ी हाउस 
जहां तक पंजाब विश्वविद्यालय का सवाल है, उसके पीछे १३० साल की समृद्ध विरासत है. १८८२ में लाहौर में स्थापित यह विश्वविद्यालय आजादी से पहले भी देश के पहली कतार के संस्थानों में था. १९४७ में देश के बंटवारे के वक़्त यह भी बंट गया. पहले शिमला और बाद में चंडीगढ़ में इसे ठौर मिली. अच्छी बात यह हुई कि तब के हुक्मरानों ने इसके महत्व को समझा और इसके साथ राजनीति नहीं खेली. चंडीगढ़ को डिजाइन करने वाले वास्तुविद ली कार्बूजिए ने विश्वविद्यालय का डिजाइन तैयार किया था. ५५० एकड़ में फैले इस विश्वविद्यालय में तब के श्रेष्ठ अध्यापकों को आमंत्रित किया गया. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिक, समाज विज्ञानी, लेखक और साहित्यकार यहाँ अध्यापक बनकर आये. पत्रकारिता-शिक्षा के आदि गुरु पृथ्वीपाल सिंह, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुल्क राज आनंद इनमें कुछ हैं. आज यहाँ ७०० प्राध्यापक हैं, ७५ विभागों में पढाई और प्रशिक्षण की भरपूर सुविधाएं हैं. सुन्दर कैम्पस है, खूबसूरत अध्यापन ब्लॉक हैं, सुविधा संपन्न होस्टल, मनोहारी लैंडस्केप और तालाब, म्यूजियम, बौटेनिकल गार्डन हैं. १८८ एफ़िलिएटेड कालेजों और चार क्षेत्रीय कैम्पसों की बदौलत आज यह विश्वविद्यालय विश्व स्तर पर उभरा है तो यूं ही नहीं उभरा है. सत्तर-अस्सी के दशक में यहाँ पढाई माहौल वाकई अद्भुत था. तब यहाँ दाखिला हो जाना या अध्यापकी पा जाना किसी ख्वाब से कम नहीं होता था.
अच्छी बात यह हुई कि चंडीगढ़ में स्थित होने के कारण इसमें राजनीति का साया नहीं पडा. पहले इसका साथ प्रतिशत खर्चा केंद्र सरकार उठाती थी तो चालीस प्रतिशत पंजाब सरकार. अब इसका पूरा खर्च केंद्र सरकार उठाती है. इसलिए यहाँ प्रादेशिक राजनीति का दखल नहीं के बराबर रहा है. साथ ही क्लासरूम की पवित्रता भी बचाए रखी. यहाँ दाखिले को नियंत्रित और पारदर्शी रखा गया. इसीलिए इसकी गुणवत्ता भी बची रह पायी. बीच में एक बार बीजे गुप्ता जी के फर्जी शोध की वजह से इसकी छवि को बड़ी ठेस पहुंची. मैं यह नहीं कहता कि यह विश्वविद्यालय ही एकमात्र श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है, बलिक अभी तक इसकी अच्छाई का श्रेय इसे नहीं मिला. बेहतरीन पढाई का माहौल होते हुए भी कभी इसकी गणना उम्दा संस्थानों में नहीं होती थी. अस्सी के दशक में आतंकवाद की काली छाया इसके ऊपर भी पडी. तब हमारे अध्यापकों को सुरक्षा गार्डों के साए में रहना पड़ता था. कैम्पस एकदम उजाड़-सा लगता था. इसकी बीरानी बहुत कचोटती थी. आज यह फिर से तरक्की की चौकड़ी भरने लगा है, यह देख कर मन खुशी से भर जाता है. (अमर उजाला, ११ दिसंबर, २०१३ से साभार)

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

देवेन्द्र मेवाड़ी की यादों का पहाड़

किताब/ गोविन्द सिंह  

अभी तक हम देवेन्द्र मेवाड़ी को एक विज्ञान-लेखक के रूप में ही जानते रहे हैं. हालांकि अपने आरंभिक वर्षों में उन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखी हैं, लेकिन बाद के वर्षों में उन्होंने खुद को विज्ञान गल्प और लोकप्रिय विज्ञान लेखन तक ही सीमित रखा. इस दौर में उन्होंने एक श्रेष्ठ विज्ञान-लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाई. विज्ञान की गुत्थियों को अत्यंत आसान भाषा में पाठकों तक पहुँचाना भी कम कठिन कार्य नहीं था. यह हिन्दी समाज की जरूरत भी है. विज्ञान को बच्चों तक पहुंचाने का गुरुतर कार्य भी करते रहे हैं मेवाड़ी जी. लेकिन सरकारी सेवा से अवकाश लेने के बाद उन्होंने जिस तरह से अपने बचपन के संस्मरणों को संजोया है, वह उन्हें श्रेष्ठ साहित्यकारों की कतार में ला खडा करता है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ में यद्यपि मेवाड़ी जी के बचपन, (स्कूल जाने की उम्र से 12वीं कक्षा तक का सफ़र) के संस्मरण हैं, लेकिन वास्तव में यह किताब एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति है. ठीक उसी तरह जैसे आर के नारायण की मालगुडी डेज या स्वामी और अन्य कहानियां. शंकर की मलयालम कृति ननिहाल में गुजारे दिन भी बाल मनोविज्ञान की अद्भुत रचना है. इसी तरह रसूल हमजातोव का मेरा दागिस्तान या गोर्की की आत्मकथा श्रृंखला भी अपने समय और समाज का अत्यंत जीवंत चित्रण करते हैं.
मराठी में आत्मकथा और जीवनी की समृद्ध परम्परा है. बांग्ला में संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त को वैसा ही सम्मान प्राप्त है, जैसा उपन्यास-कहानी को. यह हिन्दी का दुर्भाग्य है कि उसमें संस्मरण, रेखाचित्र या आत्मकथा को वह सम्मान प्राप्त नहीं है, जो बांग्ला या मराठी में है, वरना इस एक किताब की बदौलत मेवाड़ी जी साहित्य की अग्र पंक्ति में पहुँच चुके होते.
इस किताब की कहानियां नैनीताल समाचार में धारावाहिक रूप में छप चुकी हैं, इसलिए अखबार के पाठक इनके स्वाद से अच्छी तरह वाकिफ होंगे. ये कहानियाँ सिर्फ लेखक की अपनी आपबीती नहीं हैं, वे अपने समय का जीवंत दस्तावेज भी हैं. जीवन की घटनाएं इतनी बारीकी से पिरोई गयी हैं कि जैसे आपके सामने घटना घट रही है और उसके फल-प्रतिफल में आप स्वयं भी भागीदार हैं. ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि मेवाड़ी जी ने न सिर्फ अपने बचपन को पूरी शिद्दत के साथ जिया है बल्कि इस किताब को शब्द देते हुए उन्होंने अपने बचपन के पल-पल को फिर से जिया है. सुख-दुःख को पूरी ईमानदारी के साथ महसूस किया है. और तब अपनी मार्मिक शैली के जरिये लिपिबद्ध किया है. उनका यह पुनर्जीवन इतना प्रामाणिक है कि लगता ही नहीं कि आप 69 साल के देवेन्द्र मेवाड़ी के साथ हैं. पूरे साधारणीकरण के साथ हम छः वर्ष के देबी के साथ यात्रा पर निकल
पड़ते हैं. वही हमारा कथावाचक है, उसी के सुख-दुःख के हम साझीदार बनते हैं. वही हमें चौगढ़ पट्टी के गाँव कालाआगर की सैर कराता है, आस-पास के गांवों से, वहाँ के बाशिंदों से, नाते-रिश्तेदारों से, जंगल-पहाड़ से, मवेशियों से, जंगली जानवरों से, चिड़ियों से, रीति-रिवाजों से मिलाता है. और जल्दी ही हमारा उस परिवेश के साथ तादात्म्य कायम हो जाता है. ‘मेरा गाँव-मेरे लोग’ नामक पहले ही अध्याय में हमारी मुलाक़ात आजादी की पहली भोर में आँख खोल रहे एक पहाडी गाँव से होती है, जो आज के तथाकथित विकास से कोसों दूर है. वहाँ गरीबी है, अभाव हैं, हाड-तोड़ मेहनत है, फिर भी उसका कोई ख़ास प्रतिफल नहीं है. शिक्षा, स्वास्थ्य और यातायात जैसी सुविधाओं से कोसों दूर है. लेकिन फिर भी वहाँ आदमियत जीवित है. लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं. वे लड़ते-भिड़ते हैं फिर भी एक-दूसरे के सुख-दुःख में मदद को आगे आते हैं. गाँव के गाँव कुछ रिश्ते-नातों के जाल में इस कदर आपस में जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग कर पाना मुश्किल है. गाँवों में भेदभाव है, ऊंच-नींच है, छुआछूत है लेकिन नफरत नहीं है. लोग मिलजुल कर रहते हैं. शिल्पकार हैं, चुनार हैं लेकिन उनके हुनर की कदर है. अद्भुत सहअस्तित्व है. सहअस्तित्व न सिर्फ लोगों के बीच है, बल्कि पालतू पशुओं, जंगली जानवरों, पेड़-पौधों के बीच भी है. शेर से डर भी है, लेकिन उसका होना भी जरूरी है. कुल मिलाकर मनुष्य और प्रकृति के बीच एक आदिम किस्म का सहअस्तित्व है. कई बार यह ध्वनि भी निकलती है कि आज के विकास की तुलना में भलेही तब अभाव ही अभाव थे, लेकिन फिर भी वह समय अच्छा था. इंसानियत ज़िंदा थी. अनपढ़ होते हुए भी लोग प्रकृति के प्रति संजीदा थे. भलेही उनके पास किताबी ज्ञान नहीं था, लेकिन प्रकृति प्रदत्त ज्ञान से वे लैस थे.
इस किताब की सबसे बड़ी प्रेरणा शायद लेखक की ईजा अर्थात मां हैं. ईजा का चरित सचमुच अद्भुत है. चूंकि वह बचपन में ही छोड़ कर चली गयीं, इसलिए भी उसका अभाव देवी के समूचे अस्तित्व में व्याप्त है. वह सशरीर भलेही न हो, लेकिन वायवीय ताकत के रूप में वह सदैव साथ है. ईजा का चरित लिखते हुए लेखक ने पूरे पहाड़ की मां का ही खाका नहीं खींच लिया है, अपितु ऐसा लगता है कि वह एक वैश्विक मां है. यह ठीक है कि मां या ईजू शब्द हर आदमी की जुबां पर रहता है, लेकिन यहाँ लेखक कथावाचक का रूप धर कर हम पाठकों से भी ईजू बोल रहा है, तो यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यह शब्द लेखक के मन-मस्तिष्क में कितना गहरे धंसा हुआ है.
बालक देवी के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ हमें तत्कालीन समाज की पूरी छटा देखने को मिलती है. अपने स्कूली जीवन, जंगल, खासकर बाघ का भय, देवी-देवता, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, शादी-व्याह, खेती-किसानी, मवेशी, चिड़ियाँ, जंगली जीवन, गांवों में काम करने वाले कारीगर और उनके तरह-तरह के काम, मौसम, शिकार और प्राकृतिक सुषमा से आप्लावित भीमताल-नैनीताल से हमें परिचित करवाता है. ऐसा लगता है कि मेवाड़ी जी ने पूरी तरह से अपने बचपन में डूब कर यह रचना लिखी है. जैसे वर्डस्वर्थ ने कहा था कि ‘पोइट्री इस रिफ्लेक्शंस रेकलेक्टेड इन ट्रेन्क्वेलिटी’. पूरी तरह से अपने वर्तमान से कटकर अपने बचपन में लौट जाना और उस जीवन की एक-एक चीज को याद कर के ज्यों का त्यों शब्दबद्ध करना सचमुच मुश्किल काम है. बहुत दिनों बाद इतनी सुन्दर और प्रामाणिक कुमाउनी हिन्दी पढने को मिली. इसकी थोड़ी-सी झलक मनोहरश्याम जोशी के ‘कसप’ में देखी थी. लेकिन इसका कोई जवाब नहीं.

नैनीताल समाचार में प्रकाशित