Essay लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Essay लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

सर्द हवाओं का संगीत

निबंध/ गोविन्द सिंह
धान की फसल कट चुकी है. खेतों में जगह-जगह रबी की फसल बोई जा रही है. कहीं-कहीं गेहूं की नन्हीं कोंपलें फूटने लगी हैं. काली-काली मिट्टी पर हरे छींट वाली चादर की तरह. सुबह टहलने जाता हूँ तो नन्हीं कोंपलों पर मोती सरीखी ओस की बूंदों को देख मन खुशी और विस्मय से भर उठता है. कभी सूर्य की पहली किरण इन पर पड़ जाए तो यह आभा एकदम स्वर्णिम हो जाती है. कुछ ठहर कर देखता हूँ, अपनी आँखों में इन दृश्यों को भर लेना चाहता हूँ. हरे-भरे खेत में जैसे हजारों-हजार मोती बिखरे हुए हैं. बीच-बीच में इक्का-दुक्का सरसों के फूल उनकी लय को तोड़ रहे हैं. प्रकृति की कैसी लीला है! अच्छा ही हुआ, इस अलसाए-से कसबे में आ गया, वरना महानगर में इस सब से बंचित रह जाता.
दीपावली के साथ ही यहाँ मौसम में गुनगुनी ठण्ड शुरू होने लगती है. हल्द्वानी के जिस इलाके में रहता हूँ, वहाँ अप्रैल-मई में बया का शोर सुनाई देने लगा था. नवम्बर आते-आते वे अपने घोंसले छोड़ कर वन-प्रान्तरों को लौट रही हैं. सर्दी के ख़त्म होने पर वे फिर आयेंगी, फिर से घोंसले बनाने की कवायद शुरू करेंगी. मेरे पड़ोस में मेहता जी के ताड़ वृक्षों पर इन्होने घोंसले बना लिए हैं. ६-७ महीने इनकी चें-पें से मेहता जी का आँगन गुलजार रहता है. आने वाले ६ महीने वीरानी के रहेंगे. घोंसले लटके रहेंगे लेकिन उनमें कोई चहल-पहल नहीं होगी. अगले साल फिर आयेंगी और नए घरोंदे बनाएंगी. सर्दियां बहुतों को अपनी धरती से उखाड़ देती हैं. पुराने जमाने में सर्दियों में पहाड़ों से लोग घाम तापने के लिए मैदानों में पडाव डाल लिया करते थे. तराई-भाबर में बहुत सी जगहें इनके पडाव बनती थीं. मौसम अनुकूल होते ही लोग फिर पहाड़ों की ओर लौट जाया करते थे. आज भी उच्च हिमालयी इलाकों के भोटिया लोग सर्दियों के चार महीने अपने भेड़-बकरियों के साथ मैदानी तलहटियों में आ जाते हैं. लेकिन बयाओं का यह झुण्ड अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यहाँ आता है, अपनी गृहस्थी बसाने. शायद इन्हें मानव बस्तियों में सुरक्षित ठिकानों की तलाश रहती है पर  मानव-बस्तियां भी अब कहाँ सुरक्षित रहीं? इनके रहने की जगहें लगातार सिकुडती जा रही हैं.
सर्दी यानी ठण्ड यानी हेमंत ऋतु दस्तक दे चुकी है. अगहन यानी मंगसीर के आते ही मौसम में सर्द हवाओं की मादकता छाने लगती है. इन सर्द हवाओं के भी अनेक रंग देखे हैं. लेकिन प्रकृति का न्याय भी किसी समाजवाद से कम नहीं होता. अपने होने का एहसास वह सबको बराबर कराता है. जो अपनी तमाम सुख-सुविधाओं और ऐशो-आराम के जरिये गरमी या सरदी को जीत लेने का दम भरते हैं, वे गलत हैं. आप सर्दी का आनंद लेना चाहें तो तमाम अभावों के बाद भी ले सकते हैं. और ठण्ड से डरते हों तो तमाम सुविधाओं के बावजूद वह आपको डराकर रहेगी. प्रकृति एक ही कोड़े से सबको हांकती है, वह बात अलग है कि किसी को उसका अहसास होता है और किसी को नहीं.
पिथौरागढ़ जिले में सौगाँव नाम के जिस गाँव में मेरा जन्म हुआ, वहाँ ख़ास ठण्ड नहीं पड़ती है. चारों तरफ से घिरी पहाड़ियों के बीच तलहटी में जो बसा है. वहाँ प्राइमरी करने के बाद चौबाटी के मिडिल स्कूल में दाखिला लिया. चौबटी लगभग ५००० फुट ऊंचाई पर होगा. अपने गाँव के बच्चे रोज पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ के चौबाटी पहुंचते. और दोपहर के बाद लौटते. वहाँ कडाके की ठण्ड पड़ती थी. नवम्बर आते-आते ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी, लेकिन मेरे पास न कोट था और न पैंट. एक हाफ स्वेटर दीदी ने बुनकर भिजवा दिया था. वह मेरे लिए बड़े-बड़े ऊनी कोटों से बढ़कर था. लेकिन कुछ छवियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य कभी भुला नहीं पाता. ऐसा ही एक दृश्य हाजिर है. सर्दी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला तो मैं नया कोट पहन कर स्कूल गया. मेरे मामाजी ने एक कोट सिलवा कर भिजवा दिया था. मक्खन जीन का कोट. उसके आने की अद्भुत खुशी थी. हलकी बरसात हो रही थी. जिनके पास भरपूर कपडे थे, उन्हें कडाके की ठण्ड लग रही थी. पर मैं अपने कोट के नशे में था. मेरे पास न जूते थे, न पैंट. पैरों में चप्पल और कमर में नेकर. स्कूल में प्रार्थना के वक्त मेरे एक दोस्त ने देखा तो आँखों ही आँखों में खुशी जाहिर की कि आखिर मेरे पास भी कोट आ गया है. लेकिन जैसे ही उसने आँखें नीचे फेरीं तो अफ़सोस जाहिर किया कि पैंट और जूते के बिना कोट का मजा किरकिरा हो गया. लेकिन मुझे कहाँ पैंट की परवाह थी! मैंने गर्व से कहा, ‘मुझे बिलकुल भी ठण्ड नहीं लग रही. कोट जो पहन रखा है!’
एक और दृश्य सुनिए. आठवीं के बाद कनालीछीना इंटर कॉलेज में नौवीं कक्षा में भरती हुआ. यह मेरे घर से काफी दूर यानी पैदल कोई २० किलोमीटर दूर था. महीने में एक बार अपने गाँव आता और महीने भर का सामान लेकर जाता. डेरा करके रहता था. यहाँ और भी ज्यादा ठंड पड़ती थी. दो लड़कों ने एक कमरा किराए में ले रखा था.  कमरा क्या था हवामहल. किराया था नौ रुपये. खुद ही जंगल से लकडियाँ बटोरते और खुद ही खाना बनाते. तब मैं दसवीं में था. सर्दियों की छुट्टियों के बाद एक फरवरी को स्कूल खुलना था. हम दो लड़के ३१ जनवरी को ही अपने डेरे में पहुँच गए थे. हमारे पास ओढने-बिछाने को ख़ास कपडे नहीं थे. शाम होते-होते बारिश होने लगी और रात ढलते बर्फ गिरने लगी. हम कम्बल के भीतर गए तो ठण्ड और परेशान करने लगी. हमने आग जलाई और रात भर हिमपात का आनंद उठाते रहे. सुबह हुई. हमने बाहर आकर देखा कि चारों ओर धरती ने बर्फ की चादर ओढ़ रखी थी. गिरते-फिसलते स्कूल गए. लेकिन प्रिंसिपल ने छुट्टी की घोषणा कर दी. हम लोग डबुल शोर करते हुए कमरे में लौटे. मेरे पास ओढने को एक पुराना कम्बल था. रूम पार्टनर चंद्रू की स्थिति मुझ से कोई बेहतर नहीं थे. लेकिन एक दिन उसके गरीब पिताजी कहीं से जुगाड़ करके उसके लिए २२ रुपये में एक रजाई खरीद कर पहुंचा गए. शायद एक-डेढ़ किलो की थी. मैं खुश था कि चलो एक के पास तो रजाई आयी. एकाध कोना तो मुझे भी मिल ही जाएगा. लेकिन जब रात को सोने का वक्त हुआ तो चंद्रू ने सख्त रवैया अपना लिया, ‘रजाई मेरी है तो मैं ही ओढूंगा.’ मैंने कहा, ‘चल यार कोई बात नहीं.’ जब रात को उसे नींद आ गयी तो मैंने कोशिश की कि मैं भी उसके भीतर समा जाऊं. लाख कोशिश करने पर भी मैं उसके भीतर नहीं आ सका. मैं हार कर अपने कम्बल के साथ सो गया. सच, जिन्दगी कितनी मजेदार होती है! तमाम अभावों के बावजूद हमें कभी ठण्ड ने अपने होने का अहसास नहीं कराया. नाक बहती रहती थी, पर कभी परवाह नहीं की. कभी दवा नहीं खाई. हमारे पंडितजी, महीने में एक बार गाँव भर के बच्चों को एक-एक पुडिया खिला जाते, वही हमारे लिए किसी भी टॉनिक से बढ़कर होती. जिन्दगी बिद्रूपों से भरी होती है. जिस कडाके की सर्दी को बचपन में ही खेलते-कूदते परास्त कर चुका था, जिन्दगी के दूसरे पडाव में पहुंचकर उसे अपने पब्लिक स्कूली बच्चों के साथ एक पर्यटक की तरह देखना कितना अजीब लगता है. जब अपने ही बच्चे हिमपात को देखने पैसे खर्च करके मसूरी-नैनीताल जाते हैं तो लगता है कि एक दिन मैं भी अजायबघर में रखा जाऊंगा.              
दिल्ली जैसे शहरों में सर्दी की मार और भी दुधारी होती है. एक तरफ अट्टालिकाओं में रहने वाले लोग तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद ठण्ड का रोना रोते रहते हैं. घर-दफ्तर सब तरफ कृत्रिम गरमी. थोड़ी-सी भी हवा लग जाए तो बीमारी का डर. जबकि दूसरी तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों जैसी जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं. राजधानी दिल्ली में ही हजारों लोग बेघर सड़कों के किनारे उधार की रजाई लेकर रात बिताते हैं. तरक्की की तमाम कहानियों के बावजूद साल दर साल शीत लहर से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. फिर भी वे कभी किसी से शिकायत नहीं करते. करें भी तो किससे? बेशक सर्दी का रिश्ता भूख से होता है. हमारी तरफ सर्दियों की सबसे बड़ी रात को कौव्वे की मूर्छा वाली रात कहा जाता है. क्योंकि कड़कती ठण्ड में भूख के मारे इतनी लम्बी रात काट पाना जब दीर्घजीवी कौव्वे के लिए ही असह्य होता हो तो मनुष्य के लिए कितना कष्टकारी नहीं होगा. कुछ अरसा पहले राजधानी दिल्ली के ही एक उम्दा कालेज में पढने वाली एक लड़की ने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ फुटपाथ में रहने वालों के साथ रात बिताने का फैसला लिया, उनके दर्द को करीब से महसूस करने के लिए. लेकिन रात होते-होते उसे असह्य लगने लगा और उसने फोन करके अपने परिजनों को बुला लिया. कितना कठिन होता है सिद्धांत और व्यवहार में! हमारी अधिसंख्य नीतियाँ और योजनायें  इसी तरह तो बनती हैं.
उत्तर भारत के शहरों में सर्दियों की शुरुआत सप्तपर्णी के खिलने से होती है. नवम्बर आते-आते पूरे के पूरे पेड़ सफेद फूलों से लद जाते हैं, जो रात भर गमकते रहते हैं. इधर तराई के साल-शीशम के जंगल भी फूलने लगे हैं, जिनकी छटा दूर से देखते ही बनती है. हालांकि प्रेम के लिए ऋतुराज वसंत को जाना जाता है, लेकिन प्रेम की अंतिम परिणति हेमंत में ही होती है. सचमुच यह रति की ऋतु है. सृजन और विनाश साथ-साथ चलता रहता है. यही ऋतु है, जो सबसे ज्यादा जानें लेती है और यही ऋतु सर्वाधिक जीवन भी देती है. यह जीवन-कामना की ऋतु है. ऋतुसंहार में कालिदास कहते हैं, ‘अनेक गुणों से रमणीय अंगनाओं के चित्तों को हरनेवाला, परिपक्व धानों से ग्रामों की सीमाओं की शोभा बढ़ानेवाला, चारों ओर पाला पड़ा, क्रौंच पक्षियों के गीतों से व्याप्त, बरफयुक्त यह हेमंत ऋतु आप सबको सुख प्रदान करे.
पद्मावतकार जायसी से इस मौसम में अपनी नायिका का वियोग सहा नहीं गया. विरह विदग्ध नायिका कहती है:
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा। चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी। उन्ह लेखे सब सिस्टि जुडानी॥
हंसा केलि करहिं जिमि , खूँदहिं कुरलहिं दोउ ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥9॥

तो भोजपुरी बारहमासा का रचनाकार कह उठता है:

अगहन ए सखी गवना करवले, तब सामी गईले परदेस ।
जब से गईले सखि चिठियो ना भेजले,तनिको खबरियो ना लेस ॥
पुस ए सखि फसे फुसारे गईले, हम धनि बानि अकेली ।
सुन मन्दिलबा रतियो ना बीते, कब दोनि होईहे बिहान ॥

यानी सर्दियां अपने साथ जीवन-मृत्यु, सृजन और विनाश, राग-विराग सबकुछ लेकर आती है. इसमें शिव और ब्रह्मा दोनों सक्रिय रहते हैं. हेमंत ऋतु हमें कष्ट जरूर देती है, लेकिन उसके बाद का आनंद अनुपमेय होता है. घने कोहरे के बाद सूर्योदय की ऊष्मा हमें जीवन की तमाम हकीकतो से सामना करने की ताकत देती है. सचमुच यह हमें पूर्णता देती है. (कादम्बिनी, दिसंबर, २०१३ से साभार)  



गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

मीडिया और साहित्य का रिश्ता

पत्रकारिता/ गोविंद सिंह

साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है. एक ज़माना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था. ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार. पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो. लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गयी है. और यह दरार लगातार चौड़ी हो रही है. इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है. जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है, तब साहित्य की ओर मुड कर भी नहीं देखती. पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है. उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. उसमें अनेक स्तरों पर विखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है. सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहाँ तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका  कोई जवाब है, तो वह क्या है?
इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है. इसमें कोदो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा  निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गयी है. आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है. वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है. फिलहाल वह १०.३ अरब डॉलर का उद्योग है तो २०१५ में वह 25 अरब डालर  यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है. दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए देश के पास कोई सुविचारित नीति भी नहीं है. इसलिए उसका एकरूप होना या किसी साफ़-सुथरी तस्वीर का न बन पाना अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन इस मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एक नज़र भारतीय मीडिया की पृष्ठभूमि पर डालनी चाहिए.
आजादी से पहले हिन्दी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे. पहला चेहरा था- आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था. कहना न होगा कि इन तीनों को एक महाभाव जोड़ता था और वह महाभाव आजादी प्राप्त करने का विराट लक्ष था. इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अन्तः सलिला बहा करती थी. तीनों धाराओं का संगम हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र संपादित कवि वचन सुधा में देखने को मिलता है. १८६८ में जब यह पत्रिका निकली थी, तब इसका कलेवर सिर्फ साहित्यिक था. बल्कि यह पत्रिका काव्य और काव्य-चर्चा को समर्पित थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार भी छपने लगे. इस पत्रिका ने हिंदी प्रदेश को निद्रा से जगाने का काम किया था. एक समय ऐसा आया जब अँगरेज़ सरकार के प्रति इसका स्वर इतना तल्ख़ हो गया कि इसे मिलने वाली तमाम सरकारी सहायता बंद हो गयी. बालकृष्ण भट्ट, जिन्हें हम हिन्दी के शुरुआती निबंधकार के रूप में जानते हैं, उनके संपादन में निकलने वाले पत्र हिन्दी प्रदीप में कविता छपी, यह बम क्या चीज है? और इसी वजह से पत्र को अकाल मृत्यु का भाजन बनना पड़ता है. उचित वक्ता, भारत मित्र, हिंदी बंगवासी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, हिंदू पञ्च, चाँद, शक्ति, कर्मवीर, प्रताप, माधुरी, मतवाला, सैनिक, हंस, वीणा, सुधा, आज आदि  को भी इसी नज़र से देखा जा सकता है.
जो राजनीतिक पत्र थे, वे भी साहित्य से एकदम असम्प्रिक्त नहीं थे. चाहे तिलक का केसरी हो या गांधी का हरिजन, वे साहित्य से दूर नहीं थे. जब गांधी जी ने हरिजन को हिंदी में निकाला तो उसके संपादन का दायित्व वियोगी हरि जैसे बड़े साहित्यकार को सौंप दिया. साहित्य, समाज और राजनीति का बेहतरीन उदाहरण निस्संदेह महाबीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती ही थी, जिसने हिंदी भाषा और साहित्य और पत्रकारिता का एक युग निर्मित किया. सरस्वती सिर्फ एक साहित्यिक पत्रिका ही नहीं थी, समय की जरूरत के अनुरूप हर तरह की सामग्री उसमें छपा करती थी. दुनिया भर का श्रेष्ठ साहित्य उसमें छपता था. द्विवेदी जी स्वयं अनेक नामों से तरह-तरह के विषयों पर लिखा करते थे. ज्ञान की कोइ ऐसी चीज नहीं थी, जो सरस्वती में न छपी हो. इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक संपादक के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग का नामकरण हुआ. अपनी पत्रिका के जरिये उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार तैयार किये. लोगों को सही भाषा लिखना सिखाया. और हिन्दी भाषा के मानकीकरण के लिए ठोस प्रयास किये.
आजादी से पहले तो हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का दबदबा था ही, आजादी के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा. आजादी के बाद जहां हिन्दी की दैनिक पत्रकारिता कोई खास झंडे नहीं गाड पायी थी, वहीं साप्ताहिक या मासिक पत्रकारिता ने हिन्दी का झंडा बुलंद रखा. विशाल भारत, ज्ञानोदय, धर्मयुग, नवनीत, कल्पना, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन, पराग, रविवार और दिनमान जैसी पत्रिकाओं ने आजादी से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की साहित्यिक परम्परा को जीवित रखा. इन पत्रिकाओं ने साहित्य को जीवित ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा में भी रखा. ये पत्रिकाएं अच्छे साहित्य की बदौलत ही चल भी पाईं. हेम चंद्र जोशी, इला चंद्र जोशी, बद्री विशाल पित्ती, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, बाल कृष्ण राव, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, नारायण दत्त, चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे साहित्यकारों ने आज़ादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ के साथ संवारा. यह क्रम अस्सी के दशक तक लगभग बना रहा. साहित्यिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति के फायदे हुए तो इसके विस्तार में रुकावटें भी कम नहीं आयीं. क्योंकि अस्सी के दशक में जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ने नई उड़ान भरनी शुरू की, राजनीति और समाज के स्तर पर बदलाव आने शुरू हुए, उसका सीधा असर हिन्दी की पाठकीयता पर पड़ा. जैसे-जैसे हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार होने लगा, अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ने लगा. हिन्दी के नए पाठक जुड़ने लगे. जाहिर है ये पाठक अपनी अभिरुचि और अध्ययन के लिहाज से पहले के पाठकों की तुलना में अलग थे.
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं से यह अपेक्षा होने लगी कि वे नयी तरह की सामग्री अपने पाठकों को दें. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया. साहित्य के लिहाज से हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का स्तर निस्संदेह बहुत ऊंचा था, लेकिन उनका प्रसार धीरे-धीरे घटने लगा. नब्बे के दशक तक आते-आते हिन्दी कि लगभग तमाम बड़ी पत्रिकाएं बंद होने की दिशा में बढने लगीं. धर्मयुग, दिनमान और सारिका जैसी टाइम्स समूह की पत्रिकाएं तो बंद हुई ही, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, अवकाश जैसी पत्रिकाएं भी बंद हो गयीं. नब्बे के दौर में शुरू हुए संडे मेल, संडे ओब्जर्वर, चौथी दुनिया, दिनमान टाइम्स जैसे ब्रोडशीट साप्ताहिक भी जल्दी ही अपना बिस्तर समेट कर बैठ गए.
इसी बीच १९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने साहित्य और मीडिया के रिश्तों को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया. देश में सेटेलाईट के जरिये विदेशी धरती पर तैयार हुए टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे. विदेशी चैनल भारत में प्रसारित होने लगे. अचानक न्यू मीडिया का उफान आया. जो विषय सामग्री अखबारों में सप्ताह भर के बाद छप कर आती थी, वह टीवी पर तत्काल दिखाई देने लगी. इसलिए साप्ताहिक परिशिष्टों में छपने वाली सामग्री दैनिक के पन्नों पर छपने लगी. देखते ही देखते साप्ताहिक पत्रिकाएं दम तोड़ने लगीं. उनके सामने यह संकट पैदा हो गया कि वे क्या छापें? दैनिक पन्नों में छपने वाली सामग्री भी उस स्तर की नहीं थी, जो स्तर साप्ताहिकों का होता था. इसलिए समस्या काफी गहरी हो गयी.
सबसे बड़ी समस्या हिन्दी साहित्य की उन विधाओं के साथ हुई, जो स्तरीय पत्रिकाओं में छापा करती थीं. रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, ललित निबंध, यात्रा वृत्तान्त, भेंटवार्ता, समीक्षा जैसी अनेक विधाएं, जो साप्ताहिक पत्रिकाओं की शान हुआ करती थीं, धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं. जब छपनी ही बंद हो गयीं, तो लिखी भी नहीं जाने लगीं. यानी आर्थिक सुधारों के बाद पत्रकारिता का जो नया रूप आया, उसने पत्रकारिता का विस्तार तो बहुत किया, लेकिन स्तर में गिरावट आ गयी. इस तरह पत्रिकाओं के बंद होने से हिन्दी साहित्य को प्रत्यक्ष नुक्सान उठाना पड़ा.
हाँ, कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए राखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते. इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है.
यह हमारे वक्त की एक कडुवी हकीकत है कि आज का मीडिया साहित्य को भी एक उपभोग सामग्री की तरह देखता है. ऐसा नहीं है कि उसने साहित्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है. सचाई यह है कि वह साहित्य को भी उसी नज़रुये से देखता है, जैसे किसी और उपभोग-सामग्री को. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई सामग्री कितनी उम्दा या श्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण यह है कि उसे कैसे भुनाया जा सकता है. मसलन, कविवर हरिवंश राय बच्चन के बारे में उनकी मृत्यु के बाद प्रसारित कार्यक्रमों को ही ले लीजिए. ज़रा सोचिए कि यदि वह अमिताभ बच्चन के पिता न होते तो क्या उनके बारे में उतने ही बढ़-चढ कर कार्यक्रम दिखाए जाते? उसी के आसपास अन्य कवि-साहित्यकार भी दिवंगत हुए होंगे, लेकिन उनके बारे में मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया. हमारा यह आशय नहीं है कि बच्चन जी बड़े कवि नहीं थे. उन्हें जो प्रचार मिला, वह तो मिलना ही चाहिए, लेकिन और लोगों कि उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. मीडिया, खासकर टीवी यह देखता है कि जिस लेखक को दिखाया जा रहा है, उसकी मार्केट वैल्यू क्या है, तभी वह खबर का विषय बनता है. वह यह नहीं जांचता कि उस लेखक के साहित्य में कोई दम है या नहीं. टीवी के साथ ही अब पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्य की कवरेज के यही मानदंड बन गए हैं. बाजार जिसे उछाल दे, वही साहित्य, बाक़ी ईश्वर के भरोसे. यह स्थिति ठीक नहीं है. लेकिन दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है. पता नहीं भविष्य में कोई नया मानक उभरता है या नहीं, जिस से साहित्य को उचित न्याय मिल सके. 
(साहित्यिक शोध पत्रिका 'परमिता' के अप्रैल-जून, २०१२ में प्रकाशित)

    

  

      



 

सोमवार, 19 मार्च 2012

हरे-भरे खेतों के बीच वसंत की आहट

ललित निबंध/ गोविंद सिंह

धनिया के फूल
कभी आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हज़ारों-हज़ार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे. पिछले डेढ़-दो महीनों से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ. जब वे नन्हे कोंपल थे, तब उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था. जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए. जब वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी. जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो, तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो. जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया. गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए. पूरी तरह से आच्छादित. और कुछ भी नहीं. जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो. सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है. मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो.
गेहूं के खेत में निकलने लगीं बालियाँ
इन्हें देखते हुए मैं अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ. नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं. इन मोतियों को बटोरने को लेकर उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था. सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे पौंधों को छूने का एहसास. 
इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं. कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए हैं. जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है, लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं. गहरा हरा रंग अब तनिक गायब हो गया है. अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है. कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं एकाध कलगी ही दिख रही है. बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो. किशोर बालकों की छितराई हुई दाढी-मूछों की तरह.
प्यूली के फूलों से महकने लगे वन
एक दिन सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था. धनिया की कुछ क्यारियां तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था. सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया. हलके गुलाबी और सफ़ेद रंग के फूल अद्भुत दृश्य उत्पन्न करते हैं. और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है.
प्रकृति की ये सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं. वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है. लेकिन अभी मादकता आनी बाक़ी है. अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी. रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती को बयान करने को काफी है.
चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है. गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले फूल खिल रहे हैं.  अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं. आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं. हालांकि आम की बौर की तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है. वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती. सेमल के पेड़ अपने को अनावृत कर चुके हैं. उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं. पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे. नयी दिल्ली की अभिजात बस्तियों में तो जैसे सेमल राज करता है. सड़कें लाल-लाल फूलों से भर जाती हैं. यहाँ उसके ज्यादा पेड़ नहीं हैं. लेकिन पृष्ठभूमि में खड़े पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं. नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है. सबकी अपनी-अपनी जमात है. जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं. सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है. कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा. और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे. दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है. प्रकृति ने सचमुच वसंत की दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है. महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को पहचानना ही भूल गए हैं. पता नहीं हम कब अपने असली स्वभाव में लौटंगे! ( पाक्षिक पब्लिक एजेंडा से साभार)