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शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

बामुसि के रिटायर होने पर

संस्मरण/ गोविन्द सिंह 

दिसंबर के आख़िरी दिन अर्थात ३१ दिसंबर, २०१३ को बाल मुकुंद नव भारत टाइम्स के वरिष्ठ सम्पादक पद से चुपचाप रिटायर हो गया. और रह रह कर याद आ रहा है उसका लिखा पहला व्यंग्य ‘मुन्ना बाबू के रिटायर होने पर’. तब हम लोग नभाटा, मुंबई में ट्रेनी थे. यह लगभग १९८३ की बात है. वहाँ हमारे चीफ रिपोर्टर श्रीधर पाठक हुआ करते थे. वे पुराने जमाने के पत्रकार थे. शायद मैट्रिक पास थे. तीखी नाक वाले, बड़े गुस्सैल आदमी थे. अपने मातहतों को दबा कर रखते थे. मुंबई का अकेला अखबार होने के नाते तब वहाँ नभाटा की तूती बोलती थी. खासकर हिन्दी भाषी मारवाड़ी समाज में उसकी बड़ी पैठ हुआ करती थी. लेकिन वहाँ के बौद्धिक समाज में उसे खरीद कर पढ़ना एक मजबूरी थी क्योंकि कोई विकल्प नहीं था. अखबार का स्तर भी कोई ख़ास नहीं था. हम जैसे युवा पत्रकार इसे नए जमाने का अखबार बनाना चाहते थे. पर पुराने लोग बदलने को तैयार नहीं थे. नए पत्रकारों के निर्विवाद लीडर राम कृपाल जी हुआ करते थे. विश्वनाथ जी दोनों पीढ़ियों के बीच सेतु थे. नए और पुराने लोगों के बीच हमेशा एक टकराव बना रहता था. उन्हीं दिनों पता चला कि पाठक जी के रिटायर होने का समय आ गया है. कंपनी उन्हें दो वर्ष का एक्सटेंशन पहले ही दे चुकी थी. वह समय भी बीत गया था. इसलिए रिटायर तो होना ही था. पाठक जी पूरी तरह से स्वस्थ थे, लिहाजा वे किसी हाल में इस स्थिति के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. रोज-ब-रोज मारवाड़ी व्यवसाइयों के घर बुलाया जाना, छोटी-छोटी गोष्ठियों की अध्यक्षता करना, फीता काटना, साधूवेला से प्रसाद ग्रहण करना, सम्मान प्राप्त करना, यही उनकी दिनचर्या थी. वे स्वयं ‘आज के कार्यक्रम’ जैसा मामूली कालम बनाया करते थे. शहर में होने वाले इन छोटे-छोटे कार्यक्रमों में उनकी बड़ी दिलचस्पी रहा करती थी. और यह सब टिका था एक अदद चीफ रिपोर्टरी पर. वरना घर और दफ्तर के अलावा उनकी कोई जिन्दगी नहीं थी. इसलिए ऐसे व्यक्ति के लिए रिटायर हो जाने का एहसास ही बड़ा दुखदायी था.
मैं चूंकि एक आज्ञाकारी बालक था, इसलिए वे मुझे बहुत चाहते थे. वे मुझे हर शाम किसी बड़े होटल में भेजते, जहां खाने-पीने की प्रचुर व्यवस्था होती. खबर चार लाइन की बनती. इस तरह की लोकल रिपोर्टिंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैं उनसे दूर भागता रहता. बाल मुकुंद स्वभाव से ही नटखट था और अक्सर उसकी बातों में भी व्यंग्य रहता था, बेवजह छेड़खानी की उसकी आदत थी. इसलिए पाठक जी की नज़रों में खटकता रहता था.
तो पाठक जी के रिटायर होने की खबर ने ताज़ा हवा के झोंके की तरह दस्तक दी. बाल मुकुंद को बड़ी क्रिएटिव-सी शरारत सूझी. उसने एक व्यंग्य लिख डाला. बहुत चुटीला. व्यंग्य क्या था, सीधे-सीधे पाठक जी पर हमला था. शाम को कमरे में पहुंचे तो हम दोनों ने उसे कई बार पढ़ा. फिर उसमें से वे हिस्से संपादित कर दिए गए, जिनसे लगे कि यह किसके बारे में लिखा गया है. दो-तीन दिन में उसे कई बार तराशा गया. हम दोनों ने उसे संपादित करने में अपनी पूरी सम्पादन कला लगा दी. इस तरह जब वह परफेक्ट व्यंग्य बन गया तो सम्पादकीय पेज पर छपने के लिए प्रधान सम्पादक राजेंद्र माथुर के पास दिल्ली भेज दिया एयर बैग से. हमने सोचा था कि यदि सेलेक्ट हो गया तो चार-पांच दिन में छपने का नम्बर लगेगा, तब तक पाठक जी रिटायर हो जायेंगे. लेकिन व्यंग्य जैसे ही दिल्ली पहुंचा, वैसे ही छपने के लिए क्रीड हो गया. और ठीक उसी दिन छप गया, जिस दिन पाठक जी रिटायर हो रहे थे. सम्पादकीय पेज वाले व्यास जी, जो शास्त्रीय संगीत के उद्भट समीक्षक थे, को वह समझ में नहीं आया. उन्होंने उसे चुपचाप छाप दिया. लेकिन जब छप गया तो हडकंप मच गया. पाठक जी उस रोज भी निर्धारित समय पर ऑफिस पहुंचे. उनका चेहरा तमतमाया हुआ था. किसी से बोले नहीं. चुपचाप सीट पर बैठ गए. ‘आज के कार्यक्रम’ बनाने लगे. न्यूजरूम में लोग सिर्फ और सिर्फ बाल मुकुंद के व्यंग्य के बारे में ही खुसुर-पुसुर कर रहे थे. सीनियर-जूनियर, किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी पाठक जी के पास जाने की. तभी किसी वरिष्ठ ने उनके पास जाकर विदाई समारोह के बारे में सूचना देने की कोशिश की. बस फिर क्या था! पाठक जी बिफर पड़े. बोले, ‘यहाँ लोग मेरे बारे में व्यंग्य लिख रहे हैं. मुझे मुन्ना बाबू कह रहे हैं...’ फिर बाल मुकुन्द को ललकारते हुए बोले, ‘क्यों बाल मुकुंद जी, आपने मुझे नाली का कीड़ा लिखा?...मुन्ना बाबू नाली के कीड़े थे, नाली में चले गए... यही लिखा ना?’ बाल मुकुंद को काटो तो खून नहीं. मंद स्वर में गिडगिडाया, ‘ये आपके बारे में थोड़े ही लिखा है?’ लेकिन सच यही था कि लिखा गया था पाठक जी के ही लिए. हाँ, जब लिखा गया तब उसके अंजाम के बारे में सोचा नहीं गया था. खैर बात आयी-गयी हो गयी. पाठक जी का विदाई समारोह हुआ. लेकिन पाठक जी फिर कभी ऑफिस नहीं आये.
आज यह कहानी इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि आज बाल मुकुंद स्वयं रिटायर हो गया है. पिछले ३२ साल वह टाइम्स संस्थान से चिपका रहा. मैं या मेरे जैसे और साथी तो बीच-बीच में बहुत उछल-कूद करते रहे लेकिन उसने कभी इधर-उधर नहीं देखा. एकाध बार मौक़ा आया भी, लेकिन वह नहीं गया. हमारे बीच में वही सबसे प्रतिभाशाली था. उसकी भाषा में गजब की तार्किकता थी. हम चार लोगों ने एक साथ टाइम्स ग्रुप ज्वाइन किया ट्रेनी के रूप में, बाल मुकुंद सिन्हा, अनंग पाल सिंह, अरुण दीक्षित और मैं. शायद मैं सबसे कम उम्र का था. अनंग पाल कई साल पहले वीआरएस लेकर बैठ गया, अरुण दीक्षित भी अभी तक नभाटा में विशेष संवाददाता के रूप में जमा हुआ है, शायद वह ५७ के आसपास होगा. मैं पत्रकारिता की दुनिया को छोड़ कर अध्यापन में आ गया हूँ.
रिटायरमेंट से पहले मैंने बाल मुकुंद से कहा, क्यों नहीं टाइम्स ग्रुप में ही दो-एक साल एक्सटेंशन का प्रयास करते. बोला, ‘नहीं, मैं इस नई तरह की पत्रकारिता से ऊब गया हूँ. कुछ सार्थक करना चाहता हूँ.’ अब देखना है कि वह क्या करता है?
मुझे लगता है कि वह एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार है. उसकी पूरी फितरत में ही व्यंग्य छुपा है. मैं उससे हमेशा यही कहता रहा कि उसे बाक़ी सारे काम छोड़ कर व्यंग्य-लेखन करना चाहिए. शुरू में उसने कई अच्छे व्यंग्य लिखे. कई रचनाओं का प्रकाशन-पूर्व का पाठक-सम्पादक मैं रहा. बाद में ‘चौथी दुनिया’ में उसने कुछ अरसा एक व्यंग्य कॉलम लिखा. लेकिन पता नहीं क्यों उसने इसे अपनी स्थायी विधा नहीं बनाया! वह राजनीतिक टिप्पणीकार बनना चाहता था. बौद्धिक बिरादरी में विद्वान् कहलाना चाहता था. तब की पत्रकारिता में यह संभव भी था. उसने टाइम्स फेलोशिप के तहत एक अच्छा काम किया, हिन्दी की पहली शैली पुस्तक लिख कर. यह माथुर साहब का ड्रीम प्रोजेक्ट था, जिसे बाल मुकुंद ने अंजाम दिया. लेकिन हिन्दी के अखबारों ने उसे नजरअंदाज कर दिया. खुद नभाटा में ही निजाम बदलने से उसकी उपेक्षा हुई तो और अखबार उसे क्यों अपनाते?
एक बार धर्मयुग से मुझे कश्मीर समस्या पर एक लंबा राजनीतिक विश्लेषण लिखने को मिला. तब हम ट्रेनी थे. आज कहा और कल लिखकर देना था. मैं लाइब्रेरी में बैठ कर पढने लगा. क्लिपिंग ले आया. रात भर नोट्स बनाता रहा. सुबह लिखने बैठा तो शरीर कांपने लगा. दस्त लग गए. हालत खराब हो गयी. किसी तरह ऑफिस पहुंचा और धर्मयुग में गणेश मंत्री जी को समस्या बतायी. उन्होंने कहा, अब लेख को ड्राप तो नहीं किया जा सकता. भारती जी को बताना भी ठीक नहीं होगा. वे नाराज हो जायेंगे. कोई विकल्प है? मेरे साथ बाल मुकुंद था. बाल मुकुन्द बोला, ‘यह बोलेगा, मैं लिख दूंगा.’ मंत्री जी मान गए. मैंने अपने नोट्स उसे दिए और जो कुछ मैं समझ पाया था, मैंने उसे बता दिया. उसने दो घंटे में बढ़िया लेख तैयार कर दिया. बाद में वह लेख धर्मयुग में दोनों के नाम से छपा. तीन पेज में छपा.
वह कम लिखता पर उसके राजनीतिक विश्लेषण बहुत उम्दा होते. उसकी लेखकीय तार्किकता का कोई जवाब नहीं था. एक बार हिन्दी आन्दोलन पर राष्ट्रपति की असहायता पर उसके लिखे सम्पादकीय की तबके सम्पादक डॉ सूर्यकांत बाली ने बहुत तारीफ़ की. मुझे आज भी उसका शीर्षक याद है: ‘प्राणहीन पन्नों का पहरुआ’. एक बार उसने देश के बौद्धिक माहौल पर रविवार्ता में बहुत सुन्दर निबंध लिखा, ‘गमले में उगे बुद्धिजीवी.’ बाल मुकुंद की विश्लेषण शैली बहुत बेबाक होती थी. सम्पादकीय बैठक में वह अपनी राय भी बड़ी बेबाकी से रखता. लेकिन उसकी तुनकमिजाजी उसके लिए दुश्मन बनाती रहती. फिर शायद हिन्दी में इस सबकी गुंजाइश भी नहीं रही! इसलिए वह धीरे-धीरे उदास हो गया. उसकी प्रतिभा कुंद होने लगी. उसने व्यंग्य तो लगभग छोड़ ही दिया, बाक़ी विधाओं पर भी कलम चलाने में संकोच करने लगा. समय की जरूरत पर या प्रबंधन की मांग पर कभी-कभार कुछ लिख दिया तो लिख दिया, वरना उसकी अपनी पसंद का उसने हाल-फिलहाल कुछ लिखा हो, मुझे नहीं पता. मुझे दुःख इस बात का है कि हिन्दी जगत में  अब बौद्धिक प्रतिभाओं के लिए जगह घटती जा रही है... खैर, बाल मुकुंद को अपनी नई जिन्दगी के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं.    

   

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

मीडिया और साहित्य का रिश्ता

पत्रकारिता/ गोविंद सिंह

साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है. एक ज़माना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था. ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार. पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो. लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गयी है. और यह दरार लगातार चौड़ी हो रही है. इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है. जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है, तब साहित्य की ओर मुड कर भी नहीं देखती. पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है. उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. उसमें अनेक स्तरों पर विखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है. सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहाँ तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका  कोई जवाब है, तो वह क्या है?
इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है. इसमें कोदो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा  निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गयी है. आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है. वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है. फिलहाल वह १०.३ अरब डॉलर का उद्योग है तो २०१५ में वह 25 अरब डालर  यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है. दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए देश के पास कोई सुविचारित नीति भी नहीं है. इसलिए उसका एकरूप होना या किसी साफ़-सुथरी तस्वीर का न बन पाना अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन इस मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एक नज़र भारतीय मीडिया की पृष्ठभूमि पर डालनी चाहिए.
आजादी से पहले हिन्दी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे. पहला चेहरा था- आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था. कहना न होगा कि इन तीनों को एक महाभाव जोड़ता था और वह महाभाव आजादी प्राप्त करने का विराट लक्ष था. इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अन्तः सलिला बहा करती थी. तीनों धाराओं का संगम हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र संपादित कवि वचन सुधा में देखने को मिलता है. १८६८ में जब यह पत्रिका निकली थी, तब इसका कलेवर सिर्फ साहित्यिक था. बल्कि यह पत्रिका काव्य और काव्य-चर्चा को समर्पित थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार भी छपने लगे. इस पत्रिका ने हिंदी प्रदेश को निद्रा से जगाने का काम किया था. एक समय ऐसा आया जब अँगरेज़ सरकार के प्रति इसका स्वर इतना तल्ख़ हो गया कि इसे मिलने वाली तमाम सरकारी सहायता बंद हो गयी. बालकृष्ण भट्ट, जिन्हें हम हिन्दी के शुरुआती निबंधकार के रूप में जानते हैं, उनके संपादन में निकलने वाले पत्र हिन्दी प्रदीप में कविता छपी, यह बम क्या चीज है? और इसी वजह से पत्र को अकाल मृत्यु का भाजन बनना पड़ता है. उचित वक्ता, भारत मित्र, हिंदी बंगवासी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, हिंदू पञ्च, चाँद, शक्ति, कर्मवीर, प्रताप, माधुरी, मतवाला, सैनिक, हंस, वीणा, सुधा, आज आदि  को भी इसी नज़र से देखा जा सकता है.
जो राजनीतिक पत्र थे, वे भी साहित्य से एकदम असम्प्रिक्त नहीं थे. चाहे तिलक का केसरी हो या गांधी का हरिजन, वे साहित्य से दूर नहीं थे. जब गांधी जी ने हरिजन को हिंदी में निकाला तो उसके संपादन का दायित्व वियोगी हरि जैसे बड़े साहित्यकार को सौंप दिया. साहित्य, समाज और राजनीति का बेहतरीन उदाहरण निस्संदेह महाबीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती ही थी, जिसने हिंदी भाषा और साहित्य और पत्रकारिता का एक युग निर्मित किया. सरस्वती सिर्फ एक साहित्यिक पत्रिका ही नहीं थी, समय की जरूरत के अनुरूप हर तरह की सामग्री उसमें छपा करती थी. दुनिया भर का श्रेष्ठ साहित्य उसमें छपता था. द्विवेदी जी स्वयं अनेक नामों से तरह-तरह के विषयों पर लिखा करते थे. ज्ञान की कोइ ऐसी चीज नहीं थी, जो सरस्वती में न छपी हो. इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक संपादक के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग का नामकरण हुआ. अपनी पत्रिका के जरिये उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार तैयार किये. लोगों को सही भाषा लिखना सिखाया. और हिन्दी भाषा के मानकीकरण के लिए ठोस प्रयास किये.
आजादी से पहले तो हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का दबदबा था ही, आजादी के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा. आजादी के बाद जहां हिन्दी की दैनिक पत्रकारिता कोई खास झंडे नहीं गाड पायी थी, वहीं साप्ताहिक या मासिक पत्रकारिता ने हिन्दी का झंडा बुलंद रखा. विशाल भारत, ज्ञानोदय, धर्मयुग, नवनीत, कल्पना, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन, पराग, रविवार और दिनमान जैसी पत्रिकाओं ने आजादी से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की साहित्यिक परम्परा को जीवित रखा. इन पत्रिकाओं ने साहित्य को जीवित ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा में भी रखा. ये पत्रिकाएं अच्छे साहित्य की बदौलत ही चल भी पाईं. हेम चंद्र जोशी, इला चंद्र जोशी, बद्री विशाल पित्ती, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, बाल कृष्ण राव, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, नारायण दत्त, चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे साहित्यकारों ने आज़ादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ के साथ संवारा. यह क्रम अस्सी के दशक तक लगभग बना रहा. साहित्यिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति के फायदे हुए तो इसके विस्तार में रुकावटें भी कम नहीं आयीं. क्योंकि अस्सी के दशक में जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ने नई उड़ान भरनी शुरू की, राजनीति और समाज के स्तर पर बदलाव आने शुरू हुए, उसका सीधा असर हिन्दी की पाठकीयता पर पड़ा. जैसे-जैसे हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार होने लगा, अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ने लगा. हिन्दी के नए पाठक जुड़ने लगे. जाहिर है ये पाठक अपनी अभिरुचि और अध्ययन के लिहाज से पहले के पाठकों की तुलना में अलग थे.
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं से यह अपेक्षा होने लगी कि वे नयी तरह की सामग्री अपने पाठकों को दें. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया. साहित्य के लिहाज से हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का स्तर निस्संदेह बहुत ऊंचा था, लेकिन उनका प्रसार धीरे-धीरे घटने लगा. नब्बे के दशक तक आते-आते हिन्दी कि लगभग तमाम बड़ी पत्रिकाएं बंद होने की दिशा में बढने लगीं. धर्मयुग, दिनमान और सारिका जैसी टाइम्स समूह की पत्रिकाएं तो बंद हुई ही, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, अवकाश जैसी पत्रिकाएं भी बंद हो गयीं. नब्बे के दौर में शुरू हुए संडे मेल, संडे ओब्जर्वर, चौथी दुनिया, दिनमान टाइम्स जैसे ब्रोडशीट साप्ताहिक भी जल्दी ही अपना बिस्तर समेट कर बैठ गए.
इसी बीच १९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने साहित्य और मीडिया के रिश्तों को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया. देश में सेटेलाईट के जरिये विदेशी धरती पर तैयार हुए टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे. विदेशी चैनल भारत में प्रसारित होने लगे. अचानक न्यू मीडिया का उफान आया. जो विषय सामग्री अखबारों में सप्ताह भर के बाद छप कर आती थी, वह टीवी पर तत्काल दिखाई देने लगी. इसलिए साप्ताहिक परिशिष्टों में छपने वाली सामग्री दैनिक के पन्नों पर छपने लगी. देखते ही देखते साप्ताहिक पत्रिकाएं दम तोड़ने लगीं. उनके सामने यह संकट पैदा हो गया कि वे क्या छापें? दैनिक पन्नों में छपने वाली सामग्री भी उस स्तर की नहीं थी, जो स्तर साप्ताहिकों का होता था. इसलिए समस्या काफी गहरी हो गयी.
सबसे बड़ी समस्या हिन्दी साहित्य की उन विधाओं के साथ हुई, जो स्तरीय पत्रिकाओं में छापा करती थीं. रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, ललित निबंध, यात्रा वृत्तान्त, भेंटवार्ता, समीक्षा जैसी अनेक विधाएं, जो साप्ताहिक पत्रिकाओं की शान हुआ करती थीं, धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं. जब छपनी ही बंद हो गयीं, तो लिखी भी नहीं जाने लगीं. यानी आर्थिक सुधारों के बाद पत्रकारिता का जो नया रूप आया, उसने पत्रकारिता का विस्तार तो बहुत किया, लेकिन स्तर में गिरावट आ गयी. इस तरह पत्रिकाओं के बंद होने से हिन्दी साहित्य को प्रत्यक्ष नुक्सान उठाना पड़ा.
हाँ, कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए राखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते. इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है.
यह हमारे वक्त की एक कडुवी हकीकत है कि आज का मीडिया साहित्य को भी एक उपभोग सामग्री की तरह देखता है. ऐसा नहीं है कि उसने साहित्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है. सचाई यह है कि वह साहित्य को भी उसी नज़रुये से देखता है, जैसे किसी और उपभोग-सामग्री को. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई सामग्री कितनी उम्दा या श्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण यह है कि उसे कैसे भुनाया जा सकता है. मसलन, कविवर हरिवंश राय बच्चन के बारे में उनकी मृत्यु के बाद प्रसारित कार्यक्रमों को ही ले लीजिए. ज़रा सोचिए कि यदि वह अमिताभ बच्चन के पिता न होते तो क्या उनके बारे में उतने ही बढ़-चढ कर कार्यक्रम दिखाए जाते? उसी के आसपास अन्य कवि-साहित्यकार भी दिवंगत हुए होंगे, लेकिन उनके बारे में मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया. हमारा यह आशय नहीं है कि बच्चन जी बड़े कवि नहीं थे. उन्हें जो प्रचार मिला, वह तो मिलना ही चाहिए, लेकिन और लोगों कि उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. मीडिया, खासकर टीवी यह देखता है कि जिस लेखक को दिखाया जा रहा है, उसकी मार्केट वैल्यू क्या है, तभी वह खबर का विषय बनता है. वह यह नहीं जांचता कि उस लेखक के साहित्य में कोई दम है या नहीं. टीवी के साथ ही अब पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्य की कवरेज के यही मानदंड बन गए हैं. बाजार जिसे उछाल दे, वही साहित्य, बाक़ी ईश्वर के भरोसे. यह स्थिति ठीक नहीं है. लेकिन दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है. पता नहीं भविष्य में कोई नया मानक उभरता है या नहीं, जिस से साहित्य को उचित न्याय मिल सके. 
(साहित्यिक शोध पत्रिका 'परमिता' के अप्रैल-जून, २०१२ में प्रकाशित)