संस्मरण/ गोविन्द सिंह
दिसंबर के आख़िरी दिन अर्थात ३१ दिसंबर, २०१३ को बाल मुकुंद नव भारत टाइम्स के वरिष्ठ सम्पादक पद से चुपचाप रिटायर
हो गया. और रह रह कर याद आ रहा है उसका लिखा पहला व्यंग्य ‘मुन्ना बाबू के रिटायर
होने पर’. तब हम लोग नभाटा, मुंबई
में ट्रेनी थे. यह लगभग १९८३ की बात है. वहाँ हमारे चीफ रिपोर्टर श्रीधर पाठक हुआ
करते थे. वे पुराने जमाने के पत्रकार थे. शायद मैट्रिक पास थे. तीखी नाक वाले, बड़े
गुस्सैल आदमी थे. अपने मातहतों को दबा कर रखते थे. मुंबई का अकेला अखबार होने के
नाते तब वहाँ नभाटा की तूती बोलती थी. खासकर हिन्दी भाषी मारवाड़ी समाज में उसकी
बड़ी पैठ हुआ करती थी. लेकिन वहाँ के बौद्धिक समाज में उसे खरीद कर पढ़ना एक मजबूरी
थी क्योंकि कोई विकल्प नहीं था. अखबार का स्तर भी कोई ख़ास नहीं था. हम जैसे युवा
पत्रकार इसे नए जमाने का अखबार बनाना चाहते थे. पर पुराने लोग बदलने को तैयार नहीं
थे. नए पत्रकारों के निर्विवाद लीडर राम कृपाल जी हुआ करते थे. विश्वनाथ जी दोनों
पीढ़ियों के बीच सेतु थे. नए और पुराने लोगों के बीच हमेशा एक टकराव बना रहता था. उन्हीं
दिनों पता चला कि पाठक जी के रिटायर होने का समय आ गया है. कंपनी उन्हें दो वर्ष
का एक्सटेंशन पहले ही दे चुकी थी. वह समय भी बीत गया था. इसलिए रिटायर तो होना ही
था. पाठक जी पूरी तरह से स्वस्थ थे, लिहाजा वे किसी हाल में इस स्थिति के लिए खुद
को तैयार नहीं कर पा रहे थे. रोज-ब-रोज मारवाड़ी व्यवसाइयों के घर बुलाया जाना,
छोटी-छोटी गोष्ठियों की अध्यक्षता करना, फीता काटना, साधूवेला से प्रसाद ग्रहण
करना, सम्मान प्राप्त करना, यही उनकी दिनचर्या थी. वे स्वयं ‘आज के कार्यक्रम’ जैसा
मामूली कालम बनाया करते थे. शहर में होने वाले इन छोटे-छोटे कार्यक्रमों में उनकी
बड़ी दिलचस्पी रहा करती थी. और यह सब टिका था एक अदद चीफ रिपोर्टरी पर. वरना घर और
दफ्तर के अलावा उनकी कोई जिन्दगी नहीं थी. इसलिए ऐसे व्यक्ति के लिए रिटायर हो
जाने का एहसास ही बड़ा दुखदायी था.
मैं चूंकि एक आज्ञाकारी बालक था, इसलिए वे मुझे बहुत चाहते थे. वे
मुझे हर शाम किसी बड़े होटल में भेजते, जहां खाने-पीने की प्रचुर व्यवस्था होती.
खबर चार लाइन की बनती. इस तरह की लोकल रिपोर्टिंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी.
मैं उनसे दूर भागता रहता. बाल मुकुंद स्वभाव से ही नटखट था और अक्सर उसकी बातों में
भी व्यंग्य रहता था, बेवजह छेड़खानी की उसकी आदत थी. इसलिए पाठक जी की नज़रों में
खटकता रहता था.
तो पाठक जी के रिटायर होने की खबर ने ताज़ा हवा के झोंके की तरह दस्तक
दी. बाल मुकुंद को बड़ी क्रिएटिव-सी शरारत सूझी. उसने एक व्यंग्य लिख डाला. बहुत
चुटीला. व्यंग्य क्या था, सीधे-सीधे पाठक जी पर हमला था. शाम को कमरे में पहुंचे
तो हम दोनों ने उसे कई बार पढ़ा. फिर उसमें से वे हिस्से संपादित कर दिए गए, जिनसे
लगे कि यह किसके बारे में लिखा गया है. दो-तीन दिन में उसे कई बार तराशा गया. हम
दोनों ने उसे संपादित करने में अपनी पूरी सम्पादन कला लगा दी. इस तरह जब वह
परफेक्ट व्यंग्य बन गया तो सम्पादकीय पेज पर छपने के लिए प्रधान सम्पादक राजेंद्र
माथुर के पास दिल्ली भेज दिया एयर बैग से. हमने सोचा था कि यदि सेलेक्ट हो गया तो चार-पांच
दिन में छपने का नम्बर लगेगा, तब तक पाठक जी रिटायर हो जायेंगे. लेकिन व्यंग्य जैसे
ही दिल्ली पहुंचा, वैसे ही छपने के लिए क्रीड हो गया. और ठीक उसी दिन छप गया, जिस
दिन पाठक जी रिटायर हो रहे थे. सम्पादकीय पेज वाले व्यास जी, जो शास्त्रीय संगीत
के उद्भट समीक्षक थे, को वह समझ में नहीं आया. उन्होंने उसे चुपचाप छाप दिया.
लेकिन जब छप गया तो हडकंप मच गया. पाठक जी उस रोज भी निर्धारित समय पर ऑफिस
पहुंचे. उनका चेहरा तमतमाया हुआ था. किसी से बोले नहीं. चुपचाप सीट पर बैठ गए. ‘आज
के कार्यक्रम’ बनाने लगे. न्यूजरूम में लोग सिर्फ और सिर्फ बाल मुकुंद के व्यंग्य
के बारे में ही खुसुर-पुसुर कर रहे थे. सीनियर-जूनियर, किसी की भी हिम्मत नहीं हो
रही थी पाठक जी के पास जाने की. तभी किसी वरिष्ठ ने उनके पास जाकर विदाई समारोह के
बारे में सूचना देने की कोशिश की. बस फिर क्या था! पाठक जी बिफर पड़े. बोले, ‘यहाँ
लोग मेरे बारे में व्यंग्य लिख रहे हैं. मुझे मुन्ना बाबू कह रहे हैं...’ फिर बाल
मुकुन्द को ललकारते हुए बोले, ‘क्यों बाल मुकुंद जी, आपने मुझे नाली का कीड़ा लिखा?...मुन्ना
बाबू नाली के कीड़े थे, नाली में चले गए... यही लिखा ना?’ बाल मुकुंद को काटो तो
खून नहीं. मंद स्वर में गिडगिडाया, ‘ये आपके बारे में थोड़े ही लिखा है?’ लेकिन सच
यही था कि लिखा गया था पाठक जी के ही लिए. हाँ, जब लिखा गया तब उसके अंजाम के बारे
में सोचा नहीं गया था. खैर बात आयी-गयी हो गयी. पाठक जी का विदाई समारोह हुआ. लेकिन
पाठक जी फिर कभी ऑफिस नहीं आये.
आज यह कहानी इसलिए
लिख रहा हूँ, क्योंकि आज बाल मुकुंद स्वयं रिटायर हो गया है. पिछले ३२ साल वह
टाइम्स संस्थान से चिपका रहा. मैं या मेरे जैसे और साथी तो बीच-बीच में बहुत
उछल-कूद करते रहे लेकिन उसने कभी इधर-उधर नहीं देखा. एकाध बार मौक़ा आया भी, लेकिन
वह नहीं गया. हमारे बीच में वही सबसे प्रतिभाशाली था. उसकी भाषा में गजब की
तार्किकता थी. हम चार लोगों ने एक साथ टाइम्स ग्रुप ज्वाइन किया ट्रेनी के रूप में,
बाल मुकुंद सिन्हा, अनंग पाल सिंह, अरुण दीक्षित और मैं. शायद मैं सबसे कम उम्र का
था. अनंग पाल कई साल पहले वीआरएस लेकर बैठ गया, अरुण दीक्षित भी अभी तक नभाटा में
विशेष संवाददाता के रूप में जमा हुआ है, शायद वह ५७ के आसपास होगा. मैं पत्रकारिता
की दुनिया को छोड़ कर अध्यापन में आ गया हूँ.
रिटायरमेंट से पहले
मैंने बाल मुकुंद से कहा, क्यों नहीं टाइम्स ग्रुप में ही दो-एक साल एक्सटेंशन का
प्रयास करते. बोला, ‘नहीं, मैं इस नई तरह की पत्रकारिता से ऊब गया हूँ. कुछ सार्थक
करना चाहता हूँ.’ अब देखना है कि वह क्या करता है?
मुझे लगता है कि वह
एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार है. उसकी पूरी फितरत में ही व्यंग्य छुपा है. मैं उससे
हमेशा यही कहता रहा कि उसे बाक़ी सारे काम छोड़ कर व्यंग्य-लेखन करना चाहिए. शुरू
में उसने कई अच्छे व्यंग्य लिखे. कई रचनाओं का प्रकाशन-पूर्व का पाठक-सम्पादक मैं
रहा. बाद में ‘चौथी दुनिया’ में उसने कुछ अरसा एक व्यंग्य कॉलम लिखा. लेकिन पता
नहीं क्यों उसने इसे अपनी स्थायी विधा नहीं बनाया! वह राजनीतिक टिप्पणीकार बनना चाहता
था. बौद्धिक बिरादरी में विद्वान् कहलाना चाहता था. तब की पत्रकारिता में यह संभव
भी था. उसने टाइम्स फेलोशिप के तहत एक अच्छा काम किया, हिन्दी की पहली शैली पुस्तक
लिख कर. यह माथुर साहब का ड्रीम प्रोजेक्ट था, जिसे बाल मुकुंद ने अंजाम दिया.
लेकिन हिन्दी के अखबारों ने उसे नजरअंदाज कर दिया. खुद नभाटा में ही निजाम बदलने
से उसकी उपेक्षा हुई तो और अखबार उसे क्यों अपनाते?
एक बार धर्मयुग से
मुझे कश्मीर समस्या पर एक लंबा राजनीतिक विश्लेषण लिखने को मिला. तब हम ट्रेनी थे.
आज कहा और कल लिखकर देना था. मैं लाइब्रेरी में बैठ कर पढने लगा. क्लिपिंग ले आया.
रात भर नोट्स बनाता रहा. सुबह लिखने बैठा तो शरीर कांपने लगा. दस्त लग गए. हालत
खराब हो गयी. किसी तरह ऑफिस पहुंचा और धर्मयुग में गणेश मंत्री जी को समस्या
बतायी. उन्होंने कहा, अब लेख को ड्राप तो नहीं किया जा सकता. भारती जी को बताना भी
ठीक नहीं होगा. वे नाराज हो जायेंगे. कोई विकल्प है? मेरे साथ बाल मुकुंद था. बाल
मुकुन्द बोला, ‘यह बोलेगा, मैं लिख दूंगा.’ मंत्री जी मान गए. मैंने अपने नोट्स
उसे दिए और जो कुछ मैं समझ पाया था, मैंने उसे बता दिया. उसने दो घंटे में बढ़िया
लेख तैयार कर दिया. बाद में वह लेख धर्मयुग में दोनों के नाम से छपा. तीन पेज में
छपा.
वह कम लिखता पर उसके
राजनीतिक विश्लेषण बहुत उम्दा होते. उसकी लेखकीय तार्किकता का कोई जवाब नहीं था. एक
बार हिन्दी आन्दोलन पर राष्ट्रपति की असहायता पर उसके लिखे सम्पादकीय की तबके
सम्पादक डॉ सूर्यकांत बाली ने बहुत तारीफ़ की. मुझे आज भी उसका शीर्षक याद है: ‘प्राणहीन
पन्नों का पहरुआ’. एक बार उसने देश के बौद्धिक माहौल पर रविवार्ता में बहुत सुन्दर
निबंध लिखा, ‘गमले में उगे बुद्धिजीवी.’ बाल मुकुंद की विश्लेषण शैली बहुत बेबाक
होती थी. सम्पादकीय बैठक में वह अपनी राय भी बड़ी बेबाकी से रखता. लेकिन उसकी
तुनकमिजाजी उसके लिए दुश्मन बनाती रहती. फिर शायद हिन्दी में इस सबकी गुंजाइश भी
नहीं रही! इसलिए वह धीरे-धीरे उदास हो गया. उसकी प्रतिभा कुंद होने लगी. उसने
व्यंग्य तो लगभग छोड़ ही दिया, बाक़ी विधाओं पर भी कलम चलाने में संकोच करने लगा. समय
की जरूरत पर या प्रबंधन की मांग पर कभी-कभार कुछ लिख दिया तो लिख दिया, वरना उसकी
अपनी पसंद का उसने हाल-फिलहाल कुछ लिखा हो, मुझे नहीं पता. मुझे दुःख इस बात का है
कि हिन्दी जगत में अब बौद्धिक प्रतिभाओं के
लिए जगह घटती जा रही है... खैर, बाल मुकुंद को अपनी नई जिन्दगी के लिए ढेर सारी
शुभकामनाएं.
sirji. bahut achchha hai
जवाब देंहटाएंआपके माध्यम से यह जानकारी मिली इसका आभार. मैं इन्हें बालमुकुन्द मामू कहता हूँ.
जवाब देंहटाएंअरुण आदित्य:
जवाब देंहटाएं"Bal Mukund ji par shaandar tippani ."
विजय कुमार शर्मा:
जवाब देंहटाएं"Bal Mukand ji per aapka vishal lekh sunder tatha rochak laga. Kripya Badhai kabulen."
नदीम एस. अख्तर :
जवाब देंहटाएंबाल मुकुंद सिन्हा. प्यार से लोग इन्हें -बामु- भी कहते हैं. आज Govind Singh जी के ब्लॉग से पता चला कि बामुजी नवभारत टाइम्स से पिछले 31 दिसंबर को चुपचाप रिटायर हो गए. मन भारी हो गया और अतीत की कई यादें आंखों के सामने तैरने लगीं. मैं खुद को खुशनसीब मानता हूं कि बामुजी से मुझे भरपूर स्नेह और अपनापन मिला.
जब मैं नवभारत टाइम्स में बतौर ट्रेनी भर्ती हुआ, तो धीरे-धीरे ना जाने क्यों, बामुजी से एक अलग रिश्ता बनता चला गया. मैं नया-नया था, सो हर बात पर सवाल उठाता था कि ये ऐसे क्यों है, वो ऐसे क्यों होता है? बामुजी बहुत धीरज से मेरी बातें सुनते और समझाते कि दुनिया वैसे नहीं चलती, जैसे तुम सोचते हो. हर संस्थान के काम करने का अपना अलग तरीका होता है. और पता नहीं ये अधिकार मुझे कब मिल गया कि मैं उनसे जिरह करने लगा था.
तब बामूजी की अगुवाई में नवभारत टाइम्स का सम्पादकीय पन्ना निकला करता था. और एक से एक लोग उनकी टीम में थे. संजय खाती (अभी नभाटा के स्थानीय संपादक), संजय वर्मा, संजय कुंदन, संजय अभिज्ञान, सुरेश उपाध्याय और सुंदर चंद ठाकुर (वर्तमान में नभाटा मुंबई के स्थानीय सम्पादक). पता नहीं क्या और कैसे हुआ, या ये बामुजी से होने वाले वार्तालाप की मांग थी कि न्यूज में काम करने के बावजूद मैं एडिट पेज के लोगों के ज्यादा करीब आ गया.
मैं समय मिलते ही दन से वहां पहुंच जाता. कोने में. सब लोग काम में बिजी होते थे लेकिन जब मैं वहां जाता तो बातचीत होने लगती. उस ROW में संजय खाती, संजय वर्मा और सुरेश उपाध्याय साथ बैठते थे. सो ज्यादातर बातचीत इन्हीं से होती. खातीजी ने भी मुझे खूब प्रश्रय दिया.
कभी-कभी नवभारत टाइम्स में छपे संपादकीय (edit) से मैं इत्तेफाक नहीं रखता (उस वक्त जितनी बुद्धि थी, वैसे आज भी उतनी ही है.) सो मौका मिलने पर बामुजी के पास पहुंच जाता कि सर, ये लाइन आप लोग क्यों ले रहे हैं. इसमें तो ये मामला है और अपना ज्ञान बघारने लगता. बामुजी कुछ बातों का जवाब देते और फिर कहते कि यार, जब तुम एडिट लिखोगे तो अपने मन की बात लिखना. मैं भी मुस्कुरा देता.
संजय कुंदन और सुंदर चंद ठाकुर बाद में नवभारत टाइम्स (एडिट पेज पर) आए और उनके साथ भी मेरी खूब जमी. कुंदन जी और ठाकुर जी के साथ मिलकर तो नवभारत टाइम्स के स्पेशल संडे पेज -फोकस- में खूब काम किया. दनादन इंटरव्यू किए-लिखे. संडे के फोकस पेज पर तो मैं इतना छपता था कि दफ्तर में कई बार सीनियर्स ने खुलेआम कहा कि लगता है फोकस पेज पर आपका ही कब्जा हो गया है. ठाकुर जी आर्मी में कैप्टन रह चुके थे, सो खूब जोशीले थे.
एक दफा बामुजी ने पार्टी दी. ये पार्टी उन्होंने एडिट पेज के अपने सहकर्मियों को दी थी लेकिन इसमें एडिट पेज के अलावा बाहर से सिर्फ दो लोग आमंत्रित थे. मैं और Abhay Kishore जी. अभय जी उस वक्त नवभारत टाइम्स के एनसीआर एडिशन के सम्पादक थे. मुझे बामुजी ने जिम्मा दिया कि मटका पीर से बिरयानी बनवाकर लाऊं. (ये काम वो खुद भी कर सकते थे या किसी और से भी करवा सकते थे लेकिन मुझे लगता है कि जानबूझकर उन्होंने ये काम मुझे सौंपा, शायद मुस्लिम होने के नाते बिरयानी की अच्छी समझ के चलते). चूंकि टाइम्स हाउस में नॉन वेज नहीं खा सकते थे, सो पता चला कि बामुजी ने टाइम्स बिल्डिंग के पीछे राजघाट वाले रोड पर अपनी कार में बिरयानी उड़ाने की दावत रखी है. वो कार लेकर वहां पहुंचे और हम लोग पैदल. फिर सबने छककर गर्मागरम बिरयानी खाई. जहां तक मुझे याद है, इस दावत के बाद संजय खाती जी को भारत-पाक रिश्तों पर एडिट लिखना था और एक Assistant Editor ने छेड़ा कि आज तो खाती जी जबरदस्त एडिट लिखेंगे, उसमें बिरयानी की खुशबू भी शामिल होगी.
नवभारत टाइम्स छोड़ने के बाद बामुजी से संपर्क कम हो गया, बहुत कम. अभी हाल ही में IIMC परिसर में दिखे. मैं ऊपर से देखकर पहचान गया. सीढ़ियों के पास उनके इस्तकबाल के लिए खड़ा हो गया. जब ऊपर आए तो मुझे देखकर चौंक गए कि मैं यहां कैसे? मैंने पूछा आप यहां कैसे, तो बताया कि हिंदी पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने आया हूं. बहुत दिनों से सोच रहा था कि फोन करूंगा लेकिन वो भी नहीं कर पाया.
अभी फेसबुक पर गोविंद सिंह जी के ब्लॉग का लिंक देखा तो पता चला कि बामुजी रिटायर हो गए. विश्वास नहीं हुआ. इतनी तो उम्र नहीं है उनकी. ब्लॉग से बामुजी के बारे में कई और बातें पता चलीं. बामुजी के बारे में लिखने के लिए तो बहुत कुछ है लेकिन जगह की कमी है. बामुजी को ढेरों शुभकामनाएं. उम्मीद है कि आगे भी उनकी सक्रियता हम सब को देखने को मिलती रहेगी.
अपनत्व की चाशनी में लिपटा मासूम संस्मरण।
जवाब देंहटाएंनवीन पाल नवीन:
जवाब देंहटाएंबाल मुकुंद जी के बारे रोचक लेख पढ़ा. धन्यवाद.
वाकई में लाजवाब
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