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बुधवार, 1 जुलाई 2015

हिन्दी को चाहिए राम चौधरी जैसे सेवक

श्रद्धांजलि/ गोविन्द सिंह 
पिछले दिनों (२० जून, २०१५) अमेरिका में हिन्दी की छत्र-छाया समझे जाने वाले डॉ राम चौधरी का निधन हो गया. डॉ चौधरी के जाने का तो दुःख है ही, लेकिन इससे भी दु:खद यह है कि हिन्दी मीडिया में इसकी सूचना तक नहीं दिखी. आप कहेंगे कौन थे डॉ. चौधरी? 
संक्षेप में उनका परिचय कुछ यों है: वे उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के भूलपुर गाँव में १९२७ में पैदा हुए थे. अपने गाँव के  हाईस्कूल से ही उन्होंने आरंभिक शिक्षा ली. अपने गाँव के वे पहले हाई स्कूल पास थे. बाद में आगरा विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पाई. कुछ साल भोपाल के मोतीलाल नेहरू कालेज में पढ़ाया भी लेकिन उनकी प्रतिभा ने उन्हें अमेरिका पहुंचा दिया, जहां उन्होंने पीएच डी और उससे आगे की पढाई की और न्यूयॉर्क के राज्य विश्वविद्यालय, ओसवेगो में भौतिक शास्त्र के प्रोफ़ेसर बन गए. जहां वे मृत्युपर्यंत (८८ साल की उम्र में) एमिरेटस प्रोफ़ेसर रहे. बेशक फिजिक्स शिक्षा में उनका बड़ा योगदान था, लेकिन हम उन्हें यहाँ उनकी हिन्दी सेवा के लिए याद कर रहे हैं.
प्रो. चौधरी भलेही अमेरिका में थे, लेकिन वे अपने गाँव को कभी नहीं भूले. उन्होंने अपने गाँव में गरीब लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला, जो किसान इंटर कॉलेज नाम से विख्यात हुआ. जिसमें खुद की जेब से एक लाख डॉलर और अपनी पैत्रिक संपत्ति दी और अमेरिका से काफी चन्दा जुटाया. वे आजीवन हिन्दी को उसका स्थान दिलाने के लिए संघर्षरत रहे. उनका कहना था कि हमारे बच्चे अपनी पूरी ऊर्जा अंग्रेज़ी सीखने में ही लगा देते हैं, जिससे मूल विषयों में ध्यान ही नहीं दे पाते.
उन्होंने अमेरिका में हिन्दी के विकास हेतु पहले अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति और बाद में विश्व हिन्दी न्यास गठित कर संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को पहुंचाने की भरसक कोशिशें कीं. जो लोग कहते थे कि विज्ञान को हिन्दी में नहीं पढ़ाया जा सकता, उन्हें उन्होंने हिन्दी में विज्ञान की पुस्तकें लिखकर करारा जवाब दिया. हिन्दी जगत, बाल हिन्दी जगत और विज्ञान प्रकाश आदि पत्रिकाएं प्रकाशित कर हिन्दी की मशाल जलाए रखी. ये पत्रिकाएं अमेरिका में तो हिन्दी भाषियों के बीच सेतु का काम करती ही थीं, साथ ही विश्व भर में फैले हिन्दी प्रेमियों के लिए भी संबल थीं. हिन्दी जगत अब भी डॉ सुरेश ऋतुपर्ण के सम्पादन में सफलतापूर्वक निकल रही है. कुछ समय मुझे भी विज्ञान प्रकाश के प्रकाशन से जुड़ने का मौक़ा मिला. तब उनसे वार्तालाप का अवसर मिला. वे अक्सर रात को फोन करते और देर तक अपने मंतव्य को समझाते. उनका दृढ विश्वास था कि हिन्दी में विज्ञान के गूढ़ विषयों को आसानी से व्यक्त किया जा सकता है. विज्ञान प्रकाश का प्रकाशन इसीलिए किया गया था. वे चाहते थे कि विज्ञान प्रकाश बंद नहीं होना चाहिए, इससे भारत में विज्ञान-शिक्षण हिन्दी में करने में मदद मिलेगी. विज्ञान प्रकाश में विज्ञान के इतिहास पर उनका लंबा कॉलम काफी ज्ञानवर्धक हुआ करता था. वे अंग्रेज़ी शिक्षण के विरोधी नहीं थे, बल्कि हिन्दी का हक छीने जाने के विरुद्ध थे. उन्होंने बताया कि किस तरह एक बार उन्होंने अपने स्कूल में आये अँगरेज़ स्कूल इन्स्पेक्टर के अंग्रेज़ी सवाल का सही उत्तर दे दिया था और बदले में अफसर ने उन्हें पुरस्कार स्वरुप पेन भेंट किया था. वे अक्सर कहा करते थे कि डेढ़-दो सौ साल पहले मॉरिशस, फिजी, ट्रिनिडाड पहुंचे गिरिमिटिया मजदूरों से हमें सबक लेना चाहिए, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी भाषा और संस्कृति को बचा कर रखा. अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों से उनका कहना था कि हम लोग तो सम्पन्न हैं. हम लोगों ने तरक्की के लिए देश छोड़ा है. हम तो अपनी बोली-भाषा को आसानी से बचा सकते हैं. 
अमेरिका में रह रहे सम्पन्न भारतीयों से वे हिन्दी के लिए धन की गुहार लगाते हुए कहते थे कि हिन्दी को मजबूत करने से केवल हिन्दुस्तान ही मजबूत नहीं होगा बल्कि यह प्रवासी भारतीयों के भी हित में है. उनका कहना था कि भारतीय सरकारों ने हिन्दी की अवहेलना करके संविधान का अनादर किया है.
वे हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनवाने के लिए भी निरंतर सक्रिय रहे. इसके लिए वे अमेरिका में सकारात्मक माहौल बनाने में लगे हुए थे. वे इस बात पर दुखी थे कि अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में हिन्दी की पढाई बहुत कम होती है जबकि हिन्दी से कमजोर भाषाओं की पढाई बेहतर तरीके से हो रही है. विश्व हिन्दी न्यास के प्रयासों से रटगर्स विश्वविद्यालय में सन २००१ में आरंभिक हिन्दी कक्षाएं शुरू हो पायीं, इसके लिए न्यास को ८००० डॉलर का अनुदान विश्वविद्यालय को देना पड़ा. उसके बाद १०,००० डॉलर देकर माध्यमिक स्तर की कक्षाएं शुरू की गयीं. उनके मुताबिक़ यदि “ हमें भारत सरकार एवं अमेरिका के धन कुबेरों का समर्थन मिल जाए तो वहाँ एक हिन्दी पीठ की स्थापना की जा सकती है”. एक पीठ के लिए तब तीस लाख डॉलर विश्वविद्यालय को देने होते थे. वर्ष २००८ में उन्होंने लिखा था कि ‘अमेरिका में हिन्दी का कोइ पीठ नहीं है. जबकि कोरियाई भाषा के २७ पीठ हैं. 
अमेरिका के पांच राज्यों में, जहां हिन्दुस्तानियों की संख्या अच्छी-खासी है, वहाँ हिन्दी पीठ बनने चाहिए.’ इसमें भारत सरकार और अमेरिका के भारतवंशी समान भागीदारी करें.’ दुर्भाग्य से बाद के वर्षों में उनकी सेहत कम्रजोर होने लगी और अमेरिकी धन कुबेर भी आगे नहीं आये. वे इस बात के लिए चिंतित रहते थे कि भारतीय धनकुबेर धार्मिक कार्यों के लिए तो जी भर के धन देते हैं लेकिन हिन्दी के लिए नहीं देते. वे चीनियों का उदाहरण देते थे कि किस तरह से वे अपनी भाषा-संस्कृति को दुनिया भर में स्थापित करने की जुगत में लगे रहते हैं. भारत सरकार ने डॉ. राम चौधरी को उनकी हिन्दी सेवा के लिए विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर सर्वोच्च सम्मान दिया. साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ से भी सामुदायिक सेवा के लिए पुरस्कृत किया. 
बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कूटनीतिक स्तर पर हिन्दी कुछ आगे बढी है, पर हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने का उनका सपना अब भी अधूरा है. सिर्फ संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को स्थापित कर देने भर से यह सपना पूरा नहीं होगा. देश के भीतर और बाहर दोनों जगह हिन्दी को उसका जायज हक मिलना चाहिए. हिन्दी को आगे बढाने के लिए चहुंमुखी प्रयास करने होंगे. देश से बाहर बसे ढाई करोड़ भारतवंशियों को जोड़ने का इससे बेहतर और कोई उपाय नहीं हो सकता. (गर्भनाल, भोपाल, अगस्त,२०१५ से साभार)  

सोमवार, 26 जनवरी 2015

महान कार्टूनिस्ट लक्ष्मण नहीं रहे

संस्मरण/ गोविन्द सिंह 

साथियो, अभी-अभी पता चला है कि महान कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण हमारे बीच नहीं रहे. पुणे के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. वे ९४ वर्ष के हो गए थे. अभी पिछले हफ्ते ही भारतीय कार्टून को याद करते हुए हमने उन्हें याद किया था. क्या पता था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे. हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि. 
उनसे पहले भारत में शंकर को महानतम कार्टूनिस्ट के रूप में जाना जाता था, लेकिन पिछले ५० साल में वे भारतीय राजनीतिक कार्टून के बेताज बादशाह थे. उनका आम आदमी भारत के तमाम नागरिकों का सामूहिक प्रतिनिधत्व करता था. वे मानव मन की पीड़ा के बारीक चितेरे थे. उसके दर्द की जैसी बारीक पकड़ उन्हें थी, वह शायद ही किसी और में हो. १९८२ से १९८६ तक मुंबई के टाइम्स भवन की दूसरी मंजिल में काम करते हुए, उन्हें रोज सफेद टीशर्ट, काली पैंट और गले में चश्मा लटकाए हुए देखते थे. उनकी छोटी-सी केबिन के बाहर रखे स्टूल पर ढेर सारी ड्राइंग शीट्स पडी होती, जिन पर उनके अधबने कार्टून होते थे. जब तक वे पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हो जाते, वे बनाते ही रहते. एक कार्टून को बनाने से पहले वे कमसे कम २० शीट्स बर्बाद करते होंगे. जब तक कार्टून नहीं बन जाता, उनके चेहरे पर तनाव रहता था. आज सोचता हूँ वे बेकार शीट्स ही संभाल ली होतीं तो कितने काम की होतीं. 
वे किसी से बोलते नहीं थे. उनका बेटा श्रीनिवास लक्ष्मण हमसे कुछ ही बड़ा रहा होगा. जब हम ट्रेनी थे तब वह  टाइम्स में रिपोर्टर हो गया था और एविएशन बीट देखता था. वह बड़ा भोला लगता था लेकिन कभी सहज ढंग से बातचीत नहीं करता था.  कुछ दिनों बाद वह अपने पिता से अलग रहने लगा था. हमें यह बात समझ नहीं आयी. हम मजाक में कहते बाप की ही तरह इसका भी एक पेच ढीला है. 
कई बार उनका इंटरव्यू लेने की कोशिश की, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. शायद हमारे साथी सुधीर तैलंग शुरू में उनका इंटरव्यू लेने में कामयाब हुए थे. हालांकि बाद के दिनों में वे सुधीर से चिढ़ने लगे थे, ऐसा तैलंग को लगता था. जब तैलंग के कार्टून इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया में छपने लगे तो एक बार लक्ष्मण ने उसके सम्पादक केसी खन्ना से शिकायत कर दी, जिसके बाद वीकली में तैलंग के कार्टून छपने बंद हो गए. बाद में वह इकनोमिक टाइम्स में कार्टून बनाने लगा, जिसके सम्पादक उन दिनों हैनन एजकील हुआ करते थे. वे मूलतः यहूदी थे. तैलंग उनसे बहुत खुश रहने लगा. कहने का मतलब, शीर्ष पर पहुंचा हुआ व्यक्ति भी कहीं न कहीं से डरता है. तैलंग उन दिनों हमारे साथ हिन्दी में ट्रेनी था, उसमें भी उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी दिखने लगा.  कहते हैं, ऐसा ही उन्होंने मारियो मिरांडा के साथ किया था. खैर बाद में सुधीर नवभारत टाइम्स दिल्ली में स्थायी हो गया तो चिंता ही ख़त्म. 
लेकिन असल बात यह है कि लक्ष्मण के बराबर व्यंग्य चित्रकार आजादी के बाद और कोई नहीं हो पाया. अबू, लक्ष्मण और सुधीर दर अपने समय के तीन महान कार्टूनिस्ट थे. पर शिखर पर लक्ष्मण ही थे.