गोविंद सिंह
मजबूत लोकपाल के लिए अन्ना हजारे के संघर्ष से एक बात जाहिर हो गई है कि आने वाले दिनों की राजनीति अब वैसी नहीं रहने वाली है, जैसी कि वह आज है। इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया है कि भारत की जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और वह बहुत दिनों तक इसे बरदाश्त नहीं करेगी। उसने यह मान लिया है कि राजनीति ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। इसलिए राजनीति के इस चेहरे को बदलना ही होगा। आज नहीं तो कल। ये अन्ना नहीं तो कोई और अन्ना। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अब भारत जाग उठा है। लोकपाल सिर्फ एक चिंगारी भर है। बन भी गया तो वह सिर्फ एक प्रतीक ही होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ असली लड़ाई अभी बाकी है।
मजबूत लोकपाल के लिए अन्ना हजारे के संघर्ष से एक बात जाहिर हो गई है कि आने वाले दिनों की राजनीति अब वैसी नहीं रहने वाली है, जैसी कि वह आज है। इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया है कि भारत की जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और वह बहुत दिनों तक इसे बरदाश्त नहीं करेगी। उसने यह मान लिया है कि राजनीति ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। इसलिए राजनीति के इस चेहरे को बदलना ही होगा। आज नहीं तो कल। ये अन्ना नहीं तो कोई और अन्ना। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अब भारत जाग उठा है। लोकपाल सिर्फ एक चिंगारी भर है। बन भी गया तो वह सिर्फ एक प्रतीक ही होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ असली लड़ाई अभी बाकी है।
इसलिए राजनीतिक दलों को अभी से संभल जाना चाहिए। ठीक उसी तरह, जैसे मिस्र और टयूनीशिया के हालात देख अन्य अरब देशों के शासक अचानक से जन हितैषी घोषणाएं करने लगे हैं। क्योंकि उन्होंने देख लिया है कि यदि वे नहीं बदले तो जनता उन्हें बदल देगी। ऐसा ही नब्बे के दशक में साम्यवादी विश्व में भी हुआ था। सोवियत संघ की उथल-पुथल देख कर अन्य साम्यवादी देश भी धड़ाधड़ अपना चोला बदलने लगे। यहां तक कि चीन ने साम्यवादी चोले के भीतर से ही अपनी जड़ों को पूंजीवादी खुराक देनी शुरू कर दी। भारत के सत्ताधारी और सत्ताकांक्षी दलों को भी जनता के मूड को भांपना चाहिए कि वे लोकतंत्र की इस आंधी में खुद को कैसे बचाए रख सकते हैं। इसमें किसी एक दल के सुधरने की बात नहीं है। लगभग हर दल को बदलना है, सुधरना है। क्योंकि अपने देश में लोकतंत्र का जो स्वरूप आज है, उसके लिए कमोबेश हर दल बराबर का भागीदार है। हां, सुधार की दिशा में जरूरी कदम उठाने में सत्तारूढ़ होने के नाते कांग्रेस की जिम्मेदारी कुछ ज्यादा है। इसलिए यदि वह मजबूत और कारगर लोकपाल कानून बना लेती तो उसका श्रेय उसे मिलता। लेकिन लगता है अभी कांग्रेस पार्टी की आंखें नहीं खुलीं। और वह अब भी इसे टीम अन्ना की मांग समझ रही है, इसलिए उसके साथ आंख मिचौली खेल रही है।

देश के पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मणिपुर और गोवा को छोड़ भी दिया जाए तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब हमारे लिए काफी अहम हैं। उम्मीदवारों का चयन चल रहा है। लेकिन अभी तक कहीं से भी ऐसा नहीं दिख रहा है कि राजनीतिक दलों में आमूल बदलाव की कोई चाह है। इसका पता इसी से चल जाता है कि वे किन लोगों को टिकट दे रहे हैं। यही समय था, जब राजनीतिक दल स्वच्छ छवि के लोगों को उम्मीदवार बनाकर बदलाव की पहल कर सकते थे। लेकिन अभी वे पुराने फारमूले पर ही चल रहे हैं।
पिछले छह दशकों में हमने देखा कि किस तरह से राजनीति से पढ़े-लिखे और ईमानदार लोग दूर छिटकते गए। आजादी से पहले बड़ी संख्या में वकील, शिक्षक और पत्रकार राजनीति में आते थे। गांधी जी स्वयं एक बड़े पत्रकार थे। धीरे धीरे दूसरे पेशों के लोग भी राजनीति में आने लगे। फिर राजनीति ही एक पेशा बनने लगा। लोग कॉलेज-विश्वविदयालय कैंपस से, ग्राम पंचायत-ब्लॉक और जिला परिषद होते हुए विधान सभा और संसद पहुंचने लगे। बीच-बीच में हुए आंदोलनों के जरिये भी लोग विभिन्न पेशों से राजनीति में आए। मसलन अयोध्या आंदोलन के दिनों भाजपा में बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त ब्यूरोक्रेट और फौजी अफसर शामिल हुए। फिर एक दौर ऐसा भी आया, जब आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग बड़ी संख्या में चुनाव जीतकर संसद पहुंचने लगे। किन्नर कहे जाने वाले उभयलिंगी लोगों को भी जनता ने वोट देकर विधान सभाओं में भेजा। जनता ने ऐसे निर्णय इसलिए लिए क्योंकि पारंपरिक तौर पर राजनीति करने वाले लोग उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे थे। ऐसे लोगों को चुन कर जनता ने पेशेवर राजनेताओं के प्रति अपने गुस्से का ही इजहार किया। दस साल पहले उत्तराखंड में एक अद्भुत किस्सा हुआ। गगन सिंह रजवार नाम के एक ऐसे अल्पशिक्षित वनराजी युवक को चुन कर विधान सभा में भेजा गया, जिसकी जनजाति के लोगों की संख्या महज कुछ सौ में थी, और जो आज भी जंगलों में ही रहना पसंद करते हैं। यानी राजनेता नहीं सुधरेंगे तो जनता विरोध में कुछ भी कदम उठा सकती है। लेकिन ये कदम हमारी राजनीति के लिए कोई स्वस्थ लक्षण नहीं हैं। इसलिए यही वक्त है, जब राजनीतिक दलों को ईमानदार और योग्य लोगों को आगे लाना चाहिए।
लोकसभा में तो फिर भी कुछ पढ़े-लिखे लोग पहुंच जाते हैं, विधान सभाओं का हाल वाकई बुरा है। हाल के वर्षों में जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग विधान सभाओं से गायब ही हो गए हैं। बड़ी संख्या में बिल्डर, प्रॉपर्टी डीलर और ठेकेदार लोग राजनीति में आ गए हैं। बल्कि हर राजनीतिक दल को उन्होंने अपनी गिरफत में ले लिया है। राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा का कोई अर्थ नहीं रह गया है। विधान सभाओं में पहुंच कर वे क्या फैसले करेंगे और क्या नीतियां और कार्यक्रम बनाएंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारा कहना यह नहीं है कि हर ठेकेदार बेईमान ही होता है, हमारा आशय उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करना है, जो हमारी राजनीति को अंदर से खोखला कर रही है। इसी प्रवृत्ति के विरुद्ध जनता जाग रही है। राजनीति के पुराने और जर्जर मॉडल को वह उखाड़ फेंकना चाहती है। काश, हमारे राजनीतिक दल इसे समय रहते भांप पाते।
अमर उजाला, १३ जनवरी २०१२ से साभार.