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मंगलवार, 20 मई 2014

बदलाव का हथियार बना युवा वर्ग


राजनीति/ गोविन्द सिंह

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बार के चुनाव में बदलाव की जबरदस्त आंधी चल रही थी और नरेन्द्र मोदी इसके वाहक बने. लेकिन सवाल यह है कि ऐसा कैसे हुआ और कैसे उसे वोट में परिवर्तित किया जा सका? इसका एक ही कारण नजर आता है, देश का युवा वर्ग परिवर्तन का हथियार बना है. इस बार जिस तरह से १० से १५ फीसदी तक ज्यादा मतदान हुआ, उससे यह साबित हो गया कि बिना युवावर्ग की शिरकत के इतना बड़ा परिवर्तन संभव नहीं था. वे खुद तो सडकों पर आये ही, पुरानी पीढी को भी घरों से निकलने को विवश किया. भारत में १५ करोड़ तो पहली बार वोट डालने वाले मतदाता ही थे जो लोकतंत्र में अपनी हिस्सेदारी के जोश से लबरेज थे, उसके अलावा उतने ही लोग ३० से कम उम्र के थे. माना जा रहा है कि यही वर्ग मोदी की जीत के लिए जिम्मेदार है.
युवा वर्ग की इस भूमिका को अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. हमने देखा है कि पिछले पांच वर्षों में दुनिया भर में परिवर्तन की छटपटाहट दिखाई दी है. अरब देशों के अलावा पूर्वी देशों में भी व्यवस्था परिवर्तन के लिए युवक सडकों पर उतर आये हैं. यद्यपि जब-जब दुनिया में राजनीति ने करवट बदली है, क्रान्ति का बिगुल बजाया है, उसमें निर्णायक भूमिका युवाओं की ही रही है. लेकिन हाल के वर्षों में जो परिवर्तन आये हैं, उनमें युवा स्वयं भी सीधे-सीधे भागीदार रहे हैं. अरब देशों में हुई क्रांतियाँ इसकी गवाह हैं.
हमारे यहाँ इतने बड़े पैमाने पर युवाओं की भागीदारी १९७७ के बाद इसी बार हुई है. १९८९ और १९९१ के चुनावों में भी युवाओं से जुड़े मुद्दे केंद्र में थे, लेकिन तब उनकी भागीदारी खंडित थी. २०१० के बाद अरब देशों में लोकतंत्र के लिए युवाओं में एक नई कुलबुलाहट सुनाई दी तो उसका असर भारत पर भी पडा. नए आर्थिक परिदृश्य और नई टेक्नोलोजी ने विश्व भर के युवाओं को जोड़ने का काम किया. दुनिया भर में हमारे युवा कामयाबी के नए कीर्तिमान गढ़ने लगे. बहुत तेजी से अन्य देशों के साथ आवागमन भी बढ़ने लगा. जब वे उन्नत देशों के साथ अपनी तुलना करते तो पाते कि हमारी तमाम खामियों के लिए हमारी राजनीति दोषी है. हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि हमारा लोकतंत्र भीतर से खोखला होता जा रहा है. उसमें वंशवाद है, भाई-भतीजावाद है, आम आदमी खस्ताहाल है. हमारे यहाँ आर्थिक सुधार लागू हुए लेकिन उनका सुफल केवल मुट्ठी भर लोगों ने चखा. लोकतांत्रिक पूंजीवाद की जगह हमने क्रोनी कैपिटलिज्म यानी याराना पूंजीवाद विकसित किया. कहने को कोटा-परमिट राज ख़त्म जरूर हुआ लेकिन इन्स्पेक्टर राज अब भी दूसरे रूप में बरकरार है. कहाँ तो उम्मीद थी कि आर्थिक सुधारों की वजह से भ्रष्टाचार दूर होगा, कहाँ इस नव-पूंजीवाद ने भ्रष्टाचार को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. इससे हमारे युवा वर्ग में व्यवस्था के प्रति जबरदस्त मोहभंग की स्थिति पैदा कर दी. शुरुआत में उसने राजनीति से पूरी तरह से मुख मोड़ लिया. लेकिन जब उसने देखा कि अपनी छद्म राजनीति की वजह से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितना नींचा देखना पड़ता है, तो उसने भी राजनीति में शिरकत करने का फैसला किया.
२००९ के आम चुनाव में राहुल गांधी देश के युवा वर्ग की आशाओं के केंद्र में थे. राहुल भी पार्टी और राजनीति में आमूल बदलाव की बात किया करते थे. लेकिन युवाओं ने जब देखा कि इन पांच वर्षों में कांग्रेस की हालत बद से बदतर हो गयी है, शासन में भ्रष्टाचार और जड़ें जमा रहा है और राहुल कोइ उम्मीद नहीं जगा पा रहे तो उनसे भी मोहभंग शुरू हुआ. इसी बीच उभरे अन्ना आन्दोलन और दिल्ली में बलात्कार के विरोध में सडकों में उमड़े युवाओं ने यह जता दिया कि अब वे चुप बैठने वाले नहीं हैं. इसी बीच युवाओं में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम सामने आया, जिसने गुजरात जैसे राज्य में शासन की नयी मिसाल कायम की थी. जिसने न सिर्फ विकास का नया मॉडल प्रस्तुत किया बल्कि राजनीति को भी अनुशासित किया था. लेकिन इसी दौर में अचानक मंच पर उभरे और अन्ना आन्दोलन से जन्मे अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली विधान सभा चुनाव में अप्रत्याशित कामयाबी दर्ज की, उसने भी यह साबित किया कि युवा अब राजनीति को सुधारने के लिए घर से बाहर निकल पडा है. लेकिन सत्ता के लिए केजरीवाल की अधीरता और सरकार चला पाने में उनकी विफलता ने यह भी सन्देश दिया कि केवल नेक इरादे होना ही पर्याप्त नहीं है, उसे अंजाम देने का अनुभव होना भी जरूरी है. इसलिए इस बार केजरीवाल को बुरी तरह से मुंह की खानी पडी. पंजाब ने उनकी लाज रख ली, वरना उसके तमाम बड़े नेताओं ने तो पार्टी की लुटिया पूरी तरह से डुबा दी थी. दूसरी तरफ युवाओं को मोदी में वे सब गुण दिखाई दिए, जिनकी उन्हें तलाश थी.
कुल मिला कर यह जीत युवाओं की जीत है. देश की राजनीति का ढर्रा बदल चुका है. पुराने फ़ॉर्मूले अप्रासंगिक हो चुके हैं. जाति-धर्म और साम्प्रदायिकता की जगह अब सिर्फ सुशासन और विकास की राजनीति चलेगी. जो काम करेगा, वह टिका रहेगा, जो छद्म मुद्दे उछालेगा, उसका कोई नामलेवा नहीं बचेगा. (अमर उजाला, २० मई, २०१४ से साभार)  

रविवार, 4 मई 2014

एग्जिट पौल क्यों होते हैं विफल?

राजनीति/ गोविन्द सिंह

निर्वाचन आयोग ने सात अप्रैल से 12 मई तक एग्जिट पौल यानी मतदान के तत्काल बाद जनमत संग्रह के प्रसारण या प्रकाशन पर रोक लगाकर उचित ही किया. क्योंकि पिछले 3-4 चुनावों से लगातार ओपीनियन और एग्जिट पौल्स की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगते रहे हैं. वे न सिर्फ अपनी भविष्यवाणी में विफल रहे हैं, बल्कि इनकी आड़ में स्वार्थी तत्वों पर काले कारनामों को अंजाम देने के आरोप भी लगे हैं. चूंकि आरोप एकदम निराधार नहीं हैं, इसलिए वे अपने मकसद में स्वतः पराजित हो जाते हैं.

आखिर ऐसा क्यों हुआ? भारत में भी जब 1980 में पहली बार ओपीनियन पौल कराए गए थे तो वे सत्य के काफी करीब आये थे. उससे पहले अनुभवी राजनेता, राजनीतिक पंडित और पत्रकार यह काम किया करते थे. वे बहुत सटीक नहीं तो सत्य के नजदीक की भविष्यवाणियाँ कर लिया करते थे. जनता खुद भी काफी-कुछ समझती थी. हमें याद है कि 1980 में जब मध्यावधि चुनाव हुआ था तो ज्यादातर अखबारों ने यही भविष्यवाणी की थी कि चाहे जो हो, इंदिरा गांधी पुनः सत्ता में नहीं आयेंगी. लेकिन जब इंदिरा गांधी पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत गयीं तो एक अखबार ने बाकायदा पहले पेज पर सम्पादकीय लिख कर माफी मांगी. जबकि ओपीनियन पौल वाली पत्रिका सही साबित हुई थी.

ऐसे माहौल में ओपीनियन पौल्स सचमुच ताज़ा हवा के झोंके की तरह आये और लगा कि इससे हमारा लोकतंत्र और मजबूत होगा. वर्ष 1985 और 1989 के लोकसभा चुनावों में भी वे अपने मकसद में कामयाब रहे. लेकिन जैसे ही उनकी स्वीकार्यता देशव्यापी होने लगी, उनके स्तर में गिरावट आने लगी. उनकी भविष्यवाणियाँ गलत साबित होने लगीं. चूंकि सेफोलोजी के धंधे में तरह-तरह के फर्जी लोग भी घुसने लगे, इसलिए उनके सैम्पल और सर्वेक्षण भी फर्जी पाए जाने लगे. सर्वेक्षण करने वाले लोग अपना काम ईमानदारी से नहीं करते थे. ऐसा नहीं कि सर्वे करवाने वाली सभी संस्थाएं ऐसी ही थीं, लेकिन आनन्-फानन फैले इस कारोबार ने अपनी पेशेवर नैतिकता खो दी. निहित स्वार्थी लोग इनके सहारे अपने उल्लू सीधा करने लगे. इनके नाम पर राजनीतिक दल अपने पक्ष में कृत्रिम माहौल बनाने लगे. राजनेता और राजनीतिक दल भारी धनराशि देकर अपने पक्ष में भविष्यवाणियाँ करवाने लगे. चूंकि एग्जिट पौल्स मतदान के एकदम बाद करवाए जाते हैं, इसलिए उनकी भविष्यवाणी की संभावना भी बढ़ जाती है. शुरुआती एग्जिट पौल्स में हुआ भी ऐसा ही. लेकिन सर्वे एजेंसियों के गैरपेशेवर व्यवहार की वजह से इनकी साख पर भी बट्टा लगने लगा. इसलिए निर्वाचन आयोग को इन पर रोक लगवानी पडी. 

अपने मूल स्वरुप में गैलप पौल काफी सटीक रहे हैं. अमेरिका और यूरोप के देशों में तो वे शत-प्रतिशत सटीक बैठते हैं. क्योंकि वहां का समाज समतल है. अमूमन लोग शिक्षित हैं. जीवन स्तर में हमारी तरह विविधता नहीं है. बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं. संचार और जन संचार की वजह से पूरा देश लगभग एक तरह से सोचता है. और लोग भी हमारी तुलना में खुले हुए हैं. उनके मन में क्या है, साफ़-साफ़ बताने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता. सबसे बड़ी बात यह कि सर्वेक्षण को अंजाम देने वाले लोग अपना काम ईमानदारी से करते हैं. ऐसे समाज में औचक ही कुछ लोगों के विचार लेकर किया गया सर्वेक्षण एकदम सटीक बैठता है. लेकिन हमारा समाज वैसा नहीं है. हम एक निहायत ही पेचीदा समाज में रहते हैं. हमारे यहाँ जातियां-उपजातियां हैं, धर्म-सम्प्रदाय हैं, वर्गीय विषमताएं हैं, क्षेत्रीय असंतुलन हैं, पहाड़ और मैदान हैं. अनगिनत विभिन्नताएं हैं. दरअसल हम दिमाग से नहीं, दिल से परिचालित होने वाले समाज हैं. फिर चूंकि हमें आज़ाद हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ, हम हाल ही में शिक्षित हुए हैं, इसलिए हमारा मतदाता अनेक तरह की ग्रंथियों से ग्रस्त है. सर्वे करने वालों को वह अपने मन की बात बताता ही नहीं. वह मतदान केंद्र में जाकर भी अपना मन बदल सकता है. एक ही परिवार में अलग-अलग दलों को वोट देने वाले लोग हैं तो लाठी के बल पर हांके जाने वाले समूह भी हैं और जातियों-बिरादरियों में बंटे खाप और राठ भी हैं, जो सैकड़ों गांवों में विखरे होते हुए भी एक ही तरीके से सोचते हैं. वहाँ वोट डाले नहीं जाते बल्कि थोक में पड़ते हैं. इसलिए केवल अमेरिकी पैटर्न पर सर्वे करा देने से ऐसे समाज के मन की टोह लेना आसान नहीं है. फिर अमेरिकी तरीके को ही हमारी सर्वे एजेंसियां कौन-सा अपनाती हैं! वे गाँव-देहात में ही नहीं पहुँच पाते, कहाँ तो पहाड़-वनवासी इलाके? वे गाँव से शहर आये व्यक्ति से सवाल पूछ कर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. बहुत सी संस्थाएं तो उतना भी नहीं करतीं. वे एक बार किये हुए सर्वेक्षण को कई-कई बार इस्तेमाल करती रहती हैं. पैसा बनाने के फेर में वे सौ लोगों के सर्वे को दस से ही करवाके पेश कर देते हैं. बस उन्हें एक ही चीज आती है, वह है सांख्यिकी. उसी के बल पर वे आंकड़ों में हेर-फेर करते हैं. इसीलिए उनकी भविष्यवाणियाँ गलत साबित हो रही हैं. वे एग्जिट पौल के नाम पर ऐसे आंकड़े प्रस्तुत करते हैं, जैसी कोई  भी समझदार पत्रकार आसानी से कर देता है. अब पिछले लोक सभा के एग्जिट पौल पर ही एक नजर डालते हैं:

तब यूपीए को एनडीटीवी ने 216, स्टार न्यूज ने 199, आईबीएन ने 185, इंडिया टीवी ने 189, आजतक ने 191 और टाइम्स ने 198 सीटें दी थीं. लेकिन जब असली परिणाम आया तो यूपीए को मिलीं 256 सीटें. एक और मजेदार तथ्य यह भी है कि बहुत सी एजेंसियां कहती हैं कि फलां दल को इतने से इतने के बीच सीटें मिल सकती हैं. इस ‘बीच’ में वे 20 से 40 तक सीटें रख देती हैं. इतने अंतर के साथ भविष्यवाणी तो कोई भी कर देगा, फिर आपकी क्या जरूरत!

इसलिए अपनी मूल अवधारणा में गैलप पौल ठीक होते हुए भी भारत में हाल के वर्षों में उसका कार्यान्वयन ठीक नहीं हुआ. भारत जैसे विविधता भरे देश में उसे ज्यों का त्यों अपनाना भी बहुत मुश्किल है. इसलिए यह जरूरी है कि उसके स्वरुप को तराशा जाए, अपने अनुकूल बनाया जाए और तब इस्तेमाल में लाया जाए ताकि उससे हमारा लोकतंत्र मजबूत हो. (दैनिक जागरण, ४ अप्रैल, २०१४ से साभार) 

रविवार, 27 अप्रैल 2014

सच्चे लोकतंत्र के लिए अनिवार्य मतदान

राजनीति/ गोविन्द सिंह
हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? इस सवाल का तत्काल उत्तर यही हो सकता है कि हमारी चुनाव प्रणाली ठीक नहीं है. वह योग्य लोगों को चुन कर संसद या विधान सभाओं में नहीं भेज पाती. और यदि चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी खामी तलाशें तो पता चलता है कि मतदान में जनता की अल्प भागीदारी ही वह खामी है, जिसकी वजह से हम विश्वसनीय लोकतंत्र नहीं बना पा रहे. मतदान की गड़बड़ी के ही कारण बहुत कम लोगों के समर्थन से आप चुन कर संसद-विधान सभा पहुँच जाते हैं. मसलन किसी चुनाव क्षेत्र में दस लाख मतदाता हैं. उनमें से लगभग ५० प्रतिशत यानी पांच लाख लोग ही मतदान करते हैं. ये ५० प्रतिशत वोट तमाम उम्मीदवारों में बंट जाते हैं. ये उम्मीदवार दो-चार या दस कितने ही भी हो सकते हैं. जीतने वाला उम्मीदवार डाले गए वोटों के ज्यादा से ज्यादा  ४० प्रतिशत वोट हासिल कर पाता है. अर्थात मुश्किल से दो लाख मतदाता किसी प्रत्याशी को जिता सकते हैं. यदि किसी क्षेत्र में दो लाख मतदाता किसी एक जाति या धर्म के हुए और वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो उस जाति या धर्म का उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है. यानी कुल मतदाताओं के २० प्रतिशत मतदाता किसी चुनाव को जीतने के लिए काफी होते हैं. क्या किसी भी नजरिये से इसे बहुमत कहा जा सकता है? शायद नहीं. यह लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के विरुद्ध है. क्या यह जन प्रतिनिधित्व के मानकों पर खरा उतरता है? शायद नहीं. तो इसका क्या समाधान है?
दुनिया में जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, ये सवाल उठते रहे हैं. इसलिए २२ देशों में मतदान को अनिवार्य करने के लिए क़ानून बन चुका है. दस देशों में इसे अनिवार्यतः लागू भी किया जा चुका है. हमारे देश में भी गुजरात विधान सभा इसे पारित कर चुकी है. अर्थात देर-सबेर यह लागू हो ही जाएगा. इसलिए जब यह मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर उछला तो ज्यादातर विपक्षी दलों ने चुप्पी साध ली. शायद इसलिए कि इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी को मिल सकता है. लेकिन इसी बीच निर्वाचन आयोग का बयान आया है कि यह अव्यावहारिक होगा. आयोग की यह टिप्पणी हजम नहीं हो रही, क्योंकि जो आयोग मतदान का प्रतिशत बढाने के लिए जागरूकता पर सेमीनार करवाता रहता है, आखिर वह क्यों इसकी मुखालफत कर रहा है. गौरतलब यह भी है कि आयोग तो सिर्फ लागू करने वाली संस्था है. इस तरह से पञ्च फैसला देने का उसके पास कोई अधिकार नहीं है.
बेशक मतदान को अनिवार्य करने से पहले इसके तमाम पहलुओं पर विचार-विमर्श होना चाहिए. लेकिन अब समय आ गया है कि लोकतंत्र में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कोई न कोई कदम उठाना ही चाहिए. केवल १५-२० फीसदी वोटों से चुनाव जीतने मात्र से ही कोई बहुसंख्य लोगों का प्रतिनिधि नहीं हो सकता. यह लोकतंत्र के नाम पर रस्म अदायगी है. जब हमारे संविधान निर्माताओं ने वयस्क मताधिकार का प्रावधान रखा था, तब इसे अनिवार्य न करने के पीछे एकमात्र कारण यह था कि भारत में शिक्षा का प्रसार नहीं था, लोग लोकतंत्र के बारे में उस तरह से जागरूक नहीं थे, जैसे आज हैं. आज भी कई लोग यही कह रहे हैं कि भारत जैसे गरीब और विविधतापूर्ण देश में इसे जबरन लागू करना व्यावाहारिक नहीं है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि मतदान को नजरअंदाज करने वाले ज्यादातर वे ही लोग हैं, जो लोकतंत्र का फल चख कर ही अमीर हुए हैं. अमीर और मध्य वर्ग के लोग ही ज्यादातर वोट डालने मतदान केंद्र नहीं पहुँचते या वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग वोट नहीं डालते, वे ही बात-बात पर लोकतंत्र को कोसते हैं. अनिवार्य मतदान का विरोध करने के पीछे यह डर भी है कि अभी तक वे थोड़े से वोटो के बल पर चुनाव जीत लेते थे, इसके लागू होने पर मेहनत ज्यादा करनी पड़ेगी. फिर वोट बैंक की राजनीति भी इससे ध्वस्त हो जायेगी. ऐसा नहीं हो सकता कि आप मतदाताओं के एक वर्ग को पटा लें और उसी के बल पर बहुमत पर राज करें. तब वही जन प्रतिनिधि चुना जाएगा, जो सभी वर्गों और तबकों का समर्थन हासिल कर पायेगा. अमेरिका जैसे देश में भी अब यह मांग उठ रही है कि क्यों न मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए. आस्ट्रेलिया के अनुभव से प्रेरित होकर तमाम पश्चिमी देश इस तरफ झुक रहे हैं. दरअसल मताधिकार का मतलब यह नहीं है कि आप अपने अधिकार को किसी और के हाथ गिरवी रख दें. अनिवार्य मतदान का अर्थ यह भी है कि  आप अपने अधिकार को खुद इस्तेमाल करें और अपने मुस्तकबिल को खुद अपने हाथ से लिखें. (दैनिक जागरण, २७ अप्रैल, २०१४ से साभार)         

     

शनिवार, 4 अगस्त 2012

क्षेत्रीय सेनाएं क्यों पैदा हो रही हैं?

राजनीति/ गोविंद सिंह
आखिर उत्तर प्रदेश में भी एक सेना पैदा हो गयी. लखनऊ के आम्बेडकर स्थल पर लगी मायावती की आदमकद मूर्ति को तोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना ने जिम्मेदारी ली है. घटना के लिए जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनका सम्बन्ध शिव सेना और मुलायम सिंह यादव, दोनों से बताया जाता है. सवाल यह नहीं है कि वे लोग कौन थे और मूर्ति तोड़ने का उनका फौरी मकसद क्या था? सवाल यह है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की तर्ज पर आखिर क्यों इस संवेदनशील प्रदेश में  उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना का जन्म हुआ? हाल के वर्षों में जिस तरह से हमारे विभिन्न प्रदेशों में तरह-तरह की सेनाओं का जन्म हुआ, वह चिंता पैदा करता है, साथ ही हमें यह सोचने को भी विवश करता है कि यह सब क्या हो रहा है? क्यों हर राज्य में सेनाएं पैदा हो रही हैं? शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना, रणवीर सेना, राम सेना, हिंदू राष्ट्र सेना, भारतीय हिंदू सेना, भूमि सेना, रिपब्लिकन सेना, कुएर सेना, लोरिक सेना, सनलाईट सेना, गंगा सेना, ब्रह्मर्षि सेना और गोलू सेना. इनके अलावा फ़ोर्स, वाहिनी, मोर्चा, मंच, टाइगर जैसे डरावने नाम अलग हैं. पृथकतावादी और आतंकवादी संगठनों की बात हम यहाँ नहीं कर रहे.
सेना शब्द बन्दूक या हथियार का द्योतक है. यानी जब समस्या सुलझाने के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं, तब लगता है अब गोली ही अंतिम रास्ता है. गांधी जी भी देश की रक्षा के लिए सेना को जरूरी मानते थे. यानी जहां संवाद समाप्त हो जाता है, जहां हर तरफ से निराशा ही निराशा है, जहां दमन की पराकाष्ठा हो चुकी है, जहां दूसरा पक्ष किसी भी तरह से मानने को राजी नहीं है, जहां साम, दाम दंड भेद सब नुस्खे भोथरे साबित हो चुके हों, वहाँ सेना की जरूरत पड़ती है.
तो क्या ऊपर जो सेनाएं गिनाई गयी हैं, क्या उनका गठन ऐसी ही परिस्थितियों में हुआ है? ऊपर से देखने पर तो यही लगता है कि नहीं, ऐसी स्थितियां अभी नहीं आयी हैं, लेकिन अपने-अपने सन्दर्भों में देखें तो लगता है कि इनका उदय भी किसी न किसी रूप में एक अनिवार्यता थी. जब लोगों को लगता है कि वे हर तरफ से हताश हो चुके हैं, उनके जीवन में कहीं से आशा की किरण नहीं है, तब वे सेना के विकल्प को अपनाते हैं. यानी गैर-लोकतांत्रिक होकर क़ानून को हाथ में लेते हैं.
इसके मूल में कहीं न कहीं हमारी राजनीतिक विफलता है. हमारी राजनीतिक पार्टियां वास्तव में अपने पथ से भटक चुकी हैं. वे अपना काम यानी जनता की भलाई या सेवा नहीं कर रहे हैं. यदि कर भी रहे हैं तो अपने तात्कालिक स्वार्थ के बशीभूत हो कर. वे देश के भविष्य की बात तो दूर २० साल बाद तक की भी नहीं सोच रहे हैं. वे केवल आज की सोच रहे हैं. इसलिए उनके सारे काम निष्प्रयोजन-निष्फल सिद्ध हो रहे हैं. वे जनता को किसी तरह की राहत नहीं देते. वे पहले से ही कराह रही जनता की टीस को और बढ़ा रहे हैं. खास करके राज्यों की राजनीति तो अपनी पूरी नंगई के साथ उघड गयी है. दिल्ली में बैठ कर संभव है यह सब नहीं दिखाई देता हो, लेकिन स्थानीय स्तर पर हर तरफ अराजकता ही दिखाई देती है. इसलिए लोगों को हथियार में ही अंतिम समाधान दिखाई देता है. नक्सलवाद भी इसी मनोभूमि की उपज है. क्षेत्रीय मुद्दे इतनी शिद्दत के साथ उभर रहे हैं कि केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें समझने और तदनुरूप योजनाएं बनाने में नाकाम है. दिल्ली में बैठकर उसे वे मसले दिखाई ही नहीं देते. हमारी राष्ट्रीय पार्टियां इसीलिए विफल हो रही हैं कि वे स्थानीय मुद्दों को पकड़ पाने में विफल रही हैं. यदि उनका कोई स्थानीय नेता उन्हें पकड़ने की कोशिश भी करता है तो वे उसे ठिकाने लगा देती हैं.
हमारा देश इतना विशाल और वहुविध है कि उसमें सर्वशक्तिमान केंद्र संभव ही नहीं है. उसका ढांचा संघीय ही हो सकता है. इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने इसकी ठीक ही परिकल्पना की थी. जब तक नेहरू थे, तब तक यह संघवाद ठीक ठाक चलता रहा, लेकिन इंदिरा गांधी के आते ही यह टूट्ने लगा. आप क्षेत्रीय ताकतों को तो दबा लेंगे, पर क्षेत्रीय मुद्दों को नहीं दबा सकते. इसलिए धीरे-धीरे सभी राज्य राष्ट्रीय दलों के हाथ से खिसक रहे हैं. उत्तर प्रदेश पहले ही जा चुका है, बिहार भी दो दशक से क्षेत्रीय ताकतों के ही हाथ में है, महाराष्ट्र में सरकार चाहे जो भी हो, वहाँ राजनीति की मुख्य धारा क्षेत्रीय ही है. सिर्फ मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा में आप कब तक अपना डंडा चलाते रहेंगे? जो हाल इन राज्यों का है, यदि वही रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि वहाँ भी क्षेत्रीय ताकतें उभर जाएँ. कहने का आशय यह है कि जब स्थानीय आकांक्षाओं  का गला घोंटा जाता है, तब क्षेत्रीय-जातिवादी सेनाएं जन्म लेती हैं. यदि समावेशी तरीके से सबकी आकांक्षाओं को ध्यान में रख कर योजनाएं बनायी जाएँ तो ये अपने आप लुप्त हो जायेंगी. ( अमर उजाला, ३० जुलाई, २०१२ से साभार)  

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर निराश करती हवाएं

देश तिरसठवां गणतंत्र दिवस मना रहा है. इधर पूरा उत्तराखंड चुनाव प्रचार के आगोश में है. इस प्रदेश को बने हुए ११ साल हो गए हैं. खूब नारे उछाले जा रहे हैं. एक से बढ़ कर एक वायदे किये जा रहे हैं. लेकिन मतदाता जानता है कि इन ग्यारह वर्षों में वह बार बार छला गया है. चुनाव एक तरह से लोकतंत्र का उत्सव न हो कर छल और धोखा खा जाने का समय बन गया है. क्योंकि उत्तराखंड आंदोलन के वक्त जो सपने बुने गए थे, उन्हें बार बार विखरते देखा है.
कल के अखबार में एक शीर्षक था, अंग्रेजो तुम फिर से लौट आओ. बहुत देर तक इस शीर्षक पर नजरें टिकी रहीं. जिस आम वोटर के कथन पर यह शीर्षक रखा गया था, उसकी मनःस्थिति की कल्पना करता रहा. यह केवल एक व्यक्ति की मनःस्थिति नहीं है. देश में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो ऐसा सोचते हैं. सन चौरानबे में पूरे उत्तराखंड के युवा जब उबल रहे थे, तब वे भी यही सोच रहे थे कि इस उपेक्षा से तो अंग्रेजों का ही शासन बेहतर था. सन २००० में उत्तराखंड बना, तथाकथित रूप से अपने लोग सत्ता में आये, लेकिन सपने फिर भी अधूरे ही रहे. इस बीच लोगों को यह कहते सुना गया कि इस से तो यू पी में ही भले थे. और यह बात वे लोग ज्यादा कहते रहे हैं, जो उत्तराखंड को लेकर सबसे ज्यादा उग्र थे. आज ग्यारह साल बाद फिर आम मतदाता खुद को छला गया महसूस कर रहा है. क्यों? क्योंकि हमारे रहनुमाओं ने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा. एक नए राज्य के निर्माण के लिए जितनी मेहनत, ईमानदारी और दृष्टि की जरूरत थी, क्या वह हमारे नेताओं में है? आज हिमाचल सचमुच हिमाचल बना है तो उसके पीछे यशवंत परमार की १५ साल की अथक मेहनत और ईमानदार प्रशासन है.  
लोग यों ही नहीं फेंकते नेताओं पर जूते-चप्पल. आप भले ही उन्हें पागल कह दें, लेकिन वे भी हमारे ही सामूहिक मनोविज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं. विखरे लोगों के भाव जब घनीभूत होकर किसी एक कमजोर व्यक्ति के मन में उतरते हैं, तब इस तरह की घटनाएं बढ़ती हैं. यह गुस्सा अलग अलग रूपों और लोगों पर उतरता है. आज पूरे देश में ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं तो इसीलिए कि हमारे राजनेताओं के प्रति जनता के मन में नफरत घर कर गयी है. कहीं न कहीं तो उसका विस्फोट होना ही है. राजनीति में अब विचारों की कोई जगह नहीं रह गयी है. जो पार्टियां पहले विचारों की राजनीति किया करती थीं, वे भी अब दूकान लगाए बैठी हैं. सचमुच अब राजनीति एक वेश्या की तरह हो गयी है. कहा जा सकता है कि उत्तराखंड भी देश के भीतर ही है. उसकी राजनीति यूपी की राजनीति से कैसे भिन्न हो सकती है? जी हाँ, भिन्न नहीं हो सकती है, लेकिन भिन्न होने की कोशिश तो कर सकती है. क्या पिछले ११ वर्षों में हमारे नेताओं ने राज्य की हालत उत्तर प्रदेश से भी बदतर नहीं कर दी है! इसके लिए हम सब दोषी हैं. चुनाव एक मौका जरूर है, अच्छे लोग चुनने का, लेकिन पता नहीं क्यों, कहीं से भी आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती.  
    

बुधवार, 18 जनवरी 2012

अच्‍छे लोगों को लाइए, राजनीति बचाइए

गोविंद सिंह
मजबूत लोकपाल के लिए अन्‍ना हजारे के संघर्ष से एक बात जाहिर हो गई है कि आने वाले दिनों की राजनीति अब वैसी नहीं रहने वाली है, जैसी कि वह आज है। इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया है कि भारत की जनता भ्रष्‍टाचार से आजिज आ चुकी है और वह बहुत दिनों तक इसे बरदाश्‍त  नहीं करेगी। उसने यह मान लिया है कि राजनीति ही भ्रष्‍टाचार की गंगोत्री है। इसलिए राजनीति के इस चेहरे को बदलना ही होगा। आज नहीं तो कल। ये अन्‍ना नहीं तो कोई और अन्‍ना। भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध अब भारत जाग उठा है। लोकपाल सिर्फ एक चिंगारी भर है। बन भी गया तो वह सिर्फ एक प्रतीक ही होगा, भ्रष्‍टाचार के खिलाफ असली लड़ाई अभी बाकी है।
इसलिए राजनीतिक दलों को अभी से संभल जाना चाहिए। ठीक उसी तरह, जैसे मिस्र और टयूनीशिया के हालात देख अन्‍य अरब देशों के शासक अचानक से जन हितैषी घोषणाएं करने लगे हैं। क्‍योंकि उन्‍होंने देख लिया है कि यदि वे नहीं बदले तो जनता उन्‍हें बदल देगी। ऐसा ही नब्‍बे के दशक में साम्‍यवादी विश्‍व में भी हुआ था। सोवियत संघ की उथल-पुथल देख कर अन्‍य साम्‍यवादी देश भी धड़ाधड़ अपना चोला बदलने लगे। यहां तक कि चीन ने साम्‍यवादी चोले के भीतर से ही अपनी जड़ों को पूंजीवादी खुराक देनी शुरू कर दी। भारत के सत्‍ताधारी और सत्‍ताकांक्षी दलों को भी जनता के मूड को भांपना चाहिए कि वे लोकतंत्र की इस आंधी में खुद को कैसे बचाए रख सकते हैं। इसमें किसी एक दल के सुधरने की बात नहीं है। लगभग हर दल को बदलना है, सुधरना है। क्‍योंकि अपने देश में लोकतंत्र का जो स्‍वरूप आज है, उसके लिए कमोबेश हर दल बराबर का भागीदार है। हां, सुधार की दिशा में जरूरी कदम उठाने में सत्‍तारूढ़ होने के नाते कांग्रेस की जिम्‍मेदारी कुछ ज्‍यादा है। इसलिए यदि वह मजबूत और कारगर लोकपाल कानून बना लेती तो उसका श्रेय  उसे मिलता। लेकिन लगता है अभी कांग्रेस पार्टी की आंखें नहीं खुलीं। और वह अब भी इसे टीम अन्‍ना की मांग समझ रही है, इसलिए उसके साथ आंख मिचौली खेल रही है।
हम सबको यह समझ लेना चाहिए कि भ्रष्‍टाचार इस देश की सबसे गंभीर समस्‍या है। और उसे इस देश के राष्‍ट्रीय चरित्र से नत्‍थी करने में राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका रही है। आज यदि हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं तो उसके मूल में भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक अक्षमता ही है। यदि राजनीति संकल्‍पवान हो तो भ्रष्‍टाचार पर नकेल कसी जा सकती है। एक बार यदि समाज भ्रष्‍टाचारमुक्‍त हो जाए तो लोकतंत्र को फलने-फूलने से कोई रोक नहीं सकेगा। तो सवाल यह है कि राजनीति सुधरे तो कैसे सुधरे। इसे सुधारने की एक कोशिश टीएन शेषन ने की थी, चुनाव प्रक्रिया को कड़ाई से लागू कर के। लेकिन वह प्रक्रिया अभी अधूरी है। क्‍योंकि उसके आगे के चुनाव सुधार लागू नहीं हो पाए हैं। यदि चुनाव सुधारों को ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो कुछ हद तक राजनीति की बीमारियों को दूर किया जा सकता है। लेकिन राजनीति में वास्‍तविक सुधार राजनीतिक दलों के अंदर से शुरू होगा। इसके लिए उन्‍हें अपने भीतर इच्‍छाशक्ति जगानी होगी। उन्‍हें अपने भीतर आमूल परिवर्तन के लिए न सिर्फ तैयार रहना होगा, बल्कि उसके लिए अभी से पहल भी शुरू कर देनी होगी।
देश के पांच राज्‍यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मणिपुर और गोवा को छोड़ भी दिया जाए तो उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड और पंजाब हमारे लिए काफी अहम हैं। उम्‍मीदवारों का चयन चल रहा है। लेकिन अभी तक कहीं से भी ऐसा नहीं दिख रहा है कि राजनीतिक दलों में आमूल बदलाव की कोई चाह है। इसका पता इसी से चल जाता है कि वे किन लोगों को टिकट दे रहे हैं। यही समय था, जब राजनीतिक दल स्‍वच्‍छ छवि के लोगों को उम्‍मीदवार बनाकर बदलाव की पहल कर सकते थे। लेकिन अभी वे पुराने फारमूले पर ही चल रहे हैं।
पिछले छह दशकों में हमने देखा कि किस तरह से राजनीति से पढ़े-लिखे और ईमानदार लोग दूर छिटकते गए। आजादी से पहले बड़ी संख्‍या में वकील, शिक्षक और पत्रकार राजनीति में आते थे। गांधी जी स्‍वयं एक बड़े पत्रकार थे। धीरे धीरे दूसरे पेशों के लोग भी राजनीति में आने लगे। फिर राजनीति ही एक पेशा बनने लगा। लोग कॉलेज-विश्‍वविदयालय कैंपस से, ग्राम पंचायत-ब्‍लॉक और जिला परिषद होते हुए विधान सभा और संसद पहुंचने लगे। बीच-बीच में हुए आंदोलनों के जरिये भी लोग विभिन्‍न पेशों से राजनीति में आए। मसलन अयोध्‍या आंदोलन के दिनों भाजपा में बड़ी संख्‍या में सेवानिवृत्त ब्‍यूरोक्रेट और फौजी अफसर शामिल हुए। फिर एक दौर ऐसा भी आया, जब आपराधिक पृष्‍ठभूमि के लोग बड़ी संख्‍या में चुनाव जीतकर संसद पहुंचने लगे। किन्‍नर कहे जाने वाले उभयलिंगी लोगों को भी जनता ने वोट देकर विधान सभाओं में भेजा। जनता ने ऐसे निर्णय इसलिए लिए क्‍योंकि पारंपरिक तौर पर राजनीति करने वाले लोग उनकी उम्‍मीदों पर खरे नहीं उतर रहे थे। ऐसे लोगों को चुन कर जनता ने पेशेवर राजनेताओं के प्रति अपने गुस्‍से का ही इजहार किया। दस साल पहले उत्‍तराखंड में एक अद्भुत किस्‍सा हुआ। गगन सिंह रजवार नाम के एक ऐसे अल्‍पशिक्षित वनराजी युवक को चुन कर विधान सभा में भेजा गया, जिसकी जनजाति के लोगों की संख्‍या महज कुछ सौ में थी, और जो आज भी जंगलों में ही रहना पसंद करते हैं। यानी राजनेता नहीं सुधरेंगे तो जनता विरोध में कुछ भी कदम उठा सकती है। लेकिन ये कदम हमारी राजनीति के लिए कोई स्‍वस्‍थ लक्षण नहीं हैं। इसलिए यही वक्‍त है, जब राजनीतिक दलों को ईमानदार और योग्‍य लोगों को आगे लाना चाहिए। 
लोकसभा में तो फिर भी कुछ पढ़े-लिखे लोग पहुंच जाते हैं, विधान सभाओं का हाल वाकई बुरा है। हाल के वर्षों में जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग विधान सभाओं से गायब ही हो गए हैं। बड़ी संख्‍या में बिल्‍डर, प्रॉपर्टी डीलर और ठेकेदार लोग राजनीति में आ गए हैं। बल्कि हर राजनीतिक दल को उन्‍होंने अपनी गिरफत में ले लिया है। राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा का कोई अर्थ नहीं रह गया है। विधान सभाओं में पहुंच कर वे क्‍या फैसले करेंगे और क्‍या नीतियां और कार्यक्रम बनाएंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारा कहना यह नहीं है कि हर ठेकेदार बेईमान ही होता है, हमारा आशय उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करना है, जो हमारी राजनीति को अंदर से खोखला कर रही है। इसी प्रवृत्ति के विरुद्ध जनता जाग रही है। राजनीति के पुराने और जर्जर मॉडल को वह उखाड़ फेंकना चाहती है। काश, हमारे राजनीतिक दल इसे समय रहते भांप पाते।  
अमर उजाला, १३ जनवरी २०१२ से साभार.