bhoomi sena लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
bhoomi sena लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 4 अगस्त 2012

क्षेत्रीय सेनाएं क्यों पैदा हो रही हैं?

राजनीति/ गोविंद सिंह
आखिर उत्तर प्रदेश में भी एक सेना पैदा हो गयी. लखनऊ के आम्बेडकर स्थल पर लगी मायावती की आदमकद मूर्ति को तोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना ने जिम्मेदारी ली है. घटना के लिए जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनका सम्बन्ध शिव सेना और मुलायम सिंह यादव, दोनों से बताया जाता है. सवाल यह नहीं है कि वे लोग कौन थे और मूर्ति तोड़ने का उनका फौरी मकसद क्या था? सवाल यह है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की तर्ज पर आखिर क्यों इस संवेदनशील प्रदेश में  उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना का जन्म हुआ? हाल के वर्षों में जिस तरह से हमारे विभिन्न प्रदेशों में तरह-तरह की सेनाओं का जन्म हुआ, वह चिंता पैदा करता है, साथ ही हमें यह सोचने को भी विवश करता है कि यह सब क्या हो रहा है? क्यों हर राज्य में सेनाएं पैदा हो रही हैं? शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना, रणवीर सेना, राम सेना, हिंदू राष्ट्र सेना, भारतीय हिंदू सेना, भूमि सेना, रिपब्लिकन सेना, कुएर सेना, लोरिक सेना, सनलाईट सेना, गंगा सेना, ब्रह्मर्षि सेना और गोलू सेना. इनके अलावा फ़ोर्स, वाहिनी, मोर्चा, मंच, टाइगर जैसे डरावने नाम अलग हैं. पृथकतावादी और आतंकवादी संगठनों की बात हम यहाँ नहीं कर रहे.
सेना शब्द बन्दूक या हथियार का द्योतक है. यानी जब समस्या सुलझाने के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं, तब लगता है अब गोली ही अंतिम रास्ता है. गांधी जी भी देश की रक्षा के लिए सेना को जरूरी मानते थे. यानी जहां संवाद समाप्त हो जाता है, जहां हर तरफ से निराशा ही निराशा है, जहां दमन की पराकाष्ठा हो चुकी है, जहां दूसरा पक्ष किसी भी तरह से मानने को राजी नहीं है, जहां साम, दाम दंड भेद सब नुस्खे भोथरे साबित हो चुके हों, वहाँ सेना की जरूरत पड़ती है.
तो क्या ऊपर जो सेनाएं गिनाई गयी हैं, क्या उनका गठन ऐसी ही परिस्थितियों में हुआ है? ऊपर से देखने पर तो यही लगता है कि नहीं, ऐसी स्थितियां अभी नहीं आयी हैं, लेकिन अपने-अपने सन्दर्भों में देखें तो लगता है कि इनका उदय भी किसी न किसी रूप में एक अनिवार्यता थी. जब लोगों को लगता है कि वे हर तरफ से हताश हो चुके हैं, उनके जीवन में कहीं से आशा की किरण नहीं है, तब वे सेना के विकल्प को अपनाते हैं. यानी गैर-लोकतांत्रिक होकर क़ानून को हाथ में लेते हैं.
इसके मूल में कहीं न कहीं हमारी राजनीतिक विफलता है. हमारी राजनीतिक पार्टियां वास्तव में अपने पथ से भटक चुकी हैं. वे अपना काम यानी जनता की भलाई या सेवा नहीं कर रहे हैं. यदि कर भी रहे हैं तो अपने तात्कालिक स्वार्थ के बशीभूत हो कर. वे देश के भविष्य की बात तो दूर २० साल बाद तक की भी नहीं सोच रहे हैं. वे केवल आज की सोच रहे हैं. इसलिए उनके सारे काम निष्प्रयोजन-निष्फल सिद्ध हो रहे हैं. वे जनता को किसी तरह की राहत नहीं देते. वे पहले से ही कराह रही जनता की टीस को और बढ़ा रहे हैं. खास करके राज्यों की राजनीति तो अपनी पूरी नंगई के साथ उघड गयी है. दिल्ली में बैठ कर संभव है यह सब नहीं दिखाई देता हो, लेकिन स्थानीय स्तर पर हर तरफ अराजकता ही दिखाई देती है. इसलिए लोगों को हथियार में ही अंतिम समाधान दिखाई देता है. नक्सलवाद भी इसी मनोभूमि की उपज है. क्षेत्रीय मुद्दे इतनी शिद्दत के साथ उभर रहे हैं कि केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें समझने और तदनुरूप योजनाएं बनाने में नाकाम है. दिल्ली में बैठकर उसे वे मसले दिखाई ही नहीं देते. हमारी राष्ट्रीय पार्टियां इसीलिए विफल हो रही हैं कि वे स्थानीय मुद्दों को पकड़ पाने में विफल रही हैं. यदि उनका कोई स्थानीय नेता उन्हें पकड़ने की कोशिश भी करता है तो वे उसे ठिकाने लगा देती हैं.
हमारा देश इतना विशाल और वहुविध है कि उसमें सर्वशक्तिमान केंद्र संभव ही नहीं है. उसका ढांचा संघीय ही हो सकता है. इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने इसकी ठीक ही परिकल्पना की थी. जब तक नेहरू थे, तब तक यह संघवाद ठीक ठाक चलता रहा, लेकिन इंदिरा गांधी के आते ही यह टूट्ने लगा. आप क्षेत्रीय ताकतों को तो दबा लेंगे, पर क्षेत्रीय मुद्दों को नहीं दबा सकते. इसलिए धीरे-धीरे सभी राज्य राष्ट्रीय दलों के हाथ से खिसक रहे हैं. उत्तर प्रदेश पहले ही जा चुका है, बिहार भी दो दशक से क्षेत्रीय ताकतों के ही हाथ में है, महाराष्ट्र में सरकार चाहे जो भी हो, वहाँ राजनीति की मुख्य धारा क्षेत्रीय ही है. सिर्फ मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा में आप कब तक अपना डंडा चलाते रहेंगे? जो हाल इन राज्यों का है, यदि वही रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि वहाँ भी क्षेत्रीय ताकतें उभर जाएँ. कहने का आशय यह है कि जब स्थानीय आकांक्षाओं  का गला घोंटा जाता है, तब क्षेत्रीय-जातिवादी सेनाएं जन्म लेती हैं. यदि समावेशी तरीके से सबकी आकांक्षाओं को ध्यान में रख कर योजनाएं बनायी जाएँ तो ये अपने आप लुप्त हो जायेंगी. ( अमर उजाला, ३० जुलाई, २०१२ से साभार)