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सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शराब छुड़ाती वन डे शादियां

समाज/ गोविंद सिंह
जिस तरह पहाड़ से निकलने वाली नदी मार्ग में आने वाले पठारों और चट्टानों से बचते-बचाते अपना रास्ता बना ही लेती है, उसी तरह से संस्कृतियाँ भी अपनी राह के अवरोधों को हटाते हुए आगे बढ़ती हैं. उत्तराखंडी समाज में होने वाली शादियों को देख कर खुशनुमा एहसास होता है. इन दिनों यहाँ शादियों का मौसम है और ज्यादातर शादियाँ दोपहर में हो रही हैं. कुछ शहरी संभ्रांत परिवारों में जरूर रात की शादियाँ हो रही हैं, लेकिन छोटे कस्बों, गांवों और निम्न मध्य और निम्न वर्ग में शादियाँ दिन में हो रही हैं. यह पिछले १५ वर्ष का चलन है. पहले यहाँ भी रात की ही शादियां हुआ करती थीं. लेकिन जब रात की शादी बोझ लगने लगी तो बगावत के रूप में दिन की शादी शुरू हुई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहाड़ी समाज में पिछले तीस-चालीस सालों में शाराबखोरी का चलन भी बेतहाशा बढ़ा है. और शराबियों के कारण विवाह जैसे पावन अवसर पर रंग में भंग पड़ जाया करता था. अनेक मौके ऐसे देखे गए, जब दूल्हा स्वयं केष्टो मुखर्जी वाले अंदाज में लडखडाते हुए शादी के पंडाल में पहुंचता और लड़की वालों से जूझता. लडखडाते बारातियों का स्वागत भी अक्सर लात-घूंसों से होता. शराबबंदी के लिए अनेक बार आन्दोलन भी हुए. समाज सुधारक लोग भी बीच-बीच में आवाज उठाते रहे लेकिन शराबखोरी का चलन बढ़ता ही चला गया. इससे पहाड़ों की अर्थ-व्यवस्था को तो नुक्सान हुआ ही, समाज भी बुरी तरह से चरमरा गया. जिसके बारे में कवि “अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है” कह कर आह भरते थे, वह नारकीय होता चला गया.
इसी कीचड में से एक विचार-कमल खिला. क्यों न शादी का विधान रात की बजाय दिन में कर दिया जाए. क्या जरूरत है, रात के तीन बजे ही लग्न का मुहूर्त निकाला जाये? कुमाउनी और गढ़वाली शादी के आधे से अधिक विधान पंजाबी रूप धारण कर चुके हैं, तब रात की शादी से भी क्यों न मुक्ति पायी जाए? जरूर इसके पीछे कुछ अक्लमंद पंडितों की बुद्धि रही होगी. हालांकि यदि यजमान तैयार न होते तो पंडित ही क्या कर लेते? यह भी संभव है कि सिखों की देखा-देखी इस रिवाज ने जन्म लिया हो. दिन की शादी से कई फायदे हुए. एक, शराब का चलन कम हुआ, लगभग ८० प्रतिशत शराबखोरी (शादी के दौरान) बंद हो गयी. दूसरा, लाइटिंग में जो अतिरिक्त खर्चा होता था, वह बच गया. बहुत सी सहूलियतें हुईं. बरात भलेही अगली गली से आ रही हो, लेकिन वह पहुँचती थी, ११ बजे ही. इसलिए लोग बिना खाना खाए ही निकल जाते थे. अब ऐसा नहीं होता. रात में चोरियां हुआ करती थीं, उन पर रोक लगी. रात भर जागने की जो सजा भुगतनी पड़ती थी, उससे भी निजात मिली. पिछले दिनों मुझे ऐसी कई शादियों में शरीक होने का मौक़ा मिला. दिन की भी और रात की भी. दिन की शादियाँ आम तौर पर निम्न मध्य वर्ग या किसानों की थीं. वे काफी सादगीपूर्ण थीं, उनमें खर्चा कम हुआ था. अतिरिक्त तड़क-भड़क नहीं के बराबर थी. इक्का-दुक्का ही लोग शराब पिए हुए थे. जबकि रात को होने वाली शादियाँ बड़े बेंकिट हालों में हुई थीं, वे अमीर लोगों की थीं. तड़क-भड़क भी ज्यादा थी. बाराती ज्यादातर पिए हुए थे. नाचते हुए भी लड़खड़ा रहे थे. इस तरह तुलना करने पर लगा कि दिन की शादी एक तरह से तड़क-भड़क वाली शादी से बगावत की तरह से है. समाज के लिए वह कहीं बेहतर है और उस से कुरीतिओं को बढ़ावा नहीं मिलता. हालांकि शहरी उच्च वर्ग में यह प्रथा आनी अभी बाक़ी है. उन्हें भी इसे अपनाकर सादगी की मिसाल पेश करनी चाहिए. 
निश्चय ही शादी दो युवाओं और दो परिवारों का मिलन है. समाज उसमें शरीक होकर एक तरह से इस मिलन को मान्यता देता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप किसी सामाजिक रिवाज के चलते इतने दब जाएँ कि उठ ही ना सकें. हमारे यहाँ विवाह व्यवस्था नें काफी हद तक समाज को बचा रखा है, लेकिन उसने अनेक कुरीतियों को भी जन्म दिया है. दहेज, तड़क-भड़क, शोबाज़ी, शराबखोरी, अतिशय खर्च, चमक-दमक इसीके हिस्से हैं. पहाड़ी समाज ने काफी हद तक अपने-आप को बदला है. दिन की शादी को बढ़ावा देकर शराबखोरी पर रोक लगी है, लेकिन अभी यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. लोग दिन में विवाह-स्थल पर तो शराब पिए हुए नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन घर लौट कर रात को खूब शराब चलती है. स्त्रियों को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है. कोइ मारता है, या पैदा होता है, लोगों को हर बार शराब चाहिए. शराब के कारण पहाड़ का जीवन तबाह हो रहा है. काश कोई अक्लमंद दिन की शादी की तरह और अवसरों से भी शराब से मुक्ति दिलाए!
(अमर उजाला, ३० अप्रैल, २०१२ से साभार)


 



 

रविवार, 1 अप्रैल 2012

उत्तराखंड में पशु बलि कब रुकेगी?

समाज/ गोविंद सिंह

गैरसेण में पशु बलि को लेके गाँव वासियों और प्रशाशन के बीच काफी हंगामा हो गया. कुछ लोग घायल भी हो गए. उधर गंगोलीहाट के कालिका मंदिर में भैंसे की बलि पुलिस के हस्तक्षेप से रोकी गयी. इससे पहले स्याल्दे– देघाट के काली मंदिर में भी बलि रोकी गयी थी. पौड़ी गढवाल के बूंखाल स्थित कालिका मंदिर में भी पिछले दिनों भैंसा बलि को रोका गया. वहाँ बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती है. उत्तराखंड के लगभग हर जिले में ऐसे मंदिर हैं, जहां पशु बलि दी जाती है. वह भी भैंसे की. पिछले साल नवंबर में उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने गढवाल के बूंखाल उत्सव में पशु बलि पर रोक लगा दी थी. तब से हर मंदिर में पशु बलि पर रोक की मांग हो रही है. लेकिन इसके बावजूद लोग हर बार भैंसे को लेकर मंदिर पहुँचते हैं और पुलिस उन्हें रोकती है. कभी-कभार लोग पुलिस से भिड़ते भी हैं. लेकिन बीच-बचाव के बाद मामला शांत हो जाता है. लोग जानते हैं कि बलि कानूनन अनुचित है, मंदिर के पुजारी भी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं, लेकिन फिर भी लोग भैंसा लिए चले आते हैं. जैसे कि वे देवता को यह बताना चाहते हों कि हम तो आ गए थे, यह सरकार है, जो हमें रोक रही है! यह बात समझ में नहीं आती कि तमाम शिक्षा के बावजूद आज भी उत्तराखंड में बलि-प्रथा मौजूद है. जिस तरह से सती प्रथा के निषेध के दो सौ साल बाद भी सती होने की छिटपुट घटनाएं बीच-बीच में सुनने को मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह से बलि प्रथा भी रुक नहीं पा रही.
पशु बलि को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कानून नहीं है. अलबत्ता, छः राज्यों ने पशु बलि पर रोक लगा  राखी है. जानवरों से प्रेम करने वाले कुछ संगठन कानून को लेकर प्रयासरत हैं लेकिन अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है. कारण धार्मिक है. धार्मिक मामले में कोई हाथ नहीं डालना चाहता है. फिर मामला सिर्फ हिन्दू धर्म का ही नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. हजारों वर्षों से बलि प्रथा चल रही है. खास कर उन क्षेत्रों में इसका रिवाज ज्यादा है, जहां शक्ति की उपासना होती है. इसलिए दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, असम, नेपाल, राजस्थान और उत्तराखंड में बलि प्रथा ज्यादा है. लोग इसके खिलाफ सुनने को ही तैयार नहीं होते. लेकिन उत्तराखंड की नयी पीढ़ी इस मसले पर काफी ऊहापोह की स्थिति में है. पिछले दिनों ‘मेरा पहाड़ फोरम’ नामक इंटरनेट समूह ने  इस पर एक बहस चलाई. कई लोगों ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ कीं. अनेक लोगों का मानना था कि यह धार्मिक मामला है, इसलिए इसे नहीं उछालना चाहिए. एक सज्जन सूबेदार मेजर डीएस नयाल ने लिखा कि भैंसे को तडपते देख कर मेरा दिल इतना दहल उठा कि मैंने ठान लिया कि मैं इसके खिलाफ अपने गाँव वालों को तैयार करके रहूँगा. उन्होंने अपने गाँव में इसे लेकर बहस करवाई और अंततः गाँव के लोग पशु बलि के खिलाफ तैयार हो गए. अब वहाँ भैंसे की बलि नहीं दी जाती. इसी तरह मुंबई से डांडी-कांठी नामक संगठन की ओर से बूंखाल में पशु बलि के खिलाफ जन जागरण किया गया. कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार और राजनीति जहां फेल हो जाती हैं, वहाँ से जागरूक जनता का काम शुरू होता है. और उत्तराखंड की नयी पीढ़ी यह काम कर रही है.
भैंसे की बलि खत्म भी हो जाती है तो बकरे और मुर्गे की बलि को खत्म होने में अभी लंबा समय लगेगा. बड़े मंदिरों में दी जाने वाली सामूहिक बलि पर कानूनन रोक संभव है लेकिन गाँव-गाँव में जो मंदिर हैं, वहाँ छिटपुट बलि चलती रहती है. दरअसल आज भी पहाड़ी समाज अनेक तरह की रूढियों में जकडा हुआ है. वहाँ की ग्रामीण न्याय-व्यवस्था आज भी लोक देवताओं के हवाले है. किसी का बच्चा बीमार हो गया तो देवता, किसी की गाय मर गयी तो देवता, किसी के यहाँ चोरी हो गयी तो देवता का प्रकोप निकल आता है. छोटे-छोटे आपसी झगडों में लोग देवता के पास (घात) शिकायत लेकर पहुँच जाते हैं. और फिर देवता भी बारी-बारी से दंड वसूलता है. इस मामले में पहाड़ का ग्राम समाज आज भी ५० साल पुरानी मान्यताओं पर चल रहा है. ज्योतिषियों, पुछ्यारियों, पुजारियों, घटेलियों और जगरियों की बन आती है. जिन्हें ज्योतिष का अ ब स नहीं आता, वे भी परेशान आदमी को आता देख महापंडित की एक्टिंग करते हैं. देवता के सामने गरीब आदमी जैसे पिसता ही चला जाता है. ग्रामीण समाज में जो दबंग हैं, वे अपनी मनमर्जी चलाते रहते हैं, उन्हें देवता की परवाह नहीं होती. जो अमीर हैं, वे अपना इलाज शहरों में जाकर करवा आते हैं, जो सक्षम हैं, वे कोर्ट-कचहरी जाने में भी नहीं हिचकते. जबकि गरीब को कभी मुर्गा तो कभी बकरा, दंडस्वरुप मंदिर में चढाना पड़ता है. आपको यह जान कर हैरानी होगी कि गाँव में तीन से छः महीने का बकरा ढूँढना मुश्किल हो जाता है, उसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है. हम इस बात पर बहुत खुश होते हैं कि पहाड़ी समाज में अपराध नहीं है, वहाँ पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन सच बात यह है कि देवता के नाम पर एक दूसरी तरह का डंडा आम आदमी के सर पर पड़ता रहता है. गरीब लोग देवता का पूजन अपने मन की शान्ति के लिए नहीं, प्रकोप के भय से करते हैं. हम यह नहीं कहते कि देव भय का  कोई फायदा नहीं होता, वे भी हैं, लेकिन देव पूजन मन की शान्ति के लिए होना चाहिए ना कि भय से. एक ज़माना था, जब समाज को इसकी जरूरत थी. अब जमाना आगे बढ़ गया है. इसलिए समाज को खुद ही आगे बढ़कर इसे रोकना होगा. ( अमर उजाला, १ अप्रैल, २०१२ से साभार)   


गुरुवार, 26 जनवरी 2012

बचपन के गणतंत्र दिवस की यादें

आज बहुत वर्षों बाद किसी शिक्षा संस्थान में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने का अवसर मिला. किस तरह आज भी शिक्षक बिरादरी बड़े उत्साह के साथ गणतंत्र दिवस को मनाती है, इसका नजदीक से एहसास हुआ. सचमुच मुझे अपने बचपन के दिन स्मरण हो आये.
बचपन में जिस प्राइमरी पाठशाला में शुरुआती शिक्षा मिली, वहाँ छब्बीस जनवरी बेहद धूमधाम से मनाई जाती थी. हमारा स्कूल एक छप्पर वाले बड़े से कमरे में चलता था. पहली से पांचवीं तक कुल तीस बच्चे थे. सब एक ही कमरे में अलग-अलग पंक्तियों में बैठते थे. गाँव से एक किलोमीटर दूर खेतों और जंगल के बीच यह स्कूल था. हम लोग महीने भर पहले से तैय्यारी करते थे. तरह-तरह के गाने-तराने याद करते थे. ‘इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन-जापान देश.’ ‘जो हमसे टकराएगा, चूर चूर हो जाएगा’, ‘नागाहिल लड़ाई लागी भट्टम भट्टम गोली, सिपाई दाज्यू लड़ना ज्ञान, छाती खोली खोली.’ आदि-आदि. कुछ नारे हिंदी में थे तो कुछ कुमाऊनी में. हम लोग आठ बजे स्कूल में इकट्ठे होते थे और वहाँ से प्रभात फेरी निकालते हुए पूरे गाँव का चक्कर लगाते थे. हर घर से कुछ पैसे बख्शीश के रूप में मिलते थे. फिर एक जगह पर खेल-कूद की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं. दोपहर बाद नदी के उस पार दूसरे स्कूल में इकट्ठे होते थे. उस स्कूल के बच्चों के साथ. और फिर सामूहिक प्रतिस्पर्धाएं हुआ करती थीं. फिर पुरस्कार मिलते थे. पेन्सिल, रबर, कापी, पेन्सिल बॉक्स आदि. जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें गुड़ की डली से संतोष करना पड़ता था. आखीर में गला फाड कर ‘हर्ष हर्ष, जय जय!!’ बोलना पड़ता था. फिर बहुत दिनों तक इसके संस्मरण सुना सुना कर हम लोग समय काटा करते थे. अहा, वे क्या दिन थे!!
गणतंत्र दिवस के प्रति यह उत्साह, जूनिअर हाई स्कूल और हाई स्कूल तक जारी रहा. फिर मैं चंडीगढ़ आ गया कालेज की पढाई के लिए. वहाँ के कालेज इतने बड़े थे कि वहाँ इस तरह के आयोजनों में वैसा अपनत्व नहीं दिखाई देता था. मैं अपने बच्चों के स्कूल-कालेजों में भी देखता हूँ, कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता. शायद समाज में भी गणतंत्र दिवस को लेकर अब वैसा उत्साह नहीं रह गया है. लोग इसे भी एक छुट्टी का दिन मान बैठते हैं. अमेरिकियों की तरह.
पत्रकारिता में आने के बाद मुझे याद नहीं पड़ता कि कहीं किसी संस्थान में कोई आयोजन होता हो. हमारे लिए ऐसे दिवस का मतलब मन में फर्जी जोश जगा कर लेख लिख देना या कुछ लोगों से लेख मंगवा कर छाप देना या कोई सप्प्लीमेंट प्लान कर देना भर रह गया था. कुछ अरसा सरकारी नौकरियों में भी रहा, वहाँ भी झंडा फहराने के अलावा कभी कोई आयोजन नहीं होता था. कोलकाता में जरूर जिस कालोनी में हम रहते थे, वहाँ कुछ आयोजन होता था लेकिन लोग दस बजे की बजाये ११ बजे आयोजन स्थल पर पहुँचते. वैसे कोलकाता की बंगाली बस्तियों में जोर-शोर से छब्बीस जनवरी मनाई जाती थी. कुछ वर्षों से दिल्ली की जिन हाउसिंग सोसाइटियों में मैं रहा हूँ, वहाँ भी झंडारोहण होता है, लेकिन जो बात आज मुझे अपने विश्वविद्यालय में देखने को मिली, वह बीच के तीस वर्षों में नहीं दिखी. शायद इसलिए कि हमारा विश्वविद्यालय अभी नया नया है, और हर किसी के मन में कुछ न कुछ अरमान हैं. देश और समाज के प्रति यह भाव बना रहे, यही कामना है.