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शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

लड़ने से नहीं डरते उत्तराखंड के खसिया

समाज/ गोविन्द सिंह
पिथौरागढ़ का युद्ध नृत्य छोलिया 
उत्तराखंड के खसिया. यानी ठाकुर यानी क्षत्रिय जातियों का समूह. हालांकि इस समूह में यहाँ की अनेक ब्राह्मण जातियां भी शामिल रही हैं लेकिन अब यह संबोधन यहाँ के ठाकुरों के लिए रूढ़ हो गया है. एक ज़माना था जब इस भू-भाग पर खसों का शासन था. महाभारत काल से लेकर एक हजार ईस्वी के आसपास तक पूरे हिमालय क्षेत्र में इनका राज था. आज यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है. यहाँ की ज्यादातर जातियों के बारे में यह भ्रम है कि वे बाहर से आकर यहाँ बसी हैं. इसमें कुछ सचाई जरूर है लेकिन खश जातियों के सम्बन्ध में यह पूरी तरह से सच नहीं है. हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से यह साबित होता है कि वास्तव में वे हज़ारों वर्षों से यहाँ हैं. कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि वे आर्यों से भी पहले या लगभग उसी समय मध्य एशिया के काकेशस पर्वत क्षेत्र से भारत के हिमालयी अंचल में आकर रहने लगे थे. ऐसा मानने की मुख्य वजह यह है कि शुरुआती दौर में उनके रीति-रिवाज आर्यों से काफी भिन्न थे. धीरे-धीरे वे वैदिक कर्म-कांडों के संपर्क में आये और भारत की मुख्यधारा में शामिल हुए. लेकिन कुछ विद्वान कहते हैं कि यह भी वैदिक आर्यों की ही एक शाखा थी, अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में रहने के कारण उनका खान-पान और रीति-रिवाज अलग हो गए. संस्कृत विद्वान् डीडी शर्मा की पुस्तक, ‘हिमालय के खाश’ के अनुसार, ऐतिहासिक खोजों से यह भी पता चलता है कि खश किसी एक जाति का नाम नहीं है, वैदिक आर्यों की तरह ही हिमालयी खश भी एक पूरी प्रजाति थी, उसके भीतर ब्राह्मण और राजपूत थे. एल डी जोशी, तारादत्त गैरोला और अटकिन्सन जैसे इतिहासकार मानते हैं कि हिमालय क्षेत्र के लगभग ९०% ब्राह्मण खश जाति से सम्बंधित हैं. यहाँ के लोगों के नैन-नक्श, खान-पान, बोली-भाषा और रहन-सहन में साम्यता से भी यह बात सिद्ध होती हैं.     
चूंकि वे मध्य एशिया के पहाड़ी प्रदेश से यहाँ आये थे, इसलिए अत्यंत मेहनती और कष्टकारी थे. पहाड़ ही उन्हें अच्छे लगते भी थे. उन्होंने पहाडी तलहटियों को पाट कर खेती-योग्य बनाया. अनेक खाद्यान्नों की तलाश की. खेती और पशुपालन के नए-नए तौर-तरीके ईजाद किये. प्रकृति को अपने अनुरूप करने के तरीके निकाले. वनस्पतियों का वर्गीकरण किया. औषधियों की खोज की और कठिन परिस्थितियों में रहने का नया फलसफा दिया. अब तो फिर भी सड़कें बन गयी हैं, लेकिन जब भी अपने गाँव जाता हूँ, सोच-सोच कर हैरान हो जाता हूँ कि आखिर कैसे हमारे पूर्वज यहाँ आये होंगे, क्यों आये होंगे, कैसे उन्होंने जंगलों को काट कर खेत बनाए होंगे, कैसे खूंखार जंगली जानवरों से खुद को बचाया होगा? घने जंगलों के बीच कच्ची झोपड़ियां बनाकर रहे होंगे? अब तो एक ही आपदा में लोग पहाड़ों से सामूहिक पलायन करने लगते हैं. क्या तब ऐसी आपदाएं नहीं आती होंगी? खूंखार जानवरों की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियां, भूत-प्रेतों की डरावनी कहानियां और भयानक प्राकृतिक आपदाओं की यादें अक्सर अपने पूर्वजों से हमने सुनी हैं, लेकिन कभी उस धरती को छोड़ने की बातें नहीं सुनीं.
हिमालय के खसिया स्वभाव से ही जोखिम उठाने वाले, अत्यंत परिश्रमी और प्रकृति-प्रेमी थे. चूंकि वे कबीलाई जिन्दगी जीते थे, इसलिए लड़ना-भिड़ना उनके रक्त में था. अंग्रेजों ने उन्हें मार्शल कौम माना. चम्पावत जिले में देवीधूरा के बाराही देवी के मंदिर प्रांगण में रक्षाबंधन पर लगने वाला बग्वाल मेला खशों की युद्ध परम्परा की गवाही देता है, जहां रणबांकुरों के दो दल पत्थरों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं और तब तक लड़ते रहते हैं, जब तक कि एक व्यक्ति के बराबर खून नहीं बह जाता. युद्ध के प्रति इनके जज्बे को देखते हुए ही अंग्रेजों ने उन्हें हर संभव छूट देकर फ़ौज में शामिल किया. कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों के लिए उन्होंने अलग-अलग रेजिमेंट बनवाईं. पहले विश्व युद्ध में बड़ी संख्या में यहाँ के लोगों ने शहादत दी. गबर सिंह को विक्टोरिया क्रॉस मिला. लगभग हर रेजिमेंट में वे भरती होते थे. दूसरे विश्व युद्ध में भी वे लडे. आज़ाद हिन्द फ़ौज में भी उन्होंने बड़ी संख्या में शिरकत की. यही नहीं चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसे सेनानी के नेतृत्व में पेशावर में बगावत में भी आगे रहे. देश में उत्तराखंड ही ऐसा प्रांत है, जो अपनी आबादी के अनुपात में देश को सबसे ज्यादा फ़ौजी जवान और अफसर दे रहा है. उत्तराखंड का पिथौरागढ़ जिला देश का सबसे ज्यादा फौजियों वाला जिला है. ऐसा इसलिए है कि खसिया लड़ने से डरता नहीं. खासकर देश के लिए लड़ने में उसे ख़ास आनंद आता है. लड़कों के मन में बचपन से ही फ़ौज में जाने के संस्कार भर दिए जाते हैं. मैंने कभी किसी मां-बाप को अपने इकलौते बच्चे को फ़ौज में जाने से रोकते हुए नहीं देखा. जो लोग फ़ौज से बीच में ही नाम कटवाकर घर लौट आते हैं, उन्हें कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता. इसलिए हर पहाडी लोकगीत में किसी न किसी रूप में फ़ौजी जीवन का जिक्र होता है. बचपन में सुने एक गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं, जिसे सुनकर हम उछल पड़ते थे:
नागाहिल लड़ाई लागी, भट्टम भट्टम गोली.
सिपाई दाज्यू लडनै ग्यान, छाती खोली-खोली.
ज्यादातर मार्शल जातियों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर होती है. क्योंकि पुरुष लम्बे समय के लिए बाहर जाते हैं और स्त्रियाँ घर के मोर्चे पर डटी रहती हैं. केरल के नायर-मेनन हों या मेघालय के खासी, इसीलिए वहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था है. उत्तराखंड में भी स्त्रियों की स्थिति बेहतर रही है. उन्हें शहरी समाजों की तरह केवल घर की शोभा बनाकर नहीं रखा गया है. घर की अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है. शादी-ब्याह की प्रथा भी अपेक्षाकृत ज्यादा लचीली रही है. दहेज़ प्रथा अब जाकर शहरी प्रभाव से चली है. वरना एक ज़माना था, जब कन्या के पिता को बारात के स्वागत के लिए कुछ रकम दी जाती थी. खसियों में आज भी लड़की खोजने के लिए लड़के का पिता लड़की वालों के घर जाता है. कई बार बारात में लड़के का जाना जरूरी नहीं भी होता. वर पक्ष के चार-छः लोग जाकर बधू को डोली में बिठा कर ले आते हैं. बाद में सुविधा से फेरे ले लिए जाते हैं. यौन रिश्ते भी इतने रूढ़ नहीं थे, जितने कि शहरी समाजों में होते हैं. उन्हें संगीन जुर्म नहीं समझा जाता था. कुछ समाजों में यह भी व्यवस्था थी कि यदि कोई विवाहिता स्त्री किसी अन्य पुरुष का वरण करती है तो उसे भी समाज यह छूट देता था. हाँ, जिस पुरुष के साथ वह जा रही है, उसे पूर्व पति को उसका मूल्य चुकाना होता था. ऐसी स्त्री को ‘छन मण की बान’ कहा जाता था. अर्थात ऐसी सुन्दरी जिसका पति मौजूद है. उस स्त्री को प्राप्त करना गर्व की बात समझी जाती थी.

उत्तराखंड के खसिया लोग अभी हाल-हाल तक पौरोहित्य कर्मकांड से काफी हद तक बचे हुए थे. आज भी बहुत से मंदिरों में खसिया ही पुजारी भी होता है. कई पूजाएँ निचले वर्ग के लोग भी किया करते थे. छुआछूत जरूर था, लेकिन जातियों के आपस में रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे. वे एक-दूसरे पर निर्भर थे. यानी ब्राह्मणवाद का असर कम था. हालांकि अब यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है. साथ ही जातिवाद भी बढ़ रहा है. यह समाज मुख्यधारा में आ चुका है, लेकिन अपनी अच्छी बातें छोड़ कर मुख्यधारा की बुराइयों को ग्रहण कर रहा है. आज इस जाति-समूह में भी दहेज़ प्रथा शुरू हो गयी है. शादियों में वैसी ही तामझाम, जैसी कि मैदानी इलाकों में होती है. एक और संकट, शराबखोरी बढ़ रही है. असंख्य परिवार इसकी वजह से तबाह हो चुके हैं. हजारों वर्षों से जिन पहाड़ों को हमारे पूर्वजों ने अपना निवास-स्थान बनाया था, उसके प्रति उदासीनता दिख रही है. खसिया अपने पारंपरिक काम-धंधों से मुंह मोड़ रहा है. खेती-बाडी और पशुपालन से मोहभंग हो रहा है. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. पढाई-लिखाई को लेकर जागरूकता बहुत बढी है, लेकिन फिर भी कुछ ही बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण कर पा रहे हैं. लेकिन खुलापन उनकी आज भी विशेषता है. बाहर निकल कर वे काफी तरक्की कर रहे हैं. अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह भी कर रहे हैं. एक बात और. राजनीति में उत्तराखंड के खसियाओं को उनका जायज हक मिलना अभी बाक़ी है. (नवभारत टाइम्स, ९ जनवरी, २०१५ में प्रकाशित संक्षिप्त लेख का मूल रूप) 

रविवार, 1 अप्रैल 2012

उत्तराखंड में पशु बलि कब रुकेगी?

समाज/ गोविंद सिंह

गैरसेण में पशु बलि को लेके गाँव वासियों और प्रशाशन के बीच काफी हंगामा हो गया. कुछ लोग घायल भी हो गए. उधर गंगोलीहाट के कालिका मंदिर में भैंसे की बलि पुलिस के हस्तक्षेप से रोकी गयी. इससे पहले स्याल्दे– देघाट के काली मंदिर में भी बलि रोकी गयी थी. पौड़ी गढवाल के बूंखाल स्थित कालिका मंदिर में भी पिछले दिनों भैंसा बलि को रोका गया. वहाँ बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती है. उत्तराखंड के लगभग हर जिले में ऐसे मंदिर हैं, जहां पशु बलि दी जाती है. वह भी भैंसे की. पिछले साल नवंबर में उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने गढवाल के बूंखाल उत्सव में पशु बलि पर रोक लगा दी थी. तब से हर मंदिर में पशु बलि पर रोक की मांग हो रही है. लेकिन इसके बावजूद लोग हर बार भैंसे को लेकर मंदिर पहुँचते हैं और पुलिस उन्हें रोकती है. कभी-कभार लोग पुलिस से भिड़ते भी हैं. लेकिन बीच-बचाव के बाद मामला शांत हो जाता है. लोग जानते हैं कि बलि कानूनन अनुचित है, मंदिर के पुजारी भी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं, लेकिन फिर भी लोग भैंसा लिए चले आते हैं. जैसे कि वे देवता को यह बताना चाहते हों कि हम तो आ गए थे, यह सरकार है, जो हमें रोक रही है! यह बात समझ में नहीं आती कि तमाम शिक्षा के बावजूद आज भी उत्तराखंड में बलि-प्रथा मौजूद है. जिस तरह से सती प्रथा के निषेध के दो सौ साल बाद भी सती होने की छिटपुट घटनाएं बीच-बीच में सुनने को मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह से बलि प्रथा भी रुक नहीं पा रही.
पशु बलि को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कानून नहीं है. अलबत्ता, छः राज्यों ने पशु बलि पर रोक लगा  राखी है. जानवरों से प्रेम करने वाले कुछ संगठन कानून को लेकर प्रयासरत हैं लेकिन अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है. कारण धार्मिक है. धार्मिक मामले में कोई हाथ नहीं डालना चाहता है. फिर मामला सिर्फ हिन्दू धर्म का ही नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. हजारों वर्षों से बलि प्रथा चल रही है. खास कर उन क्षेत्रों में इसका रिवाज ज्यादा है, जहां शक्ति की उपासना होती है. इसलिए दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, असम, नेपाल, राजस्थान और उत्तराखंड में बलि प्रथा ज्यादा है. लोग इसके खिलाफ सुनने को ही तैयार नहीं होते. लेकिन उत्तराखंड की नयी पीढ़ी इस मसले पर काफी ऊहापोह की स्थिति में है. पिछले दिनों ‘मेरा पहाड़ फोरम’ नामक इंटरनेट समूह ने  इस पर एक बहस चलाई. कई लोगों ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ कीं. अनेक लोगों का मानना था कि यह धार्मिक मामला है, इसलिए इसे नहीं उछालना चाहिए. एक सज्जन सूबेदार मेजर डीएस नयाल ने लिखा कि भैंसे को तडपते देख कर मेरा दिल इतना दहल उठा कि मैंने ठान लिया कि मैं इसके खिलाफ अपने गाँव वालों को तैयार करके रहूँगा. उन्होंने अपने गाँव में इसे लेकर बहस करवाई और अंततः गाँव के लोग पशु बलि के खिलाफ तैयार हो गए. अब वहाँ भैंसे की बलि नहीं दी जाती. इसी तरह मुंबई से डांडी-कांठी नामक संगठन की ओर से बूंखाल में पशु बलि के खिलाफ जन जागरण किया गया. कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार और राजनीति जहां फेल हो जाती हैं, वहाँ से जागरूक जनता का काम शुरू होता है. और उत्तराखंड की नयी पीढ़ी यह काम कर रही है.
भैंसे की बलि खत्म भी हो जाती है तो बकरे और मुर्गे की बलि को खत्म होने में अभी लंबा समय लगेगा. बड़े मंदिरों में दी जाने वाली सामूहिक बलि पर कानूनन रोक संभव है लेकिन गाँव-गाँव में जो मंदिर हैं, वहाँ छिटपुट बलि चलती रहती है. दरअसल आज भी पहाड़ी समाज अनेक तरह की रूढियों में जकडा हुआ है. वहाँ की ग्रामीण न्याय-व्यवस्था आज भी लोक देवताओं के हवाले है. किसी का बच्चा बीमार हो गया तो देवता, किसी की गाय मर गयी तो देवता, किसी के यहाँ चोरी हो गयी तो देवता का प्रकोप निकल आता है. छोटे-छोटे आपसी झगडों में लोग देवता के पास (घात) शिकायत लेकर पहुँच जाते हैं. और फिर देवता भी बारी-बारी से दंड वसूलता है. इस मामले में पहाड़ का ग्राम समाज आज भी ५० साल पुरानी मान्यताओं पर चल रहा है. ज्योतिषियों, पुछ्यारियों, पुजारियों, घटेलियों और जगरियों की बन आती है. जिन्हें ज्योतिष का अ ब स नहीं आता, वे भी परेशान आदमी को आता देख महापंडित की एक्टिंग करते हैं. देवता के सामने गरीब आदमी जैसे पिसता ही चला जाता है. ग्रामीण समाज में जो दबंग हैं, वे अपनी मनमर्जी चलाते रहते हैं, उन्हें देवता की परवाह नहीं होती. जो अमीर हैं, वे अपना इलाज शहरों में जाकर करवा आते हैं, जो सक्षम हैं, वे कोर्ट-कचहरी जाने में भी नहीं हिचकते. जबकि गरीब को कभी मुर्गा तो कभी बकरा, दंडस्वरुप मंदिर में चढाना पड़ता है. आपको यह जान कर हैरानी होगी कि गाँव में तीन से छः महीने का बकरा ढूँढना मुश्किल हो जाता है, उसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है. हम इस बात पर बहुत खुश होते हैं कि पहाड़ी समाज में अपराध नहीं है, वहाँ पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन सच बात यह है कि देवता के नाम पर एक दूसरी तरह का डंडा आम आदमी के सर पर पड़ता रहता है. गरीब लोग देवता का पूजन अपने मन की शान्ति के लिए नहीं, प्रकोप के भय से करते हैं. हम यह नहीं कहते कि देव भय का  कोई फायदा नहीं होता, वे भी हैं, लेकिन देव पूजन मन की शान्ति के लिए होना चाहिए ना कि भय से. एक ज़माना था, जब समाज को इसकी जरूरत थी. अब जमाना आगे बढ़ गया है. इसलिए समाज को खुद ही आगे बढ़कर इसे रोकना होगा. ( अमर उजाला, १ अप्रैल, २०१२ से साभार)