पहाड़-यात्रा-2/ गोविन्द सिंह
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गरमी बढ़ने से इस साल बुरांस भी कुछ बुझे-बुझे से नजर आये |
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जौराशी- चरमा के बीच एक जंगल में गिद्धराज के दर्शन हुए. |
लेकिन खेती के नए
तौर-तरीकों को आजमाने वाले लोग बहुत कम हैं. आम तौर पर लोग पारंपरिक खेती तक ही
सीमित रहते हैं. खेती करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं, पढ़े-लिखे या प्रगतिशील सोच
वाले लोग गांवों में बचे ही नहीं तो नए विचारों को कौन अपनाए? इसलिए बचे-खुचे
लोगों के मन में एक ही भाव रहता है: कौन करे? क्यों करे? अतः अब गाँव में भी लोग सब्जियां खरीद कर खाने लगे
हैं. इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे. पुराने जमाने में परिवार के पास कम खेती
और खाने वाले लोगों की संख्या अधिक होने से अनाज भले साल भर न पहुंचे, पर
दाल-सब्जी तो खरीदनी नहीं पड़ती थी. फल भी साल भर कुछ ना कुछ होते ही थे. हमारे
गाँव में लोग अपने लायक गुड़ भी तैयार कर ही लेते थे, खुदा (शीरा) तैयार करके रख
लेते थे. चूख का रस निकाल कर उसे उबाल लिया करते थे. यह काला चूख साल भर तक चलता
था. च्यूर का तेल निकालते थे, उसका घी बनता था. अपने लायक सरसों-तिल आदि का तेल भी
निकल ही आता था. अब ये सब चीजें गायब हो गयी हैं. एक जवान बहू से मैंने जब तेल
पेलने वाले कुल्यूड (कोल्हू) के बारे में पूछा तो उसे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या
पूछ रहा हूँ. बोली, ससुर जी, मैंने तो इस गाँव में कभी कुल्यूड़ा नहीं देखा. उसे
आश्चर्य हुआ कि कभी इसी गाँव के लोग अपने लिए खुद ही तेल भी निकालते थे! मुझे उसे
कुल्यूडा का चित्र बना कर समझाना पड़ा कि वह कैसा होता था.
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पातळ भुवनेश्वर गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर |
अब तो सब चीजें
बाजार से ही आती हैं. यहाँ की चीजों को बाजार लेता नहीं, क्योंकि उनकी पैकेजिंग
आकर्षक नहीं है. लेकिन बाजार की घटिया चीजें धड़ल्ले से गाँव पहुँच रही हैं. और
अपने साथ ला रही हैं ढेर सारी बीमारियाँ और बुरी आदतें. लोगों ने अपने गाँव का
तम्बाकू तो छोड़ दिया है लेकिन गुटखा, बीड़ी-सिगरेट और शराब खूब चल रही है. गाँव के
गाँव शराबखोरी की लत के कारण बरबाद हो रहे हैं. मेरे आस-पास के गांवों के कुछ
बच्चे पिछले साल हल्द्वानी भरती की दौड़ में शामिल होने को आये. एक भी सेलेक्ट नहीं
हुआ. मैंने बच्चों से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ. हमारे गांवों में सड़क नहीं पहुंची
है, वहाँ तो बच्चे फिट होने चाहिए. फिर दौड़ में क्यों पिछड़ गए? एक लड़के ने बताया,
‘अंकल’ अब दौड़ने में हमारी साँसें फूल जाती हैं. क्यों? क्योंकि बीड़ी-शराब और
गुटखा की लत जो लग गयी है! हे राम!
शराब के कारण कई
अच्छे-खासे लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो गए. मेरे अपने गाँव में मेरी उम्र के तीन लोग
शराब की भेंट चढ़ गए. ये लोग बचपन में बड़े होनहार थे. मेरी ससुराल में और भी ज्यादा
लोग शराब ने लील लिए. लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. गाहे-बगाहे वे इसकी
चर्चा भी करते हैं. लेकिन शराब है कि बंद नहीं होती. अंग्रेज़ी शराब तो शहरों में
है, फौजियों की शराब- थ्री एक्स का भी खूब चलन है. जिनकी पहुँच यहाँ तक नहीं है,
वे ठर्रे और देसी शराब से काम चलाते हैं. शादी-ब्याह के माहौल को शराब ने बिगाड़ कर
रख दिया है. लोग शादी-ब्याह में इसलिए जाते हैं कि इस मौके पर बहुत से लोगों से
मुलाक़ात हो जायेगी. लेकिन नशे से लोट-पोट लोगों से आप क्या बात करेंगे? सचमुच, मैं
तो बड़ी कडुवी यादें लेकर लौटा हूँ, ऐसी शादियों से. जहां भी गया, लोगों ने शराब
जरूर ऑफ़र की. जब मैंने कहा कि मैं शराब नहीं पीता, तो लोग मानने को तैयार ही नहीं
हुए. अक्सर ऐसे मौकों पर मार-पीट हो जाया करती है. मुझे याद है, बचपन में हमारे
गाँव में कभी-कभार ही शराब के दर्शन तब होते थे, जब कोई फ़ौजी छुट्टी आता था. एकाध
बोतल ही उसके बोजे (सामान का गठ्ठर) से निकलती थी. एक बार में ही वह अपने सारे
मिलने वालों को पिला दिया करता था. गाँव की बूढ़ी औरतें भी पेट के बाय आदि
बीमारियों के लिए दराम (शराब) की एक घूट मांगने सिपाही के घर आती थीं. लेकिन
धीरे-धीरे घर-घर में शराब बनने लगी. फिर दुकानों से पाउच में शराब मिलने लगी. फिर
पेंशनरों को शराब का कोटा मिलना शुरू हुआ. और अब तो शराब के बिना कुछ होता ही
नहीं. आपको घर बनाना हो, चाहे खेत जुतवाना हो, शादी-ब्याह पर कुछ काम निकलवाना हो,
शराब तो पिलानी ही होगी. यहाँ तक कि मलामी (शवयात्रा) जाने के लिए भी शराब की
रिश्वत देनी पड़ती है. यही नहीं शादी-ब्याह में औरतें भी पेग लगाने लगी हैं. आज वे
सिर्फ शादी-रतेली में पी रही हैं, कल को गम गलत करने के लिए पियेंगी और परसों उनकी
आदत हो जायेगी. ये कैसा दुर्भाग्य है, हमारे गांवों का? क्या यही दिन देखने के लिए
बनाया था हमने यह राज्य? न जाने किस मनहूस की नजर लगी मेरे पहाड़ को? (जारी...)
खटीमा दीप, 1 अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित