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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

शराब ने सब कुछ चौपट कर दिया

पहाड़-यात्रा-2/ गोविन्द सिंह
गरमी बढ़ने से इस साल बुरांस भी कुछ बुझे-बुझे से नजर आये 
 ऐसा नहीं है कि गाँव में उत्साही लोग बचे ही नहीं. कुछ लोग हैं जो गाँव को बचाने में भी लगे हुए हैं. खेती के नए-नए तौर-तरीके अपना रहे हैं. इक्का-दुक्का पौली हाउस भी दिख जाते हैं, जिनके भीतर हरी-भरी सब्जियां उग रही होती हैं. वे सब्जियों को शहर में ले जाकर बेचने की कोशिश भी करते हैं. भाई दान सिंह बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने पौली हाउस में ब्रोकली लगाई थी. काफी हुई, लेकिन शहर पहुंचाने तक सूखने लग गयी. पंद्रह रुपये किलो भी नहीं बिकी. पड़ोस के मुवानी कसबे में लोग इस हरी गोबी को लेने को तैयार ही नहीं हुए. इसलिए इस बार बोई ही नहीं. मैं सोचता रहा, जिस ब्रोकली को हम दिल्ली में अस्सी-सौ रुपये में लेने को भी तरसते थे, उसे हमारे उन्नत किसान को जैसे-तैसे 15-20 रुपये में निपटाना पड़ा! कुछ लोगों ने धनोपार्जन के लिए मुर्गियों को पालना शुरू किया है. कुछ बकरियों का ब्यापार कर रहे हैं.
जौराशी- चरमा के बीच एक जंगल में गिद्धराज के दर्शन हुए.
लेकिन खेती के नए तौर-तरीकों को आजमाने वाले लोग बहुत कम हैं. आम तौर पर लोग पारंपरिक खेती तक ही सीमित रहते हैं. खेती करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं, पढ़े-लिखे या प्रगतिशील सोच वाले लोग गांवों में बचे ही नहीं तो नए विचारों को कौन अपनाए? इसलिए बचे-खुचे लोगों के मन में एक ही भाव रहता है: कौन करे? क्यों करे? अतः  अब गाँव में भी लोग सब्जियां खरीद कर खाने लगे हैं. इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे. पुराने जमाने में परिवार के पास कम खेती और खाने वाले लोगों की संख्या अधिक होने से अनाज भले साल भर न पहुंचे, पर दाल-सब्जी तो खरीदनी नहीं पड़ती थी. फल भी साल भर कुछ ना कुछ होते ही थे. हमारे गाँव में लोग अपने लायक गुड़ भी तैयार कर ही लेते थे, खुदा (शीरा) तैयार करके रख लेते थे. चूख का रस निकाल कर उसे उबाल लिया करते थे. यह काला चूख साल भर तक चलता था. च्यूर का तेल निकालते थे, उसका घी बनता था. अपने लायक सरसों-तिल आदि का तेल भी निकल ही आता था. अब ये सब चीजें गायब हो गयी हैं. एक जवान बहू से मैंने जब तेल पेलने वाले कुल्यूड (कोल्हू) के बारे में पूछा तो उसे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या पूछ रहा हूँ. बोली, ससुर जी, मैंने तो इस गाँव में कभी कुल्यूड़ा नहीं देखा. उसे आश्चर्य हुआ कि कभी इसी गाँव के लोग अपने लिए खुद ही तेल भी निकालते थे! मुझे उसे कुल्यूडा का चित्र बना कर समझाना पड़ा कि वह कैसा होता था.
पातळ भुवनेश्वर गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर 
अब तो सब चीजें बाजार से ही आती हैं. यहाँ की चीजों को बाजार लेता नहीं, क्योंकि उनकी पैकेजिंग आकर्षक नहीं है. लेकिन बाजार की घटिया चीजें धड़ल्ले से गाँव पहुँच रही हैं. और अपने साथ ला रही हैं ढेर सारी बीमारियाँ और बुरी आदतें. लोगों ने अपने गाँव का तम्बाकू तो छोड़ दिया है लेकिन गुटखा, बीड़ी-सिगरेट और शराब खूब चल रही है. गाँव के गाँव शराबखोरी की लत के कारण बरबाद हो रहे हैं. मेरे आस-पास के गांवों के कुछ बच्चे पिछले साल हल्द्वानी भरती की दौड़ में शामिल होने को आये. एक भी सेलेक्ट नहीं हुआ. मैंने बच्चों से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ. हमारे गांवों में सड़क नहीं पहुंची है, वहाँ तो बच्चे फिट होने चाहिए. फिर दौड़ में क्यों पिछड़ गए? एक लड़के ने बताया, ‘अंकल’ अब दौड़ने में हमारी साँसें फूल जाती हैं. क्यों? क्योंकि बीड़ी-शराब और गुटखा की लत जो लग गयी है! हे राम!
शराब के कारण कई अच्छे-खासे लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो गए. मेरे अपने गाँव में मेरी उम्र के तीन लोग शराब की भेंट चढ़ गए. ये लोग बचपन में बड़े होनहार थे. मेरी ससुराल में और भी ज्यादा लोग शराब ने लील लिए. लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. गाहे-बगाहे वे इसकी चर्चा भी करते हैं. लेकिन शराब है कि बंद नहीं होती. अंग्रेज़ी शराब तो शहरों में है, फौजियों की शराब- थ्री एक्स का भी खूब चलन है. जिनकी पहुँच यहाँ तक नहीं है, वे ठर्रे और देसी शराब से काम चलाते हैं. शादी-ब्याह के माहौल को शराब ने बिगाड़ कर रख दिया है. लोग शादी-ब्याह में इसलिए जाते हैं कि इस मौके पर बहुत से लोगों से मुलाक़ात हो जायेगी. लेकिन नशे से लोट-पोट लोगों से आप क्या बात करेंगे? सचमुच, मैं तो बड़ी कडुवी यादें लेकर लौटा हूँ, ऐसी शादियों से. जहां भी गया, लोगों ने शराब जरूर ऑफ़र की. जब मैंने कहा कि मैं शराब नहीं पीता, तो लोग मानने को तैयार ही नहीं हुए. अक्सर ऐसे मौकों पर मार-पीट हो जाया करती है. मुझे याद है, बचपन में हमारे गाँव में कभी-कभार ही शराब के दर्शन तब होते थे, जब कोई फ़ौजी छुट्टी आता था. एकाध बोतल ही उसके बोजे (सामान का गठ्ठर) से निकलती थी. एक बार में ही वह अपने सारे मिलने वालों को पिला दिया करता था. गाँव की बूढ़ी औरतें भी पेट के बाय आदि बीमारियों के लिए दराम (शराब) की एक घूट मांगने सिपाही के घर आती थीं. लेकिन धीरे-धीरे घर-घर में शराब बनने लगी. फिर दुकानों से पाउच में शराब मिलने लगी. फिर पेंशनरों को शराब का कोटा मिलना शुरू हुआ. और अब तो शराब के बिना कुछ होता ही नहीं. आपको घर बनाना हो, चाहे खेत जुतवाना हो, शादी-ब्याह पर कुछ काम निकलवाना हो, शराब तो पिलानी ही होगी. यहाँ तक कि मलामी (शवयात्रा) जाने के लिए भी शराब की रिश्वत देनी पड़ती है. यही नहीं शादी-ब्याह में औरतें भी पेग लगाने लगी हैं. आज वे सिर्फ शादी-रतेली में पी रही हैं, कल को गम गलत करने के लिए पियेंगी और परसों उनकी आदत हो जायेगी. ये कैसा दुर्भाग्य है, हमारे गांवों का? क्या यही दिन देखने के लिए बनाया था हमने यह राज्य? न जाने किस मनहूस की नजर लगी मेरे पहाड़ को? (जारी...)
खटीमा दीप, 1 अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित  


गुरुवार, 5 जनवरी 2012

लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से कौन बचाएगा


इन दिनों पर्यावरण के ग्‍लोबल मुद्दों पर तो खूब बहस-मुबाहिसे होते हैं पर जमीनी स्‍तर पर जो समस्‍याएं पसर रही हैं, उनकी तरफ किसी का ध्‍यान नहीं है। ऐसी ही एक समस्‍या है लेंटाना और कांग्रेस ग्रास यानी पर्थीनियम का बेतहाश फैलना। क्‍या पहाड़ क्‍या मैदान आपको लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से पटे पड़े मिलेंगे। आम आदमी इन्‍हें सिर्फ घास या एक झाड़ी के रूप में देखता है, लेकिन ये मनुष्‍य जाति के लिए ही नहीं, जानवरों और वनस्‍पतियों के लिए भी अत्‍यंत घातक हैं।

पहले लेंटाना पर आएं। सड़कों के किनारे हेज यानी बाड़ की तरह उग आई लाल, गुलाबी, केसरिया फूलोंवाली यह झाड़ी दिखने में कहीं से भी नहीं लगती कि यह एक धीमे जहर की तरह हमारे पर्यावरण को दूषित कर रही है। पहले यह बता दें कि यह पौंधा हिंदुस्‍तानी नहीं है। वर्ष 1807 में अंग्रेज इसे कोलकाता के बॉटैनिकल गार्डन के लिए लाए थे। पता नहीं इसके पीछे उनके मनसूबे क्‍या थे, सिर्फ गार्डन की शोभा बढ़ाना या कुछ और। वहां से इसे 1850 में देहरादून लाया गया। आज थार के मरुस्थल को छोड़ कर सारा देश इसकी चपेट में है। अब इसके नुकसानों पर। पहली बात तो यह है कि यह जिस पैमाने पर फैल रहा है, उससे खेती की जमीन कम हो रही है। इसके पत्‍तों, टहनियों और फूलों में दुर्गण ही दुर्गण हैं। इसमें जो रासायनिक तत्‍व पाए जाते हैं, वे हैं- लेंटाडीन ए और बी, ट्राइटर्पीन एसिड, डीहाइड्रो लेंटाडीन ए और इक्‍टरोजेनिन। ये सारे ही तत्‍व जहरीले हैं और प्रथम द्रष्‍टया नशा करते हैं, मनुष्‍यों में भी और जानवरों में भी। मनुष्‍यों में इनसे पीलिया, कब्‍ज, पाचन में कमी, भूख कम लगना, मुंह में अल्‍सर, म्‍यूकस मेंब्रेन में घाव जैसी बीमारियां होती हैं। मुख्‍य बात यह है कि ये बीमारियां तत्‍काल नहीं दिखाई देतीं, धीमे जहर की तरह से रुक-रुक कर हमला करती हैं। वनस्‍पतियों के लिए यह और भी घातक है क्‍योंकि यह अपने आपपास और किसी वनस्‍पति को फटकने नहीं देता। हजारों स्‍वदेशी वनस्‍पति प्रजातियों को यह नष्‍ट कर चुका है। आम जनता इसके दुष्‍परिणामों को नहीं जानती। आजकल किसान इसकी झाडि़यों को काटकर टमाटर के खेतों में डाल रहे हैं, ताकि टमाटर के पौंधे इनके ऊपर पसर सकें। लेकिन टमाटरों में भी इनके जहर न फैल रहे हों, इसकी क्‍या गारंटी है।

यही हाल कांग्रेस ग्रास या गाजरघास का है। यह भी लेंटाना की ही तरह एक साम्राज्‍यवादी पौंधा है, जो बहुत तेजी के साथ, नए शहरों, नई बस्तियों में अपनी जड़ें फैला रहा है। विदेशों में तो जहां इसके पौंधे होते हैं, वहां खतरे के साइन बोर्ड लगे होते हैं। देश का शायद ही कोई कोना इससे बचा हो। इंटरनेट पर इसके बारे में पढ़ा तो पता चला कि यह पहाड़ों को छोड़ कर सब जगह होता है, लेकिन पिछले दिनों टिहरी, उत्‍तरकाशी के मार्ग में भी यह इफरात में दिखा तो हैरानी हुई। आम घारणा यह है कि यह पचास और साठ के दशक में अमेरिका से पीएल 480 के तहत आयातित गेहूं के साथ आया लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी ने इसका खंडन किया और बताया कि इससे पहले भी यह भारत में था। खैर इससे त्‍वचा रोग, खांसी, दमा, आंखों में सूजन, मुंह और नाक की झिल्लियों में सूजन, खुजली, छींक, तालु में खुजली जैसी अनेक अलर्जिक बीमारियां होती हैं। अग्रज पत्रकार केशवानंद ममगाईं की मृत्‍यु इसी वजह से हुई। उनके चेहरे पर तांबई पपड़ी जम गई थी। सचमुच इसकी एलर्जी के साथ जीना बेहद कष्‍टदायक है। इसलिए हेल्‍थ और पर्यावरण की अंतरराष्‍ट्रीय बहसों में उलझे पर्यावरणविदों से अनुरोध है कि वे इन धीमे जहर फैलाने वाले पौंधों के खिलाफ भी कुछ कदम उठाएं। सरकारों से तो कोई आशा करना ही निरर्थक है।

गन्ने के खेत का संगीत

हल्द्वानी के जिस इलाके में मैं रहता हूँ, वह अत्यंत सुरम्य पहाडियों कि तलहटी में बसा है. मेरे घर के पीछे गन्ने का एक विशाल खेत है. गन्ने के इस खेत में सुबह सवेरे बहुत सारी चिडियाँ आ कर कलरव करने लगती हैं. कुछ बिलकुल छोटी, कुछ थोड़ी बड़ी और कुछ बहुत बड़ी. कुछ चिड़ियों को मैंने पहली बार इन्हीं खेतों में देखा. सुबह सवेरे जब इनका कलरव कानों में गूंजता तो मेरी नींद खुलती. कई बार फोटो लेने की कोशिश की, लेकिन बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि शटर दबाते ही वे फुर्र हो जाती. और मैं और मेरी बेटी देखते ही रह जाते.
लेकिन पिछले दो दिनों से कुछ और ही माजरा दिखाई पड रहा है. चिड़ियों के कलरव की जगह स्त्रियों की गिटपिट सुनाई पड रही है. यानी देखते ही देखते गन्ने का आधा खेत साफ़ हो गया है. चिड़ियों के झुण्ड की ही तरह स्त्रियों का झुण्ड आता है, एक तरफ से गन्ने के खेत को काटता चला जाता है. वे पहले गन्ने को जड से काटती हैं, गन्ने के गन्ने धराशायी हो जाते हैं और उसके बाद उन्हें छीलने का काम शुरू होता है. कुछ काम हंसिया से होता है, कुछ काम हाथों से ही करना पड़ता है. हरे भरे खेत की जगह नंगा खेत देख कर सहसा विश्वास नहीं होता. बहुत बुरा लगता है. लेकिन यही प्रकृति का नियम है. वह तो शुक्र है कि यहाँ कुछ हरियाली बची हुई है, वरना हल्द्वानी के और इलाके धीरे धीरे कंक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं. लोग आते है दिल्ली मुंबई से, जमीन के अनाप-शनाप दाम लगाते है. गरीब किसान इतनी बड़ी रकम देख कर पागल हो जाते हैं और जल्दी ही जमीन बिक जाती है. लगता है, एक दिन सारे खेत खत्म हो जायेंगे. फिर अन्न कौन उपजायेगा, लोग क्या खायेंगे? इसके बारे में कोइ नहीं सोच रहा.  
खैर आज सुबह बहुत देर तक जब मैं कन्ने काटती स्त्रियों को देखता रहा तो उसमें भी एक संगीत सुनाई पड़ा. खट-खट काटने का अलग संगीत और पत्ते छीलने का अलग संगीत. स्त्रियों की बातों का अलग संगीत. पहले मुझे लगा कि वे मजदूरिनें होंगी. जिन्हें खेत का मालिक मजदूरी पर लेकर आया है, लेकिन पड़ोसियों से पता चला कि ये औरतें उसी गाँव की हैं, जिस गाँव वाले का खेत है. स्त्रियां सहकार के आधार पर कटाई पर आयी हैं और बदले में मवेशियों के लिए पत्ते और घास ले जायेंगी. यहाँ के गांवों में अभी यह चलन बरकरार है, यह जानकार बहुत अच्छा लगा.