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गुरुवार, 5 जनवरी 2012

गन्ने के खेत का संगीत

हल्द्वानी के जिस इलाके में मैं रहता हूँ, वह अत्यंत सुरम्य पहाडियों कि तलहटी में बसा है. मेरे घर के पीछे गन्ने का एक विशाल खेत है. गन्ने के इस खेत में सुबह सवेरे बहुत सारी चिडियाँ आ कर कलरव करने लगती हैं. कुछ बिलकुल छोटी, कुछ थोड़ी बड़ी और कुछ बहुत बड़ी. कुछ चिड़ियों को मैंने पहली बार इन्हीं खेतों में देखा. सुबह सवेरे जब इनका कलरव कानों में गूंजता तो मेरी नींद खुलती. कई बार फोटो लेने की कोशिश की, लेकिन बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि शटर दबाते ही वे फुर्र हो जाती. और मैं और मेरी बेटी देखते ही रह जाते.
लेकिन पिछले दो दिनों से कुछ और ही माजरा दिखाई पड रहा है. चिड़ियों के कलरव की जगह स्त्रियों की गिटपिट सुनाई पड रही है. यानी देखते ही देखते गन्ने का आधा खेत साफ़ हो गया है. चिड़ियों के झुण्ड की ही तरह स्त्रियों का झुण्ड आता है, एक तरफ से गन्ने के खेत को काटता चला जाता है. वे पहले गन्ने को जड से काटती हैं, गन्ने के गन्ने धराशायी हो जाते हैं और उसके बाद उन्हें छीलने का काम शुरू होता है. कुछ काम हंसिया से होता है, कुछ काम हाथों से ही करना पड़ता है. हरे भरे खेत की जगह नंगा खेत देख कर सहसा विश्वास नहीं होता. बहुत बुरा लगता है. लेकिन यही प्रकृति का नियम है. वह तो शुक्र है कि यहाँ कुछ हरियाली बची हुई है, वरना हल्द्वानी के और इलाके धीरे धीरे कंक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं. लोग आते है दिल्ली मुंबई से, जमीन के अनाप-शनाप दाम लगाते है. गरीब किसान इतनी बड़ी रकम देख कर पागल हो जाते हैं और जल्दी ही जमीन बिक जाती है. लगता है, एक दिन सारे खेत खत्म हो जायेंगे. फिर अन्न कौन उपजायेगा, लोग क्या खायेंगे? इसके बारे में कोइ नहीं सोच रहा.  
खैर आज सुबह बहुत देर तक जब मैं कन्ने काटती स्त्रियों को देखता रहा तो उसमें भी एक संगीत सुनाई पड़ा. खट-खट काटने का अलग संगीत और पत्ते छीलने का अलग संगीत. स्त्रियों की बातों का अलग संगीत. पहले मुझे लगा कि वे मजदूरिनें होंगी. जिन्हें खेत का मालिक मजदूरी पर लेकर आया है, लेकिन पड़ोसियों से पता चला कि ये औरतें उसी गाँव की हैं, जिस गाँव वाले का खेत है. स्त्रियां सहकार के आधार पर कटाई पर आयी हैं और बदले में मवेशियों के लिए पत्ते और घास ले जायेंगी. यहाँ के गांवों में अभी यह चलन बरकरार है, यह जानकार बहुत अच्छा लगा.