lifestyle लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
lifestyle लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

संस्कार: मकसद के बिना जीवन अधूरा

जीवन शैली/ गोविन्द सिंह
गुलाम रसूल संतोष की कलाकृति 
समाज में हर रोज नई-नई विकृतियाँ जन्म लेती जा रही हैं. चोरी-डकैती, हत्या-लूटमारी जैसी बीमारियों के अलावा छेड़-छाड़ और बलात्कार की खबरें पढ़ कर हर सुबह कोफ़्त होती है. पश्चिमी देशों में भी ये बीमारियाँ हैं लेकिन वहाँ लोगों ने मजबूत नागरिक कानून बनाकर इन पर नकेल कस ली है. लेकिन अपने देश में ये सुरसा के मुंह की तरह रोज-ब-रोज फैलती जा रही हैं. आखिर क्यों इन बीमारियों से ग्रस्त हो गया है अपना देश? क्या पहले भी ऐसा ही था? यदि जीवन की समस्याओं से निबटने का यही तरीका हमारे पूर्वजों ने भी अपनाया होता तो क्या हमारी सभ्यता बच पाती? शायद नहीं.
आज भलेही हम जिस भी हालत में हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारी सभ्यता कभी उन्नत रही थी. जिस तरह की व्यवस्थाएं समाज को चलाने के लिए बनाई गयी थीं, वे किसी पिछड़े समाज में नहीं हो सकती थीं. सोलह संस्कारों की बात छोड़ भी दें तो मनुष्य जीवन को अनुशासित रखने और तदुपरांत उसे सुखमय बनाने के लिए वर्णाश्रम व्यस्था की गयी थी. जीवन लक्ष्यहीन न गुजर जाए, इसलिए उसके चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गए थे. इन व्यवस्थाओं के चलते समाज में विकृति आने की आशंका उत्तरोत्तर कम होती जाती थी. हाँ, यह जरूर है कि इन्हें लागू करने के लिए अनुशासन की दरकार होती थी. बिना अनुशासन के कुछ भी संभव नहीं है. आज अमेरिका आगे है तो उसके पीछे भी अनुशासन ही है. चार दिन अमरीकी लोग अनुशासन का पालन करना छोड़ दें तो सबकुछ उलट-पुलट हो जाएगा.
पहले वर्णाश्रम व्यवस्था को लें. समाज की व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए चार वर्ण बनाए गए थे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. आज भलेही यह व्यवस्था विकृत हो गयी हो, लेकिन अपने मूल स्वरुप में यह एक आदर्श व्यवस्था रही होगी. ब्राह्मण का मतलब विद्या अर्थात समाज के लिए हित-चिंतन करने वाले. इसी तरह समाज व्यवस्था की रखवाली करने वाले क्षत्रिय हुए. समाज-व्यवस्था के आतंरिक कारोबार को करने वाले वैश्य हुए तो समाज की सेवा करने वाले शूद्र हुए. यह विभाजन गुणों और कर्मों के आधार पर था पैत्रिक आधार पर नहीं. अर्थात ब्राह्मण का बेटा भी ब्राह्मण ही बने, यह जरूरी नहीं. जिसके जैसे गुण होगे, उसे वैसा ही काम मिलेगा. यानी शूद्र का पुत्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता था. जैसे आज फ़ौज में भरती होते वक़्त व्यक्ति की जाति नहीं, कर्म और पात्रता देखी जाती है या शिक्षक की भरती के लिए ब्राह्मण जाती का होना जरूरी नहीं है, उसी तरह जाती का सम्बन्ध जन्म से नहीं था. हमारे एक दोस्त तीन साल के लिए चीन गए तो बोले कि जिस होटल में उन्हें टिकाया गया था, उसके सबसे बड़े अधिकारी की पत्नी उसके कमरे में झाडू-पोछा करती थी. यानी कर्म के आधार पर भेदभाव भी नहीं था. न ही किसी काम को छोटा या बड़ा समझा जाता था. मन और शरीर के कामों को अलग-अलग कोटियों में जरूर रखा गया था, लेकिन उनमें भेदभाव नहीं था. जब तक यह व्यवस्था चली, तब तक समाज-व्यवस्था बहुत अच्छी चल रही थी. लेकिन धीरे-धीरे पेशे के अनुरूप कुछ विशेषाधिकार भी मिलने लगे. खासकर ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों को श्रेष्ठ समझा जाने लगा. इससे हुआ यह कि मानव मन में मोह घर करने लगा. ब्राह्मण को लगा कि क्यों न उसका बेटा भी ब्राह्मण बनकर उसी की तरह समाज से मिले विशेषाधिकारों का उपभोग करे. क्षत्रिय को भी लगने लगा कि उसकी सारी मेहनत का फल क्यों किसी और का बेटा भोगे? कहा जाता है कि ब्राह्मण ग्रन्थ जब लिखे जाने लगे तब तक इस तरह की प्रवृत्तियाँ पनपने लगी थीं. यहीं से स्खलन शुरू होने लगा. और आज एक विकृत जाति प्रथा हमारे सामने है. उसकी वजह से समाज में अनेक बीमारियाँ आ गयी हैं. तमाम आरक्षणों, नियम-कानूनों के बावजूद समाज के भीतर से अस्पृश्यता, भेदभाव ख़त्म नहीं हो रहा है. कहा जा सकता है कि विकृत रूप में ही सही, आज तक यह व्यवस्था चल रही है और समाज को बचाए रख पायी है. यह भी कुछ हद तक सही है. लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि वर्ण-व्यवस्था को बदलना होगा. जाती के आधार पर नहीं, कर्म के आधार पर समाज में व्यक्ति की जगह होनी चाहिए.
दूसरी व्यवस्था आश्रम की थी. मनुष्य का जीवन चार आश्रमों में विभाजित था. ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास. जीवन काल को चार खण्डों में बाँट कर समाज को बहुत सी बुराइयों से मुक्त कर दिया गया था. हर आश्रम के बाद यह तय था कि उसे तरक्की करते हुए अगले आश्रम में पहुँचना है. और हर आश्रम के दायित्व भी निश्चित थे. ब्रह्मचर्य में यदि व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करने पर ध्यान केन्द्रित करना होता था तो गृहस्थ धर्म में परिवार बनाने में पूरा ध्यान लगाना होता था. इसी तरह वानप्रस्थ में निस्वार्थ कर्म करने और संन्यास अवस्था में केवल आत्मा-परमात्मा का चिंतन बताया गया है. यदि अनुशासन के साथ इन चार आश्रमों का पालन किया जाए तो गड़बड़ी हो ही नहीं सकती. आधुनिक काल में भी हमने रिटायरमेंट की आयु तो निर्धारित कर दी, लेकिन उसके बाद वह क्या करे, उसे नहीं बताया. लिहाजा वह कुंठित होने लगा. किसी का ब्रह्मचर्य ३०-३५ साल तक चलता रहता है तो किसी का गृहस्थ ७५ तक भी पूरा नहीं होता. ऐसे में कैसे विकार नहीं पैदा होंगे? संन्यास आश्रम का तो शायद ही कोई पालन करता होगा. जो संन्यासी है वह भी व्यापारी जैसा कर्म कर रहा है.
सबसे बड़ी व्यवस्था चार पुरुषार्थ की थी. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष्य. धर्म अर्थात जिम्मेदारी अर्थात अपने से अधिक दूसरे के हित का ध्यान रखना. ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’. यह सबसे कठिन है. लेकिन इसे पहले नंबर पर रखा गया है. अर्थ और काम में विचलन की आशंका सबसे ज्यादा है, इसलिए उन सबके साथ भी धर्म को जोड़ दिया गया है. कोई भी काम धर्म को लक्ष्य में रख कर ही किया जाता था. अर्थ का मतलब पैसा कमाना. लेकिन उसमें भी परहित का ध्यान रखना अनिवार्य था. दूसरे को नुकसान पहुंचाकर आप धनोपार्जन नहीं कर सकते. इसी तरह काम यानी प्रेम यानी यौन सम्बन्ध यानी प्रजनन को भी धर्म से नत्थी कर दिया गया. क्योंकि यौन को खुला छोड़ दिया तो समाज में उच्छ्रंखलता फ़ैल जायेगी. समाज को जोड़े रखना है तो हर कर्म को धर्म के अनुशासन में बाँध दो. अंत में मोक्ष्य था. यानी हरेक पुरिषार्थ के पीछे एक मकसद था. और मोक्ष्य सभी कर्मों की पूर्णाहुति था. यदि सभी काम धर्म के साथ करोगे तो मोक्ष्य मिलेगा. मोक्ष्य नहीं मिलेगा तो क्या होगा. उस स्थिति की भी व्याख्या थी. मनुष्य को मोक्ष्य के फायदे और मोक्ष्य न मिलने के नुकसान समझाए गए थे. यहीं कर्मफल ने जन्म लिया. यदि इस जन्म में गलत काम किये तो अगले जन्म में उसका फल भोगना पडेगा. लिहाजा मनुष्य क्यों अपने अगले जन्म को खराब करे? वह किसी भी गलत काम को करने से पहले हजार बार सोचता था.
ऐसा नहीं हो सकता कि तब समाज में समस्याएं नहीं थीं. समस्याएं तब भी होती होंगी. लेकिन समाज के अधिकाँश हिस्से में अनुशासन था. हर व्यक्ति के जीवन का कोई न कोई मकसद था. इसलिए वह विक्षिप्त नहीं होता था, वह यों ही किसी को तंग नहीं करता था. समाज से प्राप्त अधिकार और जिम्मेदारी को वह यों ही गंवाना नहीं चाहता था. आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें पता ही नहीं कि हम क्यों हैं? हमारे जीवन का मकसद क्या है? देश-समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारी है? हमारे समस्त क्रिया-कलापों का एकमात्र मकसद स्वार्थ और भोग रह गया है. जब तक हर नागरिक को स्वतःस्फूर्त तरीके से अपनी इन जिम्मेदारियों का एहसास नहीं होगा, तब तक हम और हमारा समाज विकृतियों से कैसे मुक्त हो सकेगा? (देहरादून से प्रकाशित ‘नैवेद्य’ पत्रिका, दिसंबर, २०१४ में प्रकाशित) 

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

मुक्तेश पन्त: मुक्त गगन का पंछी


शीला भाभी के साथ मुक्तेश जी

मुक्तेश पन्त एक अद्भुत व्यक्ति हैं. जिन लोगों ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में स्थाई तौर पर हल्द्वानी आकर रहने का फैसला किया, उनमें मुक्तेश जी एक हैं. मैं उन्हें नब्बे के दशक से जानता हूँ, जब वह दिल्ली में मेरे नवभारत टाइम्स वाले दफ्तर आया करते थे. पहली बार जब वे मिले थे, तब भी उन्होंने यह नहीं बताया था कि वह पुष्पेश जी के भाई हैं, आज भी जब कोई उनसे पूछता है कि वह पुष्पेश जी के भाई तो नहीं हैं? तो वे व्यग्र और उग्र हो जाते हैं. कहते हैं कि वह मेरा भाई है न कि मैं उसका. चूंकि वे पुष्पेश जी सवा साल बड़े हैं, इसलिए उन्हें पुष्पेश जी के भाई के तौर पर अपना परिचय देना अच्छा नहीं लगता. सचमुच, जितना उनका ज्ञान है, जो उनका अध्ययन है, जितनी तरह की सूचनाएं उनके पास रहती हैं, यदि वे उनका सही इस्तेमाल कर पाते या उन्हें चैनलाइज कर पाते तो उनकी गणना बड़े विद्वानों में होती. क्या साहित्य, क्या संस्कृति, क्या राजनीति और क्या दुनिया भर की जानकारी, वे जहां से शुरू हो जाते हैं, बोलते ही चले जाते हैं. वरना १९६५ में नैनीताल से एम् ए इतिहास करने के बाद उन्हें वहीं पढाने का मौक़ा मिला था, जिसे उन्होंने जल्दी ही छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लग गया था कि वे इस सिस्टम में फिट नहीं बैठने वाले. उनके अंदर का विद्रोही उन्हें कोई काम टिक कर करने नहीं देता था. फिर भी उन्होंने १९८२-८३ में हिल रिव्यू नाम का एक अखबार हल्द्वानी से संपादित किया. नब्बे के दशक में ओपिनियन एक्सप्रेस के संपादक रहे. साथ ही थिंक इंडिया का भी संपादन किया. एक खेल पत्रकार के रूप में भी उनकी पहचान रही है.     
वे सचमुच एक फक्कड हैं. उनके जैसा बोहेमियन शायद ही कहीं मिले. वे ६७ वर्ष के हो चले हैं लेकिन जैसे कल थे, आज भी वैसे ही हैं. वही हाव-भाव, वही खिलन्दड पन, जिंदगी में लापरवाही, क्षणजीवी स्वभाव और निरंतर बोलते जाना. उनकी बालसुलभ चेष्टाएं और उत्सुकताएं बिलकुल कम नहीं हुई हैं. जिंदगी इतनी आसान भी हो सकती है, कोई मुक्तेश जी से सीखे. दिल्ली के दिनों में जब कभी मैं सुबह-शाम, उनके यहाँ फोन करता तो भाभी शीला जी ही फोन उठाती. वह कहती उनका ठौर-ठिकाना बताना मुश्किल है. वे सुबह उठकर जे एन यू की तरफ निकल गए तो कब लौटेंगे, कोई नहीं बता सकता. वे कहाँ खायेंगे, कहाँ पियेंगे, कहाँ नहाएंगे, किसे मालूम. लोगों के पास उनसे जुड़े इतने किस्से हैं कि लोग लोटपोट हो जाते हैं. वे थोडा सा तुतलाते हैं, लेकिन इसका उनके व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ता. आप कुछ ही पलों में उनके साथ तादात्म्य कायम कर लेते हैं.
सन १९९९ में उन्होंने दिल्ली छोड़ कर भवाली में अपने पैत्रिक मकान में रहना शुरू किया. दोनों बेटे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए थे. मुझे भवाली वाले घर में भी उनसे दो बार मिलने का अवसर मिला. सदा की तरह वे तब भी कुछ युवाओं को पढ़ा रहे थे. सन २००३ में उनके घर में आग लग गयी. फिर उन्हें हल्द्वानी आना पड़ा. शीला जी के मायके वालों के पास ही कुछ जमीन लेकर उन्होंने एक घर बनवाया और वहीं अपने स्वतन्त्रता सेनानी चाचा-चाची के साथ रहने लगे. बाद में उनके बच्चे अमेरिका में ही पढ़ लिख कर सेटेल हो गए. अब मुक्तेश जी और भाभी शीलाजी साल में छः महीने अमेरिका में ही रहते हैं.
मैं जब हल्द्वानी आया तो मैंने उनका पता लगाया. मालूम हुआ कि वे अमेरिका में हैं. लेकिन एक दिन मैं अपने दफ्तर में किसी मीटिंग में था, तभी मुझे एक स्लिप मिली, मुक्तेश पन्त, न्यूयोर्क सिटी, यू एस ए. मैंने बैठने को कहलवाया, लेकिन बाहर आया तो मुक्तेश जी गायब थे. खैर बाद में संपर्क हो गया. मैं उनके घर गया, वे मेरे घर-दफ्तर आये. वे एक ही सांस में दिल्ली के मीडिया जगत के बारे में सैकड़ों सवाल पूछ बैठते हैं. अपनी जानकारियों को अपडेट करते हैं. कहते हैं, मैं भावनाओं में जीता हूँ, वही मेरी थाती हैं. शीला जी को अब भी दिल्ली कि याद आती है. लेकिन मुक्तेश जी अब हल्द्वानी नहीं छोड़ना चाहते. जे एन यू के दिन अलग थे. अब दिल्ली भी बदल गयी है. मुक्त गगन के इस पंछी को दिल्ली कहाँ रास आयेगी?
नोट: मुक्तेश जी को जानने वाले मित्रों से अनुरोध है कि वे उनके साथ जुड़े अपने अनुभव जरूर शेयर करें.   

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

गन्ने के खेत का संगीत

हल्द्वानी के जिस इलाके में मैं रहता हूँ, वह अत्यंत सुरम्य पहाडियों कि तलहटी में बसा है. मेरे घर के पीछे गन्ने का एक विशाल खेत है. गन्ने के इस खेत में सुबह सवेरे बहुत सारी चिडियाँ आ कर कलरव करने लगती हैं. कुछ बिलकुल छोटी, कुछ थोड़ी बड़ी और कुछ बहुत बड़ी. कुछ चिड़ियों को मैंने पहली बार इन्हीं खेतों में देखा. सुबह सवेरे जब इनका कलरव कानों में गूंजता तो मेरी नींद खुलती. कई बार फोटो लेने की कोशिश की, लेकिन बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि शटर दबाते ही वे फुर्र हो जाती. और मैं और मेरी बेटी देखते ही रह जाते.
लेकिन पिछले दो दिनों से कुछ और ही माजरा दिखाई पड रहा है. चिड़ियों के कलरव की जगह स्त्रियों की गिटपिट सुनाई पड रही है. यानी देखते ही देखते गन्ने का आधा खेत साफ़ हो गया है. चिड़ियों के झुण्ड की ही तरह स्त्रियों का झुण्ड आता है, एक तरफ से गन्ने के खेत को काटता चला जाता है. वे पहले गन्ने को जड से काटती हैं, गन्ने के गन्ने धराशायी हो जाते हैं और उसके बाद उन्हें छीलने का काम शुरू होता है. कुछ काम हंसिया से होता है, कुछ काम हाथों से ही करना पड़ता है. हरे भरे खेत की जगह नंगा खेत देख कर सहसा विश्वास नहीं होता. बहुत बुरा लगता है. लेकिन यही प्रकृति का नियम है. वह तो शुक्र है कि यहाँ कुछ हरियाली बची हुई है, वरना हल्द्वानी के और इलाके धीरे धीरे कंक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं. लोग आते है दिल्ली मुंबई से, जमीन के अनाप-शनाप दाम लगाते है. गरीब किसान इतनी बड़ी रकम देख कर पागल हो जाते हैं और जल्दी ही जमीन बिक जाती है. लगता है, एक दिन सारे खेत खत्म हो जायेंगे. फिर अन्न कौन उपजायेगा, लोग क्या खायेंगे? इसके बारे में कोइ नहीं सोच रहा.  
खैर आज सुबह बहुत देर तक जब मैं कन्ने काटती स्त्रियों को देखता रहा तो उसमें भी एक संगीत सुनाई पड़ा. खट-खट काटने का अलग संगीत और पत्ते छीलने का अलग संगीत. स्त्रियों की बातों का अलग संगीत. पहले मुझे लगा कि वे मजदूरिनें होंगी. जिन्हें खेत का मालिक मजदूरी पर लेकर आया है, लेकिन पड़ोसियों से पता चला कि ये औरतें उसी गाँव की हैं, जिस गाँव वाले का खेत है. स्त्रियां सहकार के आधार पर कटाई पर आयी हैं और बदले में मवेशियों के लिए पत्ते और घास ले जायेंगी. यहाँ के गांवों में अभी यह चलन बरकरार है, यह जानकार बहुत अच्छा लगा.