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गुरुवार, 5 जनवरी 2012

लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से कौन बचाएगा


इन दिनों पर्यावरण के ग्‍लोबल मुद्दों पर तो खूब बहस-मुबाहिसे होते हैं पर जमीनी स्‍तर पर जो समस्‍याएं पसर रही हैं, उनकी तरफ किसी का ध्‍यान नहीं है। ऐसी ही एक समस्‍या है लेंटाना और कांग्रेस ग्रास यानी पर्थीनियम का बेतहाश फैलना। क्‍या पहाड़ क्‍या मैदान आपको लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से पटे पड़े मिलेंगे। आम आदमी इन्‍हें सिर्फ घास या एक झाड़ी के रूप में देखता है, लेकिन ये मनुष्‍य जाति के लिए ही नहीं, जानवरों और वनस्‍पतियों के लिए भी अत्‍यंत घातक हैं।

पहले लेंटाना पर आएं। सड़कों के किनारे हेज यानी बाड़ की तरह उग आई लाल, गुलाबी, केसरिया फूलोंवाली यह झाड़ी दिखने में कहीं से भी नहीं लगती कि यह एक धीमे जहर की तरह हमारे पर्यावरण को दूषित कर रही है। पहले यह बता दें कि यह पौंधा हिंदुस्‍तानी नहीं है। वर्ष 1807 में अंग्रेज इसे कोलकाता के बॉटैनिकल गार्डन के लिए लाए थे। पता नहीं इसके पीछे उनके मनसूबे क्‍या थे, सिर्फ गार्डन की शोभा बढ़ाना या कुछ और। वहां से इसे 1850 में देहरादून लाया गया। आज थार के मरुस्थल को छोड़ कर सारा देश इसकी चपेट में है। अब इसके नुकसानों पर। पहली बात तो यह है कि यह जिस पैमाने पर फैल रहा है, उससे खेती की जमीन कम हो रही है। इसके पत्‍तों, टहनियों और फूलों में दुर्गण ही दुर्गण हैं। इसमें जो रासायनिक तत्‍व पाए जाते हैं, वे हैं- लेंटाडीन ए और बी, ट्राइटर्पीन एसिड, डीहाइड्रो लेंटाडीन ए और इक्‍टरोजेनिन। ये सारे ही तत्‍व जहरीले हैं और प्रथम द्रष्‍टया नशा करते हैं, मनुष्‍यों में भी और जानवरों में भी। मनुष्‍यों में इनसे पीलिया, कब्‍ज, पाचन में कमी, भूख कम लगना, मुंह में अल्‍सर, म्‍यूकस मेंब्रेन में घाव जैसी बीमारियां होती हैं। मुख्‍य बात यह है कि ये बीमारियां तत्‍काल नहीं दिखाई देतीं, धीमे जहर की तरह से रुक-रुक कर हमला करती हैं। वनस्‍पतियों के लिए यह और भी घातक है क्‍योंकि यह अपने आपपास और किसी वनस्‍पति को फटकने नहीं देता। हजारों स्‍वदेशी वनस्‍पति प्रजातियों को यह नष्‍ट कर चुका है। आम जनता इसके दुष्‍परिणामों को नहीं जानती। आजकल किसान इसकी झाडि़यों को काटकर टमाटर के खेतों में डाल रहे हैं, ताकि टमाटर के पौंधे इनके ऊपर पसर सकें। लेकिन टमाटरों में भी इनके जहर न फैल रहे हों, इसकी क्‍या गारंटी है।

यही हाल कांग्रेस ग्रास या गाजरघास का है। यह भी लेंटाना की ही तरह एक साम्राज्‍यवादी पौंधा है, जो बहुत तेजी के साथ, नए शहरों, नई बस्तियों में अपनी जड़ें फैला रहा है। विदेशों में तो जहां इसके पौंधे होते हैं, वहां खतरे के साइन बोर्ड लगे होते हैं। देश का शायद ही कोई कोना इससे बचा हो। इंटरनेट पर इसके बारे में पढ़ा तो पता चला कि यह पहाड़ों को छोड़ कर सब जगह होता है, लेकिन पिछले दिनों टिहरी, उत्‍तरकाशी के मार्ग में भी यह इफरात में दिखा तो हैरानी हुई। आम घारणा यह है कि यह पचास और साठ के दशक में अमेरिका से पीएल 480 के तहत आयातित गेहूं के साथ आया लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी ने इसका खंडन किया और बताया कि इससे पहले भी यह भारत में था। खैर इससे त्‍वचा रोग, खांसी, दमा, आंखों में सूजन, मुंह और नाक की झिल्लियों में सूजन, खुजली, छींक, तालु में खुजली जैसी अनेक अलर्जिक बीमारियां होती हैं। अग्रज पत्रकार केशवानंद ममगाईं की मृत्‍यु इसी वजह से हुई। उनके चेहरे पर तांबई पपड़ी जम गई थी। सचमुच इसकी एलर्जी के साथ जीना बेहद कष्‍टदायक है। इसलिए हेल्‍थ और पर्यावरण की अंतरराष्‍ट्रीय बहसों में उलझे पर्यावरणविदों से अनुरोध है कि वे इन धीमे जहर फैलाने वाले पौंधों के खिलाफ भी कुछ कदम उठाएं। सरकारों से तो कोई आशा करना ही निरर्थक है।