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मंगलवार, 24 मई 2016

आत्मसम्मान बनाम मानहानि

मीडिया कानून/ गोविन्द सिंह
देश की सर्वोच्च अदालत ने आपराधिक मानहानि क़ानून को बरकरार रख कर जहां एक तरफ बड़बोले नेताओं को किसी के भी खिलाफ निराधार आरोप लगाने से हतोत्साहित किया है, वहीं अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों को भी निराश किया है. हालांकि दोनों के सन्दर्भ और मकसद अलग-अलग हैं फिर भी आज के अराजक होते राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह फैसला उचित ही जान पड़ता है.
हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने और अपने प्रतिद्वंद्वियों से निबटने के लिए नेता गण कुछ भी अनर्गल आरोप लगा देते हैं. इससे न सिर्फ अगले का राजनीतिक करियर चौपट हो सकता है अपितु जीवन भी खतरे में पद सकता है. यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है. संयोग से हमारे समय के तीन सर्वाधिक मुखर राजनेता अरविन्द केजरीवाल, सुब्रह्मण्य स्वामी और राहुल गांधी ने सर्वोच्च अदालत के समक्ष ये गुहार लगाई थी कि ‘मानहानि सिद्ध होने पर उन्हें सिर्फ जुर्माना किया जाए। सजा न दी जाए। मानहानि को अपराध न माना जाए’। यह बताने की जरूरत नहीं कि इन तीनों ही नेताओं के खिलाफ दिल्ली की निचली अदालतों में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बारे में अनाप-शनाप आरोप लगाने के लिए मुकदमे चल रहे हैं. चूंकि आरोप लगाते समय इन्होंने सोचा नहीं कि जो आरोप वे लगा रहे हैं, वह प्रमाणित किया भी जा सकता है या नहीं, इसलिए अब जब अदालत में आरोप सिद्ध करने में इन्हें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा रहे हैं कि उनकी सजा कम की जाए.
दरअसल अपने देश में, खासकर चुनाव के वक़्त राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कुछ भी आरोप लगाने की नेताओं को आदत-सी पड़ गयी है. पहले कुछ बडबोले और मसखरे किस्म के नेता ही इस तरह के आरोप लगाया करते थे, लिहाजा कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था. लेकिन गंभीर और संजीदा किस्म के या बड़े कद के नेता भी अब ऐसा करने लगे हैं. यह प्रवृत्ति राजनीति से होकर समाज के निचले गलियारों तक पहुँचने लगी है. इस तरह यह एक गंभीर बीमारी का रूप धारण कर रही है. यह उसी तरह से है, जैसे महाभारत युद्ध के दौरान अगर कोई मामूली सैनिक ‘अश्वत्थामा हतः...’ कहता तो शायद गुरु द्रोणाचार्य नहीं मानते, लेकिन जब दबे स्वर में ही सही, युधिष्ठिर ने यह बात कही तो द्रोण ने मान लिया कि उनका पुत्र मारा गया है. नतीजा उनकी अपनी मौत. जब जिम्मेदार नेता अपने विरोधियों के खिलाफ झूठे, निराधार और दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाते हैं तो जनता सहज ही उन पर विश्वास कर लेती है, प्रचार माध्यम भी बिना आरोपों की तस्दीक किये प्रकाशित-प्रसारित कर देते हैं. इस आलोक में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य है. कम से कम इससे बडबोले नेताओं की जबान पर तो लगाम लगेगी.
दूसरा पक्ष अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर लोगों का है, जो चाहते हैं कि अभिव्यक्ति पर किसी तरह की लगाम न लगे. यह विश्वव्यापी अभियान का हिस्सा है. दुनिया भर में मानहानि को क़ानून के दायरे से बाहर करने की मुहिम चली हुई है. इन्टरनेट पर अपने मन की भड़ास निकालने वाले लोग इसकी अगुवाई कर रहे हैं. गत वर्ष भारत में सूचना प्रौद्योगिकी की धारा 66-ए को समाप्त करवाकर इन्होंने एक बड़ी लड़ाई जीती है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी चाहता है कि मानहानि क़ानून समाप्त हो या कम से कम इसकी धार कुछ कुंद की जाए. क्योंकि नेताओं, नौकरशाहों और सरकारों के खिलाफ बोलने वालों पर ही नहीं, बोले हुए को छापने वाले मीडिया पर भी खतरा मंडराता रहता है. हालांकि मानहानि का सम्बन्ध हर किसी से है, लेकिन निशाना तो अंततः प्रेस को ही बनाया जाता है. वर्ष 1987-88 में जब देश में बोफोर्स दलाली काण्ड की आग लगी हुई थी, राजीव गांधी से इंडियन एक्सप्रेस में रोज दस सवाल पूछे जा रहे थे, तब राजीव गांधी की सरकार मानहानि विधेयक-1988 लेकर आयी थी, जिसके खिलाफ देश भर का मीडिया लामबंद हो गया था. वह विधेयक सचमुच प्रेस के प्रति अत्यंत क्रूर था. सरकार के घोर समर्थक मीडिया घराने भी इस विधेयक के विरोध में आ खड़े हुए. तब एक स्वर से तमाम विपक्षी दलों और मीडिया ने कहा था कि जब हमारे पास भारतीय दंड संहिता में पहले ही मानहानि क़ानून मौजूद है तो संविधान संशोधन की क्या जरूरत है? अंततः राजीव गांधी को वह विधेयक वापस लेना पड़ा. इससे पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल में भी कुछ ऐसे ही प्रावधान थे, जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस पर नकेल लगाने की कोशिश की थी. उसका भी देश भर में विरोध हुआ था. और तब जाकर वह बिल भी वापस लिया गया था. यानी जब-जब प्रेस को निशाना बनाकर उस पर नकेल कसने की कोशिश की गयी, तब-तब देश की जनता ने, समूचे प्रेस ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया था.
भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 को अमूमन उतना क्रूर नहीं माना जाता. धारा 499 में मानहानि का अर्थ स्पष्ट किया गया है तो धारा 500 में मानहानि करने पर दंड का प्रावधान है. 499 के मुताबिक़ दुर्भावना के साथ बोले गए या लिखे गए शब्दों या चित्रों या संकेतों द्वारा लांछन लगाकर किसी व्यक्ति की इज्जत या ख्याति पर हमला किया जाता है और उससे उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर बुरा असर पड़ता है, तब मानहानि होती है, जो विधिक तौर पर दंडनीय अपराध है. लेकिन जब यही आरोप लोक हित को ध्यान में रख कर या सद्भावना के साथ लगाया जाता है, तो वह मानहानि के दायरे में नहीं आता. यदि किसी व्यक्ति का अपराध साबित हो जाता है, उसे दो वर्ष की सजा का प्रावधान है.

अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि लार्ड मैकाले के इस औपनिवेशिक क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए. यह बात सही है कि ये क़ानून अंग्रेज़ी हुकूमत की रक्षा के लिए बनाए गए थे. तब इन कानूनों का जमकर इस्तेमाल भी होता था. आजादी के बाद भी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने इसे ढाल की तरह इस्तेमाल किया था. व्यक्तियों के खिलाफ भी और प्रेस के खिलाफ भी. दूर क्यों जाएँ, स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता में आते ही मीडिया को इन कानूनों की घुडकी दिखाई थी. वह बात अलग है कि जल्दी ही वे संभल गए और आदेश वापस लिया. यानी सत्ता में बैठा व्यक्ति किसी क़ानून का कैसा इस्तेमाल करेगा, कहना मुश्किल है. लेकिन जैसा कि सर्वोच्च अदालत का कहना है, केवल इस आशंका पर किसी को भी किसी के आत्मसम्मान पर हमला करने का अधिकार नहीं मिल जाता. यह ठीक है कि यह औपनिवेशिक युग का क़ानून है. लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक़ आत्म-प्रतिष्ठा भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. व्यक्ति के आत्मसम्मान को बचाए रखना भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के समान ही महत्वपूर्ण है. इसलिए बेलगाम होते लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए कुछ न कुछ प्रावधान तो होना ही चाहिए. (अमर उजाला, 24 मई, २०१६ को प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप)            

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता की संभावनाएं

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पत्रकारिता निरंतर अपना चोला बदल रही है. उसके अनेक रूप चलन में हैं. ऊपर से शुरू करें तो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता, राष्ट्रीय पत्रकारिता, प्रादेशिक पत्रकारिता, क्षेत्रीय पत्रकारिता, जनपदीय पत्रकारिता, स्थानीय पत्रकारिता, अति स्थानीय पत्रकारिता, सामुदायिक पत्रकारिता और नागरिक पत्रकारिता. सोशल मीडिया उसका एक और रूप है, जो पत्रकारिता है भी और नहीं भी. लेकिन पत्रकारिता की जब हम बात करते हैं तो उसके साथ कुछ मानदंड स्वतः जुड़ जाते हैं. बिना आचार संहिता या पत्रकारीय नैतिकता या पत्रकारीय मूल्यों के उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. पत्रकारिता में समाज-हित का भाव अन्तर्निहित रहता है. बिना व्यापक हित के उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः पत्रकारिता के जिन रूपों का ऊपर जिक्र किया गया है, उन सबमें एक समानता यह है कि सबका लक्ष समाझ-हित होना चाहिए.
भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हमारी पत्रकारिता एकदम मिशनरी हो गयी थी. उसका ध्येय पैसा कमाना बिलकुल नहीं था. उसका एक ही ध्येय था- देश की आजादी. जो भी अखबार निकल रहे थे, अंग्रेजों के पिट्ठुओं को छोड़ दें तो, वे सब आज़ादी के विराट लक्ष के लिए ही निकल रहे थे. एक तरफ गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ जैसे अखबार थे तो दूसरी तरफ तिलक का ‘केसरी’ अखबार भी था. गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ था तो माखनलाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’ भी था. बड़े राष्ट्रीय दैनिकों में अमृत बाज़ार पत्रिका, लीडर और ट्रिब्यून जैसे अखबार भी थे, जो राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे. हालांकि अंग्रेज़ी के ज्यादातर बड़े अखबार अंग्रेजों के पिट्ठू थे. यदि छोटे शहरों से निकलने वाले पत्रों को टटोलें तो भी संख्या कम नहीं थी. अल्मोड़ा से निकलने वाले ‘शक्ति’, कोटद्वार से निकलने वाले ‘कर्मभूमि,’ देहरादून से निकलने वाले ‘गढ़वाली’ जैसे पत्र सामने आते हैं, जिनके भीतर राष्ट्रीय भावनाएं कूट-कूट कर भरी रहती थीं. छोटे-छोटे शहरों से निकलने वाले साप्ताहिक भी अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेते थे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी प्रतिष्ठा थी.
आज पत्रकारिता पेशा बन गई है. हालांकि उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन पेशा जब पेशेवर मूल्यों को ताक पर रख कर विशुद्ध मुनाफे तक सीमित हो जाता है तो वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है. यद्यपि पेशेवर मूल्यों के साथ मुनाफा कमाते हुए भी अच्छी पत्रकारिता की जा सकती है, बशर्ते कि समाज-हित के भाव को हमेशा ध्यान में रखा जाए.
अब स्थानीय पत्रकारिता की बात करें. स्थानीय अखबार आज भी कम नहीं हैं. लेकिन आजादी से पहले के स्थानीय पत्रों और आज के स्थानीय पत्रों के फर्क को आप स्वयं ही समझ सकते हैं. आज भी हर कसबे से अखबार निकल रहे हैं. लेकिन कितने अखबारों को शहर से बाहर के लोग जानते हैं?  वर्ष १८७१ में प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार’ को हम आज भी उसकी सत्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए याद करते हैं लेकिन क्या आज कोई लघु पत्र-पत्रिका है, जिसे हम उसकी सच्ची पत्रकारिता के लिए याद रखें. ऐसे पत्र अँगुलियों में गिने जा सकते हैं. आज छोटे शहरों और कस्बों से अन्धान्धुन्ध अखबार और पत्रिकाएं निकल रही हैं. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अकेले उत्तराखंड में ही ३००० से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं. कितने ही अखबार डीएवीपी से बाकायदा विज्ञापन भी लेते हैं. राज्य सरकार के विज्ञापन भी उन्हें मिलते हैं. लेकिन उनमें से कितने अखबार अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादातर अखबार ब्लैकमेलिंग के नापाक धंधे में लगे रहते हैं, जिससे स्थानीय पत्रकारिता निरंतर बदनाम हो रही है. 
आज उत्तराखंड में जो स्थानीय पत्रकारिता है, वह दरअसल राष्ट्रीय अखबारों की स्थानीय पत्रकारिता है. इन अखबारों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर होती है भलेही वे कितने ही स्थानीय दिखें. इन पत्रों ने लगभग हर कसबे में अपने स्ट्रिंगर रख लिए हैं. वे वहाँ की खबरों को रोज अपने जिला कार्यालय में पहुंचाते हैं और वहाँ से खबरें अखबार के प्रकाशन केंद्र तक पहुँचती हैं. जो खबरें मतलब की होती हैं, उन्हें अखबार के पन्नों पर स्थान मिलता है. वरना रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं. हर जिले के अलग-अलग संस्करण होने से अनेक बार अच्छी खबरें भी एक जिले की सीमा में ही रह जाती हैं. इस वजह से इनकी बड़ी आलोचना हो रही है. फिर इन अखबारों की अपनी सम्पादकीय नीति होती है. कोई अखबार किसी दल का समर्थक होता है तो कोई दूसरे दल का. किसी की नीति सकारात्मक खबरें छापने की होती है तो किसी की दिलचस्पी नकारात्मक खबरें छापने में. चूंकि ये अखबार बहु-संस्करण वाले होते हैं, इसलिए इनके मुख्यालय राजधानी दिल्ली में हैं. वहीं से उनकी नीति निर्धारित होती है. एक दिक्कत और है कि इन अखबारों के फीचर और सम्पादकीय पृष्ठ मुख्यालय में ही बनते हैं. समस्त संस्करणों में एक ही सम्पादकीय और फीचर छपते हैं. इस तरह छोटे शहरों की वैचारिक और सृजनात्मक प्रतिभा को उसमें स्थान नहीं मिल पाता. खबरें तो बहुत छपती हैं, लेकिन लेख और फीचर स्थानीय नहीं छपते. आज की तारीख में ज्यादातर अखबारों के फीचर विभाग अखबार के मार्केटिंग विभाग के साथ निकट तालमेल बनाकर छापे जाते हैं. इसलिए उनके विषय स्थानीय जरूरतों के साथ मेल नहीं खाते. पुराने जमाने में अखबार की खबरों के साथ-साथ लेख और फीचर भी स्थानीय ही छपते थे. स्थानीय रचनाकारों को भी जगह मिलती थी. लिहाजा स्थानीय विचार और सृजनात्मकता को उचित स्थान मिल जाता था. इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बनती थी. जबकि आज की स्थानीय पत्रकारिता वास्तव में मुनाफे के लिए है, न कि स्थानीयता को अभिव्यक्ति देने ले लिए.           
इसलिए आज सच्चे अर्थों में स्थानीय पत्रकारिता की जरूरत पहले की तुलना में कहीं अधिक है. दुनिया भर में स्थानीय पत्रकारिता चल रही है. पत्रकारिता के जिन रूपों की बात हमने आरम्भ में की है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. एक कसबे की समस्या को वहीं के लेखक-पत्रकार बेहतर समझ सकते हैं. उन समस्याओं को हल करने में स्थानीय प्रकाशकों की ही दिलचस्पी भी होती है. दूर बैठे पत्र-स्वामी को क्या मतलब कि खटीमा या कोटद्वार में क्या हो रहा है या क्या होना चाहिए. यह तो वही पत्र-स्वामी बेहतर जानता है, जो रोज-ब-रोज उन समस्याओं से जूझ रहा हो. दुनिया में आज स्थानीय पत्रों और वेबसाइटों का जोर है. वे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों को मात दे रहे हैं. अब उन्हें विज्ञापन भी मिलने लगा है. उनकी अर्थव्यस्था भी बेहतर हो रही है. एक बात और. अक्सर दूर बैठे सम्पादक को स्थानीय समस्या का भान नहीं होता. वह समझ ही नहीं सकता कि एक छोटे शहर की क्या जरूरतें हैं. मिसाल के लिए किच्छा के एक गाँव में एक किसान की भैंस मर गयी. बड़े शहर में बैठा सम्पादक इस तरह की खबर देखते ही उपहास करने लगेगा, जबकि उस गाँव के किसान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भैंस पर ही निर्भर है. इसलिए स्थानीय पत्रकारिता को गहराई के साथ समझने की जरूरत है.
हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे हिन्दी प्रदेश के अंदरूनी हलकों में घुसने लगी है. आज भी उसमें अनंत संभावनाएं हैं. जरूरत यह है कि उसे ईमानदारी के साथ किया जाए. स्थानीय समस्याओं को उठाया जाए, स्थानीय लेखक तैयार किये जाएँ, स्थानीय गतिविधियों को स्थान मिले, स्थानीय प्रतिभाओं को मंच मिले और इसके जरिये स्थानीय लोग अपने इलाके को ऊपर उठाने का संकल्प लें. किसी भी अखबार के बने रहने की यह जरूरी शर्त है. (‘खटीमा दीप’ पाक्षिक के प्रवेशांक में, एक जनवरी, २०१६ को प्रकाशित)    

मंगलवार, 23 जून 2015

पत्रकार क्यों बेमौत मारे जा रहे हैं?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
शाहजहांपुर में जिस तरह से जगेन्द्र सिंह नाम के स्वतंत्र पत्रकार की आग लगाकर कथित हत्या की गयी, उसने एक बार फिर भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अग्र-पंक्ति में लाकर रख दिया है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 में से 136वें पायदान पर है. इस सूची में हम बहुत-से गरीब अफ्रीकी देशों और नेपाल जैसे पड़ोसी देश से पीछे हैं. हाँ, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जरूर हमसे भी पीछे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के लिए यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. 
प्रेस की आजादी और मानवाधिकारों की निगरानी रखने वाली दुनिया भर की संस्थाओं ने जगेन्द्र की हत्या की भर्त्सना की है और मामले की निष्पक्ष जांच करवाने की अपील की है. लेकिन निष्पक्ष जांच कहाँ से होगी! बल्कि खबर यह भी आ रही है कि एक और पत्रकार धीरज पांडे को सत्ता पक्ष के एक अन्य नेता द्वारा जबरदस्त यातना देने के बाद राजधानी लखनऊ के अस्पताल में भरती कराना पडा है. पीलीभीत में एक पत्रकार को घसीट-घसीट कर पीता गया. इधर मध्य प्रदेश में भी एक और पत्रकार संदीप कोठारी को भी मारा गया है. जिस ढिलाई के साथ उत्तर प्रदेश सरकार जगेन्द्र मामले को ले रही है और मुख्य आरोपी के खिलाफ कोई कदम उठाने में हिचक रही है, उससे हमारी क़ानून-व्यवस्था, राजनीति और राजनेताओं के इरादों पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगता है. जब देश और दुनिया भर में इस मामले में पत्रकार और मानवाधिकार संगठन लामबंद होने लगे तो सरकार ने जगेन्द्र के परिजनों को कुछ धन और नौकरी देने का आश्वासन देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है. लेकिन असल बात यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में पत्रकारों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है. उन पर हमले बढ़ रहे हैं.  
आखिर क्यों ऐसा हो रहा है? क्यों छोटे शहरों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है? पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं? इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों के अलावा पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, पत्र-स्वामियों को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचना-विचारना होगा. इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमय हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब यह बहुत ही आम-फहम हो गया है. हाल के वर्षों में पत्रकारों के प्रति घृणा-भाव में बेतहाशा वृद्धि हुई है. पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खडा रहता था. सम्पादक स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे. पत्रकार-संगठन और ट्रेड यूनियनें हमेशा पीछे खड़ी रहती थीं. पत्र-स्वामी स्वयं भी जुझारू हुआ करते थे. पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में डटे रहते थे. सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे. जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर कोई संकट आता था, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खडा हो जाता था.
लेकिन आज पत्रकार पिट रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं. यदि थोड़ा-सा भी समाज का भय होता तो क्या जगेन्द्र को इस तरह से जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेन्द्र तो किसी अखबार से भी सम्बद्ध नहीं था! फिर भी इतनी असहिष्णुता? वास्तव में हमारे समाज से सहिष्णुता लगातार कम हो रही है. सत्ता-केन्द्रों पर बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते. सत्य की दुर्बल से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं. जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सचाई उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य इस बात का भी है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का अन्तःस्खलन भी कम नहीं हुआ है. पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलाल उतर आये हैं. उन की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है. ऐसे व्यापारी इस क्षेत्र में कदम रख रहे हैं, जिनके पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. पत्रकारिता का कोई मकसद उनके पास नहीं है. वे अपने काले धंधों को सफ़ेद करने के लिए पत्रकारिता को ढाल की तरह से इस्तेमाल करते हैं. पत्रकारिता के जरिये अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभागों के खिलाफ ब्लैकमेल करते हैं. वे कुछ दिन तक तो पत्रकारों को नौकरी पर रखते हैं, उसके बाद उन्हें नौकरी से हटा देते हैं. समाज में थोड़ी-सी छवि बनते ही वे दलालों को भरती करने लगते हैं या फिर बहुत कम मेहनताने पर पत्रकारों को नियोजित करते हैं, ताकि पत्रकार खुद ही ब्लैकमेलिंग के दुष्चक्र में फँस जाएँ. ऐसे पत्रकारों का समाज में क्या आदर होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. 
इसलिए समाज में अमूमन पत्रकारों के प्रति आदर घटता जा रहा है. कुछ साल पहले पटना में हमारे बहुत अच्छे मित्र एन डी टी वी के संवाददाता प्रकाश सिंह की भी बेमतलब पिटाई हो गयी थी. जबकि उनकी कोई गलती थी ही नहीं. चूंकि राजनेता पत्रकारों से खफा था, वह किसी एक पत्रकार को पीटकर यह सन्देश देना चाहता था कि वह ऐसा भी कर सकता है, इसलिए जो भी पत्रकार हाथ आ गया उसके साथ बदतमीजी कर ली गयी. मेरे एक मित्र दिल्ली के बड़े चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं, वे कहते हैं, एक दिन आयेगा जब समाज हमें चुन-चुन कर पीटेगा, लोग दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे. जब पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर पढ़ाने आया तो शुरू में तो लोग स्वागत करते, लेकिन बाद में पूछते कि आखिर इस पेशे का ये हाल क्यों ऐसा हो गया? क्यों ऐसे लोग पत्रकार बनने लगे हैं? अकसर लोग यह पूछते हैं कि क्या इस पेशे में प्रशिक्षण की कोइ व्यवस्था नहीं है? कोई शिकायत करता कि इस पेशे के लोग इतने बदजुबान क्यों हो गए हैं? जबकि आज से तीन दशक पहले जब हम पत्रकारिता में आये थे, तो लोग इस पेशे को बहुत इज्जत देते थे. उनके लिखे को ध्यान से पढ़ा जाता था. आज एकदम उलट हो गया है. जब प्रेस परिषद् के अध्यक्ष काटजू साहब ने कहा था कि इस पेशे के लिए भी योग्यता तय होनी चाहिए, तो लगा था कि इसमें गलत क्या है! यही वजह है कि अब किसी पत्रकार को पिटता हुआ देख कर कोई बचाने नहीं आता. यह स्थिति लगातार बिगडती जा रही है. बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही है. जबकि यही हिन्दी पत्रकारिता की आधारभूमि है. इसे बचाया जाना चाहिए.

(हिन्दुस्तान, १६ जून, २०१५ में छपे लेख का विस्तारित रूप.)           

बुधवार, 17 जून 2015

ड्रोन: पत्रकार का नया औजार

मीडिया/ गोविन्द सिंह
जब भी पत्रकार शब्द सामने आता है, एक छवि मानस पटल पर उभरती है, कुरता-पाजामा और चप्पल पहने एक व्यक्ति की, जिसने मोटा चश्मा पहन रखा है, दाढ़ी बढ़ी हुई है. कंधे में झोला है जिसमें डायरी, टेप रिकॉर्डर, कैमरा और कलम आदि हैं. यह पत्रकार की पारंपरिक छवि है, जिसमें हाल के वर्षों में बड़ी तेजी से परिवर्तन आया है. सबसे बड़ा परिवर्तन उसके औजारों में आया है. कागज़-कलम या झोले की जगह अब लैपटॉप, स्मार्ट फोन और अत्याधुनिक गैजेटों ने ले ली है. टेलीविजन पत्रकारिता में निस्संदेह टेक्नोलोजी पत्रकार पर हावी रहती है. नए गैजेटों और टेक्नोलोजी के बिना किसी टीवी रिपोर्टर की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. टीवी में शब्दों की बजाय चित्रों का महत्व ज्यादा होता है, लिहाजा किसी भी संस्थान की पूरी ताकत सबसे पहले बेहतरीन और बेजोड़ चित्र जुटाने में लगती है. पत्रकार के औजारों में जल्द ही एक नया औजार जुड़ने जा रहा है, वह है, ड्रोन यान. यानी एक ऐसा लघु विमान जो मुश्किल से मुश्किल जगह से दृश्यों को क़ैद करके ले आये. खबर और विजुअल जुटाने के लिए अमेरिका में इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है. भारत में भी पिछले साल के आम चुनावों में इसका सीमित प्रयोग हो चुका है, लेकिन वास्तव में ड्रोन के उपयोग को लेकर दुनिया भर में विवाद भी खड़े हो रहे हैं कि कहीं इससे लोगों की निजता का हनन तो नहीं हो रहा? अमेरिका में संघीय विमानन प्रशासन इसके लिए नया क़ानून बनाने में जुटा है तो पत्रकारिता संस्थान और बड़े मीडिया घराने इसके लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की तैयारियों में जुट गए हैं.            
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान एक मुद्दा यह भी था कि अमेरिका ड्रोन प्रौद्योगिकी भारत को दे. फिलहाल कुछ भारतीय कम्पनियां अमेरिका से ड्रोन यान सीधे आयात कर रहे हैं, लेकिन टेक्नोलोजी भी आ जाए तो यहीं ड्रोन बनने लग जायेंगे. इस तरह अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है. फिल्म और मीडिया व्यवसाय के लिए खबरें और तस्वीरें जुटाने का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमे ड्रोन की मदद से जबरदस्त बदलाव आ सकता है. कहा जा रहा है कि ड्रोन प्रौद्योगिकी के जरिये जोखिम भरी घटनाओं की फील्ड रिपोर्टिंग में आमूल परिवर्तन आ जाएगा. कितनी दिलचस्प बात है कि जिस ड्रोन टेक्नोलोजी को हम वजीरिस्तान के उग्रवाद बहुल क्षेत्रों में बम और मिसाइल गिराने वाले ड्रोन विमानों के रूप में  जानते रहे हैं, वही टेक्नोलोजी हमें समाचार संकलन में मदद पहुंचाएगी! लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती है. जैसा कि मार्शल मैक्लुहान ने कहा है, माध्यम ही सन्देश है, तो ड्रोन जब खबर लाने का काम करेगा तो खबर का चरित्र भी बदलेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. इसके साथ ही ढेर सारे नैतिक प्रश्न भी जुड़े हैं. अमेरिकी लोग पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं कि ड्रोन की पत्रकारिता उसकी शुचिता को बचाए रखते हुए खबर-संकलन करेगी भी या नहीं!
अमेरिका में चार राज्यों ने रिपोर्टिंग के लिए ड्रोन के उपयोग पर प्रतिबन्ध लग दिया है. 39 राज्य इस पर अब भी विचार कर रहे हैं. लेकिन व्यावसायिक उपयोग वाला ड्रोन अभी बाजार में आया भी नहीं कि कई बड़ी मीडिया कंपनियों ने ड्रोन खरीदने और अपनाने की घोषणा कर डाली है. दुनिया में पेशेवर पत्रकारिता सिखाने वाले सबसे पुराने मिसौरी विश्वविद्यालय ने ड्रोन पत्रकारिता का पाठ्यक्रम शुरू कर दिया है, पत्रकारों की ट्रेनिंग शुरू हो गयी है. नेब्रास्का विश्वविद्यालय के लिंकन पत्रकारिता कालेज में ड्रोन पत्रकारिता की लैब बन गयी है. वहाँ छात्र ड्रोन के प्लेटफार्म तैयार कर रहे हैं. अमेरिका में ड्रोन पत्रकारों की पेशेवर संस्था भी अस्तित्व में आ चुकी है और तेजी से लोकप्रिय भी हो रही है.
ड्रोन टेक्नोलोजी पर आधारित लघु यान कमर्शियल उपयोग के लिए तैयार हो गए हैं. ओबामा सरकार ने संघीय विमानन प्रशासन को 2015 के अंत तक इसके लिए नियम-क़ानून बनाने को कह दिया है. कहा जा रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब अमेरिकी आकाश में लगभग 30 हजार ड्रोन उड़ान भर रहे होंगे! इनके जरिये जासूसी, फोटोग्राफी, रिपोर्टिंग, फिल्म निर्माण, हवाई सर्वेक्षण, आपदाग्रस्त इलाकों का सर्वेक्षण, खोज एवं बचाव कार्य, वन्यप्राणियों की गणना, फसलों का सर्वेक्षण, जंगल की आग का सर्वेक्षण, सुदूर और दुर्गम इलाकों तक चिकित्सकीय सुविधा पहुँचाने जैसे काम किये जा सकते हैं. जहां तक रिपोर्टिंग का सवाल है, दंगा-फसाद हो या युद्ध, प्राकृतिक आपदा हो या हिंसक प्रदर्शन या फिर स्टिंग ऑपरेशन, ये तमाम काम ड्रोन के कैमरों के जरिये बहुत ही प्रामाणिक अंदाज में हो सकते हैं. अब यह टेक्नोलोजी काफी सस्ती भी हो गयी है. जहां आपको एक हेलीकोप्टर के एक घंटे के 1500 डॉलर देने पड़ते थे, वहाँ 1000 डॉलर में पूरा ड्रोन ही आ जा रहा है. असल में ड्रोन का नाम चाहे जितना बदनाम हो, यह एक इंटेलीजेंट मशीन है, जो रिमोट से परिचालित होती है, एकदम सटीक जीपीएस सिस्टम से लैस होने से यह अचूक भी है और सबसे बड़ी बात, बिना आदमी के उडती है. यानी आदमी की जान को कोई ख़तरा भी नहीं. कहा जा रहा है कि ये पत्रकारिता के जोखिम भरे पेशे के लिए वरदान साबित हो सकता है. इसीलिए अमेरिका में लोग इसे उत्सुकता भरी निगाह से देख रहे हैं. एक बार पश्चिम में आ गया तो फिर भारत आते देर नहीं लगेगी. लेकिन असली सवाल यह है कि इससे पत्रकारिता के पवित्र उसूलों को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए.
भारत प्रतिरक्षा उपयोग के लिए तो ड्रोन खूब खरीदता रहा है, लेकिन अभी तक पेशेवर कामों के लिए ख़ास प्रोत्साहन नहीं दिया गया है. भारत का नागरिक विमानन महानिदेशालय भी पेशेवर ड्रोन के उपयोग हेतु दिशा-निर्देश तैयार कर रहा है ताकि  इसका दुरुपयोग न हो. हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है की हम बिना सोचे-समझे, बिना आधारभूमि तैयार किये किसी भी नई चीज को अपना लेते हैं. यह नहीं देखते कि उसका क्या प्रभाव हमारी परिस्थितियों पर पड़ेगा. किसी और देश की परीक्षित चीज को ज्यों का त्यों अपनाना ठीक नहीं है. इसलिए ड्रोन के दुरुपयोग को रोकने और उसके दुष्प्रभावों से खुद को मुक्त रखने के लिए यह जरूरी है कि ड्रोन को लेकर पूरी तैयारी कर ली जाए. जरूरी यह भी है कि हमारे मीडिया घरानों और पत्रकारिता संस्थानों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए क्योंकि ड्रोन से कुल नफ़ा-नुक्सान जो भी होना है, वह भारतीय पत्रकारिता को ही होना है.  (अमर उजाला, १४ जून, २०१५  में प्रकाशित लेख का असंपादित रूप.) 

रविवार, 18 जनवरी 2015

कहाँ गए हमारे कार्टून?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
के शंकर पिल्लै
कार्टून पर हमले भलेही यूरोपीय देशों में हो रहे हों, लेकिन अपने देश में वह पहले ही मरणासन्न हालत में है. साढ़े तीन दशक पहले जब हमने पत्रकारिता में कदम रखा था तब लगभग हर अखबार में कार्टून छपा करते थे, उन पर चर्चा हुआ करती थी, नामी कार्टूनिस्ट हुआ करते थे. हिन्दी अखबार, जिनकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी, वहाँ भी दो-दो कार्टूनिस्ट होते थे. अस्सी के दशक में नवभारत टाइम्स में दो कार्टूनिस्ट थे. एक दिल्ली में और एक मुंबई में. सैमुएल और कदम. तभी सुधीर तैलंग भी आ गए. इस तरह तीन हो गए. बाद में दिल्ली संस्करण में दो कार्टूनिस्ट हो गए थे, काक और सुधीर तैलंग. यही नहीं लखनऊ से नया संस्करण शुरू हुआ तो वहाँ भी एक कार्टूनिस्ट रखे गए थे, इरफ़ान. बाक़ी अखबारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी. जनसत्ता शुरू हुआ तो वहाँ भी काक और राजेन्द्र नियुक्त हुए. यानी कार्टूनिस्ट के बिना अखबार की कल्पना नहीं की जा सकती थी. आज नवभारत टाइम्स में एक भी कार्टूनिस्ट नहीं है. अन्य अखबारों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. कहीं फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट से काम चलाया जा रहा है तो कहीं पार्ट टाइम कार्टूनिस्ट हैं. कहीं उनसे अतिरिक्त काम लिया जाता है तो कहीं उन्हें रेखांकन और रेखाचित्र बनाने को कहा जाता है. अंग्रेज़ी अखबारों में भी कोई कद्दावर कार्टूनिस्ट नहीं दिखाई पड़ता.
आर के लक्ष्मण
एक ज़माना था, जब इसी देश में शंकर पिल्लई जैसे कार्टूनिस्ट थे, आरके लक्ष्मण थे, अबू अब्राहम, मारियो मिरांडा थे, सुधीर दर थे, कुट्टी थे, रंगा थे. सुधीर तैलंग अब भी हैं, लेकिन शायद किसी बड़े अखबार को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रही. अन्य अखबारों में भी कार्टूनिस्ट हैं, लेकिन अब वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाते जहां शंकर या आरके लक्ष्मण पहुँच पाए थे. अजीत नैनन, रविशंकर, केशव, सुरेन्द्र, उन्नी, राजेन्द्र धोड़पकर, जगजीत राणा, शेखर गुरेरा, पवन और असीम त्रिवेदी जैसे कार्टूनिस्ट हैं, पर वे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं या कहिए किसी तरह मशाल जलाए हुए हैं. पहले कार्टूनिस्ट का दर्जा भी वरिष्ठ संपादकों के बराबर ही होता था. लक्ष्मण का दर्जा प्रधान सम्पादक के लगभग बराबर था. स्थानीय सम्पादक से ऊपर तो था ही. सम्पादकीय विभाग में वह एक स्वायत्त इकाई थे. शंकर के कार्टूनों से तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू प्रभावित थे.      
दो दशक पहले तक अखबारों के पहले पेज पर तीन-चार कॉलम का एक बड़ा कार्टून छपता था, पॉकेट कार्टून होता था और अन्दर भी सम्पादकीय पेज या उसके सामने वाले पेज पर बड़ा कार्टून होता था. आज पॉकेट कार्टून ही नहीं बचा तो बड़े कार्टून की क्या बिसात! सम्पादकीय पेज पर कभी कभार कार्टून दिखता तो है, पर उसे किसी घटना पर स्वतःस्फूर्त बना कार्टून नहीं कहा जा सकता, वह महज लेख को सप्लीमेंट करने वाला स्केच बनकर रह जाता है. पॉकेट कार्टून की जगह सिंडिकेटेड कार्टून छप रहे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत हास्य होता है, करारा व्यंग्य तो नहीं ही होता. लक्ष्मण के बड़े कार्टून रोज-ब-रोज की घटनाओं पर तीखा प्रहार करते थे, साथ ही पॉकेट कार्टून भी आम आदमी के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारता था. ये कार्टून दिन भर की किसी खबर पर कार्टून के जरिये एक तीखी टिप्पणी किया करते थे. आर के लक्ष्मण ने एक बार कहा था, ‘परिस्थितियाँ इतनी खराब हैं कि यदि मैं कार्टून न बनाऊँ तो आत्महत्या कर लूं.’ इससे पता चलता है कि कार्टून कितना अपरिहार्य था. इनका महत्व सम्पादकीय के समान होता था. आज यह सब गायब है. पहले पेज पर से बड़े कार्टून को गायब हुए कितने ही साल हो गए हैं. हिन्दू को छोड़कर बहुत कम अखबारों में राजनीतिक कार्टून दीखते हैं.
आर के लक्ष्मण अपने महान चरित्र आम आदमी के साथ 
हालात देखकर वाकई लगता है कि यह दौर कार्टून के लिए ठीक नहीं है. ऐसा क्यों हुआ? इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में आए आर्थिक सुधारों के साथ ही हो गयी थी. अखबार के पन्नों पर से विचार की जगह लगातार सिमटती चली गयी. अखबारों का निगमीकरण शुरू हुआ. अखबार किसी एक पक्ष में खड़े नहीं दिखना चाहते थे. वे किसी से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे. फिर समाज से सहिष्णुता भी धीरे-धीरे कम होने लगी. राजनेता कार्टून को अपने ऊपर हमला मानने लगे. एक समय था, जब नेता इस बात पर खुश होते थे कि उन्हें कार्टून का विषय के तौर पर चुना गया. लक्ष्मण एक वाकया सुनाते हैं, १९६२ के युद्ध के बाद उन्होंने नेहरू का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून बनाया. उनसे भी ज्यादा मजाक उनके तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन का उड़ाया. कार्टून छापा तो सवेरे ही नेहरू का उन्हें फोन आया. लक्ष्मण डरे हुए थे कि पता नहीं प्रधान मंत्री कार्टून का बुरा ना मान गए हों. लेकिन दूसरी तरफ से आवाज आयी कि उनका कार्टून देखकर मजा आया. क्या लक्ष्मण उस कार्टून को अपने दस्तखत करके उन्हें उपहार में दे सकते हैं? लक्ष्मण बताते हैं कि वे गदगद हो गए. ऐसे ही सुधीर तैलंग बताते हैं कि एक बार उन्हें डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने फोन किया कि क्यों तैलंग ने छः महीने से उन पर कार्टून नहीं बनाया? क्या वे भारतीय राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं? काक साहब कहा करते थे कि हमारा सबसे पहला हमला अगले की नाक पर होता है. इस हमले को सहने की ताकत धीरे-धीरे हमारे नेताओं और हमारे समाज में कम होती जा रही है.
दरअसल कार्टून अत्यधिक शक्तिशाली होता है. कभी-कभी वह सम्पादकीय से भी ताकतवर होता है. कार्टून चूंकि एक तरह की बौद्धिक लड़ाई है, हमला है, इसलिए उसे झेल पाने की क्षमता भी कम होने लगी. पत्र-स्वामियों को लगा कि क्यों इस तरह का जोखिम लिया जाए. लिहाजा उन्होंने धीरे-धीरे कार्टून को बेदखल करना शुरू किया. उसकी जगह मनोरंजन ने ली. आज कार्टून अखबार से उठकर टीवी के परदे पर पहुँच रहा है तो इसीलिए कि मनोरंजन के रूप में उसकी कीमत बढ़ रही है.

 (आउटलुक , १६-३१ जनवरी, २०१५ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का मूल रूप)             

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

क्या सचमुच बहुरेंगे रेडियो के दिन?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
यों तो साल २०१४ में बहुत-सी बातें पहली बार हुईं, लेकिन मीडिया के क्षेत्र जो सबसे ज्यादा चोंकाने वाली बात हुई, वह थी, रेडियो को मिली अप्रत्याशित तवज्जो. जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो को अपने मन की बात कहने के माध्यम के रूप में चुना, उससे यह उम्मीद बंधी कि आने वाले दिनों में रेडियो के दिन बहुरेंगे. मोदी अब तक तीन बार रेडियो के जरिये अपने मन की बात कह चुके हैं. जल्द ही वे चौथी बार आकाशवाणी पर सुनाई पड़ेंगे और लगभग हर महीने-दो महीने में बतियाएंगे. इंदिरा गांधी के बाद शायद मोदी ही ऐसे राजनेता हैं, जिसने रेडियो की ताकत को पहचाना है और उसे अपने संदेशवाहक के रूप में चुना है.
शहरों में हमें यह लग सकता है कि रेडियो को अब सुनता ही कौन है, जो उसे प्रधान मंत्री ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. टीवी और अखबार आज भी गाँव-गाँव नहीं पहुँच पाए हैं. अखबार बमुश्किल देश की 30 प्रतिशत आबादी तक पहुंचा है तो टीवी की हालत भी इससे कुछ ही बेहतर है. जबकि रेडियो की पहुँच देश की 99 प्रतिशत आबादी तक है. गांवों में यह आज भी जनता की पहली पसंद है. फिर यह सबसे सस्ता है. हर महीने इसका कोइ किराया नहीं देना पड़ता. अब तो जेब में रखने लायक सेट भी आ गए हैं, लिहाजा इन्हें कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है. रेडियो का जाल देश भर में बिछा हुआ है ही. थोड़े-से प्रयास से ही आप दूर-दराज के गांववासियों, वनवासियों और गिरिवासियों तक पहुँच सकते हैं. मोदी ने यही देखा. वे देश के उन लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, जिन तक कोई और शासक नहीं पहुंच पाया था. सचमुच उन्हें इसमें कामयाबी भी मिली. रेडियो ने तो उनकी मन की बात सुनाई ही, अन्य निजी एफएम और टीवी चैनलों ने भी उसे सुनाया. फिर देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर मोदी की बात को आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से भी प्रसारित किया गया. छः बड़े शहरों में ही 66% आबादी ने उसे सुना. जबकि हम यह मान चुके थे कि शहरों में रेडियो ख़त्म हो गया है. उनकी बातों का असर भी जनता पर अच्छा-खासा रहा. उन्होंने खादी को अपनाने की बात कही तो खादी की बिक्री में 150% उछाल आ गया. यहाँ यह ध्यान में रकने वाली बात यह है कि मोदी तो प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उन्हें रेडियो पर सूना गया, टीवी वालों ने भी उसे सुनाया. शायद और लोगों की बात उतनी शिद्दत के साथ न सुनी जाए.
हैरत की बात यह है कि रेडियो के महत्व को क्यों हमारे शासकों ने नहीं समझा? क्यों उसकी इस कदर उपेक्षा की गई कि वह हमारे घरों से ही गायब हो गया? आज लगता है कि यदि रेडियो की तरफ थोड़ा भी ध्यान दिया गया होता तो आज वह बेहतर हाल में होता.
हालांकि हर नए माध्यम के आविष्कार के साथ पुराने माध्यम की चमक फीकी पड़ती है. लेकिन आम तौर पर यह तब होता है जब पुराने माध्यम की सारी की सारी खूबियाँ नया माध्यम अपना लेता है और पहले से भी बेहतर ढंग से परोसता है. पहले संचार का माध्यम कबूतर थे, मुनादी करने वाले लोग थे, धावक थे, घुड़सवार थे. फिर अखबार आये. चार पेज के अखबार में दुनिया भर की खबरें एक साथ अनेक शहरों, अनेक लोगों तक पहुँचने लगीं. पुराने माध्यम अप्रासंगिक हो गए. उन्होंने पुराने माध्यमों की जगह ली. फिर रेडियो आया तो अखबार में कमियाँ नजर आने लगीं. रेडियो उन जगहों तक भी पहुँचने लगा, जहां अखबार नहीं पहुँच सकते थे. जाहिर है रेडियो जैसे शक्तिशाली माध्यम के सामने अखबार कहाँ टिकता! देखते ही देखते रेडियो सारी दुनिया में छा गया. लेकिन अखबार फिर भी बने रहे. क्योंकि अखबार में कुछ ऐसी विशेषताएं थीं जिनकी भरपाई रेडियो नहीं कर सकता था. फिर टीवी आया. हमें लगा कि अब तो न अखबार बचेगा और न ही रेडियो. कुछ अरसा तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही. टीवी ने अखबार और रेडियो दोनों की ही सीमा में अतिक्रमण किया लेकिन जल्द ही उसकी सीमारेखा भी तय हो गयी. लेकिन इसके लिए अखबारों और रेडियो को भी कम मशक्कत नहीं करनी पडी. उन्हें अपने रंग-रूप को बदलना पडा. रेडियो को भी एफएम का नया अवतार लेना पडा. हमारे देश में चूंकि रेडियो का बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण में था, खासकर खबरों और समसामयिक कार्यक्रमों वाला, लिहाजा वह नहीं बदला. इसलिए वह पिछड़ता चला गया. घरों से रेडियो-ट्रांजिस्टर गायब होने लगे. उसकी इज्जत एफएम ने रखी जरूर लेकिन वह एकदम दूसरे छोर पर चला गया. ऐसा उसने अपने मनोरंजन का स्तर गिरा कर किया. जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं हुआ. वहाँ रेडियो ने टीवी के सामने समर्पण नहीं किया. जरूरी परिवर्तन करके उसने अपनी जगह बरकरार रखी. समाचार और सामयिक घटनाक्रमों के मामले में भी वह श्रोताओं की पसंद बना रहा. अमेरिका में ऐसे भी चैनल हैं, जो बिना विज्ञापन के, सिर्फ जनता के चंदे पर चल रहे हैं. इसलिए आज रेडियो के सुनहरे दिन बरबस याद आते हैं. जब वह समाचारों, सामयिक कार्यक्रमों और गीत-संगीत और संस्कृति का एकमात्र विश्वसनीय माध्यम था. एक पूरी की पूरी पीढी रेडियो के साथ बड़ी हुई है. जबकि आज उसे न समाचार-विचार के प्रथम माध्यम के तौर पर जाना जाता है, और न ही मनोरंजन के माध्यम के रूप में. एफएम जरूर मनोरंजन का माध्यम है लेकिन वह लगातार फूहड़ होता जा रहा है.
मोदी ने रेडियो में बेशक प्राण फूंके हैं, लेकिन बहुत काम होना बाक़ी है. रेडियो को अपनी विश्वसनीयता वापस अर्जित करनी होगी. हमारे यहाँ एफएम का तीसरा चरण जल्दी ही अमल में आने वाला है. 839 नए एफएम स्टेशन खुलने हैं. वह जल्द ही  एक लाख की आबादी वाले शहरों तक पहुँच जाएगा. इस दौर में पहुंचकर खबरें और सामयिक कार्यक्रम सुनाने की छूट भी सरकार उन्हें देना चाहती है. यह निश्चय ही एक बड़ी क्रान्ति होगी. साथ ही बड़ी संख्या में कम्युनिटी रेडियो भी आ रहे हैं. इसके साथ ही गाँव-गाँव पहुँचने वाली आकाशवाणी को भी अपनी पुरानी केंचुल उतार फेंकनी होगी. उसे अपने कंटेंट और प्रस्तुति, दोनों ही स्तरों पर आमूल बदलाव करने की जरूरत है. मोदी उसके महत्व को रेखांकित कर सकते हैं, तात्कालिक प्राम फूंक सकते हैं, असल बदलाव तो उसके अपने भीतर से आना है. (अमर उजाला, ७ जनवरी, २०१५ से साभार)    

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

पश्चिमी मीडिया का नस्लभेद

मीडिया/ गोविन्द सिंह
टीआरपी और आईआरएस विवादों से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारा मीडिया पूरी तरह से पश्चिम का पिछलग्गू है. उसकी अपनी कोई सोच इतने वर्षों में नहीं बन पाई है. यहाँ तक कि हमारे मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण भी उन्हीं का है. जब हमारे मीडिया के समस्त मानदंड वही तय करता है तो नियंत्रण भी उसी का हुआ. उसे किधर जाना है, किधर नहीं जाना है, यह भी पश्चिम ही तय कर रहा है. यानी भारत के सवा लाख करोड़ रुपये के मीडिया बाजार के नियंत्रण का सवाल है, जिसकी तरफ मीडिया प्रेक्षकों का ध्यान गया है. हालांकि इसमें केवल पश्चिमी मीडिया का ही दोष नहीं है, हमारे मीडिया महारथी भी बराबर के जिम्मेदार हैं. कई बार ऐसा लगता है कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है. वे सिर्फ नक़ल के लिए बने हैं. अमेरिका से कोई विचार आता है तो वे उसे इस तरह से लेते हैं, जैसे गीता के वचन हों. मिसाल के लिए उन्होंने कहा कि खरीदार १८-३३ वर्ष का युवा है, इसलिए उसे सामने रख कर ही विज्ञापन की रणनीति बनाओ. पूरे देश के अखबारों में युवा दिखने की होड़-सी लग गयी. वह बात अलग है कि अब अमेरिका में ही इस विचार के विपरीत विचार आ गए हैं. उन्होंने कहा कि सम्पादक से ज्यादा ब्रांड मैनेजर जरूरी होता है, तो देश भर में सम्पादक नामक संस्था को ख़त्म करने की होड़ लग गयी. इस तरह से हमारे सम्पादकीय आदर्श धराशायी कर दिए गए.    
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ पश्चिम की नजर भारत के मीडिया बाजार पर है, वह इसे अपने फरेबी मानदंडों के जरिये नियंत्रित करना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ वह भारत को कभी गंभीरता से नहीं लेता. बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि पश्चिम का मीडिया भारत को अपनी नस्लवादी सोच से ही देखता है. न सिर्फ अमेरिका, यूरोप के देश भी उसी निगाह से देखते हैं. हाँ, अब वे भारत को एक बाज़ार की तरह जरूर देखते हैं. भारत में पत्ता भी हिलता है तो वे हंगामा खडा कर देते हैं, जबकि खुद भीतर तक नस्लवादी सोच से सराबोर हैं.
पिछले साल भारत ने अपना मंगलयान अंतरिक्ष में भेजा. यह भारत की बड़ी सफलता थी. इस पर हमारी लागत आयी सात करोड़ ४० लाख डॉलर. नासा वाले जब ऐसा ही यान अंतरिक्ष में भेजते हैं तो इसका दस गुना खर्च आता है. लेकिन यूरोप-अमेरिका के मीडिया ने भारत की जमकर आलोचना की. सीएनएन ने लिखा कि भारत ने भयावह गरीबी के बीच मंगलयान भेजा. गार्जियन ने लिखा कि ब्रिटेन भारत को गरीबी के नाम पर हर साल ३० करोड़ डॉलर अनुदान देता है और भारत इस तरह से मंगल यान में रूपया बहा रहा है. अपने आप को पत्रकारिता का आदर्श कहने वाला इकोनोमिस्ट कहता है, गरीब देश आखिर कैसे अंतरिक्ष कार्यक्रम चला सकते हैं? गरीबी तो बहाना है, असल मुद्दा यह है कि वे चाहते ही नहीं कि गरीब देश या उनकी बिरादरी से इतर देश ये काम न करें.
अब बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग ही देखिए. यह सब मानते हैं कि बलात्कार की घटनाएं मानवता के माथे पर कलंक हैं. लेकिन गत वर्ष दिल्ली में जब बलात्कार-विरोधी आन्दोलन चला था तब पश्चिमी अखबारों को जैसे भारत को गालियाँ देने का मौक़ा ही मिल गया. क्या अमेरिका, क्या यूरोप, तमाम देशों के अखबारों ने भारतीय समाज को जमकर कोसा. उन्होंने कहा कि भारत अभी असभ्य है, जंगली है. वहाँ स्त्रियों को कबीलाई युग की तरह से केवल उपभोग की वस्तु समझा जाता है. लेकिन आधुनिक युग की ही सचाई यह है कि भारत से चार गुना अधिक बलात्कार हर साल अमेरिका में होते हैं. भारत में प्रति वर्ष यदि २४ हजार बलात्कार होते हैं तो अमेरिका में ९० हजार से भी अधिक. फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में भी भारत से कहीं ज्यादा बलात्कार होते हैं. हम यह नहीं कहते कि भारत में कम होते हैं तो हम कोइ बहुत तरक्कीपसंद हैं. हमें आपत्ति इस बात पर है कि वे भारत को कोसने के लिए अपने रिकार्डों को भूल जाते हैं.
अब जलवायु परिवर्तन पर हो रही राजनीति को ही लीजिए. ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी अमीर देश रहे हैं. उनकी जीवन शैली ही धरती के लिए खतरा है. क्योटो प्रोटोकॉल ने इस बात को माना भी है. लेकिन अब जब भी किसी सहमति की बात होती है, या भारत अपनी कोई बात रखता है तो कह दिया जाता है कि ये ही खेल खराब कर रहे हैं. पश्चिमी मीडिया इस मामले में पूरी तरह से पक्षपाती रुख अख्तियार करता है.

असल बात यह है कि पश्चिमी देश भारत को अब भी ईएल बाशम का भारत ही समझते हैं. वे भारत की तरक्की को फूटी आँख नहीं देख सकते. वे भारत को या तो भिखमंगों का देश समझते हैं या फिर संपेरों-बाजीगरों का रहस्यमय देश ही मानते हैं. इसलिए कुम्भ मेला हो या ऐसा कोई धार्मिक आयोजन, पश्चिमी मीडिया उन्हें उसी नजर से देखता है. उनका अपना मीडिया नग्न तस्वीरें दिखाने का आदी है, बे-वाच जैसे कार्यक्रम के बिना उनका खाना हजम नहीं होता है. इसलिए कुम्भ या गंगा सागर जैसे मेलों में उनके कैमरे नग्नता की ही टोह में रहते हैं. वे भारत की विचित्रता को हमारे जंगलीपने के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इसलिए भारतीय मीडिया को चाहिए कि वे अपने मूल्य गढ़ें, पश्चिम की गुलामी बंद करें.(लाइव इंडिया, फरवरी, २०१४ से)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

टीआरपी का गोरखधंधा


मीडिया/ गोविन्द सिंह
देर से ही सही, टीवी चैनलों की व्यूअरशिप को जांचने के फर्जी तरीकों पर सरकार का ध्यान गया. केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों की रेटिंग्स पर नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिन्हें लेकर चैनलों की दुनिया में खलबली मची हुई है. अभी तक सर्वे कराने वाली एजेंसी टैम की सांझीदार कम्पनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गयी है. वह इन दिशा निर्देशों को किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देना चाहती. यही नहीं, अभी तक फायदा ले रहे चैनलों के मालिक भी नई व्यवस्था को फेल करने पर तुले हुए हैं, लेकिन बाक़ी चैनल खुश हैं कि टीआरपी के इस गोरखधंधे पर कोई तो नकेल कसेगा. लेकिन चूंकि अभी तक नए दिशा-निर्देश लागू नहीं हो पाए हैं, इसलिए यह भी स्थिति आ सकती है कि कुछ अरसे तक रेटिंग की कोई व्यवस्था ही ना रहे. इसे टीआरपी ब्लैक आउट की स्थिति कहा जा रहा है.   
टीआरपी के गोरख धंधे ने जिस तरह से पिछले १५ वर्ष से देश की जनता और टीवी चैनलों को भ्रमित कर रखा है  और देश की संस्कृति को प्रदूषित करने का खेल चला रखा है, वह किसी आपराधिक षड़यंत्र से कम नहीं है. लेकिन हमारी सरकारों को अपने राजनीतिक जोड़-तोड़ से फुर्सत ही कहाँ जो संस्कृति जैसे विषयों पर ध्यान देतीं. लेकिन समाज में टैम की टीआरपी व्यवस्था की घोर निंदा होती रही है. क्योंकि बहुत थोड़े सैम्पल लेकर पूरे देश की व्यूअरशिप का फतवा जारी कर देने से टीवी चैनलों के कंटेंट पर बेहद बुरा असर पड़ रहा था. टैम का सर्वे दर्शकों के बीच एक खाई भी पैदा कर रहा था. 
पिछली सदी के आख़िरी दशक में जब देश में निजी टीवी चैनलों का जाल बिछने लगा तो टीआरपी जैसी अवधारणा सामने आयी. उससे पहले चूंकि देश में केवल सरकारी टीवी अर्थात दूरदर्शन था, इसलिए उसे कभी इस तरह की प्रतिस्पर्धी व्यवस्था की जरूरत नहीं पडी. व्यूअरशिप जांचने का उसका अपना तंत्र था, दूरदर्शन और आकाशवाणी का अपना ऑडिएन्स रिसर्च यूनिट हुआ करता था. वह तमाम कार्यक्रमों की व्यूअरशिप जांचता था. लेकिन जब देश में बहुत से निजी चैनल आ गए तो एक निष्पक्ष एजेंसी की जरूरत आन पडी. जो घर-घर जाकर यह सर्वे कर सके और यह बता सके कि कौन-सा चैनल कितना देखा जा रहा है. किस कार्यक्रम की कितनी लोकप्रियता है? यह काम निश्चय ही सरकार को करना चाहिए था, जिसने निजी और सेटेलाईट चैनलों के लिए दरवाजे खोले थे. पर सरकार को कहाँ इस सबकी फुर्सत? न फुर्सत और न ही वैसी दृष्टि. नतीजा यह हुआ की टैम जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां कूद पड़ीं. लेकिन चूंकि देश में कोई कायदा-क़ानून नहीं था, इसलिए जिसकी जैसी मर्जी आयी, वैसा किया.
आपको आश्चर्य होगा कि सन २००० तक खबरिया चैनलों की टीआरपी जांचने के लिए सिर्फ ढाई हजार घरों में पीपुल्स मीटर लगे हुए थे. वह भी बड़े-बड़े महानगरों, अमीर राज्यों के अमीर घरों में ही ये मीटर लगे हुए थे. यानी ढाई हजार घरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरे देश की पसंद-नापसंद बताया जा रहा था. आप हैरान होंगे  कि पूरे बिहार और पूरे उत्तराखंड में एक भी मीटर नहीं था. वे चैनलों के विज्ञापनदाताओं के सामने एक ऐसा भारत पेश कर रहे थे, जो अमीर था, खुशहाल था, जिसकी कोई समस्या नहीं थी. उसकी पसंद को गरीब देश की पसंद बताया जा रहा था. जाहिर है वैसे ही कार्यक्रम भी बनने लगे. यह टीआरपी कंपनी का जाल-फरेब था, जो आम दर्शक को मूर्ख समझता था. टीवी कंपनियों को यह व्यवस्था मुफीद आती थी, क्योंकि इससे विज्ञापन उठाने में आसानी होती थी. जो चैनल आपको बहुत पसंद हो, जिसके कार्यक्रम आपको बहुत अच्छे लगते हों, जरूरी नहीं कि वे इन मुट्ठी भर दर्शकों को भी अच्छे लगें. लिहाजा हुआ यह कि सारे चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों का स्तर खराब होने लगा. खबरिया चैनलों पर दिखाए जाने वाले समाचार का स्वरुप विकृत होने लगा. न्यूज के नाम पर सांप-छछूंदर दिखाए जाने लगे. जादू-टोना और अंध विश्वास ने तर्क और प्रगतिशील विचारों की जगह ले ली. गाय को उड़ते हुए दिखाया जाने लगा. बेतूल के कुंजीलाल की मरने की घोषणा का लाइव प्रसारण हुआ. बड़े-बड़े खुर्राट पत्रकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आने लगे. बल्कि उन्होंने घुटने टेक दिए टीआरपी के सामने. इसलिए ऐसे फर्जी समाचारों को दिखाने वाले चैनलों के पौ-बारह होने लगे. सारे चैनल उसी राह पर चल पड़े. नतीजा यह भी हुआ कि जो संवाददाता खबरों की बात करता, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता. समाचार चैनलों से विचारवान पत्रकारों की छंटनी होने लगी और चालाक, बाजीगर किस्म के प्रोड्यूसरों की बन आयी. जब बहुत विरोध होने लगा तो सैम्पल साइज कुछ बढाया गया. पहले चार हजार, फिर छः हजार अब आठ हजार तक ही पहुँच पाया है टैम. आज की तारीख में भी ८१५० सैम्पल साइज के भरोसे पूरे देश का मूड बताने का दावा करता है टैम. क्या भारत जैसे बहुरंगी देश में यह संभव है?
अब सरकार कह रही है कि सैम्पल साइज बढाओ. कम से कम २० हजार करो. हर साल दस-दस हजार बढ़ाना  होगा. चार साल में ५० हजार करना होगा. यह देख कर टैम वालों को नानी याद आ रही है. मिल बाँट कर खाने-खिलाने का खेल ख़त्म होने वाला है. आखिर नौ हज़ार करोड़ के टीवी विज्ञापनों पर एकाधिकार का मामला है. मिल-बाँट कर खाने का खेल है. इसलिए अदालत की शरण में जा रहे हैं. लेकिन अदालत भी सब समझती है, इसलिए उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है. अब ब्लैक आउट का डर दिखा कर ब्लैकमेल किया जा रहा है. ब्लैक आउट होता है तो होने दो, पर टीआरपी की नयी व्यवस्था ईमानदारी से लागू होनी ही चाहिए. टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना देश के साथ धोखा है. (कैनविज टाइम्स, बरेली, ३ फरवरी, २०१४ को प्रकाशित)  

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पिछले एक दशक में देश में आये परिवर्तनों में एक बड़ा परिवर्तन मीडिया में आया बदलाव भी है. अखबार, रेडियो, टीवी और न्यू मीडिया, सब तरफ जबरदस्त उछाल आया है. हिन्दी का सार्वजनिक विमर्श क्षेत्र जितना बड़ा आज है, शायद उतना कभी नहीं था. यही नहीं भविष्य में वह और आगे बढेगा. हिन्दी का मीडिया न सिर्फ अपने देश में जगह बना पाने में कामयाब हुआ है, बल्कि आज उसकी पहुँच दुनिया भर में है. निस्संदेह इसमें टेक्नोलोजी का बड़ा योगदान है. हिन्दी के अखबार लगातार फ़ैल रहे हैं. उनका प्रसार बढ़ रहा है, उनका राजस्व बढ़ रहा है और सत्ता-व्यवस्था में उसकी धमक भी बढ़ रही है. आजादी से पहले तो हिन्दी की पत्रकारिता विशुद्ध मिशनरी थी और घोषित रूप से ब्रिटिश शासन के खिलाफ थी, इसलिए सत्ता के गलियारों में उसकी पहुँच हो भी नहीं सकती थी, और आज़ादी के बाद भी बहुत दिनों तक वह अंग्रेज़ी की चेरी ही बनी रही. सत्ता केन्द्रों में अंग्रेज़ी पत्रकारिता की ही पूछ होती थी. लेकिन अब वह बात नहीं है. हिन्दी पत्रकारिता को अब के सत्ताधारी नजरअंदाज नहीं कर सकते. टीवी की पहुँच इतनी व्यापक है कि सत्तासीन वर्ग उसके आगे गिडगिडाता नजर आता है. आज वे मीडिया घराने भी हिन्दी में अपना चैनल या अखबार निकाल रहे हैं, जो कभी हिन्दी से नफरत किया करते थे. आजादी के आसपास शुरू हुए अखबार आज देश के बड़े अखबार समूह बन चुके हैं. १९८० के आसपास देश के दस बड़े अखबारों में बमुश्किल १-२ हिन्दी अखबार स्थान बना पाते थे, आज शीर्ष पांच अखबार हिन्दी के हैं, यह हिन्दी की ताकत ही है कि वह बिना किसी सरकारी संरक्षण के तेजी से आगे बढ़ रही है. हिन्दी के ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर आज हमारी नई पीढी धड़ल्ले से हिन्दी का प्रयोग कर रही है. जो लोग देवनागरी लिपि में नहीं लिख सकते, वे रोमन में ही हिन्दी लिख रहे हैं. यह हिन्दी का विस्तार ही तो है. हिन्दी के प्रति नरम रुख रखने वाले मौरिशश- फिजी जैसे देशों को छोड़ भी दिया जाए तो यूरोप-अमेरिका में भी भारतवंशियों की नयी पीढी हिन्दी की तरफ आकृष्ट हो रही है. यानी इंटरनेट ने हिन्दी के लिए दुनिया भर के दरवाजे खोल दिए हैं. भलेही अभी उसे बाजार का समर्थन उस तरह से नहीं मिल रहा है, जैसे अंग्रेज़ी को मिला करता है, फिर भी उसका विस्तार किसी भी अन्य भाषा से ज्यादा हो रहा है.
अभी हिन्दी भाषी राज्यों में सिर्फ २५ प्रतिशत लोग ही अखबार पढ़ते हैं. इसकी वजह कुछ भी हो सकती है. हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता बहुत देर में पहुंची है, यहाँ परिवहन के साधन अन्य राज्यों की तुलना में कम हैं,  यहाँ लोगों की क्रय शक्ति कम है, लोगों में जागरूकता कम है, लेकिन सोचिए की जिस दिन ये सारी बाधाएं दूर हो जायेंगी, उस दिन हिन्दी के पाठकों का कितना विस्तार नहीं होगा. आज देश में हिन्दी के १५ करोड़ से ज्यादा पाठक हैं, जबकि अंग्रेज़ी के महज साढे तीन करोड़. यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि फिर भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता की धमक ज्यादा है. सत्ता का यह अलोकतांत्रिक व्यवहार बहुत दिन नहीं चलेगा. एक दिन हिन्दी पत्रकारिता को उसका देय मिलकर रहेगा.
यानी हिन्दी पत्रकारिता का संसार लगातार फ़ैल रहा है, वह बलवान भी हो रहा है, उससे प्रभु वर्ग डरने भी लगा है, लेकिन उसके स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है. यह ठीक है कि हिन्दी को शासक वर्ग का समर्थन नहीं मिल रहा है, धनी वर्ग का स्नेह नहीं मिल रहा है, लेकिन हिन्दी की अपनी ताकत भी तो कुछ मायने रखती है, जिसके बल पर वह प्रसार पा रही है. यदि हम अपना स्तर सुधारें तो निश्चय ही उन हलकों में भी हमें सम्मान मिलेगा, जहां अभी हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है.
निस्संदेह आज हमारी पत्रकारिता संक्रमण के दौर में है. पिछली सदी के अंतिम दौर में हमें टीवी ने बहुत भ्रमित किया था. तब यह घोषणाएँ हो रही थीं कि हिन्दी की पत्रकारिता कुछ ही दिनों की मेहमान है. टीवी उसे ग्रस लेगा. कुछ अरसा हिन्दी में मायूसी छाई भी रही लेकिन जल्दी ही वह संभल गयी. आज समाचार-टीवी खुद ही भटक गया है. टीआरपी की अंधी दौड़ में वे खुद भी खबरों से बहुत दूर छिटक गए हैं. निहायत अनुभवहीन लोगों के चलते आज उसकी गंभीरता ख़त्म हो चुकी है. उसके प्रति सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. जबकि प्रिंट मीडिया फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है.

इसलिए यह जरूरी है कि पत्रकारिता इस अवसर को लपके और अपने स्तर में सुधार करे. यह तभी हो सकता है, जब पत्रकारिता की पवित्रता को बरकरार रखा जाएगा. पेड  न्यूज बंद होनी चाहिए. इसकी वजह से पत्र और पत्रकार जगत को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. इसके लिए पत्रकारों को ही नहीं, पत्र-स्वामियों को भी आगे बढ़ कर पहल करनी होगी. यह सही है कि पत्र निकालना आज एक महँगा सौदा है, लेकिन यकीन मानिए, यदि आप अच्छा काम करेंगे तो आपको पाठक सर-आँखों पर बिठाएँगे. गांधी जी से बड़ा पत्रकार समकालीन विश्व में कोइ नहीं हुआ. अपनी आत्म कथा में उन्होंने कहा था कि, ‘मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बांध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले सकती है.’ यानी एक नए युग के निर्माण का अवसर सामने है. हिन्दी पत्रकारिता आगे बड़े और इस बीड़े को उठाये. 
(कैनविज़ टाइम्स, बरेली के लोकार्पण अंक, २२ जनवरी,१४ को प्रकाशित)  

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

कब लौटेंगी टीवी में खबरें?

मीडिया/ गोविंद सिंह
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी हैं. हैं तो वह बिजनेस मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर लेकिन हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और संस्कृत के भी अच्छे जानकार हैं. किसी मसले पर जब वह टिप्पणी करते हैं तो उन्हें ध्यान से सुना जाता है. वे बोले, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, कृपया यह बताइए कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? शाम को जब समाचार देखने को मन होता है, एक भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती. जो चैनल खुद को देश का सबसे उत्तम चैनल होने का दावा करता है, उसमें विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं. खबरों को वह फिलर की तरह दिखाता है. जो चैनल खुद को बौद्धिक बताता है, वह शाम को एक के बाद एक अनर्गल परिचर्चाओं में उलझाए रखता है. हमारे कालेजों की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का स्तर भी उनसे बेहतर होता है. एक चैनल है, जो मामूली खबर को भी ऐसे दिखाता है, जैसे कि कोई तूफ़ान आ गया हो. मजबूर होकर मैं अपने इलाकाई चैनल पर आता हूँ. लेकिन उसके संवाददाताओं की हिन्दी और उर्दू इतनी खराब होती है कि उबकाई आने लगती है. कुल मिलाकर टीवी समाचार देख कर अपना ही माथा पीटने को जी करता है.
मुझे लगा कि अनेक मौकों पर मैं भी यही महसूस करता हूँ. अखबार में था तो मेरे वरिष्ठ सहयोगी भी अक्सर यही कहा करते थे. समाज के किसी संभ्रांत व्यक्ति से चर्चा कीजिए तो वह भी ऐसा ही अनुभव बताता है. खुद टीवी चैनलों में काम करने वाले साथी अपने काम से संतुष्ट नज़र नहीं आते. हर कोई  टीआरपी का रोना रोता है. इस टीआरपी ने ऐसा जाल रचा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंद हो गयी है. वे हमेशा उस फार्मूले की तलाश में रहते हैं, जो उन्हें टीआरपी दिला सके. वे टीआरपी का कोई अपना फार्मूला आजमाने का साहस भी नहीं कर पाते. संयोग से कोई नया आइडिया किसी के दिमाग में कोंध भी गया तो उसे अंजाम देने में डर लगता है. यदि फेल हो गया तो? यानी हर दिन, हर पल हमारा न्यूज प्रोडूसर टीआरपी के आतंक से ग्रस्त रहता है.
ऐसे में सबसे ज्यादा नुक्सान तो खबर का ही होता है, जो दिखाए जाने की पात्रता रखते हुए भी नहीं दिखाई जाती. दूसरा नुक्सान दर्शक को होता है, जो १५-२० हज़ार का एक टीवी सेट खरीदता है और हर महीने दो-ढाई सौ रुपये केबल वाले या डीटीएच वाले को देता है, इस आशा में कि उसे खबर देखने को मिलेगी और वह दुनिया-जहां के बारे में अपनी और अपने बच्चों की जागरूकता बढ़ाएगा. लेकिन रोज कोई ना कोई ऐसी हरकत हमारे चैनल वाले कर देते हैं कि मन मसोस कर रह जाना पड़ता है. अब गडकरी के मंच टूट्ने की ही घटना को देखिये, एक ही दृश्य को आप दसियों बार दिखाते हैं. क्या मतलब है? एक बच्चे ने अपनी अध्यापिका को चाकू मारा. एंकर महोदय ऐसे बोल रहे थे, जैसे कि बच्चे ने कोई बहादुरी का काम कर दिया हो. उनके शब्द थे, बच्चे ने टीचर को मौत के घाट उतार दिया. इस बात को वह एक बार नहीं, बार बार दोहरा रहे थे. क्या आप खबर की ऐसी प्रस्तुति को देखना चाहेंगे? हमने तो तुरंत स्विच ऑफ कर दिया था.
दुःख इस बात का है कि हमारे हिन्दी चैनल वाले साथी सोचते नहीं. वे हमेशा फार्मूलों की तलाश में रहते हैं. किसी एक चैनल का एक फार्मूला हिट हो गया तो सभी उसी दिशा में दौड पड़ते हैं. अपनी बुद्धि नहीं लगाते. एक ने चूहे-बिल्ली दिखाई तो सब वही तलाशेंगे. एक ने संक्षिप्त खबरें दिखाई तो सब उसी और दौडेंगे. एक ने अपराध कथाएं दिखाई तो सभी अपराध ही तलाशते हैं. और वह भी पूरे नाटक के साथ. भाई, नाटक ही करना है तो पत्रकार की क्या जरूरत, नाट्य विद्यालय के छात्र को ही यह काम सौंप दीजिए, वह इस काम को बेहतर अंजाम देगा. यह भीडतंत्र हमारे टेलीविजन समाचार को कहाँ ले जाएगा, समझ में नहीं आता. खबरों के गायब होने का यह ब्रेक कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है. अब तो इसे टूटना ही चाहिए.
हिन्दुस्तान, १३ फरवरी २०१२ से साभार.