मीडिया/ गोविन्द सिंह
पिछले एक दशक में
देश में आये परिवर्तनों में एक बड़ा परिवर्तन मीडिया में आया बदलाव भी है. अखबार,
रेडियो, टीवी और न्यू मीडिया, सब तरफ जबरदस्त उछाल आया है. हिन्दी का सार्वजनिक
विमर्श क्षेत्र जितना बड़ा आज है, शायद उतना कभी नहीं था. यही नहीं भविष्य में वह
और आगे बढेगा. हिन्दी का मीडिया न सिर्फ अपने देश में जगह बना पाने में कामयाब हुआ
है, बल्कि आज उसकी पहुँच दुनिया भर में है. निस्संदेह इसमें टेक्नोलोजी का बड़ा योगदान
है. हिन्दी के अखबार लगातार फ़ैल रहे हैं. उनका प्रसार बढ़ रहा है, उनका राजस्व बढ़
रहा है और सत्ता-व्यवस्था में उसकी धमक भी बढ़ रही है. आजादी से पहले तो हिन्दी की
पत्रकारिता विशुद्ध मिशनरी थी और घोषित रूप से ब्रिटिश शासन के खिलाफ थी, इसलिए
सत्ता के गलियारों में उसकी पहुँच हो भी नहीं सकती थी, और आज़ादी के बाद भी बहुत
दिनों तक वह अंग्रेज़ी की चेरी ही बनी रही. सत्ता केन्द्रों में अंग्रेज़ी
पत्रकारिता की ही पूछ होती थी. लेकिन अब वह बात नहीं है. हिन्दी पत्रकारिता को अब
के सत्ताधारी नजरअंदाज नहीं कर सकते. टीवी की पहुँच इतनी व्यापक है कि सत्तासीन
वर्ग उसके आगे गिडगिडाता नजर आता है. आज वे मीडिया घराने भी हिन्दी में अपना चैनल
या अखबार निकाल रहे हैं, जो कभी हिन्दी से नफरत किया करते थे. आजादी के आसपास शुरू
हुए अखबार आज देश के बड़े अखबार समूह बन चुके हैं. १९८० के आसपास देश के दस बड़े
अखबारों में बमुश्किल १-२ हिन्दी अखबार स्थान बना पाते थे, आज शीर्ष पांच अखबार
हिन्दी के हैं, यह हिन्दी की ताकत ही है कि वह बिना किसी सरकारी संरक्षण के तेजी
से आगे बढ़ रही है. हिन्दी के ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर
आज हमारी नई पीढी धड़ल्ले से हिन्दी का प्रयोग कर रही है. जो लोग देवनागरी लिपि में
नहीं लिख सकते, वे रोमन में ही हिन्दी लिख रहे हैं. यह हिन्दी का विस्तार ही तो
है. हिन्दी के प्रति नरम रुख रखने वाले मौरिशश- फिजी जैसे देशों को छोड़ भी दिया
जाए तो यूरोप-अमेरिका में भी भारतवंशियों की नयी पीढी हिन्दी की तरफ आकृष्ट हो रही
है. यानी इंटरनेट ने हिन्दी के लिए दुनिया भर के दरवाजे खोल दिए हैं. भलेही अभी
उसे बाजार का समर्थन उस तरह से नहीं मिल रहा है, जैसे अंग्रेज़ी को मिला करता है,
फिर भी उसका विस्तार किसी भी अन्य भाषा से ज्यादा हो रहा है.
अभी हिन्दी भाषी
राज्यों में सिर्फ २५ प्रतिशत लोग ही अखबार पढ़ते हैं. इसकी वजह कुछ भी हो सकती है.
हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता बहुत देर में पहुंची है, यहाँ परिवहन के साधन अन्य
राज्यों की तुलना में कम हैं, यहाँ लोगों की
क्रय शक्ति कम है, लोगों में जागरूकता कम है, लेकिन सोचिए की जिस दिन ये सारी
बाधाएं दूर हो जायेंगी, उस दिन हिन्दी के पाठकों का कितना विस्तार नहीं होगा. आज
देश में हिन्दी के १५ करोड़ से ज्यादा पाठक हैं, जबकि अंग्रेज़ी के महज साढे तीन
करोड़. यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि फिर भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता की
धमक ज्यादा है. सत्ता का यह अलोकतांत्रिक व्यवहार बहुत दिन नहीं चलेगा. एक दिन
हिन्दी पत्रकारिता को उसका देय मिलकर रहेगा.
यानी हिन्दी
पत्रकारिता का संसार लगातार फ़ैल रहा है, वह बलवान भी हो रहा है, उससे प्रभु वर्ग
डरने भी लगा है, लेकिन उसके स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है. यह ठीक है
कि हिन्दी को शासक वर्ग का समर्थन नहीं मिल रहा है, धनी वर्ग का स्नेह नहीं मिल
रहा है, लेकिन हिन्दी की अपनी ताकत भी तो कुछ मायने रखती है, जिसके बल पर वह
प्रसार पा रही है. यदि हम अपना स्तर सुधारें तो निश्चय ही उन हलकों में भी हमें
सम्मान मिलेगा, जहां अभी हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है.
निस्संदेह आज हमारी
पत्रकारिता संक्रमण के दौर में है. पिछली सदी के अंतिम दौर में हमें टीवी ने बहुत
भ्रमित किया था. तब यह घोषणाएँ हो रही थीं कि हिन्दी की पत्रकारिता कुछ ही दिनों
की मेहमान है. टीवी उसे ग्रस लेगा. कुछ अरसा हिन्दी में मायूसी छाई भी रही लेकिन
जल्दी ही वह संभल गयी. आज समाचार-टीवी खुद ही भटक गया है. टीआरपी की अंधी दौड़ में
वे खुद भी खबरों से बहुत दूर छिटक गए हैं. निहायत अनुभवहीन लोगों के चलते आज उसकी
गंभीरता ख़त्म हो चुकी है. उसके प्रति सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. जबकि प्रिंट
मीडिया फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है.
इसलिए यह जरूरी है
कि पत्रकारिता इस अवसर को लपके और अपने स्तर में सुधार करे. यह तभी हो सकता है, जब
पत्रकारिता की पवित्रता को बरकरार रखा जाएगा. पेड न्यूज बंद होनी चाहिए. इसकी वजह से पत्र और
पत्रकार जगत को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. इसके लिए पत्रकारों को ही नहीं,
पत्र-स्वामियों को भी आगे बढ़ कर पहल करनी होगी. यह सही है कि पत्र निकालना आज एक
महँगा सौदा है, लेकिन यकीन मानिए, यदि आप अच्छा काम करेंगे तो आपको पाठक सर-आँखों
पर बिठाएँगे. गांधी जी से बड़ा पत्रकार समकालीन विश्व में कोइ नहीं हुआ. अपनी आत्म
कथा में उन्होंने कहा था कि, ‘मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ही
ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बांध के टूटने पर
समस्त देश को अपनी चपेट में ले सकती है.’ यानी एक नए युग के निर्माण का अवसर सामने है.
हिन्दी पत्रकारिता आगे बड़े और इस बीड़े को उठाये.
(कैनविज़ टाइम्स, बरेली के लोकार्पण अंक, २२ जनवरी,१४ को प्रकाशित)