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बुधवार, 16 सितंबर 2015

हिन्दी पत्रकारिता: विश्वसनीयता का संकट

हिन्दी पत्रकारिता/ गोविन्द सिंह
इसमें कोई दो-राय नहीं कि हिन्दी पत्रकारिता ने पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त छलांग लगाई है. अखबारों का प्रसार गाँव-गाँव तक हुआ है, अंग्रेज़ी के साढ़े तीन करोड़ पाठकों की तुलना में हिन्दी के १५ करोड़ पाठक आज देश में हैं. सबसे ज्यादा प्रसार वाले दस शीर्ष अखबारों में से छः हिन्दी के हैं. हिन्दी की अच्छी पत्रिकाएं बंद होने के बावजूद बची-खुची हिन्दी पत्रिकाओं का दबदबा कायम है. हिन्दी के राष्ट्रीय चैनलों ने तो अपनी ऊंची जगह बनाई ही है, साथ ही क्षेत्रीय और स्थानीय चैनल भी गाँव-गाँव, कसबे-कसबे तक अपनी पैठ बना रहे हैं. हालांकि अभी रेडियो पत्रकारिता में लोकतंत्र आना बाक़ी है, लेकिन एफएम और कम्यूनिटी रेडियो के रूप में उसकी दस्तक ने नई संभावनाओं को जन्म दिया है. इन सबके अलावा इन्टरनेट ने सचमुच हिन्दी पत्रकारिता को ग्लोबल अखाड़े में लाकर खडा कर दिया है. हिन्दी की विश्व-बिरादरी उसकी तरफ टकटकी लगाए देख रही है. न्यूयॉर्क हो या शंघाई, न्यूजीलैंड हो या हवाई, हर जगह प्रवासी भारतीय सुबह उठते ही सबसे पहले इन्टरनेट पर अपने गाँव-कसबे के अखबार को देखता है, तब जाकर अपने वर्तमान शहर या देश के अखबारों की तरफ निगाह डालता है. हिन्दी का इतना विस्तृत पटल पहले कभी नहीं था. शायद किसी को इसकी कल्पना भी न थी. इससे यह भी पता चलता है कि हिन्दी कितनी ताकतवर है.  
यह तो हिन्दी पत्रकारिता का ऊपरी रूप है. इसे देखकर लगता है कि हिन्दी पत्रकारिता की आतंरिक सेहत भी इतनी ही दुरुस्त होगी. इतने बड़े और बहु-स्तरीय पाठक समुदाय को केटर (तुष्ट) करने के लिए आखिर क्या व्यवस्था की है हमने? दुर्भाग्य यह है कि हिन्दी पत्रकारिता जगत ने प्रसार और मुनाफ़ा बढाने के अलावा कुछ भी तैयारी नहीं किया. इतने बहु-स्तरीय पाठक समुदाय के लिए जिस तरह के कंटेंट की आयोजना की जानी चाहिए, जिस तरह के मानव संसाधन का नियोजन होना चाहिए, वह नहीं हुआ. इसलिए जब हम उसकी आंतरिक सेहत की पड़ताल करते हैं तो बेहद निराशा हाथ लगती है. दस बड़े अखबारों को छोड़ दें तो बाक़ी छोटे अखबारों और स्थानीय चैनलों की आर्थिक सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है. लेकिन दस बड़े अखबारों की तरक्की का राजमार्ग भी इतना सुगम होगा, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. आजादी के आस-पास एक-दो शहरों से निकलने वाले छोटे या मझोले अखबार 1990 तक पहुँचते-पहुँचते पूरे उत्तर भारत में फ़ैल गए. वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से अपनी तिजारत को फैलाने लगे. अमर उजाला, भास्कर, दैनिक जागरण और राजस्थान पत्रिका ने तरक्की की नई मिसालें कायम कीं. इन्होने अपने-अपने इलाकों में राजनीतिक दबदबा भी कायम किया. शायद तरक्की के इसी सुगम मार्ग को देख कर इस पेशे में बड़ी संख्या में गैर-पेशेवर लोग घुस आये. यह प्रवृत्ति इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ज्यादा तीव्र रही. कुछ पारंपरिक मीडिया समूहों को छोड़ दें तो इस क्षेत्र में ज्यादातर चैनल मालिक नए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर तो फिर भी स्थिति उतनी खराब नहीं है, क्षेत्रीय स्तर पर वे लोग चैनल मालिक बन गए हैं, जिनका पत्रकारीय मूल्यों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. उन लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो अपने काले धंधों को सफ़ेद दिखाने के लिए ये काम कर रहे हैं. इसलिए स्वस्थ पत्रकारिता के मूल्यों का तेजी के साथ क्षरण हो रहा है. पत्रकारिता में आचार संहिता या नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है. अच्छे पत्रकारों के लिए जगह सिकुडती जा रही है. बड़े पैमाने पर ब्लैकमेलर पत्रकारिता के धंधे में आ गए हैं. इसलिए संजीदा पत्रकार पिट रहे हैं. बेमौत मारे जा रहे हैं. पत्रकारिता के स्वस्थ मूल्यों के प्रति समर्पित घराने भी व्यावसायिकता की होड़ में उन्हें भूलते जा रहे हैं. जून के महीने में ही तीन पत्रकार मारे गए. इनमें से एक शाहजहांपुर के जगेन्द्र सिंह की आग लगाकर हत्या कर दी गयी, जिसको लेकर देश-दुनिया में भारत की फजीहत हो रही है, लेकिन राजनेताओं की कान पर जूं तक नहीं रेंग रही.  
अपराध कर्म में लगे माफियाओं, राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ पत्रकारों का टकराव लगातार बढ़ रहा है. एक ज़माना था जब राजनीति और पत्रकारिता को एक-दूसरे का पूरक समझा जाता था. पत्रकारिता में मंजने के बाद लोग राजनीति में दाखिल हुआ करते थे. या राजनेता अपने अनुभवों से पत्रकारिता को परिपुष्ट किया करते थे. गांधी, तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों के देश में यह कैसी पत्रकारिता हो रही है, यह सोचने की बात है. बहुत दिन नहीं हुए, जब साहित्य, संस्कृति और ब्यूरोक्रेसी के हलकों में पत्रकारों की बड़ी इज्जत हुआ करती थी. यहाँ तक कि अपराधी भी लेखक-पत्रकारों की इज्जत किया करते थे. लेकिन आज हिन्दी भाषी समाज में पत्रकारिता की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं. उनकी स्थिति छुटभैये वकीलों और पुलिस वालों की तरह हो गयी है. जिन्हें आते देख लोग बगल से निकल जाने की फिराक में रहते हैं. छोटे शहरों के छोटे पत्रकार भी धन-दौलत तो बहुत जुटा रहे हैं, किन्तु अपनी इज्जत लगातार गंवा रहे हैं. जिन अखबारों का कोई अस्तित्व नहीं है, समाज में कोई औकात नहीं है, उनके सम्पादक-रिपोर्टर भी आलीशान गाड़ियों में घूम रहे हैं. अखबार की आड़ में उनके और धंधे फल-फूल रहे हैं.  
हाल के वर्षों में पत्रकारों पर हुए अत्याचारों ने भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अग्र-पंक्ति में लाकर रख दिया है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 में से 136वें पायदान पर है. इस सूची में हम बहुत-से गरीब अफ्रीकी देशों और नेपाल जैसे पड़ोसी देश से पीछे हैं. हाँ, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जरूर हमसे भी पीछे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के लिए यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर, छत्तीसगढ़, झारखंड या आन्ध्र- तेलंगाना में पत्रकारों पर शासन या सुरक्षा बलों की नकेल की वजह अलग है. वहाँ अलगाववादी या टकराववादी आन्दोलनों के कारण पत्रकारों को शासन का कोपभाजन बनना पड़ता है. वह तो फिर भी समझ में आता है. चिंता का विषय तो यह है कि अच्छे पत्रकारों के लिए रोज-ब-रोज की पत्रकारिता करनी भी लगातार मुश्किल होती जा रही है!      
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों छोटे शहरों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है? पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं? पत्रकारिता की साख क्यों गिरती जा रही है? इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों के अलावा पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, पत्र-स्वामियों को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचना-विचारना होगा. इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमय हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब यह बहुत ही आम-फहम हो गया है. पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खडा रहता था. सम्पादक स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे. पत्रकार-संगठन और ट्रेड यूनियनें हमेशा पीछे खड़ी रहती थीं. पत्र-स्वामी स्वयं भी जुझारू हुआ करते थे. पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में डटे रहते थे. सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे. जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर कोई संकट आता था, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खडा हो जाता था.
लेकिन आज पत्रकार पिट रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं. यदि थोड़ा-सा भी समाज का भय होता तो क्या शाहजहांपुर में जगेन्द्र सिंह को उसके अपने घर में ही घुसकर जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेन्द्र तो किसी अखबार से भी सम्बद्ध नहीं था! फिर भी इतनी असहिष्णुता? वास्तव में हमारे समाज से सहिष्णुता लगातार कम हो रही है. सत्ता-केन्द्रों पर बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते. सत्य की दुर्बल से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं. जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सचाई उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य इस बात का भी है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का अन्तःस्खलन भी कम नहीं हुआ है. पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलाल उतर आये हैं. उन की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है. ऐसे व्यापारी इस क्षेत्र में कदम रख रहे हैं, जिनके पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. पत्रकारिता का कोई मकसद उनके पास नहीं है. वे अपने काले धंधों को सफ़ेद करने के लिए पत्रकारिता को ढाल की तरह से इस्तेमाल करते हैं. पत्रकारिता के जरिये अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभागों को ब्लैकमेल करते हैं. वे कुछ दिन तक तो पत्रकारों को नौकरी पर रखते हैं, उसके बाद उन्हें नौकरी से हटा देते हैं. समाज में थोड़ी-सी छवि बनते ही वे दलालों को भरती करने लगते हैं या फिर बहुत कम मेहनताने पर पत्रकारों को नियोजित करते हैं, ताकि पत्रकार खुद ही ब्लैकमेलिंग के दुष्चक्र में फँस जाएँ. ऐसे पत्रकारों का समाज में क्या आदर होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. इसलिए समाज में अमूमन पत्रकारों के प्रति आदर घटता जा रहा है. कुछ साल पहले पटना में एनडीटीवी के संवाददाता प्रकाश सिंह की भी बेमतलब पिटाई हो गयी थी. जबकि उनकी कोई गलती थी ही नहीं. वे साफ़-सुथरी पत्रकारिता के लिए जाने जाते थे. चूंकि राजनेता पत्रकारों से खफा था, वह किसी एक पत्रकार को पीटकर यह सन्देश देना चाहता था कि वह ऐसा भी कर सकता है, इसलिए जो भी पत्रकार सामने आ गया, उसके साथ बदतमीजी कर ली गयी. मेरे एक मित्र एक राष्ट्रीय चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं, वे कहते हैं, एक दिन आयेगा, जब समाज हमें चुन-चुन कर पीटेगा, लोग दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे. क्योंकि हमारे ही कुछ भाई ऐसे काम कर रहे हैं, जिनका अंजाम ऐसा ही होगा.

जब पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर मैं अध्यापन के क्षेत्र में आया तो शुरू में तो लोग स्वागत करते, लेकिन बाद में पूछते कि आखिर इस पेशे का ये हाल क्यों हो गया? क्यों ऐसे लोग पत्रकार बनने लगे हैं? अकसर लोग यह पूछते हैं कि क्या इस पेशे में प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है? कोई शिकायत करता कि इस पेशे के लोग इतने बदजुबान क्यों हो गए हैं? जबकि आज से तीन दशक पहले जब हम पत्रकारिता में आये थे, तो लोग इस पेशे को बहुत इज्जत देते थे. उनके लिखे को ध्यान से पढ़ा जाता था. आज एकदम उलट हो गया है. एक समय था जब न्यायमूर्ति पालेकर ने पत्रकारों के लिए वेतनमान जारी करते हुए कहा था कि इस पेशे की पवित्रता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि पत्रकारों का न्यूनतम वेतन कालेज प्राध्यापकों के बराबर होना चाहिए, ताकि अच्छे व सुशिक्षित लोग इस पेशे में आ सकें. लेकिन पिछले दिनों जब प्रेस परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू को कहना पड़ा कि इस पेशे के लिए भी योग्यता तय होनी चाहिए, (क्योंकि ज्यादातर पत्रकारों को वे अशिक्षित मानते थे) तो लगा था कि इसमें गलत क्या है! यही वजह है कि अब किसी पत्रकार को पिटता हुआ देख कर कोई बचाने नहीं आता. यह स्थिति लगातार बिगडती जा रही है. बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही है. जबकि यही हिन्दी पत्रकारिता की आधारभूमि है. इसे बचाया जाना चाहिए. पत्रकारिता को अपनी भूमिका से नहीं भटकना चाहिए.

मंगलवार, 23 जून 2015

पत्रकार क्यों बेमौत मारे जा रहे हैं?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
शाहजहांपुर में जिस तरह से जगेन्द्र सिंह नाम के स्वतंत्र पत्रकार की आग लगाकर कथित हत्या की गयी, उसने एक बार फिर भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अग्र-पंक्ति में लाकर रख दिया है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 में से 136वें पायदान पर है. इस सूची में हम बहुत-से गरीब अफ्रीकी देशों और नेपाल जैसे पड़ोसी देश से पीछे हैं. हाँ, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जरूर हमसे भी पीछे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के लिए यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. 
प्रेस की आजादी और मानवाधिकारों की निगरानी रखने वाली दुनिया भर की संस्थाओं ने जगेन्द्र की हत्या की भर्त्सना की है और मामले की निष्पक्ष जांच करवाने की अपील की है. लेकिन निष्पक्ष जांच कहाँ से होगी! बल्कि खबर यह भी आ रही है कि एक और पत्रकार धीरज पांडे को सत्ता पक्ष के एक अन्य नेता द्वारा जबरदस्त यातना देने के बाद राजधानी लखनऊ के अस्पताल में भरती कराना पडा है. पीलीभीत में एक पत्रकार को घसीट-घसीट कर पीता गया. इधर मध्य प्रदेश में भी एक और पत्रकार संदीप कोठारी को भी मारा गया है. जिस ढिलाई के साथ उत्तर प्रदेश सरकार जगेन्द्र मामले को ले रही है और मुख्य आरोपी के खिलाफ कोई कदम उठाने में हिचक रही है, उससे हमारी क़ानून-व्यवस्था, राजनीति और राजनेताओं के इरादों पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगता है. जब देश और दुनिया भर में इस मामले में पत्रकार और मानवाधिकार संगठन लामबंद होने लगे तो सरकार ने जगेन्द्र के परिजनों को कुछ धन और नौकरी देने का आश्वासन देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है. लेकिन असल बात यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में पत्रकारों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है. उन पर हमले बढ़ रहे हैं.  
आखिर क्यों ऐसा हो रहा है? क्यों छोटे शहरों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है? पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं? इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों के अलावा पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, पत्र-स्वामियों को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचना-विचारना होगा. इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमय हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब यह बहुत ही आम-फहम हो गया है. हाल के वर्षों में पत्रकारों के प्रति घृणा-भाव में बेतहाशा वृद्धि हुई है. पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खडा रहता था. सम्पादक स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे. पत्रकार-संगठन और ट्रेड यूनियनें हमेशा पीछे खड़ी रहती थीं. पत्र-स्वामी स्वयं भी जुझारू हुआ करते थे. पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में डटे रहते थे. सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे. जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर कोई संकट आता था, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खडा हो जाता था.
लेकिन आज पत्रकार पिट रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं. यदि थोड़ा-सा भी समाज का भय होता तो क्या जगेन्द्र को इस तरह से जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेन्द्र तो किसी अखबार से भी सम्बद्ध नहीं था! फिर भी इतनी असहिष्णुता? वास्तव में हमारे समाज से सहिष्णुता लगातार कम हो रही है. सत्ता-केन्द्रों पर बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते. सत्य की दुर्बल से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं. जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सचाई उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य इस बात का भी है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का अन्तःस्खलन भी कम नहीं हुआ है. पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलाल उतर आये हैं. उन की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है. ऐसे व्यापारी इस क्षेत्र में कदम रख रहे हैं, जिनके पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. पत्रकारिता का कोई मकसद उनके पास नहीं है. वे अपने काले धंधों को सफ़ेद करने के लिए पत्रकारिता को ढाल की तरह से इस्तेमाल करते हैं. पत्रकारिता के जरिये अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभागों के खिलाफ ब्लैकमेल करते हैं. वे कुछ दिन तक तो पत्रकारों को नौकरी पर रखते हैं, उसके बाद उन्हें नौकरी से हटा देते हैं. समाज में थोड़ी-सी छवि बनते ही वे दलालों को भरती करने लगते हैं या फिर बहुत कम मेहनताने पर पत्रकारों को नियोजित करते हैं, ताकि पत्रकार खुद ही ब्लैकमेलिंग के दुष्चक्र में फँस जाएँ. ऐसे पत्रकारों का समाज में क्या आदर होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. 
इसलिए समाज में अमूमन पत्रकारों के प्रति आदर घटता जा रहा है. कुछ साल पहले पटना में हमारे बहुत अच्छे मित्र एन डी टी वी के संवाददाता प्रकाश सिंह की भी बेमतलब पिटाई हो गयी थी. जबकि उनकी कोई गलती थी ही नहीं. चूंकि राजनेता पत्रकारों से खफा था, वह किसी एक पत्रकार को पीटकर यह सन्देश देना चाहता था कि वह ऐसा भी कर सकता है, इसलिए जो भी पत्रकार हाथ आ गया उसके साथ बदतमीजी कर ली गयी. मेरे एक मित्र दिल्ली के बड़े चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं, वे कहते हैं, एक दिन आयेगा जब समाज हमें चुन-चुन कर पीटेगा, लोग दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे. जब पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर पढ़ाने आया तो शुरू में तो लोग स्वागत करते, लेकिन बाद में पूछते कि आखिर इस पेशे का ये हाल क्यों ऐसा हो गया? क्यों ऐसे लोग पत्रकार बनने लगे हैं? अकसर लोग यह पूछते हैं कि क्या इस पेशे में प्रशिक्षण की कोइ व्यवस्था नहीं है? कोई शिकायत करता कि इस पेशे के लोग इतने बदजुबान क्यों हो गए हैं? जबकि आज से तीन दशक पहले जब हम पत्रकारिता में आये थे, तो लोग इस पेशे को बहुत इज्जत देते थे. उनके लिखे को ध्यान से पढ़ा जाता था. आज एकदम उलट हो गया है. जब प्रेस परिषद् के अध्यक्ष काटजू साहब ने कहा था कि इस पेशे के लिए भी योग्यता तय होनी चाहिए, तो लगा था कि इसमें गलत क्या है! यही वजह है कि अब किसी पत्रकार को पिटता हुआ देख कर कोई बचाने नहीं आता. यह स्थिति लगातार बिगडती जा रही है. बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही है. जबकि यही हिन्दी पत्रकारिता की आधारभूमि है. इसे बचाया जाना चाहिए.

(हिन्दुस्तान, १६ जून, २०१५ में छपे लेख का विस्तारित रूप.)           

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पिछले एक दशक में देश में आये परिवर्तनों में एक बड़ा परिवर्तन मीडिया में आया बदलाव भी है. अखबार, रेडियो, टीवी और न्यू मीडिया, सब तरफ जबरदस्त उछाल आया है. हिन्दी का सार्वजनिक विमर्श क्षेत्र जितना बड़ा आज है, शायद उतना कभी नहीं था. यही नहीं भविष्य में वह और आगे बढेगा. हिन्दी का मीडिया न सिर्फ अपने देश में जगह बना पाने में कामयाब हुआ है, बल्कि आज उसकी पहुँच दुनिया भर में है. निस्संदेह इसमें टेक्नोलोजी का बड़ा योगदान है. हिन्दी के अखबार लगातार फ़ैल रहे हैं. उनका प्रसार बढ़ रहा है, उनका राजस्व बढ़ रहा है और सत्ता-व्यवस्था में उसकी धमक भी बढ़ रही है. आजादी से पहले तो हिन्दी की पत्रकारिता विशुद्ध मिशनरी थी और घोषित रूप से ब्रिटिश शासन के खिलाफ थी, इसलिए सत्ता के गलियारों में उसकी पहुँच हो भी नहीं सकती थी, और आज़ादी के बाद भी बहुत दिनों तक वह अंग्रेज़ी की चेरी ही बनी रही. सत्ता केन्द्रों में अंग्रेज़ी पत्रकारिता की ही पूछ होती थी. लेकिन अब वह बात नहीं है. हिन्दी पत्रकारिता को अब के सत्ताधारी नजरअंदाज नहीं कर सकते. टीवी की पहुँच इतनी व्यापक है कि सत्तासीन वर्ग उसके आगे गिडगिडाता नजर आता है. आज वे मीडिया घराने भी हिन्दी में अपना चैनल या अखबार निकाल रहे हैं, जो कभी हिन्दी से नफरत किया करते थे. आजादी के आसपास शुरू हुए अखबार आज देश के बड़े अखबार समूह बन चुके हैं. १९८० के आसपास देश के दस बड़े अखबारों में बमुश्किल १-२ हिन्दी अखबार स्थान बना पाते थे, आज शीर्ष पांच अखबार हिन्दी के हैं, यह हिन्दी की ताकत ही है कि वह बिना किसी सरकारी संरक्षण के तेजी से आगे बढ़ रही है. हिन्दी के ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर आज हमारी नई पीढी धड़ल्ले से हिन्दी का प्रयोग कर रही है. जो लोग देवनागरी लिपि में नहीं लिख सकते, वे रोमन में ही हिन्दी लिख रहे हैं. यह हिन्दी का विस्तार ही तो है. हिन्दी के प्रति नरम रुख रखने वाले मौरिशश- फिजी जैसे देशों को छोड़ भी दिया जाए तो यूरोप-अमेरिका में भी भारतवंशियों की नयी पीढी हिन्दी की तरफ आकृष्ट हो रही है. यानी इंटरनेट ने हिन्दी के लिए दुनिया भर के दरवाजे खोल दिए हैं. भलेही अभी उसे बाजार का समर्थन उस तरह से नहीं मिल रहा है, जैसे अंग्रेज़ी को मिला करता है, फिर भी उसका विस्तार किसी भी अन्य भाषा से ज्यादा हो रहा है.
अभी हिन्दी भाषी राज्यों में सिर्फ २५ प्रतिशत लोग ही अखबार पढ़ते हैं. इसकी वजह कुछ भी हो सकती है. हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता बहुत देर में पहुंची है, यहाँ परिवहन के साधन अन्य राज्यों की तुलना में कम हैं,  यहाँ लोगों की क्रय शक्ति कम है, लोगों में जागरूकता कम है, लेकिन सोचिए की जिस दिन ये सारी बाधाएं दूर हो जायेंगी, उस दिन हिन्दी के पाठकों का कितना विस्तार नहीं होगा. आज देश में हिन्दी के १५ करोड़ से ज्यादा पाठक हैं, जबकि अंग्रेज़ी के महज साढे तीन करोड़. यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि फिर भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता की धमक ज्यादा है. सत्ता का यह अलोकतांत्रिक व्यवहार बहुत दिन नहीं चलेगा. एक दिन हिन्दी पत्रकारिता को उसका देय मिलकर रहेगा.
यानी हिन्दी पत्रकारिता का संसार लगातार फ़ैल रहा है, वह बलवान भी हो रहा है, उससे प्रभु वर्ग डरने भी लगा है, लेकिन उसके स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है. यह ठीक है कि हिन्दी को शासक वर्ग का समर्थन नहीं मिल रहा है, धनी वर्ग का स्नेह नहीं मिल रहा है, लेकिन हिन्दी की अपनी ताकत भी तो कुछ मायने रखती है, जिसके बल पर वह प्रसार पा रही है. यदि हम अपना स्तर सुधारें तो निश्चय ही उन हलकों में भी हमें सम्मान मिलेगा, जहां अभी हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है.
निस्संदेह आज हमारी पत्रकारिता संक्रमण के दौर में है. पिछली सदी के अंतिम दौर में हमें टीवी ने बहुत भ्रमित किया था. तब यह घोषणाएँ हो रही थीं कि हिन्दी की पत्रकारिता कुछ ही दिनों की मेहमान है. टीवी उसे ग्रस लेगा. कुछ अरसा हिन्दी में मायूसी छाई भी रही लेकिन जल्दी ही वह संभल गयी. आज समाचार-टीवी खुद ही भटक गया है. टीआरपी की अंधी दौड़ में वे खुद भी खबरों से बहुत दूर छिटक गए हैं. निहायत अनुभवहीन लोगों के चलते आज उसकी गंभीरता ख़त्म हो चुकी है. उसके प्रति सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. जबकि प्रिंट मीडिया फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है.

इसलिए यह जरूरी है कि पत्रकारिता इस अवसर को लपके और अपने स्तर में सुधार करे. यह तभी हो सकता है, जब पत्रकारिता की पवित्रता को बरकरार रखा जाएगा. पेड  न्यूज बंद होनी चाहिए. इसकी वजह से पत्र और पत्रकार जगत को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. इसके लिए पत्रकारों को ही नहीं, पत्र-स्वामियों को भी आगे बढ़ कर पहल करनी होगी. यह सही है कि पत्र निकालना आज एक महँगा सौदा है, लेकिन यकीन मानिए, यदि आप अच्छा काम करेंगे तो आपको पाठक सर-आँखों पर बिठाएँगे. गांधी जी से बड़ा पत्रकार समकालीन विश्व में कोइ नहीं हुआ. अपनी आत्म कथा में उन्होंने कहा था कि, ‘मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बांध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले सकती है.’ यानी एक नए युग के निर्माण का अवसर सामने है. हिन्दी पत्रकारिता आगे बड़े और इस बीड़े को उठाये. 
(कैनविज़ टाइम्स, बरेली के लोकार्पण अंक, २२ जनवरी,१४ को प्रकाशित)