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गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

पश्चिमी मीडिया का नस्लभेद

मीडिया/ गोविन्द सिंह
टीआरपी और आईआरएस विवादों से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारा मीडिया पूरी तरह से पश्चिम का पिछलग्गू है. उसकी अपनी कोई सोच इतने वर्षों में नहीं बन पाई है. यहाँ तक कि हमारे मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण भी उन्हीं का है. जब हमारे मीडिया के समस्त मानदंड वही तय करता है तो नियंत्रण भी उसी का हुआ. उसे किधर जाना है, किधर नहीं जाना है, यह भी पश्चिम ही तय कर रहा है. यानी भारत के सवा लाख करोड़ रुपये के मीडिया बाजार के नियंत्रण का सवाल है, जिसकी तरफ मीडिया प्रेक्षकों का ध्यान गया है. हालांकि इसमें केवल पश्चिमी मीडिया का ही दोष नहीं है, हमारे मीडिया महारथी भी बराबर के जिम्मेदार हैं. कई बार ऐसा लगता है कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है. वे सिर्फ नक़ल के लिए बने हैं. अमेरिका से कोई विचार आता है तो वे उसे इस तरह से लेते हैं, जैसे गीता के वचन हों. मिसाल के लिए उन्होंने कहा कि खरीदार १८-३३ वर्ष का युवा है, इसलिए उसे सामने रख कर ही विज्ञापन की रणनीति बनाओ. पूरे देश के अखबारों में युवा दिखने की होड़-सी लग गयी. वह बात अलग है कि अब अमेरिका में ही इस विचार के विपरीत विचार आ गए हैं. उन्होंने कहा कि सम्पादक से ज्यादा ब्रांड मैनेजर जरूरी होता है, तो देश भर में सम्पादक नामक संस्था को ख़त्म करने की होड़ लग गयी. इस तरह से हमारे सम्पादकीय आदर्श धराशायी कर दिए गए.    
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ पश्चिम की नजर भारत के मीडिया बाजार पर है, वह इसे अपने फरेबी मानदंडों के जरिये नियंत्रित करना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ वह भारत को कभी गंभीरता से नहीं लेता. बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि पश्चिम का मीडिया भारत को अपनी नस्लवादी सोच से ही देखता है. न सिर्फ अमेरिका, यूरोप के देश भी उसी निगाह से देखते हैं. हाँ, अब वे भारत को एक बाज़ार की तरह जरूर देखते हैं. भारत में पत्ता भी हिलता है तो वे हंगामा खडा कर देते हैं, जबकि खुद भीतर तक नस्लवादी सोच से सराबोर हैं.
पिछले साल भारत ने अपना मंगलयान अंतरिक्ष में भेजा. यह भारत की बड़ी सफलता थी. इस पर हमारी लागत आयी सात करोड़ ४० लाख डॉलर. नासा वाले जब ऐसा ही यान अंतरिक्ष में भेजते हैं तो इसका दस गुना खर्च आता है. लेकिन यूरोप-अमेरिका के मीडिया ने भारत की जमकर आलोचना की. सीएनएन ने लिखा कि भारत ने भयावह गरीबी के बीच मंगलयान भेजा. गार्जियन ने लिखा कि ब्रिटेन भारत को गरीबी के नाम पर हर साल ३० करोड़ डॉलर अनुदान देता है और भारत इस तरह से मंगल यान में रूपया बहा रहा है. अपने आप को पत्रकारिता का आदर्श कहने वाला इकोनोमिस्ट कहता है, गरीब देश आखिर कैसे अंतरिक्ष कार्यक्रम चला सकते हैं? गरीबी तो बहाना है, असल मुद्दा यह है कि वे चाहते ही नहीं कि गरीब देश या उनकी बिरादरी से इतर देश ये काम न करें.
अब बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग ही देखिए. यह सब मानते हैं कि बलात्कार की घटनाएं मानवता के माथे पर कलंक हैं. लेकिन गत वर्ष दिल्ली में जब बलात्कार-विरोधी आन्दोलन चला था तब पश्चिमी अखबारों को जैसे भारत को गालियाँ देने का मौक़ा ही मिल गया. क्या अमेरिका, क्या यूरोप, तमाम देशों के अखबारों ने भारतीय समाज को जमकर कोसा. उन्होंने कहा कि भारत अभी असभ्य है, जंगली है. वहाँ स्त्रियों को कबीलाई युग की तरह से केवल उपभोग की वस्तु समझा जाता है. लेकिन आधुनिक युग की ही सचाई यह है कि भारत से चार गुना अधिक बलात्कार हर साल अमेरिका में होते हैं. भारत में प्रति वर्ष यदि २४ हजार बलात्कार होते हैं तो अमेरिका में ९० हजार से भी अधिक. फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में भी भारत से कहीं ज्यादा बलात्कार होते हैं. हम यह नहीं कहते कि भारत में कम होते हैं तो हम कोइ बहुत तरक्कीपसंद हैं. हमें आपत्ति इस बात पर है कि वे भारत को कोसने के लिए अपने रिकार्डों को भूल जाते हैं.
अब जलवायु परिवर्तन पर हो रही राजनीति को ही लीजिए. ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी अमीर देश रहे हैं. उनकी जीवन शैली ही धरती के लिए खतरा है. क्योटो प्रोटोकॉल ने इस बात को माना भी है. लेकिन अब जब भी किसी सहमति की बात होती है, या भारत अपनी कोई बात रखता है तो कह दिया जाता है कि ये ही खेल खराब कर रहे हैं. पश्चिमी मीडिया इस मामले में पूरी तरह से पक्षपाती रुख अख्तियार करता है.

असल बात यह है कि पश्चिमी देश भारत को अब भी ईएल बाशम का भारत ही समझते हैं. वे भारत की तरक्की को फूटी आँख नहीं देख सकते. वे भारत को या तो भिखमंगों का देश समझते हैं या फिर संपेरों-बाजीगरों का रहस्यमय देश ही मानते हैं. इसलिए कुम्भ मेला हो या ऐसा कोई धार्मिक आयोजन, पश्चिमी मीडिया उन्हें उसी नजर से देखता है. उनका अपना मीडिया नग्न तस्वीरें दिखाने का आदी है, बे-वाच जैसे कार्यक्रम के बिना उनका खाना हजम नहीं होता है. इसलिए कुम्भ या गंगा सागर जैसे मेलों में उनके कैमरे नग्नता की ही टोह में रहते हैं. वे भारत की विचित्रता को हमारे जंगलीपने के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इसलिए भारतीय मीडिया को चाहिए कि वे अपने मूल्य गढ़ें, पश्चिम की गुलामी बंद करें.(लाइव इंडिया, फरवरी, २०१४ से)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

टीआरपी का गोरखधंधा


मीडिया/ गोविन्द सिंह
देर से ही सही, टीवी चैनलों की व्यूअरशिप को जांचने के फर्जी तरीकों पर सरकार का ध्यान गया. केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों की रेटिंग्स पर नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिन्हें लेकर चैनलों की दुनिया में खलबली मची हुई है. अभी तक सर्वे कराने वाली एजेंसी टैम की सांझीदार कम्पनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गयी है. वह इन दिशा निर्देशों को किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देना चाहती. यही नहीं, अभी तक फायदा ले रहे चैनलों के मालिक भी नई व्यवस्था को फेल करने पर तुले हुए हैं, लेकिन बाक़ी चैनल खुश हैं कि टीआरपी के इस गोरखधंधे पर कोई तो नकेल कसेगा. लेकिन चूंकि अभी तक नए दिशा-निर्देश लागू नहीं हो पाए हैं, इसलिए यह भी स्थिति आ सकती है कि कुछ अरसे तक रेटिंग की कोई व्यवस्था ही ना रहे. इसे टीआरपी ब्लैक आउट की स्थिति कहा जा रहा है.   
टीआरपी के गोरख धंधे ने जिस तरह से पिछले १५ वर्ष से देश की जनता और टीवी चैनलों को भ्रमित कर रखा है  और देश की संस्कृति को प्रदूषित करने का खेल चला रखा है, वह किसी आपराधिक षड़यंत्र से कम नहीं है. लेकिन हमारी सरकारों को अपने राजनीतिक जोड़-तोड़ से फुर्सत ही कहाँ जो संस्कृति जैसे विषयों पर ध्यान देतीं. लेकिन समाज में टैम की टीआरपी व्यवस्था की घोर निंदा होती रही है. क्योंकि बहुत थोड़े सैम्पल लेकर पूरे देश की व्यूअरशिप का फतवा जारी कर देने से टीवी चैनलों के कंटेंट पर बेहद बुरा असर पड़ रहा था. टैम का सर्वे दर्शकों के बीच एक खाई भी पैदा कर रहा था. 
पिछली सदी के आख़िरी दशक में जब देश में निजी टीवी चैनलों का जाल बिछने लगा तो टीआरपी जैसी अवधारणा सामने आयी. उससे पहले चूंकि देश में केवल सरकारी टीवी अर्थात दूरदर्शन था, इसलिए उसे कभी इस तरह की प्रतिस्पर्धी व्यवस्था की जरूरत नहीं पडी. व्यूअरशिप जांचने का उसका अपना तंत्र था, दूरदर्शन और आकाशवाणी का अपना ऑडिएन्स रिसर्च यूनिट हुआ करता था. वह तमाम कार्यक्रमों की व्यूअरशिप जांचता था. लेकिन जब देश में बहुत से निजी चैनल आ गए तो एक निष्पक्ष एजेंसी की जरूरत आन पडी. जो घर-घर जाकर यह सर्वे कर सके और यह बता सके कि कौन-सा चैनल कितना देखा जा रहा है. किस कार्यक्रम की कितनी लोकप्रियता है? यह काम निश्चय ही सरकार को करना चाहिए था, जिसने निजी और सेटेलाईट चैनलों के लिए दरवाजे खोले थे. पर सरकार को कहाँ इस सबकी फुर्सत? न फुर्सत और न ही वैसी दृष्टि. नतीजा यह हुआ की टैम जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां कूद पड़ीं. लेकिन चूंकि देश में कोई कायदा-क़ानून नहीं था, इसलिए जिसकी जैसी मर्जी आयी, वैसा किया.
आपको आश्चर्य होगा कि सन २००० तक खबरिया चैनलों की टीआरपी जांचने के लिए सिर्फ ढाई हजार घरों में पीपुल्स मीटर लगे हुए थे. वह भी बड़े-बड़े महानगरों, अमीर राज्यों के अमीर घरों में ही ये मीटर लगे हुए थे. यानी ढाई हजार घरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरे देश की पसंद-नापसंद बताया जा रहा था. आप हैरान होंगे  कि पूरे बिहार और पूरे उत्तराखंड में एक भी मीटर नहीं था. वे चैनलों के विज्ञापनदाताओं के सामने एक ऐसा भारत पेश कर रहे थे, जो अमीर था, खुशहाल था, जिसकी कोई समस्या नहीं थी. उसकी पसंद को गरीब देश की पसंद बताया जा रहा था. जाहिर है वैसे ही कार्यक्रम भी बनने लगे. यह टीआरपी कंपनी का जाल-फरेब था, जो आम दर्शक को मूर्ख समझता था. टीवी कंपनियों को यह व्यवस्था मुफीद आती थी, क्योंकि इससे विज्ञापन उठाने में आसानी होती थी. जो चैनल आपको बहुत पसंद हो, जिसके कार्यक्रम आपको बहुत अच्छे लगते हों, जरूरी नहीं कि वे इन मुट्ठी भर दर्शकों को भी अच्छे लगें. लिहाजा हुआ यह कि सारे चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों का स्तर खराब होने लगा. खबरिया चैनलों पर दिखाए जाने वाले समाचार का स्वरुप विकृत होने लगा. न्यूज के नाम पर सांप-छछूंदर दिखाए जाने लगे. जादू-टोना और अंध विश्वास ने तर्क और प्रगतिशील विचारों की जगह ले ली. गाय को उड़ते हुए दिखाया जाने लगा. बेतूल के कुंजीलाल की मरने की घोषणा का लाइव प्रसारण हुआ. बड़े-बड़े खुर्राट पत्रकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आने लगे. बल्कि उन्होंने घुटने टेक दिए टीआरपी के सामने. इसलिए ऐसे फर्जी समाचारों को दिखाने वाले चैनलों के पौ-बारह होने लगे. सारे चैनल उसी राह पर चल पड़े. नतीजा यह भी हुआ कि जो संवाददाता खबरों की बात करता, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता. समाचार चैनलों से विचारवान पत्रकारों की छंटनी होने लगी और चालाक, बाजीगर किस्म के प्रोड्यूसरों की बन आयी. जब बहुत विरोध होने लगा तो सैम्पल साइज कुछ बढाया गया. पहले चार हजार, फिर छः हजार अब आठ हजार तक ही पहुँच पाया है टैम. आज की तारीख में भी ८१५० सैम्पल साइज के भरोसे पूरे देश का मूड बताने का दावा करता है टैम. क्या भारत जैसे बहुरंगी देश में यह संभव है?
अब सरकार कह रही है कि सैम्पल साइज बढाओ. कम से कम २० हजार करो. हर साल दस-दस हजार बढ़ाना  होगा. चार साल में ५० हजार करना होगा. यह देख कर टैम वालों को नानी याद आ रही है. मिल बाँट कर खाने-खिलाने का खेल ख़त्म होने वाला है. आखिर नौ हज़ार करोड़ के टीवी विज्ञापनों पर एकाधिकार का मामला है. मिल-बाँट कर खाने का खेल है. इसलिए अदालत की शरण में जा रहे हैं. लेकिन अदालत भी सब समझती है, इसलिए उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है. अब ब्लैक आउट का डर दिखा कर ब्लैकमेल किया जा रहा है. ब्लैक आउट होता है तो होने दो, पर टीआरपी की नयी व्यवस्था ईमानदारी से लागू होनी ही चाहिए. टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना देश के साथ धोखा है. (कैनविज टाइम्स, बरेली, ३ फरवरी, २०१४ को प्रकाशित)