गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

भस्मासुर बन सकता है असंतुलित विकास

उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह

राज्य बनने के 15 साल बाद भी एक खुशहाल पहाडी राज्य का सपना साकार नहीं हो पाया है तो इसका एक ही कारण है. वह यह है कि एक पहाड़ी राज्य को लेकर हमारे हुक्मरानों के मन में कोई विजन नहीं था. राज्य बन गया, सत्ता हाथ में आ गयी, और तथाकथित विकास की बाढ़ आती गयी. पैसा आया, योजना आयी, कुछ रकम खर्च हो पायी, कुछ बच गयी. इस प्रक्रिया में जो होना था, हो गया, बाक़ी इष्टदेव अपने आप देखेगा! सचमुच इसी ढर्रे पर चला है, उत्तराखंड राज्य. यह हमारी जनता का धैर्य और संतोषी स्वभाव ही है, जो यहाँ की सरकारें आराम से पांच साल काट लेती हैं. यह भी कह सकते हैं कि बीते 15 वर्षों में जनता को समझ ही नहीं आया कि अब हम क्या करें? आन्दोलन भी चलायें तो किसके खिलाफ? यही वजह है कि पूरे राज्य में असंतुलित विकास हुआ है. लगता ही नहीं, इस विकास के पीछे कोई सुचिंतित रणनीति काम कर रही है.
देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाया गया. ठीक है. बात समझ में आती है, क्यों कि तत्काल एक राजधानी का भार ढोने को कोई शहर तैयार नहीं था. लेकिन पिथौरागढ़, मुनस्यारी और धारचूला के नागरिक के लिए कितना दूर है देहरादून, किसी ने सोचा तक नहीं. यहाँ तक कि उत्तरकाशी के दूरस्थ इलाकों के लिए भी वह उतनी ही दूर पड़ता है. चलो, मान लिया कि यह अस्थायी राजधानी थी, लेकिन स्थायी राजधानी के लिए भी तो सोचना चाहिए था. एक तेलंगाना को देखिए, किस तरह से पहले ही दिन से उन्होंने नई राजधानी के लिए स्थान का चयन किया और उस पर युद्ध स्तर पर काम शुरू कर दिया है. सुखद आश्चर्य यह है कि किसी स्तर पर कोई मतभेद नहीं दिखाई पड़ा. अपने यहाँ तो कोई ऐसा काम नहीं होता जिस पर ‘नौ कनौजिए, तेरह चूल्हे’ वाली कहावत चरितार्थ न होती हो.
अब कुमाऊँ अंचल को ही देख लीजिए. एक ज़माना था, जब टनकपुर, हल्द्वानी और रामनगर की स्थिति एक जैसी थी. तीनों ही पहाड़ के प्रवेशद्वार थे. आज इन तीनों द्वारों में से हल्द्वानी ही एक ऐसा शहर है, जिसकी तरफ हुक्मरानों की नजर है. हल्द्वानी के लिए हर तरह की ट्रेनें हैं, बसें हैं, सड़कें हैं, सुविधाएं हैं, लेकिन टनकपुर जैसे का तैसा है. टनकपुर ही क्यों, खटीमा और बनबसा की भी वैसी ही दशा है. इसी वजह से पिथौरागढ़, चम्पावत का विकास नहीं हो पा रहा है. बहुत पहले से कहा जाता रहा है कि यहाँ से काली नदी के किनारे-किनारे धारचूला तक सड़क बनेगी और वहाँ पहुँचने तक साठ किलोमीटर का फायदा हो जाएगा. कभी कहते हैं सुरंग रेल बनेगी. यह इलाका इतना संवेदनशील है, दो-दो पड़ोसी देशों की सरहदें इन जिलों से लगती हैं, फिर भी हमारी सरकारों को कोई चिंता नहीं. ढंग की रेल लाइन तक यहाँ नहीं है. चीन ने एकदम नेपाल की उत्तरी सीमा तक चमचमाती हुई सड़कें बना ली, तब भी हमें कोई चिंता नहीं होती. जब इन इलाकों में रेडियो तक इस देश का नहीं सुनाई देता, नेपाल का ही पकड़ता है, तो और बड़ी बुनियादी संरचनाओं की बात क्या करें?

कायदे से देखा जाए, तो उत्तराखंड के तमाम पहाड़ी शहरों में सबसे सुन्दर और संभावनाशील शहर पिथौरागढ़ था. लेकिन योजनाविहीनता और उपेक्षा के कारण आज उसकी क्या हालत हो गयी है, यह साबित करने की जरूरत नहीं है. हमारे पास पर्यटन और तीर्थाटन के अलावा बेचने के लिए और क्या है? लेकिन क्या आज पिथौरागढ़ हमारे पर्यटन मानचित्र पर है? मुनस्यारी को छोड़ दें तो और कहीं भी क्या राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक पहुँचते हैं? इसलिए केवल देहरादून के इर्द-गिर्द विकास मत कीजिए. यह न भूलिए कि इस प्रदेश में और भी ऐसे इलाके हैं, जो आपके विकास की बाट जोह रहे हैं. असंतुलित विकास भविष्य में आपके लिए ही भस्मासुर बनेगा. (खटीमा दीप में प्रकाशित)       

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

पहाड़ के शहरों में कूड़े और कैंसर का आतंक

पहाड़-यात्रा-3/ गोविन्द सिंह
पिछले अंकों में आपने पढ़ा कि लेखक ने अपनी पिथौरागढ़ यात्रा के दौरान क्या-क्या देखा? किस तरह बदल रहा है अपना पहाड़? पढाई-लिखाई, खेती-बड़ी, पलायन और शराबखोरी के कारण किस तरह तबाह हो रहे हैं अपने गाँव? पहाड़-यात्रा की अंतिम कड़ी में इस बार प्रस्तुत है:
उल्का देवी मंदिर से पिथौरागढ़ 
अपने गाँव सौगाँव और ननिहाल लीमा-जौराशी से लौटते हुए हम पिथौरागढ़ पहुंचे. यहाँ इजा को पेंशन लेनी थी. उनकी उम्र 94 वर्ष हो चुकी है. अब काफी कमजोर हो चुकी हैं. साल-छः महीने में जाकर वहीं से पेंशन लेनी पड़ती है. हल्द्वानी ट्रांसफ़र करवाने की कुछ कोशिश की, लेकिन हुई नहीं. पिताजी बर्मा वाले थे. 1967 में उनकी मृत्यु के बाद 1990 में इजा को बड़ी मुश्किल से पेंशन लगी थी. लोग कहते हैं, बर्मा वालों कि ट्रान्सफर नहीं होती. अंगूठा-टेक होने से बैंक वाले भी मदद नहीं करते. हमने भी ज्यादा जोर नहीं लगाया. कम से कम इसी बहाने साल में एक बार गाँव जा आते हैं. ईस्ट देव के मंदिर में एक गोदान दे आते हैं. पुरखों की भूमि है, उसे इतनी जल्दी अपनी स्मृतियों से अलविदा नहीं किया जा सकता. यूं भी इजा के आधे प्राण वहीं अटके रहते हैं. पहाड़ जाने के नाम पर उनमें नया जोश आ जाता है. हम लोग भी जड़ों से जुड़े रहते हैं.
पिथौरागढ़ से आठ-दस किलोमीटर पहले पलेटा नाम का गाँव पड़ता है. देखा कि यहाँ सड़क के नींचे पहाड़ी पर से पिथौरागढ़ का कूड़ा-कचरा फेंका गया था. इस कचरे से धुएं की एक अनवरत लट उठ रही थी, जो अत्यंत बदबूदार थी. इस कचरे में प्लास्टिक-पौलीथीन होगा, अस्पतालों का जहरीला कचरा होगा और न जाने क्या-क्या होगा. जो बदबूदार धुआं इससे उठ रहा था, वह कितना हानिकारक होगा, उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते. पलेटा से लेकर नैनीपातल तक और पिथौरागढ़ की तरफ जाजरदेवल तक के लोग इस धुएं को ग्रहण करने को अभिशप्त हैं. आकाश में मिलकर जिस तरह से यह धुंआ समस्त वायुमंडल को प्रदूषित कर रहा है, वह और भी चिंताजनक है. प्‍लास्टिक, पॉलीथीन और थर्मोकोल के जलने से जो धुआं निकलता है, उसमें हाइड्रोजन सायनाइड और क्‍लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसें होती हैं। यह परखी हुई बात है कि इन गैसों से कैंसर जैसे असाध्‍य रोग होते हैं। ये गैसें सेहत के लिए तो घातक होती ही हैं, पर्यावरण के लिए भी अत्‍यंत नुकसानदेह हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि पॉलीथीन धरती के लिए भी घातक है और पानी के लिए भी। रंगीन पॉली बैग्‍स में लेड और कैडमियम जैसे रसायन होते हैं जो जहरीले और सेहत के लिए खतरनाक होते हैं। जो लोग इस तरह नितांत अवैज्ञानिक तरीके से कचरे को ठिकाने लगा रहे हैं, ऐसा नहीं हो सकता है कि वे इसके दुष्परिणामों से अपरिचित हों. यदि जानबूझकर भी वे ऐसा कर रहे हैं तो वे खुल्लमखुल्ला अपराध कर रहे हैं. लेकिन ऐसे लोग भी हैं, जो इसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं जानते. शहरों की गलियों-बाजारों में सुबह-सवेरे लोग प्लास्टिक कचरे को जलाते हैं और अपनी मौत का धुवां पीते हैं.
हम लोग इस बात से बेहद चिंतित हैं कि पहाड़ों में कैंसर का प्रकोप दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. दो साल पहले मेरे गाँव के पास की गोबुली दीदी केंसर की भेंट चढ़ गयी. इस साल मुवानी के पास के एक गाँव से एक गरीब महिला हल्द्वानी आयी थी, जिसे आँतों का केंसर लील गया. रोज-ब-रोज कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. बड़े-बूढ़े कहते हैं, ये कैसा ज़माना आ गया है. कैसी-कैसी बीमारियाँ सुनने में आ रही हैं. ग्रामवासियों को नहीं मालूम कि कैंसर क्यों पहाड़ भर में पसर गया है? इसका एक ही कारण है हमारी आधुनिक जीवन शैली. प्लास्टिक-पौलीथीन पर अत्यधिक निर्भरता. खेती में अत्यधिक रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल. पहले जमाने में पहाड़ों के लोग शुद्ध अनाज खाते थे. गोबर की खाद में उगी सब्जियां खाते थे. बांज-रयांज के जंगलों का ठंडा पानी पीते थे. गोठ की गाय-भैंस का दूध-घी पीते थे. मोटा और ताकतवर अनाज होता था. और खूब पैदल चलते थे. इसलिए बीमारियाँ भी पास नहीं फटकती थीं. अब धीरे-धीरे ये सब चीजें गायब होती जा रही हैं. लोग सुविधाभोगी हो रहे हैं. हमने अपने बच्चों को शारीरिक काम न करने के संस्कार दिए हैं. इसलिए नई पीढ़ी खेतों में काम नहीं करना चाहती. बाजार से तो मिलावटी चीजें ही मिलेंगी. ऊपर से रही-सही कसर गरीबों को मिलने वाला मुफ्त अनाज पूरी कर दे रहा है. इसके लालच में लोग अपनी खेती छोड़ रहे हैं. उन्हें नहीं मालूम कि यह अनाज किस तरह की रासायनिक खादों से उगा है! कितना घातक है उनके लिए. पहाड़ों में कूड़े के निपटान की कोइ व्यवस्था न हो पाना हमारे नेताओं और अफसरों की कार्यशैली पर बड़ा सा सवालिया प्रश्नचिह्न लगाता है.  खटीमा दीप, १६ अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित 

शराब ने सब कुछ चौपट कर दिया

पहाड़-यात्रा-2/ गोविन्द सिंह
गरमी बढ़ने से इस साल बुरांस भी कुछ बुझे-बुझे से नजर आये 
 ऐसा नहीं है कि गाँव में उत्साही लोग बचे ही नहीं. कुछ लोग हैं जो गाँव को बचाने में भी लगे हुए हैं. खेती के नए-नए तौर-तरीके अपना रहे हैं. इक्का-दुक्का पौली हाउस भी दिख जाते हैं, जिनके भीतर हरी-भरी सब्जियां उग रही होती हैं. वे सब्जियों को शहर में ले जाकर बेचने की कोशिश भी करते हैं. भाई दान सिंह बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने पौली हाउस में ब्रोकली लगाई थी. काफी हुई, लेकिन शहर पहुंचाने तक सूखने लग गयी. पंद्रह रुपये किलो भी नहीं बिकी. पड़ोस के मुवानी कसबे में लोग इस हरी गोबी को लेने को तैयार ही नहीं हुए. इसलिए इस बार बोई ही नहीं. मैं सोचता रहा, जिस ब्रोकली को हम दिल्ली में अस्सी-सौ रुपये में लेने को भी तरसते थे, उसे हमारे उन्नत किसान को जैसे-तैसे 15-20 रुपये में निपटाना पड़ा! कुछ लोगों ने धनोपार्जन के लिए मुर्गियों को पालना शुरू किया है. कुछ बकरियों का ब्यापार कर रहे हैं.
जौराशी- चरमा के बीच एक जंगल में गिद्धराज के दर्शन हुए.
लेकिन खेती के नए तौर-तरीकों को आजमाने वाले लोग बहुत कम हैं. आम तौर पर लोग पारंपरिक खेती तक ही सीमित रहते हैं. खेती करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं, पढ़े-लिखे या प्रगतिशील सोच वाले लोग गांवों में बचे ही नहीं तो नए विचारों को कौन अपनाए? इसलिए बचे-खुचे लोगों के मन में एक ही भाव रहता है: कौन करे? क्यों करे? अतः  अब गाँव में भी लोग सब्जियां खरीद कर खाने लगे हैं. इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे. पुराने जमाने में परिवार के पास कम खेती और खाने वाले लोगों की संख्या अधिक होने से अनाज भले साल भर न पहुंचे, पर दाल-सब्जी तो खरीदनी नहीं पड़ती थी. फल भी साल भर कुछ ना कुछ होते ही थे. हमारे गाँव में लोग अपने लायक गुड़ भी तैयार कर ही लेते थे, खुदा (शीरा) तैयार करके रख लेते थे. चूख का रस निकाल कर उसे उबाल लिया करते थे. यह काला चूख साल भर तक चलता था. च्यूर का तेल निकालते थे, उसका घी बनता था. अपने लायक सरसों-तिल आदि का तेल भी निकल ही आता था. अब ये सब चीजें गायब हो गयी हैं. एक जवान बहू से मैंने जब तेल पेलने वाले कुल्यूड (कोल्हू) के बारे में पूछा तो उसे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या पूछ रहा हूँ. बोली, ससुर जी, मैंने तो इस गाँव में कभी कुल्यूड़ा नहीं देखा. उसे आश्चर्य हुआ कि कभी इसी गाँव के लोग अपने लिए खुद ही तेल भी निकालते थे! मुझे उसे कुल्यूडा का चित्र बना कर समझाना पड़ा कि वह कैसा होता था.
पातळ भुवनेश्वर गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर 
अब तो सब चीजें बाजार से ही आती हैं. यहाँ की चीजों को बाजार लेता नहीं, क्योंकि उनकी पैकेजिंग आकर्षक नहीं है. लेकिन बाजार की घटिया चीजें धड़ल्ले से गाँव पहुँच रही हैं. और अपने साथ ला रही हैं ढेर सारी बीमारियाँ और बुरी आदतें. लोगों ने अपने गाँव का तम्बाकू तो छोड़ दिया है लेकिन गुटखा, बीड़ी-सिगरेट और शराब खूब चल रही है. गाँव के गाँव शराबखोरी की लत के कारण बरबाद हो रहे हैं. मेरे आस-पास के गांवों के कुछ बच्चे पिछले साल हल्द्वानी भरती की दौड़ में शामिल होने को आये. एक भी सेलेक्ट नहीं हुआ. मैंने बच्चों से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ. हमारे गांवों में सड़क नहीं पहुंची है, वहाँ तो बच्चे फिट होने चाहिए. फिर दौड़ में क्यों पिछड़ गए? एक लड़के ने बताया, ‘अंकल’ अब दौड़ने में हमारी साँसें फूल जाती हैं. क्यों? क्योंकि बीड़ी-शराब और गुटखा की लत जो लग गयी है! हे राम!
शराब के कारण कई अच्छे-खासे लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो गए. मेरे अपने गाँव में मेरी उम्र के तीन लोग शराब की भेंट चढ़ गए. ये लोग बचपन में बड़े होनहार थे. मेरी ससुराल में और भी ज्यादा लोग शराब ने लील लिए. लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. गाहे-बगाहे वे इसकी चर्चा भी करते हैं. लेकिन शराब है कि बंद नहीं होती. अंग्रेज़ी शराब तो शहरों में है, फौजियों की शराब- थ्री एक्स का भी खूब चलन है. जिनकी पहुँच यहाँ तक नहीं है, वे ठर्रे और देसी शराब से काम चलाते हैं. शादी-ब्याह के माहौल को शराब ने बिगाड़ कर रख दिया है. लोग शादी-ब्याह में इसलिए जाते हैं कि इस मौके पर बहुत से लोगों से मुलाक़ात हो जायेगी. लेकिन नशे से लोट-पोट लोगों से आप क्या बात करेंगे? सचमुच, मैं तो बड़ी कडुवी यादें लेकर लौटा हूँ, ऐसी शादियों से. जहां भी गया, लोगों ने शराब जरूर ऑफ़र की. जब मैंने कहा कि मैं शराब नहीं पीता, तो लोग मानने को तैयार ही नहीं हुए. अक्सर ऐसे मौकों पर मार-पीट हो जाया करती है. मुझे याद है, बचपन में हमारे गाँव में कभी-कभार ही शराब के दर्शन तब होते थे, जब कोई फ़ौजी छुट्टी आता था. एकाध बोतल ही उसके बोजे (सामान का गठ्ठर) से निकलती थी. एक बार में ही वह अपने सारे मिलने वालों को पिला दिया करता था. गाँव की बूढ़ी औरतें भी पेट के बाय आदि बीमारियों के लिए दराम (शराब) की एक घूट मांगने सिपाही के घर आती थीं. लेकिन धीरे-धीरे घर-घर में शराब बनने लगी. फिर दुकानों से पाउच में शराब मिलने लगी. फिर पेंशनरों को शराब का कोटा मिलना शुरू हुआ. और अब तो शराब के बिना कुछ होता ही नहीं. आपको घर बनाना हो, चाहे खेत जुतवाना हो, शादी-ब्याह पर कुछ काम निकलवाना हो, शराब तो पिलानी ही होगी. यहाँ तक कि मलामी (शवयात्रा) जाने के लिए भी शराब की रिश्वत देनी पड़ती है. यही नहीं शादी-ब्याह में औरतें भी पेग लगाने लगी हैं. आज वे सिर्फ शादी-रतेली में पी रही हैं, कल को गम गलत करने के लिए पियेंगी और परसों उनकी आदत हो जायेगी. ये कैसा दुर्भाग्य है, हमारे गांवों का? क्या यही दिन देखने के लिए बनाया था हमने यह राज्य? न जाने किस मनहूस की नजर लगी मेरे पहाड़ को? (जारी...)
खटीमा दीप, 1 अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित  


किसकी नजर लगी हमारे गांवों को?

पहाड़-यात्रा-1/ गोविन्द सिंह
अपने गाँव के नौले पर मेरी पत्नी द्रौपदी 
लगभग दो साल बाद पिछले हफ्ते पहाड़ यात्रा का सौभाग्य मिला. हल्द्वानी से अल्मोड़ा, शेराघाट, बेरीनाग, थल, मुवानी होते हुए अपने गाँव सौगाँव. अपने गाँव में ईस्ट देव अलायमल के थान में एक गोदान, स्कूल में एक छोटा-सा कार्यक्रम और वापसी. गंगोलीहाट, पाताल भुवनेश्वर, पांखू में कोटगाडी मंदिर होते हुए, डीडीहाट, जौराशी, कनालीछीना और पिथौरागढ़. और फिर घाट, दन्या, दोल., पहाड़पानी, धानाचूली, धारी और भीमताल होते हुए हल्द्वानी वापस आये.
बचपन में जब साल में एक बार गाँव जाते थे तो अनुभूतियाँ कुछ और ही हुआ करती थीं. घर से छः-सात किलोमीटर दूर चौबाटी या मुवानी या बूंगाछीना तक बस या जीप से उतरने के बाद पैदल ही जाना पड़ता था. दूर देश से आते हुए लड़के को देखने को खेतों में काम करते लोग खड़े हो जाते और आपस में ही पूछते, आज किसका लड़का घर आ रहा है! उनके चेहरों पर खिली मुस्कान से लगता कि जैसे उनका अपना लड़का ही घर आ रहा है. कोई-कोई महिला पूछ लेती, इजा, किस गाँव का है, किसका बेटा है! कहाँ से आ रहा है? कितने दिन की छुट्टी आया है? घर पहुँचने की उत्सुकता दिल में धुकधुकी बन कर आती. गाँव का नौला सबसे पहले आता. वहाँ पर पौस (अंजुरी) भर-भर के अपने गाँव का पानी पिया जाता. क्या मिठास होती! कोई हाथ का थैला उठाता, कोई लड़कपन की यादें ताजा करता. तब घर पहुँचते. गाँव भर के लोग मिलने पहुँचते. देखते ही देखते कब महीना गुजर गया, पता ही नहीं चलता था. जब गाँव से लौटते तो गाँव भर के लोग, खासकर महिलायें दूर तक छोड़ने आतीं. सर पर दूब के तिनके रखतीं और सलामती का आशीर्वाद देतीं.
सौगाँव में हमारा पत्रिक घर 
अब पहाड़ के गाँव भी बहुत बदल गए हैं. वो गर्मजोशी अब कहाँ!
ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं या पलायन की तैयारी कर रहे हैं. पलायन भी कई सस्तरों का है. कुछ लोग हैं, जो पास के ही कस्बों में चले गए हैं. उनकी जमीनें अभी गाँव में भी हैं. खेती भी करते हैं और दुकानदारी भी. वैसे खेती में अब उनका मन कम ही लगता है. कुछ लोग दूर जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ चले गए हैं. उन्होंने वहाँ मकान बना लिए हैं. वे दो-चार महीने में कभी-कभी ही गाँव में दर्शन देते हैं. कुछ परिवारों के बुजुर्ग ही गाँव में रह गए हैं. उनकी बहुएं अपने नौनिहालों को लेकर पिथौरागढ़, डीडीहाट या किसी और शहर में चली गयी हैं. वहाँ वे किराए का कमरा लेकर बच्चों को तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ा रही हैं. उनके फ़ौजी पति फ़ौज से छः महीने-साल में अब शहरों में ही अपनी बीबी-बच्चों से मिल लेते हैं. गाँव कभी-कभार ही जाते हैं. बूढ़े मां-बाप की आँखें अपने फ़ौजी बेटे की सूरत देखने को तरसती रह जाती हैं.      
गोदान की तैयारी में पंडित जी.
जब हम बच्चे थे, तब गाँव में सिर्फ प्राइमरी स्कूल था. अब हाई स्कूल बन गया है. पांच-छः गाँव आस-पास हैं, लेकिन संख्या सिर्फ 44 रह गयी है. दो साल पहले 56 थी. मेरे गाँव के बुजुर्गों ने इस स्कूल को खोलने के लिए अपनी जान लगा दी थी. लेकिन आज मेरे गाँव के एक-दो बच्चे ही इस स्कूल में जाते हैं. बाक़ी सब शहर के स्कूल चले गए हैं. शहर के तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूलों में जिस तरह की पढाई हो रही है, मुझे नहीं लगता कि गाँव के हाई स्कूल में उससे कमतर होती होगी. गाँव में जो माहौल उन्हें मिलता, वह शहर में कहाँ. एक बुजुर्ग कहते हैं कि ‘न हवा अच्छी, न पानी अच्छा. वहाँ तो सब मोल ही लेना हुआ.’ स्कूल के अध्यापक बताते हैं कि यहाँ पढाई अच्छी होती है. छः अध्यापक हैं. बच्चे अब फर्स्ट डिवीजन भी ला रहे हैं. फिर भी एक अंधी दौड़ लगी है. भेडचाल है.
गाँव के हाई स्कूल में 
गाँव के युवाओं को शहर जाने का रोग लग गया है. फ़ौजी भी चाहने लगे हैं कि उनकी बीवियां शहर में रहें. ताकि जब वे घर लौटें तो बीवी उनका स्वागत फिल्मी अंदाज में करे. इसलिए जिनके बच्चे नहीं हैं, वे भी किराए में कमरा लेकर शहर में रहने लगी हैं. ताकि गाँव में खेती-बाडी का काम न करना पड़े.
पहले हर घर के गोठ में बैलों की जोड़ी होती थी, भैंस होती थी, गायें होती थीं, बकरियां होती थीं. गोधूलि वेला में जब मवेशियों का रेवड़  जंगल से घर लौटता था, एक अलग ही रौनक गाँव में होती थी. अब गाँव में गाय-भैंस के अल्लाने की आवाज तक सुनाई नहीं पड़ती. न बैल हैं न बकरियां. हमें गोदान के लिए बछिया की जरूरत पड़ी, तो तीसरी बाखली से मंगवानी पड़ी.
अच्छे-अच्छे खेत बंजर दिखाई पड़े. मन में बड़ा दर्द हुआ. एक ज़माना था, जब जमीन के एक-एक टुकड़े के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना खून-पसीना बहाया, हमारी पीढी उसकी तरफ देखती तक नहीं. बुजुर्ग कहते हैं कि जब बच्चे करना ही नहीं चाहते तो हम कब तक अपनी हड्डी तोड़ें? लिहाजा वे भी अब समर्पण कर चुके हैं. किसी ने एकाध गाय रख ली तो रख ली, वरना वह भी किसलिए?
यानी गाँव की तस्वीर बड़ी दर्द भरी है.
खटीमा दीप, 16 मार्च, 2016 में प्रकाशित