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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

स्मार्ट शहर का अधूरा सपना

उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह
पिछले पखवाड़े जारी हुई देश के बीस स्मार्ट शहरों की सूची में उत्तराखंड के किसी भी शहर को स्थान न मिल पाने से उत्तराखंड के लोग खासे मायूस हुए. प्रदेश सरकार ने देहरादून के करीब एक नया स्मार्ट शहर स्थापित करने का जो प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा, वह अपने आप में इतना मुकम्मल नहीं था कि उसे पहले बीस शहरों में स्थान मिल पाता. कुछ कांग्रेस नेताओं ने इसे राजनीतिक रंग देने और केंद्र पर उत्तराखंड के साथ भेदभाव करने के आरोप भी लगाए लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ज्यादा परिपक्वता का परिचय देते हुए कहा कि इसमें किसी तरह का राजनीतिक पूर्वाग्रह नहीं दिखाई देता.
चलो, यह तो राजनीतिक बात हुई, असल बात यह है कि आम जनता को भी लगा कि क्या हमारा प्रदेश इस लायक भी नहीं कि यहाँ के किसी एक शहर को स्मार्ट शहर बनाया जाए. हालांकि आम लोगों को नहीं मालूम कि स्मार्ट शहर क्या होता है, उसे चुनने की क्या प्रक्रिया होती है और वह कैसे बनता है? सबसे पहले हम स्मार्ट शहर के बारे में जानते हैं. यह एक ऐसा शहर होता है, जहां हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध होती है. आधुनिक सुविधा से आशय मुख्यतः सूचना-प्रौद्योगिकी से जुडी सुविधाएं होती हैं. यानी वहाँ की सड़कें हर रोज कोई न कोई तार डालने या नाली बिछाने के लिए खुदी नहीं होंगी. वे सब पहले से ही मौजूद होंगी. आप अपने घर से ही बहुत सी सेवाएँ और काम संचालित कर पायेंगे. इस योजना के तहत स्मार्ट शहर बनने पर हर साल सौ करोड़ रुपये भी मिलते हैं. जाहिर है, वहाँ रहने वालों को इन सुविधाओं के उपभोग करने की कीमत देनी होगी. लेकिन ये चीजें दूर से देखने को अच्छी तो लगती ही हैं. ऐसा नहीं कि स्मार्ट शहर बन जाने से पूरे देहरादून की समस्त प्रजा को ये सारी सुविधाएं मिलने लगेंगी. लेकिन कम से कम सुनने में तो अच्छा लगता है.
तो क्यों नहीं बन पाया देहरादून स्मार्ट शहर?
स्मार्ट शहर के लिए तीन तरह की योजनायें केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने प्रस्तुत की थीं. पहली योजना यह थी कि वर्तमान शहर में पहले से उपलब्ध संरचनाओं का विकास कर इस लायक बनाया जाए कि वह स्मार्ट बन सके. दूसरी योजना के तहत शहर के मौजूदा ढाँचे को ध्वस्त कर के पुनर्निर्माण किया जाए. और तीसरी योजना के तहत किसी नई जगह खाली जमीन का अधिग्रहण करके वहाँ नया शहर बसाया जाए. हमारी राज्य सरकार को पहली दोनों याजनाएं अव्यावहारिक लगीं, इसलिए उसने तीसरी योजना पर काम किया. सरकार का कहना है कि पुराने शहर को तोड़-फोड़ करने में बहुत मुश्किलें आयेंगी और परियोजना को अंजाम देने में देर भी लगेगी. इसलिए तीसरे विकल्प को अपनाया गया. सहसपुर के पास के चाय बागानों पर नजर पड़ी. चाय बागानों की तकरीबन दो हजार एकड़ जमीन के अधिग्रहण की योजना बनी. लेकिन तभी विरोध के सुर तेज होने लगे. विरोधियों ने आरोप लगाए कि इससे जमीनों के खरीद-फरोख्त का धंधा चल पड़ेगा. साथ ही चाय बागान की जमीन के अधिग्रहण पर भी तकनीकी दिक्कतें आयीं. सरकार को लगा कि वह फंस रही है. अंत में 350 एकड़ जमीन पर करार हुआ. सरकार ने इस हरित पट्टी पर नया स्मार्ट शहर का प्रस्ताव केंद्र को भेज दिया. लेकिन जानकार कहते हैं कि प्रस्ताव बिना एसयूवी अर्थात स्पेशल परपज वीहकल के ही भेजा गया. साथ ही एक दिक्कत यह भी रही कि ग्रीनफील्ड प्लान के तहत बनने वाले शहर के लिए कमसे कम दो हजार करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष निवेश चाहिए, क्या राज्य सरकार वह सब जुटा पायेगी? लिहाजा देहरादून को पहले बीस शहरों में जगह नहीं मिल पायी. लेकिन संतोष की बात यह भी है कि ग्रीनफील्ड प्लान वाले किसी भी प्रस्ताव को इस खेप में नहीं लिया गया है. अब अप्रैल में 23 और शहरों की घोषणा होनी है. सरकार को आशा है कि दूसरी लिस्ट में देहरादून को जरूर स्थान मिलेगा. लेकिन यहाँ भी निराशा की आशंका व्यक्त करने वालों की कमी नहीं है. वे बता रहे हैं कि देहरादून का प्रस्ताव इतना कमजोर है कि उसका नंबर 97वां है. इसलिए उसरी लिस्ट से भी बहुत आशा नहीं है.

कुल मिलाकर स्मार्ट सिटी को लेकर उत्तराखंड की झोली अभी तक खाली है. जिनके नेता दृष्टिसंपन्न हैं, जिनके अफसर स्मार्ट हैं, उन्होंने एक से अधिक स्मार्ट शहर हथिया लिए हैं. जिनके अफसर ढीले-ढाले हैं, वे पीछे रह गए हैं. हमारी यही नियति है. एक तो हमारे नेता और अफसरों को देहरादून के अलावा और कहीं कुछ दीखता ही नहीं. दूसरे, उन्हें हर चीज में राजनीति और स्वार्थ दिखता है. यही वजह है कि 15 साल बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते कि हमने नया राज्य बनाकर बहुत अच्छा किया! (खटीमा दीप, 15 फरवरी, 2016 में प्रकाशित)        

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

भस्मासुर बन सकता है असंतुलित विकास

उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह

राज्य बनने के 15 साल बाद भी एक खुशहाल पहाडी राज्य का सपना साकार नहीं हो पाया है तो इसका एक ही कारण है. वह यह है कि एक पहाड़ी राज्य को लेकर हमारे हुक्मरानों के मन में कोई विजन नहीं था. राज्य बन गया, सत्ता हाथ में आ गयी, और तथाकथित विकास की बाढ़ आती गयी. पैसा आया, योजना आयी, कुछ रकम खर्च हो पायी, कुछ बच गयी. इस प्रक्रिया में जो होना था, हो गया, बाक़ी इष्टदेव अपने आप देखेगा! सचमुच इसी ढर्रे पर चला है, उत्तराखंड राज्य. यह हमारी जनता का धैर्य और संतोषी स्वभाव ही है, जो यहाँ की सरकारें आराम से पांच साल काट लेती हैं. यह भी कह सकते हैं कि बीते 15 वर्षों में जनता को समझ ही नहीं आया कि अब हम क्या करें? आन्दोलन भी चलायें तो किसके खिलाफ? यही वजह है कि पूरे राज्य में असंतुलित विकास हुआ है. लगता ही नहीं, इस विकास के पीछे कोई सुचिंतित रणनीति काम कर रही है.
देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाया गया. ठीक है. बात समझ में आती है, क्यों कि तत्काल एक राजधानी का भार ढोने को कोई शहर तैयार नहीं था. लेकिन पिथौरागढ़, मुनस्यारी और धारचूला के नागरिक के लिए कितना दूर है देहरादून, किसी ने सोचा तक नहीं. यहाँ तक कि उत्तरकाशी के दूरस्थ इलाकों के लिए भी वह उतनी ही दूर पड़ता है. चलो, मान लिया कि यह अस्थायी राजधानी थी, लेकिन स्थायी राजधानी के लिए भी तो सोचना चाहिए था. एक तेलंगाना को देखिए, किस तरह से पहले ही दिन से उन्होंने नई राजधानी के लिए स्थान का चयन किया और उस पर युद्ध स्तर पर काम शुरू कर दिया है. सुखद आश्चर्य यह है कि किसी स्तर पर कोई मतभेद नहीं दिखाई पड़ा. अपने यहाँ तो कोई ऐसा काम नहीं होता जिस पर ‘नौ कनौजिए, तेरह चूल्हे’ वाली कहावत चरितार्थ न होती हो.
अब कुमाऊँ अंचल को ही देख लीजिए. एक ज़माना था, जब टनकपुर, हल्द्वानी और रामनगर की स्थिति एक जैसी थी. तीनों ही पहाड़ के प्रवेशद्वार थे. आज इन तीनों द्वारों में से हल्द्वानी ही एक ऐसा शहर है, जिसकी तरफ हुक्मरानों की नजर है. हल्द्वानी के लिए हर तरह की ट्रेनें हैं, बसें हैं, सड़कें हैं, सुविधाएं हैं, लेकिन टनकपुर जैसे का तैसा है. टनकपुर ही क्यों, खटीमा और बनबसा की भी वैसी ही दशा है. इसी वजह से पिथौरागढ़, चम्पावत का विकास नहीं हो पा रहा है. बहुत पहले से कहा जाता रहा है कि यहाँ से काली नदी के किनारे-किनारे धारचूला तक सड़क बनेगी और वहाँ पहुँचने तक साठ किलोमीटर का फायदा हो जाएगा. कभी कहते हैं सुरंग रेल बनेगी. यह इलाका इतना संवेदनशील है, दो-दो पड़ोसी देशों की सरहदें इन जिलों से लगती हैं, फिर भी हमारी सरकारों को कोई चिंता नहीं. ढंग की रेल लाइन तक यहाँ नहीं है. चीन ने एकदम नेपाल की उत्तरी सीमा तक चमचमाती हुई सड़कें बना ली, तब भी हमें कोई चिंता नहीं होती. जब इन इलाकों में रेडियो तक इस देश का नहीं सुनाई देता, नेपाल का ही पकड़ता है, तो और बड़ी बुनियादी संरचनाओं की बात क्या करें?

कायदे से देखा जाए, तो उत्तराखंड के तमाम पहाड़ी शहरों में सबसे सुन्दर और संभावनाशील शहर पिथौरागढ़ था. लेकिन योजनाविहीनता और उपेक्षा के कारण आज उसकी क्या हालत हो गयी है, यह साबित करने की जरूरत नहीं है. हमारे पास पर्यटन और तीर्थाटन के अलावा बेचने के लिए और क्या है? लेकिन क्या आज पिथौरागढ़ हमारे पर्यटन मानचित्र पर है? मुनस्यारी को छोड़ दें तो और कहीं भी क्या राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक पहुँचते हैं? इसलिए केवल देहरादून के इर्द-गिर्द विकास मत कीजिए. यह न भूलिए कि इस प्रदेश में और भी ऐसे इलाके हैं, जो आपके विकास की बाट जोह रहे हैं. असंतुलित विकास भविष्य में आपके लिए ही भस्मासुर बनेगा. (खटीमा दीप में प्रकाशित)