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बुधवार, 17 मई 2017

देविका का तट और पुरमंडल के शिवलिंग

तीर्थ/ गोविन्द सिंह
उमा-महेश का प्राचीन शिव मंदिर 
आज कुछ जल्दी घर आ गया. शाम को रोज की तरह टहलने का मन हुआ. श्रीमती बोलीं, क्यों न आज गाड़ी में कुछ आगे तक चलें, बाद में बाजार भी हो आयेंगे. कई दिनों से हम शाम को टहलते हुए एक नए रास्ते पर चलने की सोच रहे थे, जो अपेक्षाकृत सुनसान था. मुझे पता चला कि यह रास्ता पुरमंडल को जाता है. 
शिवलिंग ही शिवलिंग 
कुछ दिनों पहले अपने छात्रो से पुरमंडल के बारे में कुछ अच्छा-सा सुना था. उन्होंने बताया कि वहां श्मसान भी है. वे इसे प्रमंडल कह रहे थे. मुझे लगा कि यह कोई 5-6 किलोमीटर दूर होगा, इसलिए गाड़ी से टहल आया जा सकता है. हम निकल पड़े. 4-5 किलोमीटर के बाद ही जंगल का इलाका शुरू हो गया. दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था. चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर इक्का-दुक्का घर दिख जाते. चलते-चलते कोई 20 किलोमीटर आ गए. कई बार लगा कि शायद हम किसी गलत रास्ते पर जा रहे हैं. लेकिन सात बजते-बजते हम वहाँ पहुँच गए. अद्भुत जगह लगी.
काशी-विश्वनाथ मंदिर 
देविका नदी के दोनों किनारों पर बसा यह तीर्थ कोई 2500 साल पुराना बताया जाता है. देविका नदी के नाम पर रेत की सड़क दिखी. लोग इसे सड़क की ही तरह इस्तेमाल भी कर रहे थे. हमने भी प्राचीन शिवमंदिर के सामने रेत की नदी के ऊपर गाड़ी खड़ी कर दी. मंदिर परिसर में अनेक प्राचीन खंडहर मौजूद हैं. मुख्य मंदिर के गर्भगृह के बीचोबीच एक कुंड है, जिसके भीतर नाग-प्रतिमा का फन दिखाई दे रहा था. पुजारी मिंटू शर्मा ने बताया कि उमा-महेश की प्रतिमा जल में डूबी हुई है. उन्होंने यह भी बताया कि चाहे इसमें कितना ही जल चढ़ा दो, इसका स्तर इतना ही रहता है. साथ में काशी-विश्वनाथ मंदिर भी है, जिसमें वाराणसी की तर्ज पर मूंछों वाले शिव बिराजमान हैं. 
जगह-जगह शिवलिंगों के गलियारे हैं. 11-11 शिवलिंगों के समूह हैं, जो अद्भुत छटा बिखेरते हैं. शर्मा जी ने बताया कि यहाँ कुल 1337 शिवलिंग हैं. वैसे पूरे पुरमंडल क्षेत्र में 1421 हैं. मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ एक गीदड़ी प्रतिमा भी दिखाई पड़ी. गीदड़ी अर्थात मादा गीदड़. जिसे मारने की वजह से यहाँ के राजा को गीदड़ी का श्राप लगा और बदले में श्राप से उबरने के लिए उन्हें ये मंदिर बनवाना पडा. हजारों साल पहले. आज इस गीदड़ी की भी पूजा होती है. एक गीदड़ी को भी देवी का दर्जा इसी देश में मिल सकता है!
गीदड़ी देवी की प्रतिमा 
मंदिर से नींचे नदी तट पर उतरे तो चायवाले से कुछ और जानकारी ली. एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी जवाहर लाल बडू मिले, जिनके पिताजी 97 साल की उम्र में वहीं पर बिना चश्मे अखबार पढ़ रहे थे. उन्होंने बताया कि देविका नदी पार्वती की बड़ी बहन है, जिसे हम गुप्त गंगा भी कहते हैं. बरसात के मौसम को छोड़ दिया जाए तो बाकी समय यह धरती के अन्दर चली जाती है. आप देखिए, दो-तीन इंच नींचे ही नदी मिल जायेगी. चाय आने से पहले श्रीमती जी ने यह प्रयोग भी कर डाला. अंगुली से ही दो इंच नीचे खोदा तो उन्हें नदी मिल गई. वो बड़ी प्रसन्न हुईं. उन्होंने जल छिड़क कर मुझे और स्वयं को धन्य किया. सामने ही एक लाश जल रही थी. बडू जी ने बताया कि लाश के अंतिम अवशेषों को यहीं रेत में दबा दिया जाएगा. कल तक वे गायब हो जायेंगे. यहाँ पर अंतिम क्रिया का महत्व हरिद्वार से भी ज्यादा है. यहाँ अंतिम क्रिया के बाद हरिद्वार ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती.  

अँधेरा घिरने लगा था. हम लौट आये. अचानक ही, बिना किसी योजना के हम ऐसी अद्भुत जगह देखकर सुखद आश्चर्य से भर गए थे.  

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

किसकी नजर लगी हमारे गांवों को?

पहाड़-यात्रा-1/ गोविन्द सिंह
अपने गाँव के नौले पर मेरी पत्नी द्रौपदी 
लगभग दो साल बाद पिछले हफ्ते पहाड़ यात्रा का सौभाग्य मिला. हल्द्वानी से अल्मोड़ा, शेराघाट, बेरीनाग, थल, मुवानी होते हुए अपने गाँव सौगाँव. अपने गाँव में ईस्ट देव अलायमल के थान में एक गोदान, स्कूल में एक छोटा-सा कार्यक्रम और वापसी. गंगोलीहाट, पाताल भुवनेश्वर, पांखू में कोटगाडी मंदिर होते हुए, डीडीहाट, जौराशी, कनालीछीना और पिथौरागढ़. और फिर घाट, दन्या, दोल., पहाड़पानी, धानाचूली, धारी और भीमताल होते हुए हल्द्वानी वापस आये.
बचपन में जब साल में एक बार गाँव जाते थे तो अनुभूतियाँ कुछ और ही हुआ करती थीं. घर से छः-सात किलोमीटर दूर चौबाटी या मुवानी या बूंगाछीना तक बस या जीप से उतरने के बाद पैदल ही जाना पड़ता था. दूर देश से आते हुए लड़के को देखने को खेतों में काम करते लोग खड़े हो जाते और आपस में ही पूछते, आज किसका लड़का घर आ रहा है! उनके चेहरों पर खिली मुस्कान से लगता कि जैसे उनका अपना लड़का ही घर आ रहा है. कोई-कोई महिला पूछ लेती, इजा, किस गाँव का है, किसका बेटा है! कहाँ से आ रहा है? कितने दिन की छुट्टी आया है? घर पहुँचने की उत्सुकता दिल में धुकधुकी बन कर आती. गाँव का नौला सबसे पहले आता. वहाँ पर पौस (अंजुरी) भर-भर के अपने गाँव का पानी पिया जाता. क्या मिठास होती! कोई हाथ का थैला उठाता, कोई लड़कपन की यादें ताजा करता. तब घर पहुँचते. गाँव भर के लोग मिलने पहुँचते. देखते ही देखते कब महीना गुजर गया, पता ही नहीं चलता था. जब गाँव से लौटते तो गाँव भर के लोग, खासकर महिलायें दूर तक छोड़ने आतीं. सर पर दूब के तिनके रखतीं और सलामती का आशीर्वाद देतीं.
सौगाँव में हमारा पत्रिक घर 
अब पहाड़ के गाँव भी बहुत बदल गए हैं. वो गर्मजोशी अब कहाँ!
ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं या पलायन की तैयारी कर रहे हैं. पलायन भी कई सस्तरों का है. कुछ लोग हैं, जो पास के ही कस्बों में चले गए हैं. उनकी जमीनें अभी गाँव में भी हैं. खेती भी करते हैं और दुकानदारी भी. वैसे खेती में अब उनका मन कम ही लगता है. कुछ लोग दूर जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ चले गए हैं. उन्होंने वहाँ मकान बना लिए हैं. वे दो-चार महीने में कभी-कभी ही गाँव में दर्शन देते हैं. कुछ परिवारों के बुजुर्ग ही गाँव में रह गए हैं. उनकी बहुएं अपने नौनिहालों को लेकर पिथौरागढ़, डीडीहाट या किसी और शहर में चली गयी हैं. वहाँ वे किराए का कमरा लेकर बच्चों को तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ा रही हैं. उनके फ़ौजी पति फ़ौज से छः महीने-साल में अब शहरों में ही अपनी बीबी-बच्चों से मिल लेते हैं. गाँव कभी-कभार ही जाते हैं. बूढ़े मां-बाप की आँखें अपने फ़ौजी बेटे की सूरत देखने को तरसती रह जाती हैं.      
गोदान की तैयारी में पंडित जी.
जब हम बच्चे थे, तब गाँव में सिर्फ प्राइमरी स्कूल था. अब हाई स्कूल बन गया है. पांच-छः गाँव आस-पास हैं, लेकिन संख्या सिर्फ 44 रह गयी है. दो साल पहले 56 थी. मेरे गाँव के बुजुर्गों ने इस स्कूल को खोलने के लिए अपनी जान लगा दी थी. लेकिन आज मेरे गाँव के एक-दो बच्चे ही इस स्कूल में जाते हैं. बाक़ी सब शहर के स्कूल चले गए हैं. शहर के तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूलों में जिस तरह की पढाई हो रही है, मुझे नहीं लगता कि गाँव के हाई स्कूल में उससे कमतर होती होगी. गाँव में जो माहौल उन्हें मिलता, वह शहर में कहाँ. एक बुजुर्ग कहते हैं कि ‘न हवा अच्छी, न पानी अच्छा. वहाँ तो सब मोल ही लेना हुआ.’ स्कूल के अध्यापक बताते हैं कि यहाँ पढाई अच्छी होती है. छः अध्यापक हैं. बच्चे अब फर्स्ट डिवीजन भी ला रहे हैं. फिर भी एक अंधी दौड़ लगी है. भेडचाल है.
गाँव के हाई स्कूल में 
गाँव के युवाओं को शहर जाने का रोग लग गया है. फ़ौजी भी चाहने लगे हैं कि उनकी बीवियां शहर में रहें. ताकि जब वे घर लौटें तो बीवी उनका स्वागत फिल्मी अंदाज में करे. इसलिए जिनके बच्चे नहीं हैं, वे भी किराए में कमरा लेकर शहर में रहने लगी हैं. ताकि गाँव में खेती-बाडी का काम न करना पड़े.
पहले हर घर के गोठ में बैलों की जोड़ी होती थी, भैंस होती थी, गायें होती थीं, बकरियां होती थीं. गोधूलि वेला में जब मवेशियों का रेवड़  जंगल से घर लौटता था, एक अलग ही रौनक गाँव में होती थी. अब गाँव में गाय-भैंस के अल्लाने की आवाज तक सुनाई नहीं पड़ती. न बैल हैं न बकरियां. हमें गोदान के लिए बछिया की जरूरत पड़ी, तो तीसरी बाखली से मंगवानी पड़ी.
अच्छे-अच्छे खेत बंजर दिखाई पड़े. मन में बड़ा दर्द हुआ. एक ज़माना था, जब जमीन के एक-एक टुकड़े के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना खून-पसीना बहाया, हमारी पीढी उसकी तरफ देखती तक नहीं. बुजुर्ग कहते हैं कि जब बच्चे करना ही नहीं चाहते तो हम कब तक अपनी हड्डी तोड़ें? लिहाजा वे भी अब समर्पण कर चुके हैं. किसी ने एकाध गाय रख ली तो रख ली, वरना वह भी किसलिए?
यानी गाँव की तस्वीर बड़ी दर्द भरी है.
खटीमा दीप, 16 मार्च, 2016 में प्रकाशित   

शनिवार, 5 मई 2012

वनफूलों के बीच

प्रकृति/ गोविंद सिंह

मुक्तेश्वर के पास सोनापानी के लिए रवाना होने से पहले मन में कई विचार आ रहे थे. दो साल पहले जून की गर्मी में एक बार सोनापानी को मैं और मेरी बेटी बस छू भर आये थे. यह बड़ी मजेदार जगह है. एक जंगल के बीच फलों का बगीचा है. जिसे लोग सोनापानी एस्टेट के नाम से जानते हैं. किसी अँगरेज़ का लगाया हुआ. लेकिन आजकल यहाँ एक खूबसूरत रिसोर्ट है. एस्टेट में १२ छोटी -छोटी कोटेज हैं. पहाड़ी शैली की. शहर की आपाधापी से दूर दो-एक दिन के लिए यहाँ रहना किसी क्रिएटिव विचार से कम नहीं. इस बार दो दिन रहने का न्योता मिला तो मन में तसल्ली का भाव था. हल्द्वानी से भीमताल-भवाली होते हुए जैसे ही हम रामगढ़ की तरफ दाखिल हुए, नज़ारा देख कर मन आनंद से भर उठा. यहाँ प्रकृति इन दिनों पूरे शबाब पर है. पूरी की पूरी पहाडियां जैसे खिल उठी हैं. सबसे पहले हमारा स्वागत उस ध्वयाँ या धौल्या के फूलों ने किया, जिसके छोटे-छोटे फूलों के लाल गुच्छों से हम बचपन में खूब रस चूसा करते थे. इन दिनों यह खूब खिला हुआ है. सवेरे ११-१२ बजे तक इनके भीतर अत्यंत मधुर रस भरा होता है. उसके बाद धूप इस रस को सोख लेती है. बचपन में स्कूल जाते हुए, गैयाँ चराने वन जाते हुए हम किसी तरह धूप, मधुमक्खियों और भौंरों से पहले ध्वयाँ के रस को पी लेने की फिराक में रहते थे. यूं ध्वयाँ की झाडियाँ जानवरों के चारे और जलावन के काम भी खूब आती हैं. मगर हमारी नज़र तो इसके रस पर टिकी होती.
ध्वयाँ के साथ साथ किलमोड़े के पीले फूलों से हमारी मुलाक़ात होती है. इसकी झाडियों ने भी इन दिनों पीले वस्त्र धारण कर लिए हैं. इसके फूलो का स्वाद कुछ खट्टा होता है. इसके काले-काले फल स्वाद और गुणवान तो बहुत होते हैं, पर कभी-कभी उनमें कीड़े भी मिलते हैं. इसलिए स्वाद होते हुए भी हम उसकी तरफ देखना मुनासिब नहीं समझते थे. सोनापानी से लौटते वक्त कुमाउनी के प्रसिद्ध कवि जुगल किशोर पेटशाली किलमोड़े को लेकर एक कहानी सुनाते हैं. भादों के महीने में जब हिमालय पुत्री गौरा शादी के बाद पहली बार अपने मायके लौट रही थी तब वह वन में राह भटक गयी थी. उसने किलमोड़े के पेड़ से पूछा, भाई मैं अपने घर का रास्ता भूल गयी हूँ. क्या तू मेरी कुछ मदद करेगा? किलमोडे ने अपने कंटीले स्वभाव के अनुरूप झिडक कर कहा, मुझे क्या पता, तेरा घर कहाँ है? मुझे अपने ही काम से फुरसत नहीं, तेरी किसे पड़ी है? जा-जा मुझे तंग मत कर. उसका ऐसा व्यवहार देख गौरा बहुत दुखी हुई. जिन पेड़-पौंधों के साथ वह खेली-कूदी, आज वही ऐसा बर्ताव कर रहे हैं. उसने किलमोड़े को शाप दिया कि जा तेरे फलों में कीड़े पड़ें और तेरी छाँव में कोइ ना बैठ सके. तब से किलमोड़े की कंटीली झाडियों में कोइ नहीं बैठता और उसके फलों में भी अक्सर कीड़े पड़ जाते हैं. जबकि किलमोड़े में गुण ही गुण हैं. उसकी जड़ों का रस पीने से मधुमेह दूर भागता है, मोटापा पास नहीं फटकने पाता. लेकिन क्या करें, सब गुण होते हुए भी लोग उस से दूर ही छिटकते हैं.
कुछ आगे चले तो रामगढ़ की घाटियाँ आड़ू, पुलम, खुबानी, नाशपाती, सेब और मेल के फूलों से महक रही थीं. कहीं झक्क सफ़ेद फूल तो कहीं लाल-गुलाबी और कहीं बैंगनी रंग के फूल. थोड़े आगे निकले तो बुरांस वृक्ष अपनी छटा बिखेर रहे थे. फल्यांट, कटूंज, बांज, रयांज, उतीस, काफल, पयां, क्वेराल यानी कचनार, मालू, सानन और इसी तरह की पहाड़ी प्रजाति के पेड़ों में आ रहे नए पल्लव अलग ही सौंदर्य बिखेर रहे थे. इन सब की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं. जंगली रास्तों पर कई पेड़ों को देख कर मैं दंग रह गया. टुनि के पेड़ में आये नए पत्ते ऐसे लाल-ताम्रवर्णी थे कि पूरे जंगल में इसका पेड़ एकदम अलग ही दिखाई पड़ता था. कहीं-कहीं लाल पेड़ में भूरे रंग की बेहद खूबसूरत गुच्छियाँ हैं तो कहीं एक भी पत्ता नहीं दिख रहा, सिर्फ गुच्छे ही गुच्छे. मैं इसको पहचान नहीं पाया. हालांकि मेरा बचपन भी पहाड़ी गाँव में ही बीता है, लेकिन अनेक पेड़ ऐसे थे, जिन्हें मैं नहीं पहचानता था. कई-कई पेड़ पूरे के पूरे किसी खास रंग में नहाये हुए से दीख रहे थे. साथ में बैठे वनस्पति विज्ञानी प्रो. कौल से पूछता हूँ, लेकिन वे भी निरुत्तर हैं. लेकिन लौटते वक्त मेरी जिज्ञासाओं का शमन पेटशाली जी ने किया. ‘ताम्बई रंग के जिस पेड़ में भूरे रंग की गुच्छियाँ हैं, वह टुनि का ही भाई शुनि है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें फूल खिले हैं, दूसरे में नहीं. और वह जो पूरा का पूरा पीले कपडे पहने हुए है, वह अकेशिया है. हम लोग इसे अकेशी कहते हैं.’ मैंने अपने गाँव की तरफ ऐसा पेड़ नहीं देखा. आंवले जैसे छोटे-छोटे पत्ते और छोटे ही फूल. जब फूल खिले तो पत्ते पूरी तरह ढक गए. यह वसंत आने से पहले ही खिल उठता है. ऋतुराज के स्वागत में पूरी तरह से सजा-धजा हुआ..... नायिका की तरह.
रामगढ़ से नथुवाखान और नथुवाखान से सोनापानी तक की फल-पट्टी में गज़ब का ऋतुराज पसरा हुआ है. जंगली फूलों को छोड़ दें तो ज्यादातर का रंग सफ़ेद, गुलाबी और बैंगनी हैं. यहाँ सफ़ेद के भी अनेक रूप दिख जायेंगे. कलियों और फूलों की उम्र के आधार पर भी रंग तय होते हैं. रंग सफ़ेद ही होगा, लेकिन किसी पेड़ से हरित आभा निकल रही होती है तो किसी से गुलाबी और किसी से नीली. प्रकृति के इन रंगों को कोइ चित्रकार या रंग बनाने वाला नहीं पकड़ सकता. अब बांज को ही देखिए. यह सदाबहार वृक्ष कभी पूरा नग्न नहीं होता. शिखर से जीर्ण होना शुरू होता है. पहले शिखर के पत्ते झड़ते हैं, फिर बीच के और अंत में सबसे नींचे के. जब नींचे के झड रहे होते हैं तब तक शिखर में नए आ चुके होते हैं. इन दिनों शिखर पर नन्हीं-नन्हीं रजत-कोंपलें आ रही हैं. उनमें हलकी भुरभुरी भी होती है. उसके नीचे के पत्ते पीले पड़ चुके हैं. हफ्ते-दस दिन में गिर जायेंगे. और उसके नींचे के द्रुम दल अभी हरे भरे हैं. यानी एक ही पेड़ में जैसे अपने तिरंगे की तरह तीन रंग समाये हुए हैं. अद्भुत वृक्ष है यह बांज. पहाड़ की प्रकृति समझने वाले लोग इसे कल्पवृक्ष कहते हैं. जहां बांज होगा, वहाँ गरीबी हो ही नहीं सकती. क्योंकि इसकी जड़ों में संचित ठंडा पानी हमेशा आस-पास के गांवों को आबाद रखता है. इसकी  पत्तियों को खाने वाले जानवर ऐसा गाढ़ा दूध देते हैं कि पीते ही बनता है. इसके जर्जर पत्तों से बनने वाली खाद खेतों की उर्वरा शक्ति को लगातार पोसती रहती है.
लेकिन अब वर्चस्ववादी चीड़ इसके इलाके में भी घुसपैठ कर रहा है. वनों की समृद्धि में अपनी जिंदगी खपा देने वाले डॉ जे एस मेहता कहते हैं कि एक ज़माना था जब यह चीड़ ३००० फुट से अधिक ऊंचाई पर नहीं चढ पाता था और १००० फुट से नीचे उतरने की भी इसकी हिम्मत नहीं होती थी. नीचे साल का इलाका है, जबकि ऊपर बांज का. अब चीड़ ६००० फुट ऊपर और ५०० फुट तक नींचे पहुँच चुका है. यह जंगल का माफिया है. सबकी जमीन को लील लेना चाहता है.
लेकिन चीड़ ही क्यों, हम भी क्या कम दुश्मन हैं वनों की इस खूबसूरती के? पेड़ काटने वाले अपनी जगह हैं, हमारी व्यापारिक मनोवृत्ति भी वनों को लगातार बदरंग कर रही है. रामगढ़ क्षेत्र में दाखिल होने से पहले मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि अब हमारा स्वागत फूलों से लदे बुरांस वृक्ष करेंगे. लेकिन वे अपेक्षा से कहीं कम नज़र आये. मन मसोस कर रह जाना पड़ा. मेरे मुंह से निकला, शायद इस बार बुरांस कुछ कम खिला है. मुंह में सुपारी दबाये पेटशाली जी ने हाथ से इशारा करके मुझे ऐसा कहने से रोक दिया. फिर पीक थूक कर बोले, जब से बुरांस का रस निकाला जाने लगा है, तब से लोग खिलने से पहले ही उन्हें तोड़ कर सारे के सारे वन-प्रांतर से थैलों में भर-भर कर ले जाते हैं. अब एक दिन आएगा, जब बुरांस खिलना ही बंद कर देगा. फूल नहीं बचेंगे तो बीज कहाँ से होंगे और बीज नहीं बचेंगे तो नए पेड़ कहाँ से जन्म लेंगे? शायद हम अपनी ही सभ्यता को लहू-लुहान कर के आगे बढ़ रहे हैं. (कादम्बिनी, मई, २०१२ में प्रकाशित, साभार)