बुधवार, 13 अप्रैल 2016

शराब ने सब कुछ चौपट कर दिया

पहाड़-यात्रा-2/ गोविन्द सिंह
गरमी बढ़ने से इस साल बुरांस भी कुछ बुझे-बुझे से नजर आये 
 ऐसा नहीं है कि गाँव में उत्साही लोग बचे ही नहीं. कुछ लोग हैं जो गाँव को बचाने में भी लगे हुए हैं. खेती के नए-नए तौर-तरीके अपना रहे हैं. इक्का-दुक्का पौली हाउस भी दिख जाते हैं, जिनके भीतर हरी-भरी सब्जियां उग रही होती हैं. वे सब्जियों को शहर में ले जाकर बेचने की कोशिश भी करते हैं. भाई दान सिंह बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने पौली हाउस में ब्रोकली लगाई थी. काफी हुई, लेकिन शहर पहुंचाने तक सूखने लग गयी. पंद्रह रुपये किलो भी नहीं बिकी. पड़ोस के मुवानी कसबे में लोग इस हरी गोबी को लेने को तैयार ही नहीं हुए. इसलिए इस बार बोई ही नहीं. मैं सोचता रहा, जिस ब्रोकली को हम दिल्ली में अस्सी-सौ रुपये में लेने को भी तरसते थे, उसे हमारे उन्नत किसान को जैसे-तैसे 15-20 रुपये में निपटाना पड़ा! कुछ लोगों ने धनोपार्जन के लिए मुर्गियों को पालना शुरू किया है. कुछ बकरियों का ब्यापार कर रहे हैं.
जौराशी- चरमा के बीच एक जंगल में गिद्धराज के दर्शन हुए.
लेकिन खेती के नए तौर-तरीकों को आजमाने वाले लोग बहुत कम हैं. आम तौर पर लोग पारंपरिक खेती तक ही सीमित रहते हैं. खेती करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं, पढ़े-लिखे या प्रगतिशील सोच वाले लोग गांवों में बचे ही नहीं तो नए विचारों को कौन अपनाए? इसलिए बचे-खुचे लोगों के मन में एक ही भाव रहता है: कौन करे? क्यों करे? अतः  अब गाँव में भी लोग सब्जियां खरीद कर खाने लगे हैं. इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे. पुराने जमाने में परिवार के पास कम खेती और खाने वाले लोगों की संख्या अधिक होने से अनाज भले साल भर न पहुंचे, पर दाल-सब्जी तो खरीदनी नहीं पड़ती थी. फल भी साल भर कुछ ना कुछ होते ही थे. हमारे गाँव में लोग अपने लायक गुड़ भी तैयार कर ही लेते थे, खुदा (शीरा) तैयार करके रख लेते थे. चूख का रस निकाल कर उसे उबाल लिया करते थे. यह काला चूख साल भर तक चलता था. च्यूर का तेल निकालते थे, उसका घी बनता था. अपने लायक सरसों-तिल आदि का तेल भी निकल ही आता था. अब ये सब चीजें गायब हो गयी हैं. एक जवान बहू से मैंने जब तेल पेलने वाले कुल्यूड (कोल्हू) के बारे में पूछा तो उसे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या पूछ रहा हूँ. बोली, ससुर जी, मैंने तो इस गाँव में कभी कुल्यूड़ा नहीं देखा. उसे आश्चर्य हुआ कि कभी इसी गाँव के लोग अपने लिए खुद ही तेल भी निकालते थे! मुझे उसे कुल्यूडा का चित्र बना कर समझाना पड़ा कि वह कैसा होता था.
पातळ भुवनेश्वर गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर 
अब तो सब चीजें बाजार से ही आती हैं. यहाँ की चीजों को बाजार लेता नहीं, क्योंकि उनकी पैकेजिंग आकर्षक नहीं है. लेकिन बाजार की घटिया चीजें धड़ल्ले से गाँव पहुँच रही हैं. और अपने साथ ला रही हैं ढेर सारी बीमारियाँ और बुरी आदतें. लोगों ने अपने गाँव का तम्बाकू तो छोड़ दिया है लेकिन गुटखा, बीड़ी-सिगरेट और शराब खूब चल रही है. गाँव के गाँव शराबखोरी की लत के कारण बरबाद हो रहे हैं. मेरे आस-पास के गांवों के कुछ बच्चे पिछले साल हल्द्वानी भरती की दौड़ में शामिल होने को आये. एक भी सेलेक्ट नहीं हुआ. मैंने बच्चों से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ. हमारे गांवों में सड़क नहीं पहुंची है, वहाँ तो बच्चे फिट होने चाहिए. फिर दौड़ में क्यों पिछड़ गए? एक लड़के ने बताया, ‘अंकल’ अब दौड़ने में हमारी साँसें फूल जाती हैं. क्यों? क्योंकि बीड़ी-शराब और गुटखा की लत जो लग गयी है! हे राम!
शराब के कारण कई अच्छे-खासे लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो गए. मेरे अपने गाँव में मेरी उम्र के तीन लोग शराब की भेंट चढ़ गए. ये लोग बचपन में बड़े होनहार थे. मेरी ससुराल में और भी ज्यादा लोग शराब ने लील लिए. लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. गाहे-बगाहे वे इसकी चर्चा भी करते हैं. लेकिन शराब है कि बंद नहीं होती. अंग्रेज़ी शराब तो शहरों में है, फौजियों की शराब- थ्री एक्स का भी खूब चलन है. जिनकी पहुँच यहाँ तक नहीं है, वे ठर्रे और देसी शराब से काम चलाते हैं. शादी-ब्याह के माहौल को शराब ने बिगाड़ कर रख दिया है. लोग शादी-ब्याह में इसलिए जाते हैं कि इस मौके पर बहुत से लोगों से मुलाक़ात हो जायेगी. लेकिन नशे से लोट-पोट लोगों से आप क्या बात करेंगे? सचमुच, मैं तो बड़ी कडुवी यादें लेकर लौटा हूँ, ऐसी शादियों से. जहां भी गया, लोगों ने शराब जरूर ऑफ़र की. जब मैंने कहा कि मैं शराब नहीं पीता, तो लोग मानने को तैयार ही नहीं हुए. अक्सर ऐसे मौकों पर मार-पीट हो जाया करती है. मुझे याद है, बचपन में हमारे गाँव में कभी-कभार ही शराब के दर्शन तब होते थे, जब कोई फ़ौजी छुट्टी आता था. एकाध बोतल ही उसके बोजे (सामान का गठ्ठर) से निकलती थी. एक बार में ही वह अपने सारे मिलने वालों को पिला दिया करता था. गाँव की बूढ़ी औरतें भी पेट के बाय आदि बीमारियों के लिए दराम (शराब) की एक घूट मांगने सिपाही के घर आती थीं. लेकिन धीरे-धीरे घर-घर में शराब बनने लगी. फिर दुकानों से पाउच में शराब मिलने लगी. फिर पेंशनरों को शराब का कोटा मिलना शुरू हुआ. और अब तो शराब के बिना कुछ होता ही नहीं. आपको घर बनाना हो, चाहे खेत जुतवाना हो, शादी-ब्याह पर कुछ काम निकलवाना हो, शराब तो पिलानी ही होगी. यहाँ तक कि मलामी (शवयात्रा) जाने के लिए भी शराब की रिश्वत देनी पड़ती है. यही नहीं शादी-ब्याह में औरतें भी पेग लगाने लगी हैं. आज वे सिर्फ शादी-रतेली में पी रही हैं, कल को गम गलत करने के लिए पियेंगी और परसों उनकी आदत हो जायेगी. ये कैसा दुर्भाग्य है, हमारे गांवों का? क्या यही दिन देखने के लिए बनाया था हमने यह राज्य? न जाने किस मनहूस की नजर लगी मेरे पहाड़ को? (जारी...)
खटीमा दीप, 1 अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित  


किसकी नजर लगी हमारे गांवों को?

पहाड़-यात्रा-1/ गोविन्द सिंह
अपने गाँव के नौले पर मेरी पत्नी द्रौपदी 
लगभग दो साल बाद पिछले हफ्ते पहाड़ यात्रा का सौभाग्य मिला. हल्द्वानी से अल्मोड़ा, शेराघाट, बेरीनाग, थल, मुवानी होते हुए अपने गाँव सौगाँव. अपने गाँव में ईस्ट देव अलायमल के थान में एक गोदान, स्कूल में एक छोटा-सा कार्यक्रम और वापसी. गंगोलीहाट, पाताल भुवनेश्वर, पांखू में कोटगाडी मंदिर होते हुए, डीडीहाट, जौराशी, कनालीछीना और पिथौरागढ़. और फिर घाट, दन्या, दोल., पहाड़पानी, धानाचूली, धारी और भीमताल होते हुए हल्द्वानी वापस आये.
बचपन में जब साल में एक बार गाँव जाते थे तो अनुभूतियाँ कुछ और ही हुआ करती थीं. घर से छः-सात किलोमीटर दूर चौबाटी या मुवानी या बूंगाछीना तक बस या जीप से उतरने के बाद पैदल ही जाना पड़ता था. दूर देश से आते हुए लड़के को देखने को खेतों में काम करते लोग खड़े हो जाते और आपस में ही पूछते, आज किसका लड़का घर आ रहा है! उनके चेहरों पर खिली मुस्कान से लगता कि जैसे उनका अपना लड़का ही घर आ रहा है. कोई-कोई महिला पूछ लेती, इजा, किस गाँव का है, किसका बेटा है! कहाँ से आ रहा है? कितने दिन की छुट्टी आया है? घर पहुँचने की उत्सुकता दिल में धुकधुकी बन कर आती. गाँव का नौला सबसे पहले आता. वहाँ पर पौस (अंजुरी) भर-भर के अपने गाँव का पानी पिया जाता. क्या मिठास होती! कोई हाथ का थैला उठाता, कोई लड़कपन की यादें ताजा करता. तब घर पहुँचते. गाँव भर के लोग मिलने पहुँचते. देखते ही देखते कब महीना गुजर गया, पता ही नहीं चलता था. जब गाँव से लौटते तो गाँव भर के लोग, खासकर महिलायें दूर तक छोड़ने आतीं. सर पर दूब के तिनके रखतीं और सलामती का आशीर्वाद देतीं.
सौगाँव में हमारा पत्रिक घर 
अब पहाड़ के गाँव भी बहुत बदल गए हैं. वो गर्मजोशी अब कहाँ!
ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं या पलायन की तैयारी कर रहे हैं. पलायन भी कई सस्तरों का है. कुछ लोग हैं, जो पास के ही कस्बों में चले गए हैं. उनकी जमीनें अभी गाँव में भी हैं. खेती भी करते हैं और दुकानदारी भी. वैसे खेती में अब उनका मन कम ही लगता है. कुछ लोग दूर जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ चले गए हैं. उन्होंने वहाँ मकान बना लिए हैं. वे दो-चार महीने में कभी-कभी ही गाँव में दर्शन देते हैं. कुछ परिवारों के बुजुर्ग ही गाँव में रह गए हैं. उनकी बहुएं अपने नौनिहालों को लेकर पिथौरागढ़, डीडीहाट या किसी और शहर में चली गयी हैं. वहाँ वे किराए का कमरा लेकर बच्चों को तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ा रही हैं. उनके फ़ौजी पति फ़ौज से छः महीने-साल में अब शहरों में ही अपनी बीबी-बच्चों से मिल लेते हैं. गाँव कभी-कभार ही जाते हैं. बूढ़े मां-बाप की आँखें अपने फ़ौजी बेटे की सूरत देखने को तरसती रह जाती हैं.      
गोदान की तैयारी में पंडित जी.
जब हम बच्चे थे, तब गाँव में सिर्फ प्राइमरी स्कूल था. अब हाई स्कूल बन गया है. पांच-छः गाँव आस-पास हैं, लेकिन संख्या सिर्फ 44 रह गयी है. दो साल पहले 56 थी. मेरे गाँव के बुजुर्गों ने इस स्कूल को खोलने के लिए अपनी जान लगा दी थी. लेकिन आज मेरे गाँव के एक-दो बच्चे ही इस स्कूल में जाते हैं. बाक़ी सब शहर के स्कूल चले गए हैं. शहर के तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूलों में जिस तरह की पढाई हो रही है, मुझे नहीं लगता कि गाँव के हाई स्कूल में उससे कमतर होती होगी. गाँव में जो माहौल उन्हें मिलता, वह शहर में कहाँ. एक बुजुर्ग कहते हैं कि ‘न हवा अच्छी, न पानी अच्छा. वहाँ तो सब मोल ही लेना हुआ.’ स्कूल के अध्यापक बताते हैं कि यहाँ पढाई अच्छी होती है. छः अध्यापक हैं. बच्चे अब फर्स्ट डिवीजन भी ला रहे हैं. फिर भी एक अंधी दौड़ लगी है. भेडचाल है.
गाँव के हाई स्कूल में 
गाँव के युवाओं को शहर जाने का रोग लग गया है. फ़ौजी भी चाहने लगे हैं कि उनकी बीवियां शहर में रहें. ताकि जब वे घर लौटें तो बीवी उनका स्वागत फिल्मी अंदाज में करे. इसलिए जिनके बच्चे नहीं हैं, वे भी किराए में कमरा लेकर शहर में रहने लगी हैं. ताकि गाँव में खेती-बाडी का काम न करना पड़े.
पहले हर घर के गोठ में बैलों की जोड़ी होती थी, भैंस होती थी, गायें होती थीं, बकरियां होती थीं. गोधूलि वेला में जब मवेशियों का रेवड़  जंगल से घर लौटता था, एक अलग ही रौनक गाँव में होती थी. अब गाँव में गाय-भैंस के अल्लाने की आवाज तक सुनाई नहीं पड़ती. न बैल हैं न बकरियां. हमें गोदान के लिए बछिया की जरूरत पड़ी, तो तीसरी बाखली से मंगवानी पड़ी.
अच्छे-अच्छे खेत बंजर दिखाई पड़े. मन में बड़ा दर्द हुआ. एक ज़माना था, जब जमीन के एक-एक टुकड़े के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना खून-पसीना बहाया, हमारी पीढी उसकी तरफ देखती तक नहीं. बुजुर्ग कहते हैं कि जब बच्चे करना ही नहीं चाहते तो हम कब तक अपनी हड्डी तोड़ें? लिहाजा वे भी अब समर्पण कर चुके हैं. किसी ने एकाध गाय रख ली तो रख ली, वरना वह भी किसलिए?
यानी गाँव की तस्वीर बड़ी दर्द भरी है.
खटीमा दीप, 16 मार्च, 2016 में प्रकाशित   

शनिवार, 5 मार्च 2016

स्थानीय पत्रकारिता की चुनौतियां

मीडिया/ गोविन्द सिंह
आज के समय में सच्ची पत्रकारिता एक कठिन कर्म है. यह कर्म तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब पत्रकारिता स्थानीय स्तर की हो. स्थानीय से हमारा आशय स्थान विशेष से है. अर्थात जब किसी अखबार के पाठक ठीक उसके सामने बैठे हों या उसका पाठक वर्ग निर्धारित क्षेत्र में फैला हो. ऐसे में पाठक तो सामने होता ही है, जिसकी खबर ली जानी है, वह भी सामने बैठा होता है. राष्ट्रीय पत्रकारिता का क्षेत्र चूंकि व्यापक होता है, इसलिए उसके विषय और पाठक, दोनों का फैलाव भी विस्तीर्ण होता है. उसका अपने पाठक के साथ वैसा प्रगाढ़ रिश्ता नहीं होता, जैसा कि स्थानीय पत्रकारिता का होता है. मुझे अपने तीन दशक से अधिक के पत्रकारीय जीवन में हमेशा यह मलाल रहा कि मैंने हमेशा राष्ट्रीय पत्रकारिता की. अपने लोगों के बीच रह कर पत्रकारिता करने का सौभाग्य नहीं मिला.

पत्रकारिता का कर्म मुश्किल इसलिए हो गया है कि आज पत्रकारिता एकदम व्यावसायिक हो गयी है. व्यावसायिक से भी ज्यादा सटीक शब्द  होगा व्यापारिक. वह काफी खर्चीली हो गयी है. हिन्दी पत्रकारिता में यह बदलाव ज्यादा ही मुखर होकर सामने आया है क्योंकि पिछले बीस वर्षों में उसका जबरदस्त फैलाव हुआ है. चूंकि पहले पत्रकारिता मिशनरी थी और आज एकदम से व्यापारिक हो गयी है, इसलिए भी यह बदलाव ज्यादा ही दिखाई पड़ता है. समस्या यह भी है कि जिस पैमाने पर अखबार फैले हैं, उस पैमाने पर अखबार निकालने वाले नहीं बदले हैं. इनमें पत्र स्वामी भी हैं और पत्रकार भी. जितने बड़े पैमाने पर योग्य, दक्ष और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत आन पड़ी है, उतने तैयार नहीं हो पाए. फिर पत्र-स्वामियों ने भी इस जरूरत को नहीं समझा. क्योंकि वे स्वयं भी इस अप्रत्याशित विस्तार के लिए तैयार नहीं थे. इसलिए हिन्दी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पत्रकारीय मूल्यों का हनन दिखाई पड़ता है.
पत्रकारीय मूल्यों की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता का पहला और अंतिम धर्म सत्य और निष्पक्षता है. जहां भी इससे विचलन होगा, वहाँ पत्रकारीय नैतिकता का ह्रास होगा. अब चूंकि हमारे समाज में ही व्यापक तौर पर मूल्यों में ह्रास आया है, इसलिए पत्रकारिता में भी ह्रास आना स्वाभाविक है. ऐसे में सत्यनिष्ठ पत्रकारिता कर पाना भी मुश्किल हो गया है. इसके बावजूद पत्रकारिता हो रही है तो उसके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पत्रकारिता में समाज हित का भाव अन्तर्निहित होता है. यही उसकी शक्ति है. तमाम बुराइयों के बावजूद आज भी अच्छी पत्रकारिता के उदाहरण मिल जाते हैं.
जहां तक स्थानीय पत्रकारिता का प्रश्न है, उसमें सबसे बड़ी मुश्किल यह आती है कि जिसके बारे में, पक्ष या विपक्ष में आप लिखते हैं, वह आपके सामने मौजूद रहता है. स्थानीय सुशासन के त्रिकोण में नेता, प्रशासन और पत्रकार की बड़ी भूमिका होती है. न्यायपालिका भी है, लेकिन स्थानीय स्तर पर वह व्यवस्थापिका में ही समाहित होती है. आप किसी के खिलाफ कुछ भी लिखते हैं, तो आपको प्रतिक्रया के लिए तैयार रहना पड़ता है. इसी तरह आपके अपने नाते-रिश्तेदार भी होते हैं. उनमें कुछ लोग गड़बड़ भी हो सकते हैं. आप उनके खिलाफ कैसे छापेंगे? आप कैसे निष्पक्ष पत्रकारिता करेंगे? स्थानीय अपराध तंत्र की खबर लेना भी कम मुश्किल नहीं होता. मुंबई जैसे महानगर में बड़े अपराधी इस बात पर खुश होते थे कि कोई उनकी खबर छाप रहा है. लेकिन यहाँ तो आप सामने हैं. आपका कुछ भी छिपा नहीं होता. हाल के वर्षों में आपने यह भी देखा होगा कि पत्रकारों पर हमले काफी बढ़ गए हैं. आज से 30 साल पहले हम ऐसी घटनाओं के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. जैसे हमारे यहाँ दूत को मारना पाप समझा जाता था, उसी तरह पत्रकार पर हाथ उठाना भी पाप समझा जाता था. लेकिन आज ऐसा नहीं है. यह पत्रकारीय मूल्यों में ह्रास के कारण है. इसलिए पत्रकारों और पत्र-स्वामियों, दोनों को यह समझना होगा कि इस पेशे में कदम रखना कितना चुनौतीपूर्ण है. पेशेवर मूल्यों के साथ पत्रकारिता करने से ही हम उसकी खोई हुई गरिमा को लौटा पायेंगे. (जनपक्ष आज, सांध्य दैनिक, हल्द्वानी के प्रवेशांक {पांच मार्च, २०१६} में प्रकाशित. साभार) 
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता की संभावनाएं

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पत्रकारिता निरंतर अपना चोला बदल रही है. उसके अनेक रूप चलन में हैं. ऊपर से शुरू करें तो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता, राष्ट्रीय पत्रकारिता, प्रादेशिक पत्रकारिता, क्षेत्रीय पत्रकारिता, जनपदीय पत्रकारिता, स्थानीय पत्रकारिता, अति स्थानीय पत्रकारिता, सामुदायिक पत्रकारिता और नागरिक पत्रकारिता. सोशल मीडिया उसका एक और रूप है, जो पत्रकारिता है भी और नहीं भी. लेकिन पत्रकारिता की जब हम बात करते हैं तो उसके साथ कुछ मानदंड स्वतः जुड़ जाते हैं. बिना आचार संहिता या पत्रकारीय नैतिकता या पत्रकारीय मूल्यों के उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. पत्रकारिता में समाज-हित का भाव अन्तर्निहित रहता है. बिना व्यापक हित के उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः पत्रकारिता के जिन रूपों का ऊपर जिक्र किया गया है, उन सबमें एक समानता यह है कि सबका लक्ष समाझ-हित होना चाहिए.
भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हमारी पत्रकारिता एकदम मिशनरी हो गयी थी. उसका ध्येय पैसा कमाना बिलकुल नहीं था. उसका एक ही ध्येय था- देश की आजादी. जो भी अखबार निकल रहे थे, अंग्रेजों के पिट्ठुओं को छोड़ दें तो, वे सब आज़ादी के विराट लक्ष के लिए ही निकल रहे थे. एक तरफ गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ जैसे अखबार थे तो दूसरी तरफ तिलक का ‘केसरी’ अखबार भी था. गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ था तो माखनलाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’ भी था. बड़े राष्ट्रीय दैनिकों में अमृत बाज़ार पत्रिका, लीडर और ट्रिब्यून जैसे अखबार भी थे, जो राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे. हालांकि अंग्रेज़ी के ज्यादातर बड़े अखबार अंग्रेजों के पिट्ठू थे. यदि छोटे शहरों से निकलने वाले पत्रों को टटोलें तो भी संख्या कम नहीं थी. अल्मोड़ा से निकलने वाले ‘शक्ति’, कोटद्वार से निकलने वाले ‘कर्मभूमि,’ देहरादून से निकलने वाले ‘गढ़वाली’ जैसे पत्र सामने आते हैं, जिनके भीतर राष्ट्रीय भावनाएं कूट-कूट कर भरी रहती थीं. छोटे-छोटे शहरों से निकलने वाले साप्ताहिक भी अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेते थे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी प्रतिष्ठा थी.
आज पत्रकारिता पेशा बन गई है. हालांकि उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन पेशा जब पेशेवर मूल्यों को ताक पर रख कर विशुद्ध मुनाफे तक सीमित हो जाता है तो वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है. यद्यपि पेशेवर मूल्यों के साथ मुनाफा कमाते हुए भी अच्छी पत्रकारिता की जा सकती है, बशर्ते कि समाज-हित के भाव को हमेशा ध्यान में रखा जाए.
अब स्थानीय पत्रकारिता की बात करें. स्थानीय अखबार आज भी कम नहीं हैं. लेकिन आजादी से पहले के स्थानीय पत्रों और आज के स्थानीय पत्रों के फर्क को आप स्वयं ही समझ सकते हैं. आज भी हर कसबे से अखबार निकल रहे हैं. लेकिन कितने अखबारों को शहर से बाहर के लोग जानते हैं?  वर्ष १८७१ में प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार’ को हम आज भी उसकी सत्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए याद करते हैं लेकिन क्या आज कोई लघु पत्र-पत्रिका है, जिसे हम उसकी सच्ची पत्रकारिता के लिए याद रखें. ऐसे पत्र अँगुलियों में गिने जा सकते हैं. आज छोटे शहरों और कस्बों से अन्धान्धुन्ध अखबार और पत्रिकाएं निकल रही हैं. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अकेले उत्तराखंड में ही ३००० से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं. कितने ही अखबार डीएवीपी से बाकायदा विज्ञापन भी लेते हैं. राज्य सरकार के विज्ञापन भी उन्हें मिलते हैं. लेकिन उनमें से कितने अखबार अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादातर अखबार ब्लैकमेलिंग के नापाक धंधे में लगे रहते हैं, जिससे स्थानीय पत्रकारिता निरंतर बदनाम हो रही है. 
आज उत्तराखंड में जो स्थानीय पत्रकारिता है, वह दरअसल राष्ट्रीय अखबारों की स्थानीय पत्रकारिता है. इन अखबारों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर होती है भलेही वे कितने ही स्थानीय दिखें. इन पत्रों ने लगभग हर कसबे में अपने स्ट्रिंगर रख लिए हैं. वे वहाँ की खबरों को रोज अपने जिला कार्यालय में पहुंचाते हैं और वहाँ से खबरें अखबार के प्रकाशन केंद्र तक पहुँचती हैं. जो खबरें मतलब की होती हैं, उन्हें अखबार के पन्नों पर स्थान मिलता है. वरना रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं. हर जिले के अलग-अलग संस्करण होने से अनेक बार अच्छी खबरें भी एक जिले की सीमा में ही रह जाती हैं. इस वजह से इनकी बड़ी आलोचना हो रही है. फिर इन अखबारों की अपनी सम्पादकीय नीति होती है. कोई अखबार किसी दल का समर्थक होता है तो कोई दूसरे दल का. किसी की नीति सकारात्मक खबरें छापने की होती है तो किसी की दिलचस्पी नकारात्मक खबरें छापने में. चूंकि ये अखबार बहु-संस्करण वाले होते हैं, इसलिए इनके मुख्यालय राजधानी दिल्ली में हैं. वहीं से उनकी नीति निर्धारित होती है. एक दिक्कत और है कि इन अखबारों के फीचर और सम्पादकीय पृष्ठ मुख्यालय में ही बनते हैं. समस्त संस्करणों में एक ही सम्पादकीय और फीचर छपते हैं. इस तरह छोटे शहरों की वैचारिक और सृजनात्मक प्रतिभा को उसमें स्थान नहीं मिल पाता. खबरें तो बहुत छपती हैं, लेकिन लेख और फीचर स्थानीय नहीं छपते. आज की तारीख में ज्यादातर अखबारों के फीचर विभाग अखबार के मार्केटिंग विभाग के साथ निकट तालमेल बनाकर छापे जाते हैं. इसलिए उनके विषय स्थानीय जरूरतों के साथ मेल नहीं खाते. पुराने जमाने में अखबार की खबरों के साथ-साथ लेख और फीचर भी स्थानीय ही छपते थे. स्थानीय रचनाकारों को भी जगह मिलती थी. लिहाजा स्थानीय विचार और सृजनात्मकता को उचित स्थान मिल जाता था. इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बनती थी. जबकि आज की स्थानीय पत्रकारिता वास्तव में मुनाफे के लिए है, न कि स्थानीयता को अभिव्यक्ति देने ले लिए.           
इसलिए आज सच्चे अर्थों में स्थानीय पत्रकारिता की जरूरत पहले की तुलना में कहीं अधिक है. दुनिया भर में स्थानीय पत्रकारिता चल रही है. पत्रकारिता के जिन रूपों की बात हमने आरम्भ में की है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. एक कसबे की समस्या को वहीं के लेखक-पत्रकार बेहतर समझ सकते हैं. उन समस्याओं को हल करने में स्थानीय प्रकाशकों की ही दिलचस्पी भी होती है. दूर बैठे पत्र-स्वामी को क्या मतलब कि खटीमा या कोटद्वार में क्या हो रहा है या क्या होना चाहिए. यह तो वही पत्र-स्वामी बेहतर जानता है, जो रोज-ब-रोज उन समस्याओं से जूझ रहा हो. दुनिया में आज स्थानीय पत्रों और वेबसाइटों का जोर है. वे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों को मात दे रहे हैं. अब उन्हें विज्ञापन भी मिलने लगा है. उनकी अर्थव्यस्था भी बेहतर हो रही है. एक बात और. अक्सर दूर बैठे सम्पादक को स्थानीय समस्या का भान नहीं होता. वह समझ ही नहीं सकता कि एक छोटे शहर की क्या जरूरतें हैं. मिसाल के लिए किच्छा के एक गाँव में एक किसान की भैंस मर गयी. बड़े शहर में बैठा सम्पादक इस तरह की खबर देखते ही उपहास करने लगेगा, जबकि उस गाँव के किसान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भैंस पर ही निर्भर है. इसलिए स्थानीय पत्रकारिता को गहराई के साथ समझने की जरूरत है.
हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे हिन्दी प्रदेश के अंदरूनी हलकों में घुसने लगी है. आज भी उसमें अनंत संभावनाएं हैं. जरूरत यह है कि उसे ईमानदारी के साथ किया जाए. स्थानीय समस्याओं को उठाया जाए, स्थानीय लेखक तैयार किये जाएँ, स्थानीय गतिविधियों को स्थान मिले, स्थानीय प्रतिभाओं को मंच मिले और इसके जरिये स्थानीय लोग अपने इलाके को ऊपर उठाने का संकल्प लें. किसी भी अखबार के बने रहने की यह जरूरी शर्त है. (‘खटीमा दीप’ पाक्षिक के प्रवेशांक में, एक जनवरी, २०१६ को प्रकाशित)