रविवार, 19 फ़रवरी 2012

बेहड़ के मंसूबे क्या हैं?

राजनीति/ गोविंद सिंह

इनसे पूछिए कि विकास का क्या अर्थ होता है!  छाया: यंग उत्तराखंड
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ ने तराई के लिए डिप्टी सीएम् की मांग उठा कर एक तरह से उन लोगों को ही आवाज देने का काम किया है, जो उत्तराखंड के निर्माण के समय से ही इसका विरोध करते रहे हैं. ऐसे लोग हर राजनीतिक दल में हैं. उत्तराखंड के निर्माण के पीछे सबसे पहली प्रेरणा यही थी कि भौगोलिक रूप से बहुत बड़ा राज्य होने की वजह से उत्तर प्रदेश में पहाड़ी इलाकों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा था, मैदान और पहाड़ के विकास की अवधारणा एक नहीं हो सकती, इसलिए नया राज्य बनाया जाए ताकि पहाड़ों का सांगोपांग विकास हो सके. तब भी तराई के लोगों, खासकर बाहर से आकर यहाँ बसे लोगों ने शंका जाहिर की थी कि नए राज्य में हमारे हित सुरक्षित नहीं रह पायेंगे. कुछ समूहों ने तब आंदोलन भी किये थे.
लेकिन राज्य बनने के बाद हुआ क्या. राजधानी के नाम पर देहरादून और उद्योगों के नाम पर हरिद्वार, देहरादून, और उधम सिंह नगर. पहाड़ के लिए जिन उद्योगों की बात की जाती थी, उनको नेताओं ने पूरी तरह से भुला दिया. पिछले 11 साल की तरक्की पर एक नजर डालें तो साफ़ होता है कि पहाड़ी जिलों की आपराधिक उपेक्षा हुई है. देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में पिछले दस वर्षों में 33 प्रतिशत आबादी बढ़ी है, जबकि पहाड़ी जिलों में या तो आबादी घटी है, या स्थिर रही है. राज्य बनने के बाद पर्वतीय अंचलों से आबादी का पलायन और भी तेज हो गया है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आज 1774 गाँव वीरान हो चुके हैं. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहाड़ों में जीवन आज भी उतना ही दूभर है, जितना पहले था. बल्कि और मुश्किल हो गया है. क्योंकि अब लोगों को अपने शहरी भाइयों को देख कर अपने गाँव में रहने पर ग्लानि होती है. उन्हें लगता है कि इस से तो शहर में रहना ही बेहतर है. जो थोड़े-बहुत लोग गाँव में बचे हुए हैं, वे नेपाली युवकों की मदद से खेती कर रहे हैं. ज्यादातर गाँव के लोग अपनी खेती-बाडी छोड़ कर शहर की ओर पलायन कर रहे हैं. क्योंकि पहाड़ी गांवों में जीवन वाकई मुश्किल हो रहा है.
पेय जल की हालत अब भी पहले जैसी है, सड़कें जरूर कुछ इलाकों में पहुंची हैं, लेकिन उस से पहाड़ी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलने की बजाय अवशोषण ही ज्यादा हुआ है. आज भी यहाँ 2000 गाँव सड़क से 5 किमी दूर हैं. बिजली की हालत भी खस्ता ही है. खम्भे जरूर लगे हैं, लेकिन उनमें बिजली प्रवाहित नहीं होती. शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है. जिन स्कूलों में बच्चों की गहमा-गहमी हुआ करती थी, आज वे सूने पड़े हुए हैं. वहाँ या तो छात्र नहीं हैं, या अध्यापक नदारद हैं. स्वास्थ्य केंद्र कुछ-कुछ जगहों पर खुले हैं, लेकिन वहाँ न डाक्टर हैं और न दवाएं. बेरोजगारी का आलम यह है कि आज भी पहाड़ी लड़के मैदानों में दर-दर भटकने को विवश हैं. जंगली जानवरों ने कृषि कार्य को अत्यंत दूभर बना दिया है. और हमारी सरकारों के पास इनका कोई जवाब नहीं है. पहाड़ों में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है. पहाड़ खोखले हो रहे हैं, मैदान आबाद हो रहे हैं. आज से दस साल पहले मुझे अपनी जिस जमीन के एक लाख रुपये मिल रहे थे, आज कोई मुफ्त में भी नहीं ले रहा. जबकि हल्द्वानी में उतनी ही जमीन के दस करोड मांगे जा रहे हैं. बताइए किसका विकास हुआ? इस पर भी बेहड साहब कहते हैं, तराई की उपेक्षा हो रही है. परिसीमन आयोग ने पहले ही पहाड़ को अंगूठा दिखा दिया था. 40 से घटा कर उसकी सीटों की संख्या 34 कर दी, जबकि मैदानी इलाकों की 30 से बढ़ाकर 36 कर दी. यानी मैदान का पलड़ा भारी हो चुका है. इसके बावजूद बेहड या कौशिक जैसे लोग ओछी राजनीति कर रहे हैं तो सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए.
इस से पता चलता है कि अपने देश की राजनीति में विषाणु किस कदर घुस गए हैं. सचमुच इस प्रदेश के राजनीतिक ककहरे में आमूल बदलाव की जरूरत है.
हिंदुस्तान, १९ फरवरी, २०१२ से साभार


रविवार, 12 फ़रवरी 2012

कब लौटेंगी टीवी में खबरें?

मीडिया/ गोविंद सिंह
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी हैं. हैं तो वह बिजनेस मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर लेकिन हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और संस्कृत के भी अच्छे जानकार हैं. किसी मसले पर जब वह टिप्पणी करते हैं तो उन्हें ध्यान से सुना जाता है. वे बोले, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, कृपया यह बताइए कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? शाम को जब समाचार देखने को मन होता है, एक भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती. जो चैनल खुद को देश का सबसे उत्तम चैनल होने का दावा करता है, उसमें विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं. खबरों को वह फिलर की तरह दिखाता है. जो चैनल खुद को बौद्धिक बताता है, वह शाम को एक के बाद एक अनर्गल परिचर्चाओं में उलझाए रखता है. हमारे कालेजों की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का स्तर भी उनसे बेहतर होता है. एक चैनल है, जो मामूली खबर को भी ऐसे दिखाता है, जैसे कि कोई तूफ़ान आ गया हो. मजबूर होकर मैं अपने इलाकाई चैनल पर आता हूँ. लेकिन उसके संवाददाताओं की हिन्दी और उर्दू इतनी खराब होती है कि उबकाई आने लगती है. कुल मिलाकर टीवी समाचार देख कर अपना ही माथा पीटने को जी करता है.
मुझे लगा कि अनेक मौकों पर मैं भी यही महसूस करता हूँ. अखबार में था तो मेरे वरिष्ठ सहयोगी भी अक्सर यही कहा करते थे. समाज के किसी संभ्रांत व्यक्ति से चर्चा कीजिए तो वह भी ऐसा ही अनुभव बताता है. खुद टीवी चैनलों में काम करने वाले साथी अपने काम से संतुष्ट नज़र नहीं आते. हर कोई  टीआरपी का रोना रोता है. इस टीआरपी ने ऐसा जाल रचा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंद हो गयी है. वे हमेशा उस फार्मूले की तलाश में रहते हैं, जो उन्हें टीआरपी दिला सके. वे टीआरपी का कोई अपना फार्मूला आजमाने का साहस भी नहीं कर पाते. संयोग से कोई नया आइडिया किसी के दिमाग में कोंध भी गया तो उसे अंजाम देने में डर लगता है. यदि फेल हो गया तो? यानी हर दिन, हर पल हमारा न्यूज प्रोडूसर टीआरपी के आतंक से ग्रस्त रहता है.
ऐसे में सबसे ज्यादा नुक्सान तो खबर का ही होता है, जो दिखाए जाने की पात्रता रखते हुए भी नहीं दिखाई जाती. दूसरा नुक्सान दर्शक को होता है, जो १५-२० हज़ार का एक टीवी सेट खरीदता है और हर महीने दो-ढाई सौ रुपये केबल वाले या डीटीएच वाले को देता है, इस आशा में कि उसे खबर देखने को मिलेगी और वह दुनिया-जहां के बारे में अपनी और अपने बच्चों की जागरूकता बढ़ाएगा. लेकिन रोज कोई ना कोई ऐसी हरकत हमारे चैनल वाले कर देते हैं कि मन मसोस कर रह जाना पड़ता है. अब गडकरी के मंच टूट्ने की ही घटना को देखिये, एक ही दृश्य को आप दसियों बार दिखाते हैं. क्या मतलब है? एक बच्चे ने अपनी अध्यापिका को चाकू मारा. एंकर महोदय ऐसे बोल रहे थे, जैसे कि बच्चे ने कोई बहादुरी का काम कर दिया हो. उनके शब्द थे, बच्चे ने टीचर को मौत के घाट उतार दिया. इस बात को वह एक बार नहीं, बार बार दोहरा रहे थे. क्या आप खबर की ऐसी प्रस्तुति को देखना चाहेंगे? हमने तो तुरंत स्विच ऑफ कर दिया था.
दुःख इस बात का है कि हमारे हिन्दी चैनल वाले साथी सोचते नहीं. वे हमेशा फार्मूलों की तलाश में रहते हैं. किसी एक चैनल का एक फार्मूला हिट हो गया तो सभी उसी दिशा में दौड पड़ते हैं. अपनी बुद्धि नहीं लगाते. एक ने चूहे-बिल्ली दिखाई तो सब वही तलाशेंगे. एक ने संक्षिप्त खबरें दिखाई तो सब उसी और दौडेंगे. एक ने अपराध कथाएं दिखाई तो सभी अपराध ही तलाशते हैं. और वह भी पूरे नाटक के साथ. भाई, नाटक ही करना है तो पत्रकार की क्या जरूरत, नाट्य विद्यालय के छात्र को ही यह काम सौंप दीजिए, वह इस काम को बेहतर अंजाम देगा. यह भीडतंत्र हमारे टेलीविजन समाचार को कहाँ ले जाएगा, समझ में नहीं आता. खबरों के गायब होने का यह ब्रेक कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है. अब तो इसे टूटना ही चाहिए.
हिन्दुस्तान, १३ फरवरी २०१२ से साभार.
    

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

बेरौनक होता देहरादून


देहरादून से मैंने अपने कार्य जीवन की शुरुआत की थी, २९ दिसंबर १९८१ को. आठ महीने मैं वहाँ रहा. चार सितम्बर १९८२ की रात मैंने वहाँ से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ी और छः सितम्बर की सुबह मुंबई पहुंचा. देहरादून के पलटन बाज़ार से खरीदे गए फ़ौजी बैग के साथ मैं टाइम्स बिल्डिंग में घुसा और एक नया जीवन शुरू हुआ. लेकिन देहरादून मुझे बार-बार याद आता रहा. केवल अपनी पहली नौकरी की वजह से नहीं, उस शहर की वजह से भी, जिसने मुझे अपार आत्मीयता दी. देहरादून शहर भी मुझे बहुत लुभावना लगता था. इसकी हरी-भरी वादियाँ, खूबसूरत खेत और राजपुर रोड जैसे कुछ पौश इलाके. पलटन बाज़ार की संकरी गली बहुत अच्छी लगती थी. हर जरूरत की चीज यहाँ मिल जाती थी.

देहरादून की पहचान- घंटाघर

पिछले तीन दशकों में दो-एक बार देहरादून जाने का मौक़ा मिला. लेकिन सन २००० में राजधानी बनने के बाद जिस तेजी के साथ इसमें बदलाव आने लगे, उसने शहर की शान्ति तो भंग की ही, साथ ही शहर से अपनत्व भी छीन लिया. आज ऐसा लगता है, जैसे आप एक निष्प्राण जंगल में घुस आये हैं. वहाँ कदम-कदम पर ट्रैफिक जाम लग जाता है, लोग उसी तरह लड़ते-झगड़ते हैं, जैसे दिल्ली में रोड रेज करते युवा. सचिवालय में घुसने वालों की वैसी ही भीड़ और दिल्ली की ही तरह पार्किंग की समस्या. जगह-जगह दलाल और ठेकेदार. बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर. लाखों के वारे-न्यारे. ऐसे में आत्मा कहाँ से रहेगी. एक तरह से शहर पर धनपशुओं का नियंत्रण हो गया है.
अस्सी के दशक में देहरादून और मसूरी की पहाडियों में चूना-पत्थर खुदाई करने वालों के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही थी. इस लड़ाई को लड़ने वाले युवा पत्रकार कुंवर प्रसून, नवीन नौटियाल और गुरुचरण थे. इनमें से कुंवर प्रसून को गुजरे हुए पांच साल हो गए हैं. नवीन नौटियाल को विधि ने पिछले हफ्ते हमसे छीन लिया. गुरुचरण दिल्ली में फ्री लांसिंग कर रहे हैं. जिन दो और अच्छे लोगों को समय से बहुत पहले हमसे छीन लिया गया, उनमें कवि-चित्रकार अवधेश कुमार और गज़लकार हरजीत बरबस याद आते हैं. उन दिनों हम सब लोग अक्सर शाम को टिप-टॉप रेस्तरां में मिला करते थे. जो महत्व दिल्ली में काफी हाउस का था, वही महत्व देहरादून में टिप-टॉप का था. घंटाघर में चकराता रोड पर गोयल फोटो कंपनी के सामने था यह टिप-टॉप. इसके मालिक ने पत्रकारों, लेखकों के लिए हमेशा अपने दरवाजे खोल रखे थे. हम लोग शाम को ३-४ घंटे वहाँ बैठे रहते और बड़ी मुश्किल से एकाध चाय पीते. लेकिन दूकान वाले ने कभी इसका बुरा नहीं माना. कई बार लेखकों की भीड़ देख कर दूसरे ग्राहक दूकान में ही नहीं घुसते थे, इसका भी वे बुरा नहीं मानते थे. वे खुद भी बुद्धिजीवियों की बहस में उलझ जाते. अवधेश कुमार, नवीन नौटियाल, अरविन्द शर्मा, ‘कविजी’ यानी सुखबीर विश्वकर्मा और भी अनेक लोग आया करते. कभी-कभी दिल्ली से हिमानी भट्ट और श्रीश डोभाल, सुरेश उनियाल  भी आया करते. ये लोग अवधेश जी के मित्र थे. इस से हम देहरादूनी लेखकों को दिल्ली से जुड़े रहने का संबल मिलता. महीने में एक बार छायाकार ब्रह्मदेव जी के यहाँ भी साहित्यिक बैठक हुआ करती. जिसमें शहर के जाने माने लेखक शामिल होते. रवीन्द्रनाथ त्यागी, भीमसेन त्यागी, गुरुदीप और कृष्ण खुराना, कुसुम चतुर्वेदी, शशिप्रभा शास्त्री, शैल शर्मा, सुभाष पन्त, पूरण मनराल, सुरेन्द्र चौहान आदि. नवीन नौटियाल के पिताजी की फोटोग्राफी की अच्छी-खासी दूकान थी. वे अज्ञेय और एम एन रॉय के करीबी मित्र थे. उनके पास अनेक दुर्लभ फोटो देखने को मिलते.  
चकराता रोड : क्या हाल हो गया!
पिछले हफ्ते एक बार फिर देहरादून की सड़कों पर घूमने का अवसर मिला. पलटन बाज़ार तो पहले ही चौड़ा हो गया है, हालांकि अब भी उसमें वैसी ही भीड़ है, लेकिन उसका पुराना चरित्र खत्म हो गया है. घंटा घर से चकराता रोड की तरफ जाते हुए जो दुकानें थीं, वे इन दिनों तोडी जा रही हैं. इनमें एक-दो मिठाई की अच्छी दुकानें थीं, गोयल फोटो कंपनी थी और टिप-टॉप रेस्तरां था, सब तोड़ दिए गए हैं. मुझे सबसे ज्यादा गम टिप टॉप के नेस्तनाबूद होने का है. क्योंकि इसी रेस्तरां ने मुझे आठ महीने में ही देहरादून का बना दिया था. पुराने लोगों में भी बहुत कम लोग वहाँ रह गए हैं, पन्त जी जरूर वहाँ बने हुए हैं. लेकिन शहर की साहित्यिक रौनक नदारद है. शहर के बनने और टूटने का सिलसिला जारी है. लेकिन कहीं कोई चीज योजनाबद्ध तरीके से हो रही हो, ऐसा लगता नहीं. वह रे विकास!