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रविवार, 9 नवंबर 2014

उत्तराखंड: सपने अब भी अधूरे हैं!

राजनीति/ गोविन्द सिंह
अपने देश में 14 वर्ष के काल-खंड का ख़ास महत्व है. इसी अवधि में भगवान् राम चन्द्र ने वनवास पूरा किया और आसुरी प्रवृत्तियों को पराजित कर एक नयी व्यवस्था अर्थात राम-राज्य कायम किया. ऐसा राज्य, जिसमें न भय हो और न भेदभाव हो. यानी 14 वर्ष का काल भलेही थोड़ा-सा लगे पर यदि मन में संकल्प हो तो क्या नहीं किया जा सकता! उत्तराखंड राज्य भी आज 14 वर्ष पूरे कर 15वें वर्ष में कदम रख रहा है. लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि हमने अपने मकसद को पा लिया है? निश्चय ही राज्य प्राप्ति की लड़ाई भी कोई कम नहीं थी. रामपुर तिराहा काण्ड की याद करते ही आज भी पूरा वजूद ही सिहरन करने लगता है. तब लगता था कि संघर्ष की आग से तप कर निकले लोग बेहतर शासक सिद्ध होंगे, उत्तरांचल के रूप में अलग हुआ भू-भाग तरक्की करेगा और यहाँ के लोग खुशहाल होंगे. नरेन्द्र सिंह नेगी की कुछ पंक्तियाँ हैं:
ये दौर जुल्म का बदलेगा,
निखरेंगे दिन-रात देखना
भूगोल पहाड़ों का बदलेगा,
बदलेगा इतिहास देखना.


गिरीश तिवारी गिर्दा ने नए राज्य की परिकल्पना कुछ यों प्रस्तुत की थी:
जै दिन नान-ठुलो नि रौलो, जै दिन त्यर-म्यरो नि होलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जै दिन चोर नि फलालि, क्वैके जोर नि चलोलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में (कोरस)
राज्य मिल गया, देखते ही देखते 14 वर्ष भी बीत गए लेकिन क्या वह सब मिला, जिसकी परिकल्पना की गयी थी? क्या वैसी व्यवस्था कायम हो पाई? क्या गरीब जनता को कुछ हासिल हुआ? क्या महिलाओं के अपमान का बदला लिया गया? क्या भ्रष्टाचार- भाई-भतीजावाद से मुक्ति मिली? शायद नहीं. खुद हमारे नेता ही कह रहे हैं, ‘उत्तराखंड में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, इससे तो हम उत्तर प्रदेश में ही भले थे!’ 
ऐसा नहीं है कि नया राज्य बनने के बाद यहाँ कुछ हुआ ही नहीं. बहुत कुछ हुआ भी है. मैदानी इलाकों में उद्योग-धंधे शुरू हुए हैं. विकास दर बढ़ी है, गांवों में बिजली पहुंची है, शहरों का विस्तार हुआ है, स्कूल-कालेजों का जाल फैला है, 108 नंबर सेवा शुरू हुई है, पहाडी युवक अब दिल्ली-लखनऊ के ढाबों में बर्तन नहीं मांजते, वे पहाड़ों में ही जीप दौड़ा रहे हैं. गाँव-कस्बों तक अंग्रेज़ी स्कूल खुल गए हैं, गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच रही हैं. ग्राम-प्रधान से लेकर गाँव के बेरोजगार युवक तक सब ठेकेदारी करने लगे हैं. पाथर वाले घरों की जगह लेंटर वाले मकान बन रहे हैं, घर-घर टीवी-मोबाइल पहुँच रहे हैं. अब पहाडी बहुएं अपने परदेशी पिया के वियोग में न्योली नहीं गातीं, मोबाइल नंबर मिला कर बात कर लेती हैं. शादी-व्याह में ब्यूटी पार्लर का चलन बढ़ रहा है. लोग अब छपेली की तान पर नहीं, डीजे पर बजने वाले पंजाबी भांगड़े पर थिरकते हैं. खेती सिकुड़ रही है, व्यापार फल-फूर रहा है. जी हाँ, यदि विकास इसी को कहते हैं, तो हमारा उत्तराखंड खूब विकास कर रहा है.
लेकिन इस विकास के लिए हमने नहीं लड़ी थी अलग राज्य की लड़ाई. इस तरह का विकास तो हर राज्य के हर कोने में हुआ है. इसमें हमारी  सरकारों का क्या योगदान है? यदि पृथक राज्य बनने के बाद आये बदलाव का आकलन करें तो सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन के रूप में दिखता है. यों तो पलायन हमारे पर्वतों की त्रासदी शुरू से ही रही है, लेकिन राज्य बनने के बाद इसमें कई गुना तेजी आयी है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि वर्ष 2000 के बाद ही कोई 1700 गाँव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं और इतने ही आधे बंजर हैं. अब खेती कोई नहीं करना चाहता. गाँव की जिस जमीन की कीमत 20 साल पहले एक लाख रुपये थी आज शून्य है. समर्थ लोग हल्द्वानी, रामनगर या कोटद्वार की तरफ सरक रहे हैं. जबकि शहरी जमीन आसमान छू रही है. गाँव के जो स्कूल बच्चों के शोरगुल से गुलजार रहते थे, आज वीरान हैं. इक्का-दुक्का बच्चे जो आते भी हैं, वे मिड दे मील खाकर भाग जाते हैं. अध्यापक खुश हैं कि पढाना नहीं पड़ रहा. यूं भी वहाँ कोई रहना नहीं चाहता. रहे भी क्यों? जब सारी सुविधाएं शहरों में ही केन्द्रित हैं तो गाँवों में, दुर्गम पहाड़ों में कोई क्यों रहे? अपनी ही भूमि से ऐसा मोह-भंग पहले कभी नहीं देखा.
लोग कहते हैं कि नए राज्य का सबसे ज्यादा फायदा नेताओं-ठेकेदारों और ब्यूरोक्रेटों ने उठाया है. हमारे प्रजातंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी शायद यही है कि उसने गाँव-गाँव में ठेकेदारों की फ़ौज खडी की है. इस प्रथा ने गाँव के अंतिम व्यक्ति तक को भ्रष्ट बना दिया है. क्योंकि गाँव का ही ठेकेदार गाँव के ही मजदूर को बिना काम किये आधी मजदूरी पर दस्तखत करवाते हैं, इस तरह उस मजदूर को भी भ्रष्ट बना रहे हैं. बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की बात हम नहीं करते. राज्य के विधान सभाध्यक्ष तक इस राज्य में फैले भ्रष्टाचार का दर्द बयान कर चुके हैं.
दुखद पहलू यह भी है कि राज्य बनने से हमारे प्रदेश का अति राजनीतिकरण हुआ है. यहाँ हर आदमी नेता है. हर आदमी मुख्यमंत्री पद का दावेदार है. जो पहले ग्राम-प्रधान नहीं बन सकता था, वह मंत्री बन जाए तो नयी पीढी को वही रोल मॉडल दिखाई पड़ता है. इसलिए राजनीति की प्रयोगशालाओं (छात्र संघों) में अब जबरन वसूली और ठेकेदारी के गुर सिखाये जाते हैं. मेहनत के रास्ते पर कोई नहीं चलना चाहता.     
हमारी 14 बरस की कुल जमा यात्रा कोई सुकून नहीं देती. गंभीरता से देखने पर लगता है कि हम सचमुच पीछे की ओर जा रहे हैं. एक खुशहाल पहाडी राज्य का सपना अब भी अधूरा है. (दैनिक जागरण, हल्द्वानी, नौ नवम्बर, २०१४ से साभार) 

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

उत्तराखंड की जनता दिग्भ्रमित क्यों है?

राजनीति/ गोविंद सिंह

यों तो उत्तराखंड का जनादेश, जब से राज्य बना है,  तब से ही लगातार भ्रमित करने वाला रहा है, लेकिन इस बार उसने इस शांत राज्य को गंभीर राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में झोंक दिया है. खतरा यह है कि कहीं मध्यावधि चुनाव की नौबत न आ जाए. नब्बे के दशक में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता रही, उसकी याद से ही सिहरन-सी होने लगती है.
आश्चर्य की बात यह है कि जब देश की संसद के लिए चुनाव होता है, तब उत्तराखंड की जनता बहुत ही समझदारी से वोट डालती है, कभी किसी तरह का भ्रम नहीं रहता. लेकिन विधान सभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने में वह बेबाकपन नहीं दिखा पाती. अक्सर दो-चार सीटें कम रह ही जाती हैं. वर्ष २००२ में कांग्रेस तीन निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बना पाई थी तो २००७ में भाजपा को तीन निर्दलीय और तीन उक्रांद विधायकों की मदद लेनी पडी थी. इस बार जब ३० जनवरी को उत्तराखंड से भारी संख्या में मतदान की खबरें आ रही थीं, तब एक बारगी ऐसा लगने लगा था कि शायद जनता आर-पार का फैसला दे देगी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं. नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात. और फिर उसी तरह निर्दलीय विधायकों की खरीद-फरोख्त और ब्लैकमेलिंग. भलेही निर्दलीय विधायक बिना शर्त समर्थन दे रहे हों, लेकिन इस से माहौल तो दूषित होता ही है. जैसे प्रदेश चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है. यह सिलसिला यहीं थमेगा नहीं. जब सरकार बनाने में ही इतना समय लग गया तो भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है. इसलिए यह सवाल बना ही हुआ है कि आखिर उत्तराखंड की जनता क्यों किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं देती? क्यों वह ‘तुम भी सही, तुम भी सही’ के अंदाज में अस्पष्ट जनादेश देती है? अंततः उसका अनिर्णय अपने और प्रदेश के लिए घातक साबित होता है!
इसका सीधा-सा मतलब यह निकलता है कि उत्तराखंड का मतदाता राजनीतिक समझ के लिहाज से अभी परिपक्व नहीं हुआ है. वह समझ नहीं पा रहा कि किसे सत्ता सौंपी जाए. राज्य बनने के बाद विधानसभा क्षेत्र बहुत छोटे-छोटे हो गए हैं. जबकि समाज आपस में बहुत गुंथा हुआ है. आपस में रिश्तेदारियां हैं. एक ही गाँव, एक ही बिरादरी में लोग चुनाव के कारण बंट रहे हैं. राजनीतिक विचारधाराएं गौण हो जाती हैं. लोग राजनीतिक प्राथमिकताओं और निजी पसंदगियों के बीच फर्क नहीं कर पाते. ऐसे में किसको जिताएं, किसको हराएं, भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है. एक उम्मीदवार यदि एक गाँव के लिए उपयुक्त है तो दूसरे गाँव के लिए अनुपयुक्त. क्योंकि वह भी उसी गाँव में विकास योजनाएं ले जाता है, जहां उसकी रिश्तेदारी होती है. इसीलिए जहां लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड की जनता का फैसला बहुत स्पष्ट हुआ करता है, वहीं विधान सभा चुनाव में वह लड़खड़ा जाता है.
यद्यपि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की राजनीति के बीच तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन यह मानना होगा कि उत्तर प्रदेश को इस मुकाम तक पहुँचने में लगभग दो दशक लग गए. वहाँ भी वर्ष १९९० से लेकर २००७ तक लगातार खंडित जनादेश ही आता रहा. जिस से प्रदेश को लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरना पड़ा. जब मतदाता को लगा कि इस तरह का लंगड़ा जनादेश अंततः प्रदेश के ही नहीं, अपने पैरों में भी कुल्हाड़ी मारने जैसा है, तब उसने दो बाहुबलियों में से एक को गद्दी सौंपना बेहतर समझा. इस तरह उत्तर प्रदेश का मतदाता लगातार परिपक्व हो रहा है और प्रदेश हित में फैसले कर रहा है. हालांकि अभी वह पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है, इसलिए एक तरफ वह एक ही दल को पूर्ण बहुमत भी दिला देता है तो दूसरी तरफ मुख्तार अंसारी जैसे लोगों को भी विधान सभा में भेज देता है. आशा करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में वह नीर-क्षीर विवेकी बन पाएगा. 
उत्तराखंड की दूसरी समस्या यह है कि पिछले १२ वर्षों में यहाँ की प्रादेशिक राजनीति का बहुत ज्यादा पतन हुआ है. लोगों ने देखा कि किस तरह उनका पड़ोसी इस राजनीति की सीढ़ी पर चढ कर पांच साल में ही मालामाल हो गया. इसलिए इन १२ वर्षों में जनता का अतिराजनीतिकरण भी हुआ है. यह बात पहले कही गयी बात की अंतर्विरोधी लग सकती है, इसलिए कृपया राजनीतिकरण को राजनीतिक परिपक्वता न समझा जाए. राज्य बन गया पर अभी तक लोगों की राजनीतिक दीक्षा नहीं हुई. जबकि राजनीति के राजमार्ग पर चल कर तथाकथित तरक्की की आकांक्षा असमय ही उनके भीतर जाग गयी. लोग किसी राजनीतिक विचारधारा या सामूहिक हित के लिए वोट नहीं डाल रहे, बल्कि अपने निहित स्वार्थ के लिए वोट डालते हैं. यह राजनीतिक अपरिपक्वता उन्हें अंततः किसी निर्णय तक नहीं पहुँचने देती. हालांकि दीर्घावधि में यह उसके लिए लोमड़ी के खट्टे अंगूरों की तरह साबित होती है. पर यह सत्य अभी उनकी समझ में नहीं आ रहा.
यही आकांक्षा विधायकों के स्तर पर मंत्री और मुख्यमंत्री बनने की होड़ के रूप में भी देखने को मिलती है. आखिर क्यों इतने लोगों के भीतर मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा जागी? आपके भीतर सरपंच बनने की भी काबलियत नहीं है, लेकिन आप विधायक बन गए. और आप इतनी जल्दी मुख्यमंत्री की दौड में भी शामिल हो गए! आपने तनिक भी सोचा कि मुख्यमंत्री का क्या मतलब होता है? आखिर क्यों यहाँ हर व्यक्ति मंत्री और मुख्यमंत्री बनना चाहता है? इसलिए कि ऐसा होने पर वह बिना काम किये ही रातोरात मालामाल हो जाता है. यही पिछले १२ वर्षों में हुआ है. जबकि होना यह चाहिए था कि मंत्री-विधायक प्रदेश के हित में रात-दिन परिश्रम करते. समाज के समक्ष ईमानदारी की मिसाल कायम करते. जाहिर है कि अगली बार वही व्यक्ति चुनाव जीतता जो परिश्रम की उससे भी लंबी रेखा खींचने में सक्षम हो. तब राजनीति सचमुच काँटों का ताज समझी जाती. ऐसी राजनीति में ईमानदार लोग आते और जनहित में काम होता. जाहिर है तब इतने लोग मंत्री पद की दौड में शामिल भी नहीं होते. आशा है कि उत्तराखंड की जनता इस विभ्रम से बाहर निकलेगी और इस चुनाव से सबक सीख कर भविष्य में स्पष्ट फैसला करेगी.  ( दैनिक जागरण, २२ मार्च से साभार)
http://epaper.jagran.com/epaperimages/22032012/21nnt-pg10-0.pdf
  

   


शुक्रवार, 16 मार्च 2012

उत्तराखंड में नेतृत्व का संकट

गोविंद सिंह

उत्तराखंड में राजनीतिक नेतृत्व को लेकर जिस तरह का बवाल मचा हुआ है, वह इस प्रदेश के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है. हर व्यक्ति यही सवाल कर रहा है कि उत्तराखंड की जिस धरा ने उत्तर प्रदेश को तीन-तीन मुख्यमंत्री दिए, आज वह धरा नेताविहीन क्यों नज़र आ रही है? कांग्रेस को अपना नेता चुनने में एक हफ्ता लग गया. जो नेता चुना भी तो उसके खिलाफ बगावत पहले शुरू हो गयी. भाजपा भी सदन में अपना नेता नहीं चुन पा रही है. सारा राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत निराशाजनक है. जहां देश में उत्तराखंड की फजीहत हो रही है, वहीं उत्तराखंड की जनता सकते की स्थिति में है.
उत्तराखंड की जनता को राजनीतिक तौर पर जागरूक समझा जाता रहा है. लेकिन नए राज्य का दुर्भाग्य यह रहा कि उसे कोई दृष्टिसम्पन्न नेता नहीं मिल पाया. हमें बार बार यह याद दिलाया जाता है कि यदि उत्तराखंड को भी यशवंत सिंह परमार जैसा कुशल और दूरदृष्टिपूर्ण नेता मिल जाता तो प्रदेश का यह हश्र न होता. यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति ही समाज के मूल्यों का निर्माण करती है. आज यदि प्रदेश की जनता गलत निर्णय ले रही है, वह हताश नज़र आ रही है, तो उसके लिए भी राजनीति ही जिम्मेदार है. दरअसल इसके लिए प्रदेश की तुलना में केंद्र की राजनीति ज्यादा जिम्मेदार है. उसने जान बूझकर यह कोशिश की कि राज्य में कोई कद्दावर नेता पैदा ही न हो. पता नहीं राजनीति के किस सिद्धांत के तहत उन्होंने राज्य बनाने के पहले ही दिन से स्थानीय नेताओं पर अविश्वास किया. पहले मुख्यमंत्री के तौर पर नित्यानंद स्वामी को शपथ दिलाई गयी. साल भर के अंदर ही उन्होंने यह हालत कर दी कि भाजपा को उन्हें बदलना पड़ा. आखिरी तीन महीने भगत सिंह कोशियारी को सत्ता सौंपी गयी. तब तक चिड़िया खेत को चट कर चुकी थी.
उसके बाद हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव जीती. लेकिन सत्ता की बात आयी तो नारायण दत्त तिवारी को गद्दी पर बिठा दिया गया. हरीश रावत ठगे से रह गए. खैर तिवारी के रूप में राज्य को एक बड़ा नेता मिलने की खुशी भी थी. लेकिन तिवारी जी की विकास की परिकल्पना उत्तर प्रदेश वाली ही थी. वे उत्तराखंड के हिमायती ही नहीं थे तो विकास की अवधारणा भी कहाँ से आती? उन्होंने राज्य का विकास तो किया लेकिन वह तराई तक ही सीमित रह गया. पहाड़ों को लेकर उनके पास जैसे कोई दृष्टि ही नहीं थी. फिर भाजपा की बारी आयी. उसने भी पांच साल प्रदेश में भाजपा संगठन को खडा करने वाले भगत सिंह कोशियारी को धता बताते हुए भुवन चंद्र खंडूरी को गद्दी पर बिठा दिया. लिहाजा जब तक वह सत्ता में रहे लगातार बगावत होती रही. अपने दो साल के कार्यकाल में वे कोइ खास काम नहीं कर पाए. शायद राष्ट्रीय दलों ने अपने स्थानीय पकड़ वाले नेताओं पर भरोसा किया होता तो यह नौबत ना आती.
सच बात यह भी है कि उत्तराखंड का एकछत्र नेता बन पाना आसान भी नहीं है. उसके लिए स्थानीय पकड़ के साथ ही राष्ट्रीय दृष्टि की अपेक्षा रहती है. गोविंद बल्लभ पन्त के अलावा वह स्थान किसी को नहीं मिल पाया. वह भी इसलिए कि स्थानीय जनान्दोलोनों से उभर कर वह शीर्ष तक पहुंचे थे. उसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा बड़े नेता हुए, लेकिन वह भी पूरे पहाड़ के नेता नहीं बन पाए. इसीलिए उन्हें अपना चुनाव क्षेत्र इलाहाबाद को बनाना पड़ा. तिवारी जी ने खुद को कभी तराई से ऊपर का नेता नहीं समझा. मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर नेता को एक हार के बाद ही अल्मोडा को टा-टा कह देना पड़ा. अब वे भी कभी इलाहाबाद तो कभी बनारस को अपना चुनाव क्षेत्र बनाते हैं. वास्तव में पहाड़ की समस्याएं भी पहाड़ सरीखी हैं. जो नेता उन्हें समझ पायेगा, वही यहाँ के लोगों के दिलों में राज करेगा. यहाँ के नेता को कृपया मैदानी चश्मे से मत देखिए. 
अमर उजाला, १६ मार्च, २०१२ से साभार

  

  



 

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

बेहड़ के मंसूबे क्या हैं?

राजनीति/ गोविंद सिंह

इनसे पूछिए कि विकास का क्या अर्थ होता है!  छाया: यंग उत्तराखंड
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ ने तराई के लिए डिप्टी सीएम् की मांग उठा कर एक तरह से उन लोगों को ही आवाज देने का काम किया है, जो उत्तराखंड के निर्माण के समय से ही इसका विरोध करते रहे हैं. ऐसे लोग हर राजनीतिक दल में हैं. उत्तराखंड के निर्माण के पीछे सबसे पहली प्रेरणा यही थी कि भौगोलिक रूप से बहुत बड़ा राज्य होने की वजह से उत्तर प्रदेश में पहाड़ी इलाकों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा था, मैदान और पहाड़ के विकास की अवधारणा एक नहीं हो सकती, इसलिए नया राज्य बनाया जाए ताकि पहाड़ों का सांगोपांग विकास हो सके. तब भी तराई के लोगों, खासकर बाहर से आकर यहाँ बसे लोगों ने शंका जाहिर की थी कि नए राज्य में हमारे हित सुरक्षित नहीं रह पायेंगे. कुछ समूहों ने तब आंदोलन भी किये थे.
लेकिन राज्य बनने के बाद हुआ क्या. राजधानी के नाम पर देहरादून और उद्योगों के नाम पर हरिद्वार, देहरादून, और उधम सिंह नगर. पहाड़ के लिए जिन उद्योगों की बात की जाती थी, उनको नेताओं ने पूरी तरह से भुला दिया. पिछले 11 साल की तरक्की पर एक नजर डालें तो साफ़ होता है कि पहाड़ी जिलों की आपराधिक उपेक्षा हुई है. देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में पिछले दस वर्षों में 33 प्रतिशत आबादी बढ़ी है, जबकि पहाड़ी जिलों में या तो आबादी घटी है, या स्थिर रही है. राज्य बनने के बाद पर्वतीय अंचलों से आबादी का पलायन और भी तेज हो गया है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आज 1774 गाँव वीरान हो चुके हैं. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहाड़ों में जीवन आज भी उतना ही दूभर है, जितना पहले था. बल्कि और मुश्किल हो गया है. क्योंकि अब लोगों को अपने शहरी भाइयों को देख कर अपने गाँव में रहने पर ग्लानि होती है. उन्हें लगता है कि इस से तो शहर में रहना ही बेहतर है. जो थोड़े-बहुत लोग गाँव में बचे हुए हैं, वे नेपाली युवकों की मदद से खेती कर रहे हैं. ज्यादातर गाँव के लोग अपनी खेती-बाडी छोड़ कर शहर की ओर पलायन कर रहे हैं. क्योंकि पहाड़ी गांवों में जीवन वाकई मुश्किल हो रहा है.
पेय जल की हालत अब भी पहले जैसी है, सड़कें जरूर कुछ इलाकों में पहुंची हैं, लेकिन उस से पहाड़ी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलने की बजाय अवशोषण ही ज्यादा हुआ है. आज भी यहाँ 2000 गाँव सड़क से 5 किमी दूर हैं. बिजली की हालत भी खस्ता ही है. खम्भे जरूर लगे हैं, लेकिन उनमें बिजली प्रवाहित नहीं होती. शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है. जिन स्कूलों में बच्चों की गहमा-गहमी हुआ करती थी, आज वे सूने पड़े हुए हैं. वहाँ या तो छात्र नहीं हैं, या अध्यापक नदारद हैं. स्वास्थ्य केंद्र कुछ-कुछ जगहों पर खुले हैं, लेकिन वहाँ न डाक्टर हैं और न दवाएं. बेरोजगारी का आलम यह है कि आज भी पहाड़ी लड़के मैदानों में दर-दर भटकने को विवश हैं. जंगली जानवरों ने कृषि कार्य को अत्यंत दूभर बना दिया है. और हमारी सरकारों के पास इनका कोई जवाब नहीं है. पहाड़ों में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है. पहाड़ खोखले हो रहे हैं, मैदान आबाद हो रहे हैं. आज से दस साल पहले मुझे अपनी जिस जमीन के एक लाख रुपये मिल रहे थे, आज कोई मुफ्त में भी नहीं ले रहा. जबकि हल्द्वानी में उतनी ही जमीन के दस करोड मांगे जा रहे हैं. बताइए किसका विकास हुआ? इस पर भी बेहड साहब कहते हैं, तराई की उपेक्षा हो रही है. परिसीमन आयोग ने पहले ही पहाड़ को अंगूठा दिखा दिया था. 40 से घटा कर उसकी सीटों की संख्या 34 कर दी, जबकि मैदानी इलाकों की 30 से बढ़ाकर 36 कर दी. यानी मैदान का पलड़ा भारी हो चुका है. इसके बावजूद बेहड या कौशिक जैसे लोग ओछी राजनीति कर रहे हैं तो सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए.
इस से पता चलता है कि अपने देश की राजनीति में विषाणु किस कदर घुस गए हैं. सचमुच इस प्रदेश के राजनीतिक ककहरे में आमूल बदलाव की जरूरत है.
हिंदुस्तान, १९ फरवरी, २०१२ से साभार