बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता की संभावनाएं

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पत्रकारिता निरंतर अपना चोला बदल रही है. उसके अनेक रूप चलन में हैं. ऊपर से शुरू करें तो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता, राष्ट्रीय पत्रकारिता, प्रादेशिक पत्रकारिता, क्षेत्रीय पत्रकारिता, जनपदीय पत्रकारिता, स्थानीय पत्रकारिता, अति स्थानीय पत्रकारिता, सामुदायिक पत्रकारिता और नागरिक पत्रकारिता. सोशल मीडिया उसका एक और रूप है, जो पत्रकारिता है भी और नहीं भी. लेकिन पत्रकारिता की जब हम बात करते हैं तो उसके साथ कुछ मानदंड स्वतः जुड़ जाते हैं. बिना आचार संहिता या पत्रकारीय नैतिकता या पत्रकारीय मूल्यों के उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. पत्रकारिता में समाज-हित का भाव अन्तर्निहित रहता है. बिना व्यापक हित के उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः पत्रकारिता के जिन रूपों का ऊपर जिक्र किया गया है, उन सबमें एक समानता यह है कि सबका लक्ष समाझ-हित होना चाहिए.
भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हमारी पत्रकारिता एकदम मिशनरी हो गयी थी. उसका ध्येय पैसा कमाना बिलकुल नहीं था. उसका एक ही ध्येय था- देश की आजादी. जो भी अखबार निकल रहे थे, अंग्रेजों के पिट्ठुओं को छोड़ दें तो, वे सब आज़ादी के विराट लक्ष के लिए ही निकल रहे थे. एक तरफ गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ जैसे अखबार थे तो दूसरी तरफ तिलक का ‘केसरी’ अखबार भी था. गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ था तो माखनलाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’ भी था. बड़े राष्ट्रीय दैनिकों में अमृत बाज़ार पत्रिका, लीडर और ट्रिब्यून जैसे अखबार भी थे, जो राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे. हालांकि अंग्रेज़ी के ज्यादातर बड़े अखबार अंग्रेजों के पिट्ठू थे. यदि छोटे शहरों से निकलने वाले पत्रों को टटोलें तो भी संख्या कम नहीं थी. अल्मोड़ा से निकलने वाले ‘शक्ति’, कोटद्वार से निकलने वाले ‘कर्मभूमि,’ देहरादून से निकलने वाले ‘गढ़वाली’ जैसे पत्र सामने आते हैं, जिनके भीतर राष्ट्रीय भावनाएं कूट-कूट कर भरी रहती थीं. छोटे-छोटे शहरों से निकलने वाले साप्ताहिक भी अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेते थे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी प्रतिष्ठा थी.
आज पत्रकारिता पेशा बन गई है. हालांकि उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन पेशा जब पेशेवर मूल्यों को ताक पर रख कर विशुद्ध मुनाफे तक सीमित हो जाता है तो वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है. यद्यपि पेशेवर मूल्यों के साथ मुनाफा कमाते हुए भी अच्छी पत्रकारिता की जा सकती है, बशर्ते कि समाज-हित के भाव को हमेशा ध्यान में रखा जाए.
अब स्थानीय पत्रकारिता की बात करें. स्थानीय अखबार आज भी कम नहीं हैं. लेकिन आजादी से पहले के स्थानीय पत्रों और आज के स्थानीय पत्रों के फर्क को आप स्वयं ही समझ सकते हैं. आज भी हर कसबे से अखबार निकल रहे हैं. लेकिन कितने अखबारों को शहर से बाहर के लोग जानते हैं?  वर्ष १८७१ में प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार’ को हम आज भी उसकी सत्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए याद करते हैं लेकिन क्या आज कोई लघु पत्र-पत्रिका है, जिसे हम उसकी सच्ची पत्रकारिता के लिए याद रखें. ऐसे पत्र अँगुलियों में गिने जा सकते हैं. आज छोटे शहरों और कस्बों से अन्धान्धुन्ध अखबार और पत्रिकाएं निकल रही हैं. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अकेले उत्तराखंड में ही ३००० से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं. कितने ही अखबार डीएवीपी से बाकायदा विज्ञापन भी लेते हैं. राज्य सरकार के विज्ञापन भी उन्हें मिलते हैं. लेकिन उनमें से कितने अखबार अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादातर अखबार ब्लैकमेलिंग के नापाक धंधे में लगे रहते हैं, जिससे स्थानीय पत्रकारिता निरंतर बदनाम हो रही है. 
आज उत्तराखंड में जो स्थानीय पत्रकारिता है, वह दरअसल राष्ट्रीय अखबारों की स्थानीय पत्रकारिता है. इन अखबारों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर होती है भलेही वे कितने ही स्थानीय दिखें. इन पत्रों ने लगभग हर कसबे में अपने स्ट्रिंगर रख लिए हैं. वे वहाँ की खबरों को रोज अपने जिला कार्यालय में पहुंचाते हैं और वहाँ से खबरें अखबार के प्रकाशन केंद्र तक पहुँचती हैं. जो खबरें मतलब की होती हैं, उन्हें अखबार के पन्नों पर स्थान मिलता है. वरना रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं. हर जिले के अलग-अलग संस्करण होने से अनेक बार अच्छी खबरें भी एक जिले की सीमा में ही रह जाती हैं. इस वजह से इनकी बड़ी आलोचना हो रही है. फिर इन अखबारों की अपनी सम्पादकीय नीति होती है. कोई अखबार किसी दल का समर्थक होता है तो कोई दूसरे दल का. किसी की नीति सकारात्मक खबरें छापने की होती है तो किसी की दिलचस्पी नकारात्मक खबरें छापने में. चूंकि ये अखबार बहु-संस्करण वाले होते हैं, इसलिए इनके मुख्यालय राजधानी दिल्ली में हैं. वहीं से उनकी नीति निर्धारित होती है. एक दिक्कत और है कि इन अखबारों के फीचर और सम्पादकीय पृष्ठ मुख्यालय में ही बनते हैं. समस्त संस्करणों में एक ही सम्पादकीय और फीचर छपते हैं. इस तरह छोटे शहरों की वैचारिक और सृजनात्मक प्रतिभा को उसमें स्थान नहीं मिल पाता. खबरें तो बहुत छपती हैं, लेकिन लेख और फीचर स्थानीय नहीं छपते. आज की तारीख में ज्यादातर अखबारों के फीचर विभाग अखबार के मार्केटिंग विभाग के साथ निकट तालमेल बनाकर छापे जाते हैं. इसलिए उनके विषय स्थानीय जरूरतों के साथ मेल नहीं खाते. पुराने जमाने में अखबार की खबरों के साथ-साथ लेख और फीचर भी स्थानीय ही छपते थे. स्थानीय रचनाकारों को भी जगह मिलती थी. लिहाजा स्थानीय विचार और सृजनात्मकता को उचित स्थान मिल जाता था. इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बनती थी. जबकि आज की स्थानीय पत्रकारिता वास्तव में मुनाफे के लिए है, न कि स्थानीयता को अभिव्यक्ति देने ले लिए.           
इसलिए आज सच्चे अर्थों में स्थानीय पत्रकारिता की जरूरत पहले की तुलना में कहीं अधिक है. दुनिया भर में स्थानीय पत्रकारिता चल रही है. पत्रकारिता के जिन रूपों की बात हमने आरम्भ में की है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. एक कसबे की समस्या को वहीं के लेखक-पत्रकार बेहतर समझ सकते हैं. उन समस्याओं को हल करने में स्थानीय प्रकाशकों की ही दिलचस्पी भी होती है. दूर बैठे पत्र-स्वामी को क्या मतलब कि खटीमा या कोटद्वार में क्या हो रहा है या क्या होना चाहिए. यह तो वही पत्र-स्वामी बेहतर जानता है, जो रोज-ब-रोज उन समस्याओं से जूझ रहा हो. दुनिया में आज स्थानीय पत्रों और वेबसाइटों का जोर है. वे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों को मात दे रहे हैं. अब उन्हें विज्ञापन भी मिलने लगा है. उनकी अर्थव्यस्था भी बेहतर हो रही है. एक बात और. अक्सर दूर बैठे सम्पादक को स्थानीय समस्या का भान नहीं होता. वह समझ ही नहीं सकता कि एक छोटे शहर की क्या जरूरतें हैं. मिसाल के लिए किच्छा के एक गाँव में एक किसान की भैंस मर गयी. बड़े शहर में बैठा सम्पादक इस तरह की खबर देखते ही उपहास करने लगेगा, जबकि उस गाँव के किसान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भैंस पर ही निर्भर है. इसलिए स्थानीय पत्रकारिता को गहराई के साथ समझने की जरूरत है.
हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे हिन्दी प्रदेश के अंदरूनी हलकों में घुसने लगी है. आज भी उसमें अनंत संभावनाएं हैं. जरूरत यह है कि उसे ईमानदारी के साथ किया जाए. स्थानीय समस्याओं को उठाया जाए, स्थानीय लेखक तैयार किये जाएँ, स्थानीय गतिविधियों को स्थान मिले, स्थानीय प्रतिभाओं को मंच मिले और इसके जरिये स्थानीय लोग अपने इलाके को ऊपर उठाने का संकल्प लें. किसी भी अखबार के बने रहने की यह जरूरी शर्त है. (‘खटीमा दीप’ पाक्षिक के प्रवेशांक में, एक जनवरी, २०१६ को प्रकाशित)    

शनिवार, 23 जनवरी 2016

पुस्तक मेले के बहाने: लौट रहे हैं पाठक

पुस्तक/ गोविन्द सिंह
पिछले दो साल से पुस्तक मेला न जा पाने का मलाल मन में था. इसलिए इस बार मैंने ठान लिया था कि जाके रहूँगा. संयोग से आख़िरी दिन अर्थात 17 जनवरी को रविवार था और 16 जनवरी को भी छुट्टी थी. इसलिए प्रोग्राम बन गया. दस नंबर गेट से घुसे. लम्बी लाइन थी. कलकत्ता पुस्तक मेले की याद आ गयी. टिकट लेने के लिए खिडकी की ओर लपका तो पीछे खड़े एक बुजुर्ग ने टोका, ‘टिकट क्यों ले रहे हैं? सीनियर सिटीज़न के लिए टिकट माफ़ है’. मैंने कहा, ‘अभी मैं जूनियर ही हूँ.’ कह तो दिया पर मन में खटका लग गया. 57 में तो प्रवेश कर ही गया हूँ. देर ही कितनी है, सीनियर बनने में. खैर....
पुस्तक मेला देखकर अच्छा लगा. इतने सारे पुस्तक-प्रेमियों को एक साथ देखना मन को सुकून से भर देता है. हॉल नं. 12 में ही ज्यादातर समय रहा. ढेर सारे मित्र मिले. कई-कई मित्रों से तो वर्षों बाद मिलना हुआ. बड़े लेखक कम दिखे. पुस्तक प्रेमियों का नया वर्ग उभर आया है. फ़ूड कोर्ट भी पुराने समय की तुलना में बेहतर दिखा. चाय-नाश्ता अच्छा मिल रहा था. बच्चे-बड़े, महिलायें जैसे पिकनिक मनाने आये हों. क्या बुरा है, यदि पुस्तकों की दुनिया को भी पिकनिक स्पॉट मान लिया जाए.
प्रकाशकों का कहना था कि इस बार पिछले वर्षों की तुलना में कहीं ज्यादा लोग उमड़ आये. किताबों की बिक्री भी ज्यादा हुई. जबकि इस बार एक महीने पहले ही पुस्तक मेला लग गया. दरअसल इस बार मेहमान देश के रूप में चीन को आमंत्रित किया गया था. चीन के ही आग्रह पर ऐसा करना पड़ा. तो प्रकाशक आशंकित थे कि पता नहीं मध्य जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में पाठक आयेंगे भी या नहीं. लेकिन पाठक आये. और जी-भर के किताबें खरीद के ले गए. प्रभात प्रकाशन के मालिक प्रभात जी ने बताया कि आम तौर पर पुस्तक मेला प्रकाशकों के लिए घाटे का सौदा होता है, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.
मेले के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देब भाई शर्मा ने भी इस बात की तस्दीक की. उनका कहना था कि इस बार हमने सर्वाधिक कार्यक्रम आयोजित किये. खुद नेशनल बुक ट्रस्ट की किताबों की बिक्री पिछले वर्षों की तुलना में लगभग दोगुनी हुई. मेला अन्य वर्षों की तुलना में बेहतर नियोजित था. भारत की विविधता मेले का केन्द्रीय विषय था. वैसे जनसत्ता अखबार ने लिखा कि बड़े लेखकों ने मेले का बहिष्कार जैसा किया था. पता नहीं कि उन्होंने क्यों ऐसा किया होगा. कोई कारण नहीं नजर आया. हालांकि मेले में ऐसा कुछ भी प्रतिध्वनित नहीं हुआ. हर तरह के लेखक मेले में दिखे. पुस्तक मेले जैसे आयोजनों को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए.
मैं पुस्तक मेलों में अक्सर सरकारी संस्थाओं को ढूंढता रहा हूँ. आजादी के बाद के वर्षों में इन संस्थाओं ने बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित कीं. दुनिया भर की श्रेष्ठ किताबों को हिन्दी में अनुवाद करके छापा. हिन्दी को समृद्ध किया. आज भी उनके स्टालों में ये किताबें बहुत सस्ती मिल जाती हैं. लेकिन अब ये संस्थाएं बहुत खराब किताबें छाप रही हैं. किताबें भी बेकार और उनकी छपाई तो और भी गयी-बीती. यहाँ देख कर लगता है कि इन सरकारी संस्थाओं का किस कदर पतन हुआ है. सिर्फ नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादेमी और प्रकाशन विभाग ही बचे हुए हैं. राज्यों की हिन्दी ग्रन्थ अकादमियां या भाषा संस्थान अपने होने का अर्थ खोते जा रहे हैं.
कुल मिलाकर पुस्तक मेले से ये आशा जगी है कि किताब का पाठक फिर से अच्छी किताबें अलाश रहा है. नया मीडिया उसके लिए खिलौने जैसा जरूर है लेकिन असली ज्ञान लेना हो तो किताब से ही मिलेगा. हिन्दी प्रकाशकों को भी अब अपनी चाल बदलनी चाहिए. उन्हें अपना स्तर सुधारना चाहिए. आम तौर पर उनकी छवि अच्छी नहीं रही है. किताबों को पाठकों तक पहुंचाने की बजाय पुस्तकालयों की थोक बिक्री पर ही उनकी नजर रही है. इससे हिन्दी का पाठक उनसे खफा रहता था. अब हिन्दी पाठक भी बदल रहा है. तो प्रकाशक क्यों न बदलें. वे नहीं सुधरेंगे तो विदेशी प्रकाशक आ जायेंगे.

रविवार, 3 जनवरी 2016

महान कार्यों की बुनियाद

समाज/ गोविन्द सिंह
सात जून १८९३ को दक्षिण अफ्रीका के पीटरमेरित्ज्बर्ग स्टेशन पर यदि मोहनदास करमचंद गांधी नामक युवा वकील को गोरी पुलिस धक्के मार कर ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे से निकाल बाहर न करती तो शायद हमें इस देश का राष्ट्रपिता न मिला होता. कई बार हम अपने निजी जीवन में लगने वाली ठोकरों से प्रेरित होकर कुछ महान कार्य कर बैठते हैं. अपनी निजी पीड़ा को मानवता की पीड़ा बनाकर उसे उखाड़ फेंकने में लग जाते हैं. दशरथ मांझी नामक एक मामूली ग्रामीण ने अपने गाँव और शहर के बीच अवरोध बने एक पहाड़ को काटना ही अपने जीवन का मकसद बना लिया था. ताकि भविष्य में किसी और की पत्नी दवा-अस्पताल के अभाव में दम न तोड़े. गाजियाबाद के खोड़ा की ५७ वर्षीय डोरिस फ्रांसिस की जवान बेटी निकी इंदिरापुरम चौराहे के पास एक तेज रफ़्तार चार की चपेट में आ गयी थी. इस असह्य वेदना को मिटाने के लिए डोरिस ने इस चौक पर रोज सुबह चार घंटे ट्रैफिक ड्यूटी देने शुरू की ताकि किसी और का बेटा या बेटी दुर्घटना का शिकार न हो. पिथौरागढ़ जिले के भुरमुनी गाँव की सावित्री खड़ायत के पति की मृत्यु अति शराबखोरी के कारण हुई तो सावित्री ने शराब की मुखालफत करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया. उन्होंने शराब के ठेकों के खिलाफ आन्दोलन चलाया और उसमें कुछ हद तक कामयाबी भी हासिल की. डहाणू के नटवर भाई ठक्कर ने देखा कि देश के उत्तर पूर्व के लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पा रहे हैं तो वे अपना सब कुछ छोड़ कर नागालैंड चले गए गांधी जी के अहिंसा का मंत्र लेकर और वहीं के होकर रह गए. आज यदि नागालैंड अमन लौट रहा है तो इसमें कुछ न कुछ योगदान नटवर भाई का भी होगा ही. आईआईटी से इंजीनियरिंग और विदेश से मैनेजमेंट की उम्दा पढाई करके एक दिन पवन गुप्ता को लगा कि क्या करेंगे पैसे छापने वाली नौकरी के जाल में फँस कर. मसूरी के पास एक गाँव में अपना डेरा जमाया और समाज कार्य में लग गए. दिल्ली पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल श्यामा चोना ने अपनी बेटी तमन्ना की अक्षमता को समाज की पीड़ा दूर करने का जरिया बना डाला मानसिक मंदता का श्रेष्ठ स्कूल खोलकर. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो हमें यह सिखाते हैं कि यदि हम अपनी पीड़ा को समाज की पीड़ा समझ उसके खिलाफ डट जाएँ तो एक दिन कामयाबी जरूर मिलती है.      
सवाल यह है कि श्रेष्ठ काम करने के लिए हमें क्यों ठोकर का इंतज़ार करना चाहिए. हम जानते हैं कि हम सबके भीतर एक नेक इंसान, एक क्रांतिकारी सोया पड़ा रहता है. लेकिन हम उसे जगाते नहीं. असली समस्या यहीं है. इसके लिए शिक्षित होना जरूरी नहीं. बल्कि कई बार पढ़-लिख जाने के बाद आदमी ज्यादा आत्मकेंद्रित हो जाता है और जिस स्थान पर वह बैठा है, वहाँ से नींचे उतरने का भय उसे सताता रहता है, जिससे वह कोई बड़ा काम नहीं कर पाता. हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि हमने ये आजादी, ये संप्रभुता यूं ही नहीं पायी है. हमें जो मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य मिले हैं, उनके पीछे बहुत लोगों ने लाठी-गोलियां खाई हैं. उनके भीतर कुछ मकसद छिपे हैं. वे हमारी आजादी की बुनियाद हैं. लेकिन हमें अपने अधिकारों का तो ध्यान रहता है, कर्तव्यों का नहीं.
हम अक्सर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते रहते हैं. अपने निजी स्वार्थों के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. अपने करियर को चमकाने के लिए हम हर भ्रष्ट तरीका अपनाने को तत्पर रहते हैं. अपने व्यवसाय को बढाने के लिए दूसरे को अवैध तरीके से लंगडी मारना हमारा स्वभाव बन गया है. लेकिन अपने समाज और राष्ट्र के प्रति भी हमारा कोई दायित्व होना चाहिए, इसकी हमें कोई परवाह नहीं.
हमारा देश सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत तरक्की कर रहा है. हमारे युवा कामयाबी की नई-नई मिसालें पेश कर रहे हैं. लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि अपनी भाषा में भी टेक्नोलोजी की सुविधा होनी चाहिए. जब सारी दुनिया में इंटरनेट का डंका बज रहा था, हमारी हिन्दी में एक भी वेबसाईट नहीं थी. हरियाणा के कैथल से न्यूजीलैंड पहुंचे एक मामूली कम्प्यूटर ऑपरेटर रोहित कुमार हैप्पी को यह बात दिल से लग गयी. उसने बड़ी मेहनत से “भारत दर्शन” नाम की पहली हिन्दी वेबसाईट बना डाली. जो काम बड़े-बड़े आईआईटी नहीं कर पाए, वह काम एक मामूली कम्प्यूटर साक्षर व्यक्ति ने कर दिखाया. ऐसे ही जब हिन्दी के फॉण्ट खुलने में मुश्किल होती थी, जर्मनी में बैठे एक नवयुवक राजेश मंगला ने फॉण्ट कन्वर्टर बना कर हमारी मुश्किलें आसान कीं. बहुत से स्वयंसेवी हिन्दी का साहित्य कोश बना रहे हैं ताकि साइबर संसार में अपनी हिन्दी पिछड़ न जाए. मध्य प्रदेश के विजय दत्त श्रीधर ने देखा कि हिन्दी पत्रकारिता को जानने-समझने के लिए कोई ऐसा केंद्र नहीं, जहां हिन्दी के नए-पुराने पत्रों की एक झलक देखने को मिल सके. उन्होंने सप्रे संग्रहालय ने निर्माण में अपना जीवन लगा दिया. चंडीगढ़ का रॉक गार्डेन एक अकेले नेक चाँद सैनी की सनक का सुफल है. इस तरह हम देखते हैं कि यदि हम अपने ही स्थान पर भी अपने देश-समाज के लिए कुछ योगदान कर सकें तो एक दिन हमारा देश बहुत आगे बढ़ सकता है. कानून बनाने से हम अपने दायित्व बोध को नहीं जगा सकते. ठोकर लगने से भी हम किसी मिशन को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते. व्यक्ति-समाज के भीतर से ही इसकी लौ जलानी होगी. (दैनिक जागरण, 27 दिसंबर, 2015 से साभार)    

    

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

उत्तराखंड में शिक्षा का हाल

शिक्षा/ गोविन्द सिंह
कहा जाता है कि यदि किसी राज्य की तरक्की का जायजा लेना हो तो वहाँ के बच्चों को देखिए, वहाँ की शिक्षा का हाल देखिए. शिक्षा से ही सामाजिक संभावनाओं के द्वार खुलते हैं, शिक्षा से ही समाज की खुशहाली का पता चलता है. इस लिहाज से देखा जाए तो उत्तराखंड में शिक्षा का अनुभव मिला-जुला रहा है. नया राज्य होने के नाते यहाँ बदलाव तो बहुत हुआ है, ‘तरक्की’ भी हुई है, लेकिन उस अनुपात में शिक्षा की स्थिति बहुत नहीं सुधरी है. इस बात को यहाँ के मुख्यमंत्री, विधान सभाध्यक्ष सहित तमाम बड़े नेता स्वीकार चुके हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि जो कुछ ‘विकास’ या बदलाव हुआ है, वह बेतरतीब और अनियोजित हुआ है. चूंकि बीते वर्षों में स्वस्थ राजनीतिक विकास नहीं हो पाया, इसलिए प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी उसका असर पड़ा. हमारे नेता यही तय नहीं कर पाए कि हमें किस तरह का समाज चाहिए, लिहाजा उस लक्ष को हासिल करने के लिए किस तरह के युवाओं की जरूरत होगी, यह भी उनकी समझ में नहीं आया.
ऊपरी तौर पर देखें तो उत्तराखंड आज शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है. यहाँ साक्षरता का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है. सबको शिक्षा का अधिकार के तहत सब बच्चे शिक्षा ग्रहण कर ही रहे हैं. गाँव-गाँव में सरकारी स्कूल खुल गए हैं. जरूरत नहीं है, तब भी खुल रहे हैं. जहां एक जिले में मुश्किल से एक-दो डिग्री कालेज हुआ करते थे, आज छोटे-छोटे कस्बों में खुल रहे हैं. उनमें पढने को बच्चे नहीं हैं. राज्य में जहां कभी मुश्किल से दो-तीन विश्वविद्यालय हुआ करते थे आज 23 विश्वविद्यालय हैं. अभी और खुल रहे हैं. यानी देखने को तस्वीर बड़ी गुलाबी दिखाई पड़ती है. लेकिन भीतर से हालात बहुत अच्छे नहीं हैं. आकार फ़ैल रहा है किन्तु उसमें गुणवत्ता का घोर अभाव है. गांवों में पुराने जमाने में खुले हुए स्कूल बंद हो रहे हैं. अतिशय पलायन की वजह से वहाँ बच्चे पढने के लिए बचे ही नहीं. वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से जहां 1700 गाँव उजड़ चुके हैं, वहीं 12 सौ स्कूल बंदी के कगार पर खड़े हैं. 2040 प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में छात्रों की संख्या दस से भी कम रह गयी है. 7000 ऐसे स्कूल हैं, जिनमें छात्र संख्या 25 रह गयी है. स्कूली शिक्षा में विषमता की खाई लगातार फैलती जा रही है. चूंकि गांवों से शहरों-कस्बों कि ओर पलायन बढ़ रहा है, इसलिए बच्चे शहर के निजी स्कूलों में आ रहे हैं. बल्कि परिवार के पलायन करने से भी पहले बच्चों का पलायन हो रहा है. इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि गाँव के स्कूलों का स्तर सुधर नहीं रहा, अध्यापक कक्षा में नहीं जाता, उसके भीतर बच्चों को प्रेरित करने की क्षमता नहीं है. दूसरी, लोगों में शहरी तथाकथित ‘अंग्रेज़ी स्कूल’ में बच्चा भेजने की भेडचाल है. शहर में या दूर फ़ौज में काम करने वाले व्यक्ति के मन में यह बात बैठा दी गयी है कि गाँव में बच्चा नहीं पढता. लिहाजा वह अपनी पत्नी और बच्चे को पड़ोस के शहर में भेजता है, ताकि उसे वहाँ अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा दी जा सके. भलेही शहरी स्कूल घटिया ही क्यों न हो. यहाँ यह बात भी देखने की है कि जहां जिले के कस्बों-शहरों में ज्यादातर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल घटिया दर्जे के हैं, वहीं यह भी गौर तलब है कि लगभग हर बड़े शहर में कुछ ऐसे स्कूल भी खुल गए हैं, जो अंग्रेज़ी माध्यम की अच्छी-खासी पढ़ाई करवाते हैं. केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सेना के स्कूल और धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के आवासीय स्कूलों ने  भी पर्वतीय बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों के दरवाजे खोले हैं. नैनीताल-अल्मोडा, देहरादून-मसूरी के उच्च स्तरीय अंग्रेज़ी स्कूलों का भलेही उत्तराखंड के बच्चों से कोइ लेना-देना नहीं रहता लेकिन इक्का-दुक्का बच्चे इस रास्ते से भी तथाकथित अंग्रेज़ी शिक्षा पा ही लेते हैं. चूंकि अंग्रेज़ी शिक्षा को ही प्रगति का राजमार्ग समझ लिया गया है, इसलिए उच्च और माध्यम दर्जे के निजी स्कूलों में अमूमन यही माध्यम पढाई का है. इन स्कूलों से बड़ी संख्या में बच्चे इंजिनीयरिंग, मेडिकल और दिल्ली या पुणे के उच्च रैंकिंग वाले कालेजों में दाखिला पा रहे हैं, जहां से वे अपने भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं. भारतीय सैन्य अकादमी के आंकड़े देखें तो पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड देश को सर्वाधिक अफसर देने वाला दूसरा बड़ा प्रदेश है. बच्चों की कुल संख्या को देखें तो बेहतर या निजी स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की यह संख्या बहुत थोड़ी है. फिर भी जो मुकम्मल तस्वीर बनती है, वह खराब नहीं है.
दूसरी तरफ शिक्षा का सरकारी तंत्र काफी चरमराया गया है. जबकि इसी तंत्र ने एक समय देश को बहुत अच्छे नौजवान दिए थे. चूंकि आज भी लगभग 70 प्रतिशत बच्चे इन्हीं स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, इसलिए राज्य में उच्च शिक्षा की जमीन इन्हीं बच्चों से बनती है. लेकिन इसे विडम्बना ही कहिए कि उच्च शिक्षा की तस्वीर बेहद निराशाजनक है.
उत्तराखंड की कुल आबादी एक करोड़ से कुछ ही अधिक है. फिर भी हमारे पास 23 विश्वविद्यालय और 90 से ज्यादा सरकारी और 300 से ज्यादा निजी महाविद्यालय और उच्च शिक्षा के संस्थान हैं. मात्रा के हिसाब से देखा जाए तो यह तस्वीर बुरी नहीं है. लेकिन गुणवत्ता और पूरे प्रदेश के संतुलित विकास को देखते हुए यह हालत कुछ अच्छी नहीं दिखती. वर्ष 1973 से पहले हमारे पास एकमात्र पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय था. लेकिन उसकी ख्याति पूरे देश में थी. वह देश में हरित क्रान्ति का अग्रदूत बना. उसके बाद कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालय आये. अल्प संसाधनों के बावजूद उन्होंने देश को अनेक हीरे दिए, जिन्होंने देश-विदेश में नाम कमाया और राष्ट्र-मुकुट की शोभा बने. उन्होंने न सिर्फ अपना नाम किया बल्कि प्रदेश का भी सर ऊंचा किया. इन कालेजों-विश्वविद्यालयों ने देश भर में शिक्षा के मानक कायम किये. घास-फूस के छप्परों और टूटी-फूटी इमारतों से बड़े-बड़े वैज्ञानिक निकले, लेखक-बुद्धिजीवी उभरे और सरहद पर रखवाली करने वाले वीर सैनिक पैदा हुए.
अब हमारे पास बहुत से कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, फिर भी श्रेष्ठ छात्र नहीं निकल रहे. फ़ौज को छोड़ दिया जाए, तो जिस अनुपात में यहाँ से पहले श्रेष्ठ विद्यार्थी निकल कर देश सेवा में जाते थे, अब नहीं निकल पा रहे. पढाई का स्तर निरंतर गिर रहा है. हमारे शिक्षा-मंदिरों से डिग्रीधारी तो हर साल बहुत निकल रहे हैं, पर उनमें कितने वाकई काबिल हैं, कहना मुश्किल है. सरकारी कालेज, जहां से देश और राज्य की सेवाओं में लोग जाया करते थे, आज पूरे प्रदेश से साल में बमुश्किल 6-7 युवा सिविल सेवा में सेलेक्ट हो पा रहे हैं. यहाँ भी सरकारी बनाम निजी विश्वविद्यालयों ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. पहाड़ और दुर्गम इलाके आज भी उपेक्षित हैं. 23 में से १८ विश्वविद्यालय केवल देहरादून और हरिद्वार जिलों तक सीमित हैं. जिस प्रकार निजी स्कूलों ने कुछ तो ख्याति अर्जित की है, प्रदेश के निजी संस्थान कोई ख़ास झंडे नहीं गाड पाए हैं. व्यापार के अतिरिक्त उनका कोइ और मकसद हो, लगता नहीं. यही वजह है कि वे वे पहाड़ नहीं चढ़ना चाहते. इसलिए पहाड़ के बच्चे वंचित ही हैं.   
स्कूली शिक्षा की ही तरह उच्च शिक्षा में भी पलायन जारी है. जो भी लोग खर्च उठा सकते हैं, वे अपने बच्चों को दिल्ली-पुणे भेज रहे हैं. जो ज्यादा खर्च नहीं उठा सकते, वे देहरादून, हल्द्वानी ही भेज कर संतुष्ट हो ले रहे हैं. चूंकि आम तौर पर लड़कियों को अभिभावक बाहर नहीं भेजते, इसलिए दुर्गम इलाकों के कालेजों में लडकियां ही बची रह गयी हैं. दुर्गम इलाकों में 56 सरकारी कालेज हैं, जहां लड़कियों की संख्या 60 से 80 फीसदी है. लिहाजा, यहाँ शिक्षा का स्तर सुधारने के प्रति न सरकार गंभीर दिखाई देती है और न ही अभिभावक. राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए डिग्री कालेज तो खोल दिए हैं, लेकिन वहाँ संसाधनों का घोर अभाव है. न शिक्षक हैं, न भवन. फिर पढाई के विषय भी पिटे-पिटाए हैं. कहीं कोई कल्पनाशीलता नहीं दिखाई देती. कुछ समय तक बच्चे यहाँ इंतज़ार करते हैं, बाद में वे भी भाग खड़े होते हैं. लिहाजा जहां हरिद्वार, रूडकी, देहरादून, ऋषिकेश, रुद्रपुर और हल्द्वानी में छात्रों को दाखिला नहीं मिल पाता, वहीं पहाड़ों में छात्रों के लाले पड़े रहते हैं. बावजूद इसके, उत्तराखंड में उच्च शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात (जी ई आर) 30 फीसदी से अधिक पहुँच चुका है. देश के अन्य राज्यों की तुलना में यह बहुत उत्साहजनक दिखता है, क्योंकि देश का औसत दाखिला अनुपात 20 फीसदी के आसपास ही है. सबको शिक्षित करने के लक्ष का हमें अवश्य ध्यान होना चाहिए, लेकिन हम यह न भूलें कि कहीं हम शिक्षा की गुणवता से समझौता तो नहीं कर रहे? (अमर उजाला: उत्तराखंड उदय- २०१५ से साभार)