शनिवार, 23 जनवरी 2016

पुस्तक मेले के बहाने: लौट रहे हैं पाठक

पुस्तक/ गोविन्द सिंह
पिछले दो साल से पुस्तक मेला न जा पाने का मलाल मन में था. इसलिए इस बार मैंने ठान लिया था कि जाके रहूँगा. संयोग से आख़िरी दिन अर्थात 17 जनवरी को रविवार था और 16 जनवरी को भी छुट्टी थी. इसलिए प्रोग्राम बन गया. दस नंबर गेट से घुसे. लम्बी लाइन थी. कलकत्ता पुस्तक मेले की याद आ गयी. टिकट लेने के लिए खिडकी की ओर लपका तो पीछे खड़े एक बुजुर्ग ने टोका, ‘टिकट क्यों ले रहे हैं? सीनियर सिटीज़न के लिए टिकट माफ़ है’. मैंने कहा, ‘अभी मैं जूनियर ही हूँ.’ कह तो दिया पर मन में खटका लग गया. 57 में तो प्रवेश कर ही गया हूँ. देर ही कितनी है, सीनियर बनने में. खैर....
पुस्तक मेला देखकर अच्छा लगा. इतने सारे पुस्तक-प्रेमियों को एक साथ देखना मन को सुकून से भर देता है. हॉल नं. 12 में ही ज्यादातर समय रहा. ढेर सारे मित्र मिले. कई-कई मित्रों से तो वर्षों बाद मिलना हुआ. बड़े लेखक कम दिखे. पुस्तक प्रेमियों का नया वर्ग उभर आया है. फ़ूड कोर्ट भी पुराने समय की तुलना में बेहतर दिखा. चाय-नाश्ता अच्छा मिल रहा था. बच्चे-बड़े, महिलायें जैसे पिकनिक मनाने आये हों. क्या बुरा है, यदि पुस्तकों की दुनिया को भी पिकनिक स्पॉट मान लिया जाए.
प्रकाशकों का कहना था कि इस बार पिछले वर्षों की तुलना में कहीं ज्यादा लोग उमड़ आये. किताबों की बिक्री भी ज्यादा हुई. जबकि इस बार एक महीने पहले ही पुस्तक मेला लग गया. दरअसल इस बार मेहमान देश के रूप में चीन को आमंत्रित किया गया था. चीन के ही आग्रह पर ऐसा करना पड़ा. तो प्रकाशक आशंकित थे कि पता नहीं मध्य जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में पाठक आयेंगे भी या नहीं. लेकिन पाठक आये. और जी-भर के किताबें खरीद के ले गए. प्रभात प्रकाशन के मालिक प्रभात जी ने बताया कि आम तौर पर पुस्तक मेला प्रकाशकों के लिए घाटे का सौदा होता है, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.
मेले के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देब भाई शर्मा ने भी इस बात की तस्दीक की. उनका कहना था कि इस बार हमने सर्वाधिक कार्यक्रम आयोजित किये. खुद नेशनल बुक ट्रस्ट की किताबों की बिक्री पिछले वर्षों की तुलना में लगभग दोगुनी हुई. मेला अन्य वर्षों की तुलना में बेहतर नियोजित था. भारत की विविधता मेले का केन्द्रीय विषय था. वैसे जनसत्ता अखबार ने लिखा कि बड़े लेखकों ने मेले का बहिष्कार जैसा किया था. पता नहीं कि उन्होंने क्यों ऐसा किया होगा. कोई कारण नहीं नजर आया. हालांकि मेले में ऐसा कुछ भी प्रतिध्वनित नहीं हुआ. हर तरह के लेखक मेले में दिखे. पुस्तक मेले जैसे आयोजनों को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए.
मैं पुस्तक मेलों में अक्सर सरकारी संस्थाओं को ढूंढता रहा हूँ. आजादी के बाद के वर्षों में इन संस्थाओं ने बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित कीं. दुनिया भर की श्रेष्ठ किताबों को हिन्दी में अनुवाद करके छापा. हिन्दी को समृद्ध किया. आज भी उनके स्टालों में ये किताबें बहुत सस्ती मिल जाती हैं. लेकिन अब ये संस्थाएं बहुत खराब किताबें छाप रही हैं. किताबें भी बेकार और उनकी छपाई तो और भी गयी-बीती. यहाँ देख कर लगता है कि इन सरकारी संस्थाओं का किस कदर पतन हुआ है. सिर्फ नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादेमी और प्रकाशन विभाग ही बचे हुए हैं. राज्यों की हिन्दी ग्रन्थ अकादमियां या भाषा संस्थान अपने होने का अर्थ खोते जा रहे हैं.
कुल मिलाकर पुस्तक मेले से ये आशा जगी है कि किताब का पाठक फिर से अच्छी किताबें अलाश रहा है. नया मीडिया उसके लिए खिलौने जैसा जरूर है लेकिन असली ज्ञान लेना हो तो किताब से ही मिलेगा. हिन्दी प्रकाशकों को भी अब अपनी चाल बदलनी चाहिए. उन्हें अपना स्तर सुधारना चाहिए. आम तौर पर उनकी छवि अच्छी नहीं रही है. किताबों को पाठकों तक पहुंचाने की बजाय पुस्तकालयों की थोक बिक्री पर ही उनकी नजर रही है. इससे हिन्दी का पाठक उनसे खफा रहता था. अब हिन्दी पाठक भी बदल रहा है. तो प्रकाशक क्यों न बदलें. वे नहीं सुधरेंगे तो विदेशी प्रकाशक आ जायेंगे.

1 टिप्पणी: