बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
सोमवार, 26 जनवरी 2015
महान कार्टूनिस्ट लक्ष्मण नहीं रहे
साथियो, अभी-अभी पता चला है कि महान कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण हमारे बीच नहीं रहे. पुणे के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. वे ९४ वर्ष के हो गए थे. अभी पिछले हफ्ते ही भारतीय कार्टून को याद करते हुए हमने उन्हें याद किया था. क्या पता था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे. हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि.
उनसे पहले भारत में शंकर को महानतम कार्टूनिस्ट के रूप में जाना जाता था, लेकिन पिछले ५० साल में वे भारतीय राजनीतिक कार्टून के बेताज बादशाह थे. उनका आम आदमी भारत के तमाम नागरिकों का सामूहिक प्रतिनिधत्व करता था. वे मानव मन की पीड़ा के बारीक चितेरे थे. उसके दर्द की जैसी बारीक पकड़ उन्हें थी, वह शायद ही किसी और में हो. १९८२ से १९८६ तक मुंबई के टाइम्स भवन की दूसरी मंजिल में काम करते हुए, उन्हें रोज सफेद टीशर्ट, काली पैंट और गले में चश्मा लटकाए हुए देखते थे. उनकी छोटी-सी केबिन के बाहर रखे स्टूल पर ढेर सारी ड्राइंग शीट्स पडी होती, जिन पर उनके अधबने कार्टून होते थे. जब तक वे पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हो जाते, वे बनाते ही रहते. एक कार्टून को बनाने से पहले वे कमसे कम २० शीट्स बर्बाद करते होंगे. जब तक कार्टून नहीं बन जाता, उनके चेहरे पर तनाव रहता था. आज सोचता हूँ वे बेकार शीट्स ही संभाल ली होतीं तो कितने काम की होतीं.
वे किसी से बोलते नहीं थे. उनका बेटा श्रीनिवास लक्ष्मण हमसे कुछ ही बड़ा रहा होगा. जब हम ट्रेनी थे तब वह टाइम्स में रिपोर्टर हो गया था और एविएशन बीट देखता था. वह बड़ा भोला लगता था लेकिन कभी सहज ढंग से बातचीत नहीं करता था. कुछ दिनों बाद वह अपने पिता से अलग रहने लगा था. हमें यह बात समझ नहीं आयी. हम मजाक में कहते बाप की ही तरह इसका भी एक पेच ढीला है.
कई बार उनका इंटरव्यू लेने की कोशिश की, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. शायद हमारे साथी सुधीर तैलंग शुरू में उनका इंटरव्यू लेने में कामयाब हुए थे. हालांकि बाद के दिनों में वे सुधीर से चिढ़ने लगे थे, ऐसा तैलंग को लगता था. जब तैलंग के कार्टून इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया में छपने लगे तो एक बार लक्ष्मण ने उसके सम्पादक केसी खन्ना से शिकायत कर दी, जिसके बाद वीकली में तैलंग के कार्टून छपने बंद हो गए. बाद में वह इकनोमिक टाइम्स में कार्टून बनाने लगा, जिसके सम्पादक उन दिनों हैनन एजकील हुआ करते थे. वे मूलतः यहूदी थे. तैलंग उनसे बहुत खुश रहने लगा. कहने का मतलब, शीर्ष पर पहुंचा हुआ व्यक्ति भी कहीं न कहीं से डरता है. तैलंग उन दिनों हमारे साथ हिन्दी में ट्रेनी था, उसमें भी उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी दिखने लगा. कहते हैं, ऐसा ही उन्होंने मारियो मिरांडा के साथ किया था. खैर बाद में सुधीर नवभारत टाइम्स दिल्ली में स्थायी हो गया तो चिंता ही ख़त्म.
लेकिन असल बात यह है कि लक्ष्मण के बराबर व्यंग्य चित्रकार आजादी के बाद और कोई नहीं हो पाया. अबू, लक्ष्मण और सुधीर दर अपने समय के तीन महान कार्टूनिस्ट थे. पर शिखर पर लक्ष्मण ही थे.
रविवार, 18 जनवरी 2015
कहाँ गए हमारे कार्टून?
मीडिया/ गोविन्द सिंह
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के शंकर पिल्लै |
कार्टून पर हमले
भलेही यूरोपीय देशों में हो रहे हों, लेकिन अपने देश में वह पहले ही मरणासन्न हालत
में है. साढ़े तीन दशक पहले जब हमने पत्रकारिता में कदम रखा था तब लगभग हर अखबार
में कार्टून छपा करते थे, उन पर चर्चा हुआ करती थी, नामी कार्टूनिस्ट हुआ करते थे.
हिन्दी अखबार, जिनकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी, वहाँ भी दो-दो
कार्टूनिस्ट होते थे. अस्सी के दशक में नवभारत टाइम्स में दो कार्टूनिस्ट थे. एक
दिल्ली में और एक मुंबई में. सैमुएल और कदम. तभी सुधीर तैलंग भी आ गए. इस तरह तीन
हो गए. बाद में दिल्ली संस्करण में दो कार्टूनिस्ट हो गए थे, काक और सुधीर तैलंग.
यही नहीं लखनऊ से नया संस्करण शुरू हुआ तो वहाँ भी एक कार्टूनिस्ट रखे गए थे,
इरफ़ान. बाक़ी अखबारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी. जनसत्ता शुरू हुआ तो वहाँ भी काक
और राजेन्द्र नियुक्त हुए. यानी कार्टूनिस्ट के बिना अखबार की कल्पना नहीं की जा
सकती थी. आज नवभारत टाइम्स में एक भी कार्टूनिस्ट नहीं है. अन्य अखबारों की हालत
भी बहुत अच्छी नहीं है. कहीं फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट से काम चलाया जा रहा है तो
कहीं पार्ट टाइम कार्टूनिस्ट हैं. कहीं उनसे अतिरिक्त काम लिया जाता है तो कहीं
उन्हें रेखांकन और रेखाचित्र बनाने को कहा जाता है. अंग्रेज़ी अखबारों में भी कोई
कद्दावर कार्टूनिस्ट नहीं दिखाई पड़ता.
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आर के लक्ष्मण |
एक ज़माना था, जब इसी
देश में शंकर पिल्लई जैसे कार्टूनिस्ट थे, आरके लक्ष्मण थे, अबू अब्राहम, मारियो
मिरांडा थे, सुधीर दर थे, कुट्टी थे, रंगा थे. सुधीर तैलंग अब भी हैं, लेकिन शायद
किसी बड़े अखबार को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रही. अन्य अखबारों में भी कार्टूनिस्ट
हैं, लेकिन अब वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाते जहां शंकर या आरके लक्ष्मण पहुँच
पाए थे. अजीत नैनन, रविशंकर, केशव, सुरेन्द्र, उन्नी, राजेन्द्र धोड़पकर, जगजीत
राणा, शेखर गुरेरा, पवन और असीम त्रिवेदी जैसे कार्टूनिस्ट हैं, पर वे अपना
अस्तित्व बचाए हुए हैं या कहिए किसी तरह मशाल जलाए हुए हैं. पहले कार्टूनिस्ट का
दर्जा भी वरिष्ठ संपादकों के बराबर ही होता था. लक्ष्मण का दर्जा प्रधान सम्पादक
के लगभग बराबर था. स्थानीय सम्पादक से ऊपर तो था ही. सम्पादकीय विभाग में वह एक
स्वायत्त इकाई थे. शंकर के कार्टूनों से तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू
प्रभावित थे.
दो दशक पहले तक अखबारों
के पहले पेज पर तीन-चार कॉलम का एक बड़ा कार्टून छपता था, पॉकेट कार्टून होता था और
अन्दर भी सम्पादकीय पेज या उसके सामने वाले पेज पर बड़ा कार्टून होता था. आज पॉकेट
कार्टून ही नहीं बचा तो बड़े कार्टून की क्या बिसात! सम्पादकीय पेज पर कभी कभार
कार्टून दिखता तो है, पर उसे किसी घटना पर स्वतःस्फूर्त बना कार्टून नहीं कहा जा
सकता, वह महज लेख को सप्लीमेंट करने वाला स्केच बनकर रह जाता है. पॉकेट कार्टून की
जगह सिंडिकेटेड कार्टून छप रहे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत हास्य होता है, करारा
व्यंग्य तो नहीं ही होता. लक्ष्मण के बड़े कार्टून रोज-ब-रोज की घटनाओं पर तीखा
प्रहार करते थे, साथ ही पॉकेट कार्टून भी आम आदमी के दर्द को मार्मिकता के साथ
उभारता था. ये कार्टून दिन भर की किसी खबर पर कार्टून के जरिये एक तीखी टिप्पणी
किया करते थे. आर के लक्ष्मण ने एक बार कहा था, ‘परिस्थितियाँ इतनी खराब हैं कि
यदि मैं कार्टून न बनाऊँ तो आत्महत्या कर लूं.’ इससे पता चलता है कि कार्टून कितना
अपरिहार्य था. इनका महत्व सम्पादकीय के समान होता था. आज यह सब गायब है. पहले पेज
पर से बड़े कार्टून को गायब हुए कितने ही साल हो गए हैं. हिन्दू को छोड़कर बहुत कम
अखबारों में राजनीतिक कार्टून दीखते हैं.
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आर के लक्ष्मण अपने महान चरित्र आम आदमी के साथ |
हालात देखकर वाकई
लगता है कि यह दौर कार्टून के लिए ठीक नहीं है. ऐसा क्यों हुआ? इसकी शुरुआत नब्बे
के दशक में आए आर्थिक सुधारों के साथ ही हो गयी थी. अखबार के पन्नों पर से विचार
की जगह लगातार सिमटती चली गयी. अखबारों का निगमीकरण शुरू हुआ. अखबार किसी एक पक्ष
में खड़े नहीं दिखना चाहते थे. वे किसी से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे. फिर समाज
से सहिष्णुता भी धीरे-धीरे कम होने लगी. राजनेता कार्टून को अपने ऊपर हमला मानने
लगे. एक समय था, जब नेता इस बात पर खुश होते थे कि उन्हें कार्टून का विषय के तौर
पर चुना गया. लक्ष्मण एक वाकया सुनाते हैं, १९६२ के युद्ध के बाद उन्होंने नेहरू
का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून बनाया. उनसे भी ज्यादा मजाक उनके तत्कालीन रक्षा
मंत्री कृष्णा मेनन का उड़ाया. कार्टून छापा तो सवेरे ही नेहरू का उन्हें फोन आया.
लक्ष्मण डरे हुए थे कि पता नहीं प्रधान मंत्री कार्टून का बुरा ना मान गए हों.
लेकिन दूसरी तरफ से आवाज आयी कि उनका कार्टून देखकर मजा आया. क्या लक्ष्मण उस
कार्टून को अपने दस्तखत करके उन्हें उपहार में दे सकते हैं? लक्ष्मण बताते हैं कि
वे गदगद हो गए. ऐसे ही सुधीर तैलंग बताते हैं कि एक बार उन्हें डॉ. मुरली मनोहर
जोशी ने फोन किया कि क्यों तैलंग ने छः महीने से उन पर कार्टून नहीं बनाया? क्या
वे भारतीय राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं? काक साहब कहा करते थे कि हमारा
सबसे पहला हमला अगले की नाक पर होता है. इस हमले को सहने की ताकत धीरे-धीरे हमारे
नेताओं और हमारे समाज में कम होती जा रही है.
दरअसल कार्टून
अत्यधिक शक्तिशाली होता है. कभी-कभी वह सम्पादकीय से भी ताकतवर होता है. कार्टून
चूंकि एक तरह की बौद्धिक लड़ाई है, हमला है, इसलिए उसे झेल पाने की क्षमता भी कम
होने लगी. पत्र-स्वामियों को लगा कि क्यों इस तरह का जोखिम लिया जाए. लिहाजा
उन्होंने धीरे-धीरे कार्टून को बेदखल करना शुरू किया. उसकी जगह मनोरंजन ने ली. आज
कार्टून अखबार से उठकर टीवी के परदे पर पहुँच रहा है तो इसीलिए कि मनोरंजन के रूप
में उसकी कीमत बढ़ रही है.
(आउटलुक , १६-३१ जनवरी, २०१५ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का मूल रूप)
शुक्रवार, 9 जनवरी 2015
लड़ने से नहीं डरते उत्तराखंड के खसिया
समाज/ गोविन्द सिंह
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पिथौरागढ़ का युद्ध नृत्य छोलिया |
उत्तराखंड के खसिया.
यानी ठाकुर यानी क्षत्रिय जातियों का समूह. हालांकि इस समूह में यहाँ की अनेक
ब्राह्मण जातियां भी शामिल रही हैं लेकिन अब यह संबोधन यहाँ के ठाकुरों के लिए रूढ़
हो गया है. एक ज़माना था जब इस भू-भाग पर खसों का शासन था. महाभारत
काल से लेकर एक हजार ईस्वी के आसपास तक पूरे हिमालय क्षेत्र में इनका राज था. आज
यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है. यहाँ की ज्यादातर जातियों के
बारे में यह भ्रम है कि वे बाहर से आकर यहाँ बसी हैं. इसमें कुछ सचाई जरूर है
लेकिन खश जातियों के सम्बन्ध में यह पूरी तरह से सच नहीं है. हाल के वर्षों में
हुए अनुसंधानों से यह साबित होता है कि वास्तव में वे हज़ारों वर्षों से यहाँ हैं. कुछ
इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि वे आर्यों से भी पहले या लगभग उसी समय मध्य एशिया
के काकेशस पर्वत क्षेत्र से भारत के हिमालयी अंचल में आकर रहने लगे थे. ऐसा मानने की
मुख्य वजह यह है कि शुरुआती दौर में उनके रीति-रिवाज आर्यों से काफी भिन्न थे.
धीरे-धीरे वे वैदिक कर्म-कांडों के संपर्क में आये और भारत की मुख्यधारा में शामिल
हुए. लेकिन कुछ विद्वान कहते हैं कि यह भी वैदिक आर्यों की ही एक शाखा थी, अलग-अलग
भौगोलिक परिस्थितियों में रहने के कारण उनका खान-पान और रीति-रिवाज अलग हो गए. संस्कृत
विद्वान् डीडी शर्मा की पुस्तक, ‘हिमालय के खाश’ के अनुसार, ऐतिहासिक खोजों से यह
भी पता चलता है कि खश किसी एक जाति का नाम नहीं है, वैदिक आर्यों की तरह ही
हिमालयी खश भी एक पूरी प्रजाति थी, उसके भीतर ब्राह्मण और राजपूत थे. एल डी जोशी,
तारादत्त गैरोला और अटकिन्सन जैसे इतिहासकार मानते हैं कि हिमालय क्षेत्र के लगभग
९०% ब्राह्मण खश जाति से सम्बंधित हैं. यहाँ के लोगों के नैन-नक्श, खान-पान,
बोली-भाषा और रहन-सहन में साम्यता से भी यह बात सिद्ध होती हैं.
चूंकि वे मध्य एशिया
के पहाड़ी प्रदेश से यहाँ आये थे, इसलिए अत्यंत मेहनती और कष्टकारी थे. पहाड़ ही
उन्हें अच्छे लगते भी थे. उन्होंने पहाडी तलहटियों को पाट कर खेती-योग्य बनाया.
अनेक खाद्यान्नों की तलाश की. खेती और पशुपालन के नए-नए तौर-तरीके ईजाद किये.
प्रकृति को अपने अनुरूप करने के तरीके निकाले. वनस्पतियों का वर्गीकरण किया.
औषधियों की खोज की और कठिन परिस्थितियों में रहने का नया फलसफा दिया. अब तो फिर भी सड़कें बन गयी हैं, लेकिन जब भी अपने
गाँव जाता हूँ, सोच-सोच कर हैरान हो जाता हूँ कि आखिर कैसे हमारे पूर्वज यहाँ आये
होंगे, क्यों आये होंगे, कैसे उन्होंने जंगलों को काट कर खेत बनाए होंगे, कैसे
खूंखार जंगली जानवरों से खुद को बचाया होगा? घने जंगलों के बीच कच्ची झोपड़ियां
बनाकर रहे होंगे? अब तो एक ही आपदा में लोग पहाड़ों से सामूहिक पलायन करने लगते
हैं. क्या तब ऐसी आपदाएं नहीं आती होंगी? खूंखार जानवरों की रोंगटे खड़े कर देने
वाली कहानियां, भूत-प्रेतों की डरावनी कहानियां और भयानक प्राकृतिक आपदाओं की यादें
अक्सर अपने पूर्वजों से हमने सुनी हैं, लेकिन कभी उस धरती को छोड़ने की बातें नहीं
सुनीं.
हिमालय के खसिया
स्वभाव से ही जोखिम उठाने वाले, अत्यंत परिश्रमी और प्रकृति-प्रेमी थे. चूंकि वे
कबीलाई जिन्दगी जीते थे, इसलिए लड़ना-भिड़ना उनके रक्त में था. अंग्रेजों ने उन्हें
मार्शल कौम माना. चम्पावत जिले में देवीधूरा के बाराही देवी के मंदिर प्रांगण में
रक्षाबंधन पर लगने वाला बग्वाल मेला खशों की युद्ध परम्परा की गवाही देता है, जहां
रणबांकुरों के दो दल पत्थरों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं और तब तक लड़ते रहते
हैं, जब तक कि एक व्यक्ति के बराबर खून नहीं बह जाता. युद्ध के प्रति इनके जज्बे
को देखते हुए ही अंग्रेजों ने उन्हें हर संभव छूट देकर फ़ौज में शामिल किया. कुमाऊँ
और गढ़वाल के लोगों के लिए उन्होंने अलग-अलग रेजिमेंट बनवाईं. पहले विश्व युद्ध
में बड़ी संख्या में यहाँ के लोगों ने शहादत दी. गबर सिंह को विक्टोरिया क्रॉस
मिला. लगभग हर रेजिमेंट में वे भरती होते थे. दूसरे विश्व युद्ध में भी वे लडे.
आज़ाद हिन्द फ़ौज में भी उन्होंने बड़ी संख्या में शिरकत की. यही नहीं चन्द्र सिंह
गढ़वाली जैसे सेनानी के नेतृत्व में पेशावर में बगावत में भी आगे रहे. देश में
उत्तराखंड ही ऐसा प्रांत है, जो अपनी आबादी के अनुपात में देश को सबसे ज्यादा फ़ौजी
जवान और अफसर दे रहा है. उत्तराखंड का पिथौरागढ़ जिला देश का सबसे ज्यादा फौजियों
वाला जिला है. ऐसा इसलिए है कि खसिया लड़ने से डरता नहीं. खासकर देश के लिए लड़ने
में उसे ख़ास आनंद आता है. लड़कों के मन में बचपन से ही फ़ौज में जाने के संस्कार भर
दिए जाते हैं. मैंने कभी किसी मां-बाप को अपने इकलौते बच्चे को फ़ौज में जाने से
रोकते हुए नहीं देखा. जो लोग फ़ौज से बीच में ही नाम कटवाकर घर लौट आते हैं, उन्हें
कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता. इसलिए हर पहाडी लोकगीत में किसी न किसी रूप
में फ़ौजी जीवन का जिक्र होता है. बचपन में सुने एक गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं,
जिसे सुनकर हम उछल पड़ते थे:
नागाहिल लड़ाई लागी,
भट्टम भट्टम गोली.
सिपाई दाज्यू लडनै
ग्यान, छाती खोली-खोली.
ज्यादातर मार्शल
जातियों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर होती है. क्योंकि पुरुष लम्बे समय के लिए
बाहर जाते हैं और स्त्रियाँ घर के मोर्चे पर डटी रहती हैं. केरल के नायर-मेनन हों
या मेघालय के खासी, इसीलिए वहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था है. उत्तराखंड में भी
स्त्रियों की स्थिति बेहतर रही है. उन्हें शहरी समाजों की तरह केवल घर की शोभा
बनाकर नहीं रखा गया है. घर की अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका पुरुषों से किसी भी
मायने में कम नहीं है. शादी-ब्याह की प्रथा भी अपेक्षाकृत ज्यादा लचीली रही है. दहेज़
प्रथा अब जाकर शहरी प्रभाव से चली है. वरना एक ज़माना था, जब कन्या के पिता को
बारात के स्वागत के लिए कुछ रकम दी जाती थी. खसियों में आज भी लड़की खोजने के लिए
लड़के का पिता लड़की वालों के घर जाता है. कई बार बारात में लड़के का जाना जरूरी नहीं
भी होता. वर पक्ष के चार-छः लोग जाकर बधू को डोली में बिठा कर ले आते हैं. बाद में
सुविधा से फेरे ले लिए जाते हैं. यौन रिश्ते भी इतने रूढ़ नहीं थे, जितने कि शहरी
समाजों में होते हैं. उन्हें संगीन जुर्म नहीं समझा जाता था. कुछ समाजों में यह भी
व्यवस्था थी कि यदि कोई विवाहिता स्त्री किसी अन्य पुरुष का वरण करती है तो उसे भी
समाज यह छूट देता था. हाँ, जिस पुरुष के साथ वह जा रही है, उसे पूर्व पति को उसका
मूल्य चुकाना होता था. ऐसी स्त्री को ‘छन मण की बान’ कहा जाता था. अर्थात ऐसी
सुन्दरी जिसका पति मौजूद है. उस स्त्री को प्राप्त करना गर्व की बात समझी जाती थी.
उत्तराखंड के खसिया
लोग अभी हाल-हाल तक पौरोहित्य कर्मकांड से काफी हद तक बचे हुए थे. आज भी बहुत से
मंदिरों में खसिया ही पुजारी भी होता है. कई पूजाएँ निचले वर्ग के लोग भी किया
करते थे. छुआछूत जरूर था, लेकिन जातियों के आपस में रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे. वे
एक-दूसरे पर निर्भर थे. यानी ब्राह्मणवाद का असर कम था. हालांकि अब यह असर लगातार
बढ़ता जा रहा है. साथ ही जातिवाद भी बढ़ रहा है. यह समाज मुख्यधारा में आ चुका है,
लेकिन अपनी अच्छी बातें छोड़ कर मुख्यधारा की बुराइयों को ग्रहण कर रहा है. आज इस जाति-समूह में भी दहेज़ प्रथा शुरू हो गयी है. शादियों में वैसी ही तामझाम, जैसी कि मैदानी इलाकों में होती है. एक और संकट, शराबखोरी बढ़ रही है. असंख्य परिवार इसकी वजह से तबाह हो चुके हैं. हजारों वर्षों से जिन पहाड़ों को हमारे पूर्वजों ने अपना निवास-स्थान बनाया था, उसके प्रति उदासीनता दिख रही है. खसिया अपने पारंपरिक काम-धंधों से मुंह मोड़ रहा है. खेती-बाडी और पशुपालन से मोहभंग हो रहा है. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. पढाई-लिखाई को लेकर जागरूकता बहुत बढी है, लेकिन फिर भी कुछ ही बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण कर पा रहे हैं. लेकिन खुलापन उनकी आज भी विशेषता है. बाहर निकल कर वे काफी तरक्की कर रहे हैं. अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह भी कर रहे हैं. एक बात
और. राजनीति में उत्तराखंड के खसियाओं को उनका जायज हक मिलना अभी बाक़ी है. (नवभारत टाइम्स, ९ जनवरी, २०१५ में प्रकाशित संक्षिप्त लेख का मूल रूप)
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