शनिवार, 5 मार्च 2016

स्थानीय पत्रकारिता की चुनौतियां

मीडिया/ गोविन्द सिंह
आज के समय में सच्ची पत्रकारिता एक कठिन कर्म है. यह कर्म तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब पत्रकारिता स्थानीय स्तर की हो. स्थानीय से हमारा आशय स्थान विशेष से है. अर्थात जब किसी अखबार के पाठक ठीक उसके सामने बैठे हों या उसका पाठक वर्ग निर्धारित क्षेत्र में फैला हो. ऐसे में पाठक तो सामने होता ही है, जिसकी खबर ली जानी है, वह भी सामने बैठा होता है. राष्ट्रीय पत्रकारिता का क्षेत्र चूंकि व्यापक होता है, इसलिए उसके विषय और पाठक, दोनों का फैलाव भी विस्तीर्ण होता है. उसका अपने पाठक के साथ वैसा प्रगाढ़ रिश्ता नहीं होता, जैसा कि स्थानीय पत्रकारिता का होता है. मुझे अपने तीन दशक से अधिक के पत्रकारीय जीवन में हमेशा यह मलाल रहा कि मैंने हमेशा राष्ट्रीय पत्रकारिता की. अपने लोगों के बीच रह कर पत्रकारिता करने का सौभाग्य नहीं मिला.

पत्रकारिता का कर्म मुश्किल इसलिए हो गया है कि आज पत्रकारिता एकदम व्यावसायिक हो गयी है. व्यावसायिक से भी ज्यादा सटीक शब्द  होगा व्यापारिक. वह काफी खर्चीली हो गयी है. हिन्दी पत्रकारिता में यह बदलाव ज्यादा ही मुखर होकर सामने आया है क्योंकि पिछले बीस वर्षों में उसका जबरदस्त फैलाव हुआ है. चूंकि पहले पत्रकारिता मिशनरी थी और आज एकदम से व्यापारिक हो गयी है, इसलिए भी यह बदलाव ज्यादा ही दिखाई पड़ता है. समस्या यह भी है कि जिस पैमाने पर अखबार फैले हैं, उस पैमाने पर अखबार निकालने वाले नहीं बदले हैं. इनमें पत्र स्वामी भी हैं और पत्रकार भी. जितने बड़े पैमाने पर योग्य, दक्ष और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत आन पड़ी है, उतने तैयार नहीं हो पाए. फिर पत्र-स्वामियों ने भी इस जरूरत को नहीं समझा. क्योंकि वे स्वयं भी इस अप्रत्याशित विस्तार के लिए तैयार नहीं थे. इसलिए हिन्दी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पत्रकारीय मूल्यों का हनन दिखाई पड़ता है.
पत्रकारीय मूल्यों की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता का पहला और अंतिम धर्म सत्य और निष्पक्षता है. जहां भी इससे विचलन होगा, वहाँ पत्रकारीय नैतिकता का ह्रास होगा. अब चूंकि हमारे समाज में ही व्यापक तौर पर मूल्यों में ह्रास आया है, इसलिए पत्रकारिता में भी ह्रास आना स्वाभाविक है. ऐसे में सत्यनिष्ठ पत्रकारिता कर पाना भी मुश्किल हो गया है. इसके बावजूद पत्रकारिता हो रही है तो उसके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पत्रकारिता में समाज हित का भाव अन्तर्निहित होता है. यही उसकी शक्ति है. तमाम बुराइयों के बावजूद आज भी अच्छी पत्रकारिता के उदाहरण मिल जाते हैं.
जहां तक स्थानीय पत्रकारिता का प्रश्न है, उसमें सबसे बड़ी मुश्किल यह आती है कि जिसके बारे में, पक्ष या विपक्ष में आप लिखते हैं, वह आपके सामने मौजूद रहता है. स्थानीय सुशासन के त्रिकोण में नेता, प्रशासन और पत्रकार की बड़ी भूमिका होती है. न्यायपालिका भी है, लेकिन स्थानीय स्तर पर वह व्यवस्थापिका में ही समाहित होती है. आप किसी के खिलाफ कुछ भी लिखते हैं, तो आपको प्रतिक्रया के लिए तैयार रहना पड़ता है. इसी तरह आपके अपने नाते-रिश्तेदार भी होते हैं. उनमें कुछ लोग गड़बड़ भी हो सकते हैं. आप उनके खिलाफ कैसे छापेंगे? आप कैसे निष्पक्ष पत्रकारिता करेंगे? स्थानीय अपराध तंत्र की खबर लेना भी कम मुश्किल नहीं होता. मुंबई जैसे महानगर में बड़े अपराधी इस बात पर खुश होते थे कि कोई उनकी खबर छाप रहा है. लेकिन यहाँ तो आप सामने हैं. आपका कुछ भी छिपा नहीं होता. हाल के वर्षों में आपने यह भी देखा होगा कि पत्रकारों पर हमले काफी बढ़ गए हैं. आज से 30 साल पहले हम ऐसी घटनाओं के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. जैसे हमारे यहाँ दूत को मारना पाप समझा जाता था, उसी तरह पत्रकार पर हाथ उठाना भी पाप समझा जाता था. लेकिन आज ऐसा नहीं है. यह पत्रकारीय मूल्यों में ह्रास के कारण है. इसलिए पत्रकारों और पत्र-स्वामियों, दोनों को यह समझना होगा कि इस पेशे में कदम रखना कितना चुनौतीपूर्ण है. पेशेवर मूल्यों के साथ पत्रकारिता करने से ही हम उसकी खोई हुई गरिमा को लौटा पायेंगे. (जनपक्ष आज, सांध्य दैनिक, हल्द्वानी के प्रवेशांक {पांच मार्च, २०१६} में प्रकाशित. साभार) 
·          

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता की संभावनाएं

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पत्रकारिता निरंतर अपना चोला बदल रही है. उसके अनेक रूप चलन में हैं. ऊपर से शुरू करें तो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता, राष्ट्रीय पत्रकारिता, प्रादेशिक पत्रकारिता, क्षेत्रीय पत्रकारिता, जनपदीय पत्रकारिता, स्थानीय पत्रकारिता, अति स्थानीय पत्रकारिता, सामुदायिक पत्रकारिता और नागरिक पत्रकारिता. सोशल मीडिया उसका एक और रूप है, जो पत्रकारिता है भी और नहीं भी. लेकिन पत्रकारिता की जब हम बात करते हैं तो उसके साथ कुछ मानदंड स्वतः जुड़ जाते हैं. बिना आचार संहिता या पत्रकारीय नैतिकता या पत्रकारीय मूल्यों के उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. पत्रकारिता में समाज-हित का भाव अन्तर्निहित रहता है. बिना व्यापक हित के उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः पत्रकारिता के जिन रूपों का ऊपर जिक्र किया गया है, उन सबमें एक समानता यह है कि सबका लक्ष समाझ-हित होना चाहिए.
भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हमारी पत्रकारिता एकदम मिशनरी हो गयी थी. उसका ध्येय पैसा कमाना बिलकुल नहीं था. उसका एक ही ध्येय था- देश की आजादी. जो भी अखबार निकल रहे थे, अंग्रेजों के पिट्ठुओं को छोड़ दें तो, वे सब आज़ादी के विराट लक्ष के लिए ही निकल रहे थे. एक तरफ गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ जैसे अखबार थे तो दूसरी तरफ तिलक का ‘केसरी’ अखबार भी था. गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ था तो माखनलाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’ भी था. बड़े राष्ट्रीय दैनिकों में अमृत बाज़ार पत्रिका, लीडर और ट्रिब्यून जैसे अखबार भी थे, जो राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे. हालांकि अंग्रेज़ी के ज्यादातर बड़े अखबार अंग्रेजों के पिट्ठू थे. यदि छोटे शहरों से निकलने वाले पत्रों को टटोलें तो भी संख्या कम नहीं थी. अल्मोड़ा से निकलने वाले ‘शक्ति’, कोटद्वार से निकलने वाले ‘कर्मभूमि,’ देहरादून से निकलने वाले ‘गढ़वाली’ जैसे पत्र सामने आते हैं, जिनके भीतर राष्ट्रीय भावनाएं कूट-कूट कर भरी रहती थीं. छोटे-छोटे शहरों से निकलने वाले साप्ताहिक भी अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेते थे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी प्रतिष्ठा थी.
आज पत्रकारिता पेशा बन गई है. हालांकि उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन पेशा जब पेशेवर मूल्यों को ताक पर रख कर विशुद्ध मुनाफे तक सीमित हो जाता है तो वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है. यद्यपि पेशेवर मूल्यों के साथ मुनाफा कमाते हुए भी अच्छी पत्रकारिता की जा सकती है, बशर्ते कि समाज-हित के भाव को हमेशा ध्यान में रखा जाए.
अब स्थानीय पत्रकारिता की बात करें. स्थानीय अखबार आज भी कम नहीं हैं. लेकिन आजादी से पहले के स्थानीय पत्रों और आज के स्थानीय पत्रों के फर्क को आप स्वयं ही समझ सकते हैं. आज भी हर कसबे से अखबार निकल रहे हैं. लेकिन कितने अखबारों को शहर से बाहर के लोग जानते हैं?  वर्ष १८७१ में प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार’ को हम आज भी उसकी सत्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए याद करते हैं लेकिन क्या आज कोई लघु पत्र-पत्रिका है, जिसे हम उसकी सच्ची पत्रकारिता के लिए याद रखें. ऐसे पत्र अँगुलियों में गिने जा सकते हैं. आज छोटे शहरों और कस्बों से अन्धान्धुन्ध अखबार और पत्रिकाएं निकल रही हैं. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अकेले उत्तराखंड में ही ३००० से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं. कितने ही अखबार डीएवीपी से बाकायदा विज्ञापन भी लेते हैं. राज्य सरकार के विज्ञापन भी उन्हें मिलते हैं. लेकिन उनमें से कितने अखबार अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादातर अखबार ब्लैकमेलिंग के नापाक धंधे में लगे रहते हैं, जिससे स्थानीय पत्रकारिता निरंतर बदनाम हो रही है. 
आज उत्तराखंड में जो स्थानीय पत्रकारिता है, वह दरअसल राष्ट्रीय अखबारों की स्थानीय पत्रकारिता है. इन अखबारों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर होती है भलेही वे कितने ही स्थानीय दिखें. इन पत्रों ने लगभग हर कसबे में अपने स्ट्रिंगर रख लिए हैं. वे वहाँ की खबरों को रोज अपने जिला कार्यालय में पहुंचाते हैं और वहाँ से खबरें अखबार के प्रकाशन केंद्र तक पहुँचती हैं. जो खबरें मतलब की होती हैं, उन्हें अखबार के पन्नों पर स्थान मिलता है. वरना रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं. हर जिले के अलग-अलग संस्करण होने से अनेक बार अच्छी खबरें भी एक जिले की सीमा में ही रह जाती हैं. इस वजह से इनकी बड़ी आलोचना हो रही है. फिर इन अखबारों की अपनी सम्पादकीय नीति होती है. कोई अखबार किसी दल का समर्थक होता है तो कोई दूसरे दल का. किसी की नीति सकारात्मक खबरें छापने की होती है तो किसी की दिलचस्पी नकारात्मक खबरें छापने में. चूंकि ये अखबार बहु-संस्करण वाले होते हैं, इसलिए इनके मुख्यालय राजधानी दिल्ली में हैं. वहीं से उनकी नीति निर्धारित होती है. एक दिक्कत और है कि इन अखबारों के फीचर और सम्पादकीय पृष्ठ मुख्यालय में ही बनते हैं. समस्त संस्करणों में एक ही सम्पादकीय और फीचर छपते हैं. इस तरह छोटे शहरों की वैचारिक और सृजनात्मक प्रतिभा को उसमें स्थान नहीं मिल पाता. खबरें तो बहुत छपती हैं, लेकिन लेख और फीचर स्थानीय नहीं छपते. आज की तारीख में ज्यादातर अखबारों के फीचर विभाग अखबार के मार्केटिंग विभाग के साथ निकट तालमेल बनाकर छापे जाते हैं. इसलिए उनके विषय स्थानीय जरूरतों के साथ मेल नहीं खाते. पुराने जमाने में अखबार की खबरों के साथ-साथ लेख और फीचर भी स्थानीय ही छपते थे. स्थानीय रचनाकारों को भी जगह मिलती थी. लिहाजा स्थानीय विचार और सृजनात्मकता को उचित स्थान मिल जाता था. इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बनती थी. जबकि आज की स्थानीय पत्रकारिता वास्तव में मुनाफे के लिए है, न कि स्थानीयता को अभिव्यक्ति देने ले लिए.           
इसलिए आज सच्चे अर्थों में स्थानीय पत्रकारिता की जरूरत पहले की तुलना में कहीं अधिक है. दुनिया भर में स्थानीय पत्रकारिता चल रही है. पत्रकारिता के जिन रूपों की बात हमने आरम्भ में की है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. एक कसबे की समस्या को वहीं के लेखक-पत्रकार बेहतर समझ सकते हैं. उन समस्याओं को हल करने में स्थानीय प्रकाशकों की ही दिलचस्पी भी होती है. दूर बैठे पत्र-स्वामी को क्या मतलब कि खटीमा या कोटद्वार में क्या हो रहा है या क्या होना चाहिए. यह तो वही पत्र-स्वामी बेहतर जानता है, जो रोज-ब-रोज उन समस्याओं से जूझ रहा हो. दुनिया में आज स्थानीय पत्रों और वेबसाइटों का जोर है. वे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों को मात दे रहे हैं. अब उन्हें विज्ञापन भी मिलने लगा है. उनकी अर्थव्यस्था भी बेहतर हो रही है. एक बात और. अक्सर दूर बैठे सम्पादक को स्थानीय समस्या का भान नहीं होता. वह समझ ही नहीं सकता कि एक छोटे शहर की क्या जरूरतें हैं. मिसाल के लिए किच्छा के एक गाँव में एक किसान की भैंस मर गयी. बड़े शहर में बैठा सम्पादक इस तरह की खबर देखते ही उपहास करने लगेगा, जबकि उस गाँव के किसान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भैंस पर ही निर्भर है. इसलिए स्थानीय पत्रकारिता को गहराई के साथ समझने की जरूरत है.
हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे हिन्दी प्रदेश के अंदरूनी हलकों में घुसने लगी है. आज भी उसमें अनंत संभावनाएं हैं. जरूरत यह है कि उसे ईमानदारी के साथ किया जाए. स्थानीय समस्याओं को उठाया जाए, स्थानीय लेखक तैयार किये जाएँ, स्थानीय गतिविधियों को स्थान मिले, स्थानीय प्रतिभाओं को मंच मिले और इसके जरिये स्थानीय लोग अपने इलाके को ऊपर उठाने का संकल्प लें. किसी भी अखबार के बने रहने की यह जरूरी शर्त है. (‘खटीमा दीप’ पाक्षिक के प्रवेशांक में, एक जनवरी, २०१६ को प्रकाशित)    

शनिवार, 23 जनवरी 2016

पुस्तक मेले के बहाने: लौट रहे हैं पाठक

पुस्तक/ गोविन्द सिंह
पिछले दो साल से पुस्तक मेला न जा पाने का मलाल मन में था. इसलिए इस बार मैंने ठान लिया था कि जाके रहूँगा. संयोग से आख़िरी दिन अर्थात 17 जनवरी को रविवार था और 16 जनवरी को भी छुट्टी थी. इसलिए प्रोग्राम बन गया. दस नंबर गेट से घुसे. लम्बी लाइन थी. कलकत्ता पुस्तक मेले की याद आ गयी. टिकट लेने के लिए खिडकी की ओर लपका तो पीछे खड़े एक बुजुर्ग ने टोका, ‘टिकट क्यों ले रहे हैं? सीनियर सिटीज़न के लिए टिकट माफ़ है’. मैंने कहा, ‘अभी मैं जूनियर ही हूँ.’ कह तो दिया पर मन में खटका लग गया. 57 में तो प्रवेश कर ही गया हूँ. देर ही कितनी है, सीनियर बनने में. खैर....
पुस्तक मेला देखकर अच्छा लगा. इतने सारे पुस्तक-प्रेमियों को एक साथ देखना मन को सुकून से भर देता है. हॉल नं. 12 में ही ज्यादातर समय रहा. ढेर सारे मित्र मिले. कई-कई मित्रों से तो वर्षों बाद मिलना हुआ. बड़े लेखक कम दिखे. पुस्तक प्रेमियों का नया वर्ग उभर आया है. फ़ूड कोर्ट भी पुराने समय की तुलना में बेहतर दिखा. चाय-नाश्ता अच्छा मिल रहा था. बच्चे-बड़े, महिलायें जैसे पिकनिक मनाने आये हों. क्या बुरा है, यदि पुस्तकों की दुनिया को भी पिकनिक स्पॉट मान लिया जाए.
प्रकाशकों का कहना था कि इस बार पिछले वर्षों की तुलना में कहीं ज्यादा लोग उमड़ आये. किताबों की बिक्री भी ज्यादा हुई. जबकि इस बार एक महीने पहले ही पुस्तक मेला लग गया. दरअसल इस बार मेहमान देश के रूप में चीन को आमंत्रित किया गया था. चीन के ही आग्रह पर ऐसा करना पड़ा. तो प्रकाशक आशंकित थे कि पता नहीं मध्य जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में पाठक आयेंगे भी या नहीं. लेकिन पाठक आये. और जी-भर के किताबें खरीद के ले गए. प्रभात प्रकाशन के मालिक प्रभात जी ने बताया कि आम तौर पर पुस्तक मेला प्रकाशकों के लिए घाटे का सौदा होता है, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.
मेले के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देब भाई शर्मा ने भी इस बात की तस्दीक की. उनका कहना था कि इस बार हमने सर्वाधिक कार्यक्रम आयोजित किये. खुद नेशनल बुक ट्रस्ट की किताबों की बिक्री पिछले वर्षों की तुलना में लगभग दोगुनी हुई. मेला अन्य वर्षों की तुलना में बेहतर नियोजित था. भारत की विविधता मेले का केन्द्रीय विषय था. वैसे जनसत्ता अखबार ने लिखा कि बड़े लेखकों ने मेले का बहिष्कार जैसा किया था. पता नहीं कि उन्होंने क्यों ऐसा किया होगा. कोई कारण नहीं नजर आया. हालांकि मेले में ऐसा कुछ भी प्रतिध्वनित नहीं हुआ. हर तरह के लेखक मेले में दिखे. पुस्तक मेले जैसे आयोजनों को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए.
मैं पुस्तक मेलों में अक्सर सरकारी संस्थाओं को ढूंढता रहा हूँ. आजादी के बाद के वर्षों में इन संस्थाओं ने बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित कीं. दुनिया भर की श्रेष्ठ किताबों को हिन्दी में अनुवाद करके छापा. हिन्दी को समृद्ध किया. आज भी उनके स्टालों में ये किताबें बहुत सस्ती मिल जाती हैं. लेकिन अब ये संस्थाएं बहुत खराब किताबें छाप रही हैं. किताबें भी बेकार और उनकी छपाई तो और भी गयी-बीती. यहाँ देख कर लगता है कि इन सरकारी संस्थाओं का किस कदर पतन हुआ है. सिर्फ नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादेमी और प्रकाशन विभाग ही बचे हुए हैं. राज्यों की हिन्दी ग्रन्थ अकादमियां या भाषा संस्थान अपने होने का अर्थ खोते जा रहे हैं.
कुल मिलाकर पुस्तक मेले से ये आशा जगी है कि किताब का पाठक फिर से अच्छी किताबें अलाश रहा है. नया मीडिया उसके लिए खिलौने जैसा जरूर है लेकिन असली ज्ञान लेना हो तो किताब से ही मिलेगा. हिन्दी प्रकाशकों को भी अब अपनी चाल बदलनी चाहिए. उन्हें अपना स्तर सुधारना चाहिए. आम तौर पर उनकी छवि अच्छी नहीं रही है. किताबों को पाठकों तक पहुंचाने की बजाय पुस्तकालयों की थोक बिक्री पर ही उनकी नजर रही है. इससे हिन्दी का पाठक उनसे खफा रहता था. अब हिन्दी पाठक भी बदल रहा है. तो प्रकाशक क्यों न बदलें. वे नहीं सुधरेंगे तो विदेशी प्रकाशक आ जायेंगे.

रविवार, 3 जनवरी 2016

महान कार्यों की बुनियाद

समाज/ गोविन्द सिंह
सात जून १८९३ को दक्षिण अफ्रीका के पीटरमेरित्ज्बर्ग स्टेशन पर यदि मोहनदास करमचंद गांधी नामक युवा वकील को गोरी पुलिस धक्के मार कर ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे से निकाल बाहर न करती तो शायद हमें इस देश का राष्ट्रपिता न मिला होता. कई बार हम अपने निजी जीवन में लगने वाली ठोकरों से प्रेरित होकर कुछ महान कार्य कर बैठते हैं. अपनी निजी पीड़ा को मानवता की पीड़ा बनाकर उसे उखाड़ फेंकने में लग जाते हैं. दशरथ मांझी नामक एक मामूली ग्रामीण ने अपने गाँव और शहर के बीच अवरोध बने एक पहाड़ को काटना ही अपने जीवन का मकसद बना लिया था. ताकि भविष्य में किसी और की पत्नी दवा-अस्पताल के अभाव में दम न तोड़े. गाजियाबाद के खोड़ा की ५७ वर्षीय डोरिस फ्रांसिस की जवान बेटी निकी इंदिरापुरम चौराहे के पास एक तेज रफ़्तार चार की चपेट में आ गयी थी. इस असह्य वेदना को मिटाने के लिए डोरिस ने इस चौक पर रोज सुबह चार घंटे ट्रैफिक ड्यूटी देने शुरू की ताकि किसी और का बेटा या बेटी दुर्घटना का शिकार न हो. पिथौरागढ़ जिले के भुरमुनी गाँव की सावित्री खड़ायत के पति की मृत्यु अति शराबखोरी के कारण हुई तो सावित्री ने शराब की मुखालफत करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया. उन्होंने शराब के ठेकों के खिलाफ आन्दोलन चलाया और उसमें कुछ हद तक कामयाबी भी हासिल की. डहाणू के नटवर भाई ठक्कर ने देखा कि देश के उत्तर पूर्व के लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पा रहे हैं तो वे अपना सब कुछ छोड़ कर नागालैंड चले गए गांधी जी के अहिंसा का मंत्र लेकर और वहीं के होकर रह गए. आज यदि नागालैंड अमन लौट रहा है तो इसमें कुछ न कुछ योगदान नटवर भाई का भी होगा ही. आईआईटी से इंजीनियरिंग और विदेश से मैनेजमेंट की उम्दा पढाई करके एक दिन पवन गुप्ता को लगा कि क्या करेंगे पैसे छापने वाली नौकरी के जाल में फँस कर. मसूरी के पास एक गाँव में अपना डेरा जमाया और समाज कार्य में लग गए. दिल्ली पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल श्यामा चोना ने अपनी बेटी तमन्ना की अक्षमता को समाज की पीड़ा दूर करने का जरिया बना डाला मानसिक मंदता का श्रेष्ठ स्कूल खोलकर. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो हमें यह सिखाते हैं कि यदि हम अपनी पीड़ा को समाज की पीड़ा समझ उसके खिलाफ डट जाएँ तो एक दिन कामयाबी जरूर मिलती है.      
सवाल यह है कि श्रेष्ठ काम करने के लिए हमें क्यों ठोकर का इंतज़ार करना चाहिए. हम जानते हैं कि हम सबके भीतर एक नेक इंसान, एक क्रांतिकारी सोया पड़ा रहता है. लेकिन हम उसे जगाते नहीं. असली समस्या यहीं है. इसके लिए शिक्षित होना जरूरी नहीं. बल्कि कई बार पढ़-लिख जाने के बाद आदमी ज्यादा आत्मकेंद्रित हो जाता है और जिस स्थान पर वह बैठा है, वहाँ से नींचे उतरने का भय उसे सताता रहता है, जिससे वह कोई बड़ा काम नहीं कर पाता. हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि हमने ये आजादी, ये संप्रभुता यूं ही नहीं पायी है. हमें जो मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य मिले हैं, उनके पीछे बहुत लोगों ने लाठी-गोलियां खाई हैं. उनके भीतर कुछ मकसद छिपे हैं. वे हमारी आजादी की बुनियाद हैं. लेकिन हमें अपने अधिकारों का तो ध्यान रहता है, कर्तव्यों का नहीं.
हम अक्सर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते रहते हैं. अपने निजी स्वार्थों के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. अपने करियर को चमकाने के लिए हम हर भ्रष्ट तरीका अपनाने को तत्पर रहते हैं. अपने व्यवसाय को बढाने के लिए दूसरे को अवैध तरीके से लंगडी मारना हमारा स्वभाव बन गया है. लेकिन अपने समाज और राष्ट्र के प्रति भी हमारा कोई दायित्व होना चाहिए, इसकी हमें कोई परवाह नहीं.
हमारा देश सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत तरक्की कर रहा है. हमारे युवा कामयाबी की नई-नई मिसालें पेश कर रहे हैं. लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि अपनी भाषा में भी टेक्नोलोजी की सुविधा होनी चाहिए. जब सारी दुनिया में इंटरनेट का डंका बज रहा था, हमारी हिन्दी में एक भी वेबसाईट नहीं थी. हरियाणा के कैथल से न्यूजीलैंड पहुंचे एक मामूली कम्प्यूटर ऑपरेटर रोहित कुमार हैप्पी को यह बात दिल से लग गयी. उसने बड़ी मेहनत से “भारत दर्शन” नाम की पहली हिन्दी वेबसाईट बना डाली. जो काम बड़े-बड़े आईआईटी नहीं कर पाए, वह काम एक मामूली कम्प्यूटर साक्षर व्यक्ति ने कर दिखाया. ऐसे ही जब हिन्दी के फॉण्ट खुलने में मुश्किल होती थी, जर्मनी में बैठे एक नवयुवक राजेश मंगला ने फॉण्ट कन्वर्टर बना कर हमारी मुश्किलें आसान कीं. बहुत से स्वयंसेवी हिन्दी का साहित्य कोश बना रहे हैं ताकि साइबर संसार में अपनी हिन्दी पिछड़ न जाए. मध्य प्रदेश के विजय दत्त श्रीधर ने देखा कि हिन्दी पत्रकारिता को जानने-समझने के लिए कोई ऐसा केंद्र नहीं, जहां हिन्दी के नए-पुराने पत्रों की एक झलक देखने को मिल सके. उन्होंने सप्रे संग्रहालय ने निर्माण में अपना जीवन लगा दिया. चंडीगढ़ का रॉक गार्डेन एक अकेले नेक चाँद सैनी की सनक का सुफल है. इस तरह हम देखते हैं कि यदि हम अपने ही स्थान पर भी अपने देश-समाज के लिए कुछ योगदान कर सकें तो एक दिन हमारा देश बहुत आगे बढ़ सकता है. कानून बनाने से हम अपने दायित्व बोध को नहीं जगा सकते. ठोकर लगने से भी हम किसी मिशन को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते. व्यक्ति-समाज के भीतर से ही इसकी लौ जलानी होगी. (दैनिक जागरण, 27 दिसंबर, 2015 से साभार)