गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

उत्तराखंड में शिक्षा का हाल

शिक्षा/ गोविन्द सिंह
कहा जाता है कि यदि किसी राज्य की तरक्की का जायजा लेना हो तो वहाँ के बच्चों को देखिए, वहाँ की शिक्षा का हाल देखिए. शिक्षा से ही सामाजिक संभावनाओं के द्वार खुलते हैं, शिक्षा से ही समाज की खुशहाली का पता चलता है. इस लिहाज से देखा जाए तो उत्तराखंड में शिक्षा का अनुभव मिला-जुला रहा है. नया राज्य होने के नाते यहाँ बदलाव तो बहुत हुआ है, ‘तरक्की’ भी हुई है, लेकिन उस अनुपात में शिक्षा की स्थिति बहुत नहीं सुधरी है. इस बात को यहाँ के मुख्यमंत्री, विधान सभाध्यक्ष सहित तमाम बड़े नेता स्वीकार चुके हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि जो कुछ ‘विकास’ या बदलाव हुआ है, वह बेतरतीब और अनियोजित हुआ है. चूंकि बीते वर्षों में स्वस्थ राजनीतिक विकास नहीं हो पाया, इसलिए प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी उसका असर पड़ा. हमारे नेता यही तय नहीं कर पाए कि हमें किस तरह का समाज चाहिए, लिहाजा उस लक्ष को हासिल करने के लिए किस तरह के युवाओं की जरूरत होगी, यह भी उनकी समझ में नहीं आया.
ऊपरी तौर पर देखें तो उत्तराखंड आज शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है. यहाँ साक्षरता का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है. सबको शिक्षा का अधिकार के तहत सब बच्चे शिक्षा ग्रहण कर ही रहे हैं. गाँव-गाँव में सरकारी स्कूल खुल गए हैं. जरूरत नहीं है, तब भी खुल रहे हैं. जहां एक जिले में मुश्किल से एक-दो डिग्री कालेज हुआ करते थे, आज छोटे-छोटे कस्बों में खुल रहे हैं. उनमें पढने को बच्चे नहीं हैं. राज्य में जहां कभी मुश्किल से दो-तीन विश्वविद्यालय हुआ करते थे आज 23 विश्वविद्यालय हैं. अभी और खुल रहे हैं. यानी देखने को तस्वीर बड़ी गुलाबी दिखाई पड़ती है. लेकिन भीतर से हालात बहुत अच्छे नहीं हैं. आकार फ़ैल रहा है किन्तु उसमें गुणवत्ता का घोर अभाव है. गांवों में पुराने जमाने में खुले हुए स्कूल बंद हो रहे हैं. अतिशय पलायन की वजह से वहाँ बच्चे पढने के लिए बचे ही नहीं. वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से जहां 1700 गाँव उजड़ चुके हैं, वहीं 12 सौ स्कूल बंदी के कगार पर खड़े हैं. 2040 प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में छात्रों की संख्या दस से भी कम रह गयी है. 7000 ऐसे स्कूल हैं, जिनमें छात्र संख्या 25 रह गयी है. स्कूली शिक्षा में विषमता की खाई लगातार फैलती जा रही है. चूंकि गांवों से शहरों-कस्बों कि ओर पलायन बढ़ रहा है, इसलिए बच्चे शहर के निजी स्कूलों में आ रहे हैं. बल्कि परिवार के पलायन करने से भी पहले बच्चों का पलायन हो रहा है. इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि गाँव के स्कूलों का स्तर सुधर नहीं रहा, अध्यापक कक्षा में नहीं जाता, उसके भीतर बच्चों को प्रेरित करने की क्षमता नहीं है. दूसरी, लोगों में शहरी तथाकथित ‘अंग्रेज़ी स्कूल’ में बच्चा भेजने की भेडचाल है. शहर में या दूर फ़ौज में काम करने वाले व्यक्ति के मन में यह बात बैठा दी गयी है कि गाँव में बच्चा नहीं पढता. लिहाजा वह अपनी पत्नी और बच्चे को पड़ोस के शहर में भेजता है, ताकि उसे वहाँ अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा दी जा सके. भलेही शहरी स्कूल घटिया ही क्यों न हो. यहाँ यह बात भी देखने की है कि जहां जिले के कस्बों-शहरों में ज्यादातर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल घटिया दर्जे के हैं, वहीं यह भी गौर तलब है कि लगभग हर बड़े शहर में कुछ ऐसे स्कूल भी खुल गए हैं, जो अंग्रेज़ी माध्यम की अच्छी-खासी पढ़ाई करवाते हैं. केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सेना के स्कूल और धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के आवासीय स्कूलों ने  भी पर्वतीय बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों के दरवाजे खोले हैं. नैनीताल-अल्मोडा, देहरादून-मसूरी के उच्च स्तरीय अंग्रेज़ी स्कूलों का भलेही उत्तराखंड के बच्चों से कोइ लेना-देना नहीं रहता लेकिन इक्का-दुक्का बच्चे इस रास्ते से भी तथाकथित अंग्रेज़ी शिक्षा पा ही लेते हैं. चूंकि अंग्रेज़ी शिक्षा को ही प्रगति का राजमार्ग समझ लिया गया है, इसलिए उच्च और माध्यम दर्जे के निजी स्कूलों में अमूमन यही माध्यम पढाई का है. इन स्कूलों से बड़ी संख्या में बच्चे इंजिनीयरिंग, मेडिकल और दिल्ली या पुणे के उच्च रैंकिंग वाले कालेजों में दाखिला पा रहे हैं, जहां से वे अपने भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं. भारतीय सैन्य अकादमी के आंकड़े देखें तो पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड देश को सर्वाधिक अफसर देने वाला दूसरा बड़ा प्रदेश है. बच्चों की कुल संख्या को देखें तो बेहतर या निजी स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की यह संख्या बहुत थोड़ी है. फिर भी जो मुकम्मल तस्वीर बनती है, वह खराब नहीं है.
दूसरी तरफ शिक्षा का सरकारी तंत्र काफी चरमराया गया है. जबकि इसी तंत्र ने एक समय देश को बहुत अच्छे नौजवान दिए थे. चूंकि आज भी लगभग 70 प्रतिशत बच्चे इन्हीं स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, इसलिए राज्य में उच्च शिक्षा की जमीन इन्हीं बच्चों से बनती है. लेकिन इसे विडम्बना ही कहिए कि उच्च शिक्षा की तस्वीर बेहद निराशाजनक है.
उत्तराखंड की कुल आबादी एक करोड़ से कुछ ही अधिक है. फिर भी हमारे पास 23 विश्वविद्यालय और 90 से ज्यादा सरकारी और 300 से ज्यादा निजी महाविद्यालय और उच्च शिक्षा के संस्थान हैं. मात्रा के हिसाब से देखा जाए तो यह तस्वीर बुरी नहीं है. लेकिन गुणवत्ता और पूरे प्रदेश के संतुलित विकास को देखते हुए यह हालत कुछ अच्छी नहीं दिखती. वर्ष 1973 से पहले हमारे पास एकमात्र पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय था. लेकिन उसकी ख्याति पूरे देश में थी. वह देश में हरित क्रान्ति का अग्रदूत बना. उसके बाद कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालय आये. अल्प संसाधनों के बावजूद उन्होंने देश को अनेक हीरे दिए, जिन्होंने देश-विदेश में नाम कमाया और राष्ट्र-मुकुट की शोभा बने. उन्होंने न सिर्फ अपना नाम किया बल्कि प्रदेश का भी सर ऊंचा किया. इन कालेजों-विश्वविद्यालयों ने देश भर में शिक्षा के मानक कायम किये. घास-फूस के छप्परों और टूटी-फूटी इमारतों से बड़े-बड़े वैज्ञानिक निकले, लेखक-बुद्धिजीवी उभरे और सरहद पर रखवाली करने वाले वीर सैनिक पैदा हुए.
अब हमारे पास बहुत से कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, फिर भी श्रेष्ठ छात्र नहीं निकल रहे. फ़ौज को छोड़ दिया जाए, तो जिस अनुपात में यहाँ से पहले श्रेष्ठ विद्यार्थी निकल कर देश सेवा में जाते थे, अब नहीं निकल पा रहे. पढाई का स्तर निरंतर गिर रहा है. हमारे शिक्षा-मंदिरों से डिग्रीधारी तो हर साल बहुत निकल रहे हैं, पर उनमें कितने वाकई काबिल हैं, कहना मुश्किल है. सरकारी कालेज, जहां से देश और राज्य की सेवाओं में लोग जाया करते थे, आज पूरे प्रदेश से साल में बमुश्किल 6-7 युवा सिविल सेवा में सेलेक्ट हो पा रहे हैं. यहाँ भी सरकारी बनाम निजी विश्वविद्यालयों ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. पहाड़ और दुर्गम इलाके आज भी उपेक्षित हैं. 23 में से १८ विश्वविद्यालय केवल देहरादून और हरिद्वार जिलों तक सीमित हैं. जिस प्रकार निजी स्कूलों ने कुछ तो ख्याति अर्जित की है, प्रदेश के निजी संस्थान कोई ख़ास झंडे नहीं गाड पाए हैं. व्यापार के अतिरिक्त उनका कोइ और मकसद हो, लगता नहीं. यही वजह है कि वे वे पहाड़ नहीं चढ़ना चाहते. इसलिए पहाड़ के बच्चे वंचित ही हैं.   
स्कूली शिक्षा की ही तरह उच्च शिक्षा में भी पलायन जारी है. जो भी लोग खर्च उठा सकते हैं, वे अपने बच्चों को दिल्ली-पुणे भेज रहे हैं. जो ज्यादा खर्च नहीं उठा सकते, वे देहरादून, हल्द्वानी ही भेज कर संतुष्ट हो ले रहे हैं. चूंकि आम तौर पर लड़कियों को अभिभावक बाहर नहीं भेजते, इसलिए दुर्गम इलाकों के कालेजों में लडकियां ही बची रह गयी हैं. दुर्गम इलाकों में 56 सरकारी कालेज हैं, जहां लड़कियों की संख्या 60 से 80 फीसदी है. लिहाजा, यहाँ शिक्षा का स्तर सुधारने के प्रति न सरकार गंभीर दिखाई देती है और न ही अभिभावक. राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए डिग्री कालेज तो खोल दिए हैं, लेकिन वहाँ संसाधनों का घोर अभाव है. न शिक्षक हैं, न भवन. फिर पढाई के विषय भी पिटे-पिटाए हैं. कहीं कोई कल्पनाशीलता नहीं दिखाई देती. कुछ समय तक बच्चे यहाँ इंतज़ार करते हैं, बाद में वे भी भाग खड़े होते हैं. लिहाजा जहां हरिद्वार, रूडकी, देहरादून, ऋषिकेश, रुद्रपुर और हल्द्वानी में छात्रों को दाखिला नहीं मिल पाता, वहीं पहाड़ों में छात्रों के लाले पड़े रहते हैं. बावजूद इसके, उत्तराखंड में उच्च शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात (जी ई आर) 30 फीसदी से अधिक पहुँच चुका है. देश के अन्य राज्यों की तुलना में यह बहुत उत्साहजनक दिखता है, क्योंकि देश का औसत दाखिला अनुपात 20 फीसदी के आसपास ही है. सबको शिक्षित करने के लक्ष का हमें अवश्य ध्यान होना चाहिए, लेकिन हम यह न भूलें कि कहीं हम शिक्षा की गुणवता से समझौता तो नहीं कर रहे? (अमर उजाला: उत्तराखंड उदय- २०१५ से साभार) 

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

हिन्दी को अब रोमन से लड़ना होगा

भाषा समस्या/ गोविन्द सिंह
विश्व हिन्दी सम्मलेन से पहले कुछ हिन्दी प्रेमी मित्रों ने यह आशंका जताई थी कि इस बार के सम्मेलन का एक हिडन एजेंडा भी है, कि सम्मेलन में ऐसा प्रस्ताव पारित हो सकता है कि हिन्दी के विस्तार को देखते हुए देवनागरी की जगह रोमन को हिन्दी की लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया जाए. आशंका के विपरीत सम्मेलन में ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे कुछ सत्रों में यह चिंता जाहिर की गयी कि इस तरह की किसी भी कोशिश का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए. आशंका जताने वालों का तर्क यह था कि चूंकि इस बार माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, सीडेक या ऐसी ही बड़ी कंपनियों को बुलाया जा रहा है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों की मांग को देखते हुए ऐसा फैसला हो सकता है. कम्पनियां भी आयीं और उन्होंने हिन्दी में हो रहा अपना काम भी प्रदर्शित किया, लेकिन रोमन लिपि का आग्रह किसी सत्र में नहीं दिखाई पड़ा.    
भलेही इस सम्मेलन में ऐसी कोई बात नहीं हुई, लेकिन यह सच है कि हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती लिपि की ही है. इसमें कोई दो-राय नहीं कि हिन्दी का परिदृश्य लगातार बदल रहा है. उसमें विस्तार हो रहा है. लेकिन उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हो रहीं. कुछ चुनौतियां कृत्रिम हैं तो कुछ जायज भी हैं. लिपि की चुनौती को मैं जायज मानता हूँ. इसलिए कि हिन्दी भाषी समाज में यह समस्या जंगल की आग की तरह फ़ैल रही है. गिनती के मामले में अंग्रेज़ी के अंकों को स्वीकार कर हम पहले ही समर्पण कर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि आज की पीढ़ी में शायद ही हिन्दी की गिनती को कोई समझता हो. अंग्रेज़ी के अंकों को हिन्दी में क्या बोलते हैं, यह भी नई पीढी नहीं जानती है. हिन्दी चैनलों में काम करने को आने वाले युवा पत्रकारों को सबसे ज्यादा मुश्किल इसी में होती है. हिन्दी पढ़े-लिखे युवा भी अभ्यास न होने की वजह से वर्णमाला के सभी अक्षरों को नहीं बोल सकते. नई टेक्नोलोजी के आने के बाद वाकई देवनागरी में व्यवहार मुश्किल होता गया. चूंकि कम्प्यूटर का आविष्कार पश्चिम में ही हुआ, और जो भी कोई नई प्रगति होती है, वह भी वहीं से होती है, इसलिए सब कुछ अंग्रेज़ी में ही आरम्भ होता है. जो देश प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत हैं, वे जरूर अपनी भाषाओं में शुरुआत करते होंगे. लेकिन हमारे यहाँ चूंकि अंग्रेज़ी का बोलबाला है, इसलिए कोई भी नई चीज हमारे यहाँ पहले अंग्रेज़ी में ही पहुँचती है. मीडिया की जरूरतों के कारण कोई चीज हिन्दी या भारतीय भाषाओं में आती भी है तो बहुत देर से. मसलन इन्टरनेट आया तो हमारे सामने फॉण्ट की समस्या पैदा हुई. शुरुआती दिनों में हिन्दी की जो साइटें बनती थीं, पहले उनके फॉण्ट डाउनलोड करने पड़ते थे. मेल के साथ फॉण्ट भी भेजने पड़ते थे. लिहाजा हिन्दी की साइटें बड़ी बोझिल होती थीं, वे खुलने में ही बड़ी देर कर देती थीं. वर्ष 2000 में जाकर माइक्रोसॉफ्ट ने कम्प्यूटर के भीतर ही मंगल नामक यूनिकोड फॉण्ट देना शुरू किया. लेकिन यह बड़ा ही कृत्रिम लगता है. देवनागरी का सौन्दर्य उसमें दूर-दूर तक नहीं झलकता. खैर बाद में कुछ और फॉण्ट यूनिकोड पर आये और हिन्दी की दशा सुधरी. लेकिन की-बोर्ड की समस्या बरकरार रही. पुराने लोग या पारंपरिक तरीके से टाइप करने वाले लोग रेमिंगटन की-बोर्ड में काम करते हैं, सी-डेक ने फोनेटिक की-बोर्ड बनाया. यह ज्यादा वैज्ञानिक है, किन्तु पुराने लोग इसे नहीं अपनाते. इसी तरह गूगल के ट्रांसलिटरेशन सॉफ्टवेर के जरिये टाइप करने वाले रोमन के आधार पर करते हैं. इसके आने से पहले ई-मेल भी हम हिन्दी में नहीं कर पाते थे. अखबारों के दफ्तरों में अक्सर कम्प्यूटरों पर तीन तरह के की-बोर्ड बने होते हैं. ताकि किसी को मुश्किल न हो. अर्थात एक अजीब-सी अराजकता यहाँ भी व्याप्त हो गयी. इसलिए कंप्यूटर का आम उपयोगकर्ता इस झमेले में पड़े बिना सीधे रोमन में काम शुरू कर देता है. चाहे मेल करना हो या कोई छोटा-मोटा नोट लिखना हो. वरना उसे किसी पेशेवर टाइपिस्ट की शरण लेनी पड़ती है. इसी तरह अंग्रेज़ी में स्पेलिंग चेक करने वाला सॉफ्टवेर होता है, व्याकरण जांचने वाला सॉफ्टवेर होता है, हिन्दी में बीस साल बाद अब जाकर इस तरह के प्रयास सामने आ रहे हैं, फिर भी वे बहुत कम इस्तेमाल हो रहे हैं. यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है. किसी भी नई अप्लिकेशन के हिन्दी में आते-आते छः महीने लग जाते हैं. इसलिए नए बच्चे धड़ल्ले से रोमन में हिन्दी लिख रहे हैं. वे रोमन को इसलिए नहीं अपनाते कि यह बहुत अच्छी लिपि है, इसलिए कि यह सहज ही उपलब्ध है और सब तरफ इसी का माहौल है. दूसरी तरफ देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए हमने कुछ किया ही नहीं.
पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद में बड़े जोरदार तरीके से सरकार पर हमला किया. वे हिन्दी में बोल रहे थे, लेकिन उनके हाथ में जो पर्ची थी, वह रोमन में थी. इस पर बड़ा हंगामा हुआ. टीवी रिपोर्टों में दिखाया गया कि राहुल इतनी-सी हिन्दी भी नहीं जानते. वास्तव में हिन्दी तो वह जानते हैं, पर देवनागरी लिपि में अभ्यस्त न होने से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा. इसमें हाय-तौबा करने वाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि आज बड़ी संख्या में देश के युवा ऐसा ही कर रहे हैं. चूंकि हमारे यहाँ अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है, बच्चों को स्कूल से ही हिन्दी से हिकारत करना सिखाया जाता है, इसलिए उन्हें रोमन का ही अभ्यास रहता है. फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले तमाम दक्षिण भारतीय कलाकार रोमन में ही अपनी पटकथा बांचते हैं. अहिन्दी भाषियों को जाने दीजिए, पढ़े-लिखे हिन्दी भाषी ही फक्र के साथ यह कहते हुए सुने जाते हैं कि ‘आई डोंट नो हिन्दी’. विज्ञापन जगत में काम करने वाले ज्यादातर लोग यही करते हैं. कुछ हिन्दी मीडिया घराने भी चाहते हैं कि हिन्दी की लिपि देवनागरी हो जाए. वे यदा-कदा अपने अखबारों में हिन्दी के बीच में अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को रोमन लिपि में छापते भी हैं. पिछले दिनों अंग्रेज़ी के बहु-चर्चित लेखक चेतन भगत ने भी घिसी-पिटी दलीलों के साथ रोमन की वकालत करने वाला लेख लिख मारा, जिसे एक बड़े अंग्रेज़ी अखबार ने तो छापा ही, बड़े हिन्दी अखबार ने भी छाप डाला. इसमें इन युवाओं का कोई दोष नहीं है. दोष है तो हमारी सरकारों का. जिसने हिन्दी को शिक्षा से लगभग बेदखल कर रखा है, जो बचपन में ही हमारे नौनिहालों के मन में हिन्दी के प्रति घृणा भाव भर देती है और अंग्रेज़ी को श्रेष्ठ भाषा मानने को विवश कर देती है. सरकार चाहे तो नई टेक्नोलोजी को हिन्दी में लागू करवा सकती है. कम्प्यूटर में, मोबाइल में, टैबलेट में, अईपैड में, अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी को पहली भाषा बनवा सकती है. लेकिन उसने कभी ऐसा नहीं किया. पिछले छः दशकों के साथ यह हो रहा है. रोमन या देवनागरी से ज्यादा यह हमारी सरकारों के मानसिक दीवालियेपन का सबूत है.
एक बार फिर रोमन-परस्त ताकतें सर उठा रही हैं. आजादी से पहले भी ये लोग रोमन की वकालत कर रहे थे. लेकिन तब राष्ट्रवाद का ज्वार इतना तेज था कि ये अलग-थलग पड़ गए. वे यह नहीं जानते कि देवनागरी लिपि इस देश की भाषाओं की अभिव्यक्ति की सबसे उपयुक्त लिपि है. वह केवल सौ साल  में नहीं बनी. वह ब्राह्मी-खरोष्ठी और शारदा का स्वाभाविक विकसित रूप है और दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है. उन्हें यह भी नहीं पता कि रोमन लिपि अंग्रेज़ी भाषा को ही ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती. वह एक अत्यंत अराजक लिपि है. अंग्रेज़ी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ खुद इस लिपि को किसी लायक नहीं समझते थे. उन्होंने अपनी वसीयत में एक अच्छी-खासी रकम इस लिपि की जगह किसी नई लिपि के विकास के लिए रखी थी. रोमन लिपि न उच्चारण की दृष्टि से मानक है और न ही एकरूपता के लिहाज से, जबकि देवनागरी लिपि जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है. ऐसी लिपि की अवहेलना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा. (अमर उजाला, 27 सितम्बर, 2015 को प्रकाशित लेख का अविकल रूप)   

बुधवार, 16 सितंबर 2015

हिन्दी-उर्दू और देवनागरी

लिपि और भाषा/ गोविन्द सिंह
इस देश की कोई ४० फीसदी आबादी हिन्दी को अपनी पहली भाषा मानती है. बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो उसे दूसरी भाषा मानते हैं. मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनिडाड, नेपाल, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और खाड़ी देशों में भी बड़ी संख्या में हिन्दी भाषी रहते हैं. इस तरह कुल ५० करोड़ लोग अच्छी तरह से हिन्दी जानते हैं या हिन्दी को अपनी भाषा मानते हैं. इसी तरह उर्दू बोलने वाले भी कोई २५ करोड़ लोग हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दुनिया के अन्य देशों में रहते हैं. यानी दोनों को मिलाकर कुल ७५ करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी भाषा एक है, पर उन्हें पता नहीं. यदि ये सब लोग हिन्दी-उर्दू को एक भाषा मान लें तो यह वर्ग मंदारिन यानी चीनी भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन जायेगी. मंदारिन भी कौन सच्चे अर्थों में एक भाषा है! उसके भी अनेक रूप हैं. सिंगापुरी अलग है, फिलिपिनो अलग है. चीन के भीतर ही अनेक उपभाषाएँ हैं, जिन्हें एक लिपि में बाँध एक भाषा के रूप में समेट कर रखा गया है. लेकिन हिन्दी और उर्दू में तो बहुत कम फर्क है. दोनों की जन्मभूमि एक है, वाक्य-विन्यास एक है, व्याकरण एक है, लोग एक हैं. सिर्फ एक ही अंतर है- लिपि का. हाँ, जबसे सियासत के ठेकेदारों ने भाषाओं को धर्म से जोड़ दिया, तब से एक हिन्दुओं की और दूसरी मुसलामानों की भाषा बन कर रह गयी है, वरना हिन्दी के जन्मदाताओं में मुसलमान और उर्दू को बनानेवालों में हिन्दू ज्यादा थे.
दुनिया के भाषावैज्ञानिक इन दोनों भाषाओं को एक ही भाषा मानते हैं. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश के लोग इन्हें दो भाषाएँ ही मानते हैं. क्योंकि वे हिंदी या उर्दू की बजाय देवनागरी और फारसी/ नस्तालिक लिपियों को असली भाषा समझ बैठे हैं. वे यह नहीं जानते कि हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की जुगत में हिन्दी और उर्दू के बीच दरार डालने का काम अंग्रेजों ने १८३७ के आस-पास शुरू किया था. बाद के वर्षों में महात्मा गांधी द्वारा दोनों भाषाओं को मिलाकर हिन्दुस्तानी कर देने और उसे राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव को न मानकर पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन और बाद में कांग्रेस पार्टी ने बड़ी भूल कर डाली, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज दोनों भाषाएँ आमने-सामने हैं. दोनों ही सम्प्रदायों में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो हिन्दी को संस्कृत की ओर और उर्दू को अरबी-फारसी की ओर ले गए. और आज भी ले जाना चाहते हैं. लेकिन सचाई यही है कि दोनों भाषाओं में से उनके कुछ कठिन शब्द निकाल दिए जाएँ तो दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता है.
इसीलिए पिछली सदी के आखिरी दशक में क्रिस्टोफर किंग नाम के भाषावैज्ञानिक ने जब ‘वन लैंग्वेज इन टू स्क्रिप्ट्स’ नाम की किताब लिखी थी, तो दोनों ही भाषाओं के कट्टरपंथी आग-बबूला हो गए थे. लेकिन भाषा बहता नीर होती है. उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि वह सहजता की ओर चलती है. वह व्याकरण की दीवारों में नहीं बंधती. वह राजनेताओं या व्यापारियों के आदेशों को भी नहीं मानती. नतीजा यह हो रहा है कि आज उर्दू भाषी हिन्दी की ओर झुक रहे हैं और हिन्दी भाषी उर्दू की ओर. अपने ही देश में इस दिशा में अनेक प्रयास हो रहे हैं. मसलन कई उर्दू पत्रिकाएं देवनागरी लिपि में छपने लगी हैं, और अच्छा-खासा व्यवसाय कर रही हैं. इस्लामी साहित्य देवनागरी में आ रहा है. इसी तरह हिन्दी में भी उर्दू शब्दों और मुहावरों को ज्यादा से ज्यादा स्वीकार किया जा रहा है. उर्दू का साहित्य, भलेही वह पाकिस्तान का ही क्यों न हो, बड़ी मात्रा में अनुवाद हो कर हिंदी में आ रहा है. विदेशों में भी, हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है. टेक्सास विश्वविद्यालय में ‘हिन्दी-उर्दू फ्लैगशिप प्रोजेक्ट’ चल रहा है, जिसके अध्यक्ष हिन्दी विद्वान् रूपर्ट स्नेल हैं. और वहाँ हमारी बोली नाम का भी एक प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसका मकसद ही यही है कि दोनों भाषाओं के बीच की दूरियों को ख़त्म किया जाए.
इसमें ताजा मुहिम निस्संदेह ‘हमारी बोली’ आन्दोलन की ही है. जिसका झंडा अमेरिका-यूरोप में जन्मी भारतवंशियों की नई पीढी ने बुलंद कर रखा है. इस पीढ़ी को एबीसीडी अर्थात अमेरिका में पैदा हुए कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाता है. ‘कन्फ्यूज्ड’ के इस दाग को मिटाने के लिए ही शायद अमेरिका में पैदा हुई इस दूसरी-तीसरी पीढी के युवाओं में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा हो रहा है. इनमें ज्यादातर युवा पाकिस्तानी मूल के हैं. कुछ भारतीय मूल के भी हैं. उन्हें लगता है कि हिन्दी और उर्दू ने दोनों भाषाओं और भाषियों को बहुत अलग कर लिया है, अब उनकी जगह ‘हमारी बोली’ को लेना चाहिए. वे हिन्दी और उर्दू को मिटा कर नया नामकरण कर रहे हैं, ‘हमारी बोली.’ वे मानते हैं कि उर्दू में से अरबी और फारसी के शब्द हटा दो, इसी तरह से हिन्दी में से संस्कृत के कठिन शब्दों को हटा दीजिए, हमारी बोली बन जाती है. इसके पीछे भी यही तर्क है कि काश, दोनों भाषाएँ मिल जाएँ तो कितनी ताकतवर बन जाएँ! अमेरिका में सबसे लोकप्रिय भारतवंशी ट्यूटर सलमान खान भी इस आन्दोलन से जुड़ चुके हैं. दुनिया भर में इसको फैलाने के लिए कोशिशें जारी हैं. स्वयंसेवक बनाए जा रहे हैं. सोशल मीडिया और अन्य मीडिया पर जमकर प्रचार किया जा रहा है.
हमारी बोली आन्दोलन की सबसे कमजोर कड़ी है, लिपि को लेकर उसका आग्रह. वे देवनागरी या नस्तालिक की जगह रोमन को ‘हमारी बोली’ की लिपि बनाना चाहते हैं.
दरअसल उनकी भी अपनी मजबूरी है. विदेश में पले-बड़े होने के कारण वे उसी लिपि को जानते हैं. उनके मां-बाप ने कभी कोशिश ही नहीं की कि उनके बच्चे अपनी लिपियों को जानें. केवल उन्हें ही दोष क्यों दिया जाए? हमारे अपने देश के भीतर आज अंग्रेजीदां स्कूलों में पढने वाले बच्चे कितनी देवनागरी जानते हैं. जिस तरह से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी रोमन में लिखे को हिन्दी में बोलते हुए पकड़े गए, वह उच्च वर्गीय समाज में मामूली बात है. मुंबई के हिन्दी फिल्म उद्योग में रोमन ही बड़े पैमाने पर हिन्दी की लिपि बन चुकी है. शुरुआती दिनों में जब टेक्नोलोजी में हिन्दी नहीं घुसी थी, टेलीप्रोम्प्टर पर अंग्रेज़ी के ही अक्षर दिखाई देते थे, स्टार न्यूज के हिन्दी समाचारों को रोमन में ही पढ़ा जाता था. आज बड़े पैमाने पर एसएमएस, ई-मेल, सोशल मीडिया में हिन्दी की लिपि रोमन बन गयी है. इसके दो कारण हैं: पहला यह कि हमारे स्कूलों में हिन्दी को आज भी दोयम दर्जा मिला हुआ है. दूसरा, उच्च वर्गीय लोग, ब्यूरोक्रेट, शिक्षाविद, शिक्षा-प्रशासक हिन्दी के प्रति हिकारत के भाव से देखते हैं. इसलिए देवनागरी भी उपेक्षित रह गयी. नतीजा यह हुआ कि आज की अंग्रेजीदां पीढी खुद को देवनागरी की जगह रोमन के करीब पाती है.    
सच बात यह है कि हमारी नई पीढी देवनागरी की वैज्ञानिकता से एकदम नावाकिफ है. वे नहीं जानते कि देवनागरी एक ध्वन्यात्मक लिपि है. जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है. उसे नहीं मालूम कि हमारी भाषा की सबसे सबल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. आज यदि नई पीढी को लगता है कि नए जमाने की कुछ ध्वनियों को वह अभिव्यक्ति नहीं दे पा रही है तो उसमें संशोधन-परिवर्धन किया जा सकता है. आजादी के आन्दोलन के दौरान इस मसले पर लम्बी बहस हो चुकी है. आचार्य विनोबा भावे का तो यहाँ तक कहना था कि सभी भारतीय भाषाएं देवनागरी को ही अपना लें. इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा. कम से कम देवनागरी के रूपों को तो मिलाया ही जा सकता है. पूर्वी नागरी और पश्चिमी नागरी के भी अलग-अलग रूप हैं, जिनमें कुछ-कुछ ही अक्षर अलग हैं. इनसे नाहक ही अलगाव पैदा होता है. नागरी लिपि को लेकर नई पीढ़ी का अज्ञान ही उसे रोमन की ओर ले जा रहा है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. हजारों वर्षों की उसकी यह यात्रा आज हमारी सरकारों की अकर्मण्यता और दास-मनोवृत्ति के चलते खतरे में पड़ गयी है. काश! हमारी नई पीढी हिन्दी और देवनागरी के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के द्वार खोलती तो आज हमें कदम-कदम पर नीचा नहीं देखना पड़ता. हिन्दी अनुवाद की भाषा बन कर न रह जाती.   

              

हिन्दी पत्रकारिता: विश्वसनीयता का संकट

हिन्दी पत्रकारिता/ गोविन्द सिंह
इसमें कोई दो-राय नहीं कि हिन्दी पत्रकारिता ने पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त छलांग लगाई है. अखबारों का प्रसार गाँव-गाँव तक हुआ है, अंग्रेज़ी के साढ़े तीन करोड़ पाठकों की तुलना में हिन्दी के १५ करोड़ पाठक आज देश में हैं. सबसे ज्यादा प्रसार वाले दस शीर्ष अखबारों में से छः हिन्दी के हैं. हिन्दी की अच्छी पत्रिकाएं बंद होने के बावजूद बची-खुची हिन्दी पत्रिकाओं का दबदबा कायम है. हिन्दी के राष्ट्रीय चैनलों ने तो अपनी ऊंची जगह बनाई ही है, साथ ही क्षेत्रीय और स्थानीय चैनल भी गाँव-गाँव, कसबे-कसबे तक अपनी पैठ बना रहे हैं. हालांकि अभी रेडियो पत्रकारिता में लोकतंत्र आना बाक़ी है, लेकिन एफएम और कम्यूनिटी रेडियो के रूप में उसकी दस्तक ने नई संभावनाओं को जन्म दिया है. इन सबके अलावा इन्टरनेट ने सचमुच हिन्दी पत्रकारिता को ग्लोबल अखाड़े में लाकर खडा कर दिया है. हिन्दी की विश्व-बिरादरी उसकी तरफ टकटकी लगाए देख रही है. न्यूयॉर्क हो या शंघाई, न्यूजीलैंड हो या हवाई, हर जगह प्रवासी भारतीय सुबह उठते ही सबसे पहले इन्टरनेट पर अपने गाँव-कसबे के अखबार को देखता है, तब जाकर अपने वर्तमान शहर या देश के अखबारों की तरफ निगाह डालता है. हिन्दी का इतना विस्तृत पटल पहले कभी नहीं था. शायद किसी को इसकी कल्पना भी न थी. इससे यह भी पता चलता है कि हिन्दी कितनी ताकतवर है.  
यह तो हिन्दी पत्रकारिता का ऊपरी रूप है. इसे देखकर लगता है कि हिन्दी पत्रकारिता की आतंरिक सेहत भी इतनी ही दुरुस्त होगी. इतने बड़े और बहु-स्तरीय पाठक समुदाय को केटर (तुष्ट) करने के लिए आखिर क्या व्यवस्था की है हमने? दुर्भाग्य यह है कि हिन्दी पत्रकारिता जगत ने प्रसार और मुनाफ़ा बढाने के अलावा कुछ भी तैयारी नहीं किया. इतने बहु-स्तरीय पाठक समुदाय के लिए जिस तरह के कंटेंट की आयोजना की जानी चाहिए, जिस तरह के मानव संसाधन का नियोजन होना चाहिए, वह नहीं हुआ. इसलिए जब हम उसकी आंतरिक सेहत की पड़ताल करते हैं तो बेहद निराशा हाथ लगती है. दस बड़े अखबारों को छोड़ दें तो बाक़ी छोटे अखबारों और स्थानीय चैनलों की आर्थिक सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है. लेकिन दस बड़े अखबारों की तरक्की का राजमार्ग भी इतना सुगम होगा, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. आजादी के आस-पास एक-दो शहरों से निकलने वाले छोटे या मझोले अखबार 1990 तक पहुँचते-पहुँचते पूरे उत्तर भारत में फ़ैल गए. वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से अपनी तिजारत को फैलाने लगे. अमर उजाला, भास्कर, दैनिक जागरण और राजस्थान पत्रिका ने तरक्की की नई मिसालें कायम कीं. इन्होने अपने-अपने इलाकों में राजनीतिक दबदबा भी कायम किया. शायद तरक्की के इसी सुगम मार्ग को देख कर इस पेशे में बड़ी संख्या में गैर-पेशेवर लोग घुस आये. यह प्रवृत्ति इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ज्यादा तीव्र रही. कुछ पारंपरिक मीडिया समूहों को छोड़ दें तो इस क्षेत्र में ज्यादातर चैनल मालिक नए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर तो फिर भी स्थिति उतनी खराब नहीं है, क्षेत्रीय स्तर पर वे लोग चैनल मालिक बन गए हैं, जिनका पत्रकारीय मूल्यों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. उन लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो अपने काले धंधों को सफ़ेद दिखाने के लिए ये काम कर रहे हैं. इसलिए स्वस्थ पत्रकारिता के मूल्यों का तेजी के साथ क्षरण हो रहा है. पत्रकारिता में आचार संहिता या नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है. अच्छे पत्रकारों के लिए जगह सिकुडती जा रही है. बड़े पैमाने पर ब्लैकमेलर पत्रकारिता के धंधे में आ गए हैं. इसलिए संजीदा पत्रकार पिट रहे हैं. बेमौत मारे जा रहे हैं. पत्रकारिता के स्वस्थ मूल्यों के प्रति समर्पित घराने भी व्यावसायिकता की होड़ में उन्हें भूलते जा रहे हैं. जून के महीने में ही तीन पत्रकार मारे गए. इनमें से एक शाहजहांपुर के जगेन्द्र सिंह की आग लगाकर हत्या कर दी गयी, जिसको लेकर देश-दुनिया में भारत की फजीहत हो रही है, लेकिन राजनेताओं की कान पर जूं तक नहीं रेंग रही.  
अपराध कर्म में लगे माफियाओं, राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ पत्रकारों का टकराव लगातार बढ़ रहा है. एक ज़माना था जब राजनीति और पत्रकारिता को एक-दूसरे का पूरक समझा जाता था. पत्रकारिता में मंजने के बाद लोग राजनीति में दाखिल हुआ करते थे. या राजनेता अपने अनुभवों से पत्रकारिता को परिपुष्ट किया करते थे. गांधी, तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों के देश में यह कैसी पत्रकारिता हो रही है, यह सोचने की बात है. बहुत दिन नहीं हुए, जब साहित्य, संस्कृति और ब्यूरोक्रेसी के हलकों में पत्रकारों की बड़ी इज्जत हुआ करती थी. यहाँ तक कि अपराधी भी लेखक-पत्रकारों की इज्जत किया करते थे. लेकिन आज हिन्दी भाषी समाज में पत्रकारिता की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं. उनकी स्थिति छुटभैये वकीलों और पुलिस वालों की तरह हो गयी है. जिन्हें आते देख लोग बगल से निकल जाने की फिराक में रहते हैं. छोटे शहरों के छोटे पत्रकार भी धन-दौलत तो बहुत जुटा रहे हैं, किन्तु अपनी इज्जत लगातार गंवा रहे हैं. जिन अखबारों का कोई अस्तित्व नहीं है, समाज में कोई औकात नहीं है, उनके सम्पादक-रिपोर्टर भी आलीशान गाड़ियों में घूम रहे हैं. अखबार की आड़ में उनके और धंधे फल-फूल रहे हैं.  
हाल के वर्षों में पत्रकारों पर हुए अत्याचारों ने भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अग्र-पंक्ति में लाकर रख दिया है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 में से 136वें पायदान पर है. इस सूची में हम बहुत-से गरीब अफ्रीकी देशों और नेपाल जैसे पड़ोसी देश से पीछे हैं. हाँ, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जरूर हमसे भी पीछे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के लिए यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर, छत्तीसगढ़, झारखंड या आन्ध्र- तेलंगाना में पत्रकारों पर शासन या सुरक्षा बलों की नकेल की वजह अलग है. वहाँ अलगाववादी या टकराववादी आन्दोलनों के कारण पत्रकारों को शासन का कोपभाजन बनना पड़ता है. वह तो फिर भी समझ में आता है. चिंता का विषय तो यह है कि अच्छे पत्रकारों के लिए रोज-ब-रोज की पत्रकारिता करनी भी लगातार मुश्किल होती जा रही है!      
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों छोटे शहरों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है? पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं? पत्रकारिता की साख क्यों गिरती जा रही है? इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों के अलावा पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, पत्र-स्वामियों को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचना-विचारना होगा. इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमय हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब यह बहुत ही आम-फहम हो गया है. पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खडा रहता था. सम्पादक स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे. पत्रकार-संगठन और ट्रेड यूनियनें हमेशा पीछे खड़ी रहती थीं. पत्र-स्वामी स्वयं भी जुझारू हुआ करते थे. पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में डटे रहते थे. सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे. जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर कोई संकट आता था, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खडा हो जाता था.
लेकिन आज पत्रकार पिट रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं. यदि थोड़ा-सा भी समाज का भय होता तो क्या शाहजहांपुर में जगेन्द्र सिंह को उसके अपने घर में ही घुसकर जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेन्द्र तो किसी अखबार से भी सम्बद्ध नहीं था! फिर भी इतनी असहिष्णुता? वास्तव में हमारे समाज से सहिष्णुता लगातार कम हो रही है. सत्ता-केन्द्रों पर बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते. सत्य की दुर्बल से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं. जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सचाई उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य इस बात का भी है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का अन्तःस्खलन भी कम नहीं हुआ है. पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलाल उतर आये हैं. उन की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है. ऐसे व्यापारी इस क्षेत्र में कदम रख रहे हैं, जिनके पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. पत्रकारिता का कोई मकसद उनके पास नहीं है. वे अपने काले धंधों को सफ़ेद करने के लिए पत्रकारिता को ढाल की तरह से इस्तेमाल करते हैं. पत्रकारिता के जरिये अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभागों को ब्लैकमेल करते हैं. वे कुछ दिन तक तो पत्रकारों को नौकरी पर रखते हैं, उसके बाद उन्हें नौकरी से हटा देते हैं. समाज में थोड़ी-सी छवि बनते ही वे दलालों को भरती करने लगते हैं या फिर बहुत कम मेहनताने पर पत्रकारों को नियोजित करते हैं, ताकि पत्रकार खुद ही ब्लैकमेलिंग के दुष्चक्र में फँस जाएँ. ऐसे पत्रकारों का समाज में क्या आदर होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. इसलिए समाज में अमूमन पत्रकारों के प्रति आदर घटता जा रहा है. कुछ साल पहले पटना में एनडीटीवी के संवाददाता प्रकाश सिंह की भी बेमतलब पिटाई हो गयी थी. जबकि उनकी कोई गलती थी ही नहीं. वे साफ़-सुथरी पत्रकारिता के लिए जाने जाते थे. चूंकि राजनेता पत्रकारों से खफा था, वह किसी एक पत्रकार को पीटकर यह सन्देश देना चाहता था कि वह ऐसा भी कर सकता है, इसलिए जो भी पत्रकार सामने आ गया, उसके साथ बदतमीजी कर ली गयी. मेरे एक मित्र एक राष्ट्रीय चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं, वे कहते हैं, एक दिन आयेगा, जब समाज हमें चुन-चुन कर पीटेगा, लोग दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे. क्योंकि हमारे ही कुछ भाई ऐसे काम कर रहे हैं, जिनका अंजाम ऐसा ही होगा.

जब पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर मैं अध्यापन के क्षेत्र में आया तो शुरू में तो लोग स्वागत करते, लेकिन बाद में पूछते कि आखिर इस पेशे का ये हाल क्यों हो गया? क्यों ऐसे लोग पत्रकार बनने लगे हैं? अकसर लोग यह पूछते हैं कि क्या इस पेशे में प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है? कोई शिकायत करता कि इस पेशे के लोग इतने बदजुबान क्यों हो गए हैं? जबकि आज से तीन दशक पहले जब हम पत्रकारिता में आये थे, तो लोग इस पेशे को बहुत इज्जत देते थे. उनके लिखे को ध्यान से पढ़ा जाता था. आज एकदम उलट हो गया है. एक समय था जब न्यायमूर्ति पालेकर ने पत्रकारों के लिए वेतनमान जारी करते हुए कहा था कि इस पेशे की पवित्रता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि पत्रकारों का न्यूनतम वेतन कालेज प्राध्यापकों के बराबर होना चाहिए, ताकि अच्छे व सुशिक्षित लोग इस पेशे में आ सकें. लेकिन पिछले दिनों जब प्रेस परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू को कहना पड़ा कि इस पेशे के लिए भी योग्यता तय होनी चाहिए, (क्योंकि ज्यादातर पत्रकारों को वे अशिक्षित मानते थे) तो लगा था कि इसमें गलत क्या है! यही वजह है कि अब किसी पत्रकार को पिटता हुआ देख कर कोई बचाने नहीं आता. यह स्थिति लगातार बिगडती जा रही है. बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही है. जबकि यही हिन्दी पत्रकारिता की आधारभूमि है. इसे बचाया जाना चाहिए. पत्रकारिता को अपनी भूमिका से नहीं भटकना चाहिए.