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बुधवार, 15 अगस्त 2012

तबाही लाने वाला यह कैसा ‘विकास’?

आपदा/ गोविंद सिंह
अब तो हर बरसात उत्तराखंड के लिए तबाही लेकर आने लगी है. बरसात का मतलब ही होता है बड़े पैमाने पर भू-स्खलन, आसमान फटना, बाढ़, तबाही और जान-माल की भारी हानि. पहले भी कुछ हद तक ऐसा होता था लेकिन तब पहाड़ों में गतिविधियां सीमित थीं, प्रकृति का व्यवहार भी आज की तरह अप्रत्याशित नहीं था, इसलिए नुकसान अपेक्षाकृत कम होता था. चूंकि अब स्थितियां बदल चुकी हैं, प्रकृति के प्रति हमारा व्यवहार और बदले में प्रकृति की चाल भी बिगड़ चुकी है, इसलिए अब नुकसान ही नुकसान है. विनाश ही विनाश. इस बार भी ऐसा ही हुआ. यों तो उत्तराखंड के लगभग हर इलाके में बरसात का कहर बरपा है, लेकिन इस बार उत्तरकाशी इस प्राकृतिक प्रकोप का निशाना बनी है.
चार अगस्त की सुबह असी गंगा क्षेत्र के आसमान में ऐसा बादल फटा कि देखते ही देखते गाँव के गाँव बह गए. असी गंगा परियोजना में लगे मजदूरों का कोई अता-पता नहीं. सरकारी आंकड़े तो तीन दर्जन लोगों की मौत की ही पुष्टि कर रहे हैं, लेकिन वास्तविक आंकड़े कहीं ज्यादा बताए जाते हैं. कुल ५०० करोड रुपये की हानि बतायी जा रही है. उससे भी दुखद यह है कि विनाश के बाद पुनर्वास और राहत की गति कहीं धीमी है. राहत को लेकर हमारे व्यवस्था में एक अजीब सी संवेदनहीनता दिखाई पड़ती है. ऊपर से आपदा राहत को लेकर एक नयी राजनीति शुरू हो गयी है. जाहिर है इस धनराशि पर अनेक लोगों की नजरें लगी हुई हैं. पिछले कुछ वर्षों से हम यही देख रहे हैं. १८ अगस्त १९९८ को पिथौरागढ़ के मालपा में आये भीषण भू-स्खलन में ६० कैलाश यात्रियों सहित १८० लोग ज़िंदा दफ़न हो गए थे. नौ अगस्त २००९ को पिथौरागढ़ के ही नाचनी इलाके में बादल फटने से तीन गाँव साफ़ हो गए थे और पूरे इलाके में भयंकर तबाही मची थी. १८ अगस्त, २०१० को बागेश्वर जिले के कपकोट इलाके में बादल फटने से ६० लोग मारे गए और एक स्कूल बच्चों सहित जमींदोज हो गया था. उसी वर्ष १८ सितम्बर को अल्मोड़ा जिले के कोसी नदी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ ने पूरे इलाके में जबरदस्त तबाही मचाई थी. ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जो बताती हैं कि साल-दर साल लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं, फिर भी हम नहीं चेत रहे हैं. हर बार राहत और पुनर्वास में लूट-खसोट की एक जैसी खबरें सुनायी पड़ती हैं.   
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? हालांकि पूरी हिमालय पट्टी की कमोबेश यही कहानी है, लेकिन उत्तराखंड को इसका प्रकोप कुछ ज्यादा की झेलना पड़ रहा  है. यह एक जगजाहिर तथ्य है कि हिमालय दुनिया में सबसे कम उम्र की पर्वत श्रृंखला है, आज भी हर वर्ष पांच मिलीमीटर की गति से इसकी ऊंचाई बढ़ रही है. यही नहीं इसके नींचे धरती की प्लेटें भी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं. भू-गर्भीय हलचल के लिहाज से भी यह सबसे सक्रिय पर्वतमाला है. इसलिए यहाँ कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है. यह उसी तरह से नाजुक पर्वत श्रेणी है, जैसे वनस्पतियों में छुई-मुई. नाजुक पर्वत मला होने के नाते उसके प्रति हमारा व्यवहार भी उतना ही संवेदनशील होना चाहिए था, लेकिन हो इसके उलट रहा है. हमारी विकास नीतियां हिमालय के अनुरूप हैं ही नहीं. वे सब एक तरह से आ बैल, मुझे मार की तर्ज पर बनी हैं.
हाल के वर्षों में उत्तराखंड में सड़कों का जबरदस्त जाल बिछाया गया है. लेकिन उसके पीछे कोई योजना नहीं होती. जमीन जैसी है, सड़क कहाँ से होकर ले जाई जाए, इसको लेकर अब कोइ चिंतन नहीं होता. कभी किसी भूगर्भशास्त्री से सलाह नहीं ली जाती. यह शिकायत मेरी नहीं, मशहूर भूगर्भशास्त्री खड्ग सिंह वल्दिया की है. सडकें कच्ची जमीन या भू-स्खलन से गिरे मलबे के ऊपर बन रही हैं, जो आयी बरसात में गिर जाती हैं. सड़कों के किनारे बेतहाशा निर्माण कार्य हो रहे हैं. कई बार ऐसे गधेरों पर भी मकान बन जाते हैं, जहां से बरसाती पानी बहा करता था. यह पानी आगे चल कर भू-स्खलन का सबब बनता है. नई सड़कों पर पानी की निकासी का भी पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता. इंजिनीयर भी अब पानी की निकासी के लिए  अनिवार्यतः जगह नहीं छोड़ते. वे आसानी से ठेकेदारों और नेताओं के दबाव में आ जाते हैं. लोगों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए नदियों के कूल-किनारों तक को नहीं छोड़ा. वहाँ भी होटल बना लिए हैं. दो वर्ष पहले कोसी में आयी बाढ़ ऐसे बने होटलों को भी अपने साथ बहा ले गयी थी. इस बार भी श्रीनगर में नदी का पानी एकदम सड़क में आ गया. और उत्तरकाशी जिले में भी नदियों के किनारे बने घर पूरी तरह से चपेट में आ गए हैं. नदियों पर बिजली परियोजनाएं, बड़े-बड़े बाँध सचमुच हमारे लिए खतरे की घंटी की तरह हैं. कोइ नहीं जानता कि कल क्या होने वाला है? इस बार की त्रासदी के लिए भी परियोजनाओं को दोषी ठहराया जा रहा है, क्योंकि असी गंगा पर तीन परियोजनाएं बन रही थीं. बादल फटने के अलावा इन बांधों का पानी भी बाढ़ में आ गया था. लेकिन हमारे योजनाकार और सरकारें अभी चेती नहीं हैं.  
इससे भी खतरनाक बात यह है कि हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी को हमारा विकास-माडल बुरी तरह से नुकसान पहुंचा रहा है. पहाड़ों में ट्राफिक और भारी  वाहनों का ट्राफिक इतना बढ़ गया है कि प्रकृति को ख़तरा पैदा हो गया है. जलवायु परिवर्तन के कारण यह नाजुक पारिस्थितिकी सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है. जलवायु विज्ञानी चेता रहे हैं कि आने वाले वर्षों में पहाड़ों में बारिश की प्रकृति बदलने वाली है. वह अलग-अलग हलकों में अलग-अलग मात्र में होगी. समां बारिश के दिन अब लड़ गए. यह भी संभव है, जैसा कि हो भी रहा है, किसी इलाके में भारी बारिश हो और बगल में सूखा पड़ा हो. बादल फटने की घटनाएं इसी का नतीजा हैं. इस बार भी ऐसा ही कहा जा रहा था. उत्तरकाशी की त्रासदी से पहले पहाड़ों में कहीं कहीं तो एकदम सूखे जैसी स्थिति रही है. पर्यावरण का विनाश इसका दूसरा पक्ष है. हमारे जंगल बर्बाद हो रहे हैं. उनका स्वरुप बिगड़ रहा है. पारंपरिक वनस्पतियां खत्म हो रही हैं, नयी और व्यापारिक मुनाफे वाले पेड़ बढ़ रहे हैं. चीड़ ऐसा ही पेड़ है. जंगल की आग के कारण ऐसे पेड़ नहीं बचे जो भू-स्खलन की मार को रोक सकें. इसलिए थोड़ी भी हरकत होते ही सडकों पर बड़े-बड़े पत्थर लुढक आते हैं. कभी-कभी वाहनों के ऊपर भी गिर पड़ते हैं. हमारे तंत्र कहीं कोई तालमेल नजर नहीं आता. हम समस्या को जड़ों में नहीं, फूलों-पत्तियों में तलाशते हैं. इससे हमारा पर्यावरण खतरे है.
प्रो. वल्दिया जैसे भूगर्भशास्त्रियों को इस बात का भी दर्द है कि सरकार में कभी कोई उनसे पूछता तक नहीं. यदि किसी परियोजना को शुरू करने के लिए पर्यावरणीय सलाह लेने की वैधानिक जरूरत होती है, तभी भाड़े के वैज्ञानिकों से यह क्लीयरेंस ले ली जाती है. तबाही को कैसे रोका जाए, इसका ज्ञान है, लेकिन कोई  उसका उपयोग नहीं करता. इस ज्ञान का क्या लाभ जो राज्य के काम ना आये? ऐसा लगता है कि पूरा तंत्र ही जैसे किसी कठपुतली की तरह चल रहा है. कोइ बाहरी शक्ति है जो उसे चला रही है. पहाड़ी नदियों के तेज बहाव को देखते हुए कोइ भी कहेगा कि यहाँ बड़े बाँध नहीं बनाए जाने चाहिए. लेकिन हम हैं कि बनाए जा रहे हैं क्योंकि हमें विकास चाहिए. ऐसा विकास जो तबाही लेकर आये! ( दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में १४ अगस्त को प्रकाशित. साभार.)