- मेरे साले जगत मेहता ने फेसबुक के अपने और मेरे पेज पर दो पुराने फोटो चस्पां कर दिए, जिनमें मैं, मेरी पत्नी द्रौपदी और बेटा पुरु हैं. ये फोटो १९८८ में दार्जीलिंग के हैं. बहुत सारे मित्रों ने कहा यह बहुत अच्छा फोटो है. भाई अतीत हमेशा ही अच्छा लगता है, चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न रहा हो. खैर फोटोओं को देख कर मेरे दिमाग की रील घूमने लगी और मुझे लगा कि उस यात्रा की कहानी लिखी जाए. तो पेश है पूरी कहानी:अभी ठीक से याद नहीं आ रहा कि वह दिसंबर १९८७ था या दिसंबर १९८८. शायद ८८ ही रहा होगा. हम कलकत्ते में थे. जून १९८६ में नवभारत टाइम्स, मुंबई की नौकरी छोड़ कर मैं हिन्दी अफसर बनकर आईडीबीआई के पूर्वी क्षेत्रीय कार्यालय कलकत्ता चला गया था. बड़ी ठाट की नौकरी थी. बांसद्रोणी में सुन्दर मकान मिला हुआ था. हम दो और हमारा एक, साथ में मेरी ईजा. मुम्बई की भागम भाग की अखबारी नौकरी के बाद जैसे अचानक आराम की ऐय्याशी भरी नौकरी मिल गयी थी. फ्रीलांसिंग भी जारी थी. धर्मयुग, नभाटा, दिनमान, चौथी दुनिया और परिवर्तन जैसी पत्रिकाओं में लिखता और खुद को धन्य समझता.
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. तभी जिंदगी में एक तूफ़ान सा आया. एक दिन अचानक मेरी पत्नी ने बोलना बंद कर दिया. उसका मुंह ही नहीं खुल रहा था. बाईं तरफ का गाल फूल गया था. रोने लगी. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. डॉ मजूमदार के पास ले गया. वह बोले कि कुछ भी हो सकता है. दांत में कुछ इन्फेक्शन भी हो सकता है और मम्स भी हो सकते हैं. फिर बोले मम्स एक ही तरफ नहीं हो सकते. उन्होंने कुछ एंटीबायोटिक दी, बोले कल तक कुछ सूजन घट जायेगी, तब बात करेंगे. दूसरे दिन गए. तो बोले कुछ ख़तरा लगता है. फिर बोले डरिए नहीं, हमसे बड़े डॉ. हैं चक्रबर्ती, उनके पास जाइए. हम और डर गए. चक्रबर्ती के पास गए. उसने ढेर सारी दवाइयां लिख दी. और बोले ऑपरेशन होगा. बाएं जबड़े में सिस्ट है. मैंने पूछा, वह क्या होता है, डॉ. बोला, समझो कैंसर की तरह है. बीच-बीच में ढाढस भी देता. कोई बात नहीं, हम हैं तो. ऑपरेशन जल्दी करना होगा. चार हज़ार लगेगा. ( तब चार हज़ार बहुत होते थे.) मैं मन ही मन बहुत घबरा गया. शादी हुए अभी दो-तीन वर्ष ही हुए थे. बहुत बुरे-बुरे ख़याल आने लगे. लेकिन मैंने हिम्मत की, ऑपरेशन के लिए तैयार हो गया. दूसरे दिन एडमिट होना था.
मैं कभी कभी बिरला फाउन्डेशन जाया करता था. यह मेरे शेक्सपीयर सरणी वाले दफ्तर के नजदीक ही था. वहाँ से कुछ अनुवाद आदि का काम मिलता था. वहाँ एन्साक्लोपीडिया के संपादक पृथ्वीनाथ शास्त्री थे. बड़े विवादास्पद व्यक्ति थे लेकिन मुझे बहुत चाहते थे. उन्होंने मेरे चेहरे पर परेशानी के संकेत पढ़े. बोले क्या बात है? मैंने बता दिया. बोले, चिंता मत करो, यह मामूली बात है. हाँ, एक और डॉ हैं अपने मित्र, उनकी भी राय ले लो. वह मेडिकल कालेज में डेंटल विभाग के हेड हैं. कलकत्ता के सारे दांतों के डॉ. उनके चेले हैं. वह सही राय देंगे. उन्होंने कहा, मैं टाइम लेता हूँ, तुम अभी घर जा कर पत्नी को ले आओ और रिपोर्ट्स भी. उन्होंने फोन लगाया. डॉक्टर घर जा चुके थे. लेकिन उन्होंने घर पर ही बुलाया. बहुत दूर रहते थे. शायद साल्ट लेक की तरफ. शाम को उनके घर पहुंचे. अपनी भोलू (सिल्वर प्लस नामक मोपेड, जिसका नाम हमने भोलू रखा हुआ था.) पर सवार होकर. डॉ बहुत भले आदमी थे. उन्होंने मुंह देखा. कागज़ देखे. बोले, जो बीमारी पकड़ी है, वह सही है. स्कीम भी सही है. हाँ, पैसे कुछ ज्यादा बोले हैं. फिर बोले, वैसे चक्रबर्ती भी मेरा ही विद्यार्थी है, लेकिन मैं तुम्हें अपने सबसे अच्छे विद्यार्थी के पास भेजता हूँ. वह कलकत्ता का सबसे अच्छा डॉ. है. अरविन्द दत्त. उसके पास चले जाओ. यह पर्ची दे देना. इन्तजार कर लेना, लेकिन आज दिखा कर ही जाना. हम भोलू पर सवार हुए. साल्ट लेक से भवानीपुर के लिए चल दिए. रात आठ बजे डॉ के पास पहुंचे. पर्ची भिजवाई. सन्देश मिला कि बैठ जाइए. दस बजे तक नंबर नहीं आया. द्रौपदी को तो नींद ही आ गयी थी. जब सब लोग चले गए, डॉ. ने बुलाया. जबड़ा देखा. कागज़ देखे. बोला, ऑपरेशन परसों करेंगे. सैमरिटन क्लिनिक में.
ऐसा गंभीर डॉ. पहले कभी नहीं देखा था. हर शब्द तौल कर बोलता था. पर्ची पर शब्द नहीं, जैसे फूल लिख रहा हो. क्या कमाल की रायटिंग थी! ऑपेरशन के दिन हम सुबह ही पहुँच गए. मैं अकेला ही था. बेटे को पड़ोसियों के पास छोड़ आया था. द्रौपदी बहुत घबरा गयी थी. हरे वस्त्रों में लपेट कर ऑपरेशन थिएटर ले जाने लगे तो वह रोने लगी. घबराया तो मैं भी था, पर दिल थाम कर बैठा था. इतने में डॉ. आया. उसने धीरे से द्रौपदी से माथे पर हाथ फेरा तो उसका भय छूमंतर हो गया. डेढ़ घंटे ऑपरेशन चला. एक अन्य बैंक में हिन्दी अफसर विजय कुमार शर्मा मुझे ढाढस देने क्लिनिक पहुंचे. तब लगा परदेश में रहने का क्या मतलब होता है. मैंने दिल्ली अपनी ससुराल फोन लगाया. द्रौपदी की मदद के लिए वहाँ से मेरी साली शांति चली आयी, राजधानी में बैठकर. मेरी ससुराल वालों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे हमेशा मदद के लिए आ खड़े होते हैं. सेवा का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा है. सबसे बड़ी बेटी होने के नाते द्रौपदी से वे बेतहाशा प्यार करते हैं. तब पहली बार मुझे लगा कि नौकरी घर के आस-पास ही होनी चाहिए.
शान्ति आयी तो थी अपनी दीदी की मदद और दुर्गा पूजा देखने के लिए लेकिन हावडा स्टेशन पर उतरते ही उसे इतनी गरमी लगी कि घर पहुँचते-पहुँचते वह खुद ही बीमार पड़ गयी. डॉ. के पास ले गया. दवा भी बेअसर रही. एक हफ्ता पड़ी रही. सेवा करने आयी थी, सेवा ले रही थी. तब तक पूजा भी खत्म हो गयी. अंतिम दिनों कुछ पंडाल ही दिखा पाया.
दो हफ्ते बड़े तनाव में गुजरे. नवंबर का महीना जा रहा था. हमें लगा कि चलो कहीं घूम आया जाए. मन बदल जाएगा. तभी मैंने दार्जीलिंग का प्लान बनाया. यह सुनकर दोनों बहनें बहुत खुश हुईं. ईजा शायद उन दिनों पहाड़ गयी हुई थीं. मैंने एलटीसी लिया और दार्जिलिंग की तैयारी शुरू हुई. रेल से सिलीगुड़ी पहुंचे. फिर टॉय ट्रेन से दार्जीलिंग जाना चाहते थे, लेकिन उन दिनों गोरखालैंड आंदोलन के कारण ट्रेन बंद थी, लिहाजा बस से ही यह पहाड़ी यात्रा करनी पड़ी. दार्जीलिंग यात्रा और वह भी बिना टॉय ट्रेन के. मजा नहीं आया. मैं अपने कॉलेज के दिनों में ही इस ट्रेन की सैर कर चुका था. उसकी मनोरम यादें शेष थीं. खैर हम दार्जीलिंग पहुंचे. कोई होटल आदि बुक नहीं किया था. एक आदमी का पता था. लेकिन वह घर पर नहीं मिला. खुद ही होटल आदि के बारे में पूछा तो अनाप-शनाप किराया माँगने लगे. इतने तो अपनी जेब में थे भी नहीं. तभी अखबारों की एक दूकान दिखी. सोचा अपनी लाइन का आदमी है, शायद कुछ मदद करेगा. कुछ जान-पहचान लगाई. अपने लेखक होने की बात बताई. दुकानदार सयाना था. नाम था पदम दत्त शर्मा. बोले किस नाम से लिखते हैं. बोला, गोविंद खोलिया. (तब मैं सरकारी नौकरी में होने के कारण इसी नाम से लिखता था). वह बोले कि क्या कभी धर्मयुग में भी लिखा. मैंने कहा, हाँ. वह सज्जन तहखाने में गए और तीन-चार पत्रिकाएं ले आये. वे सब नेपाली में थीं. बोले, आपके लेख हमने अनुवाद करवाके रिप्रिंट किए हैं और जनता में बांटे हैं. ये सारी पत्रिकाएं भूमिगत हैं. आप तो हमारे समर्थक हैं. आपने हमारी बात को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया है, इसलिए हम आपके आभारी हैं. अब बताइए, हम आपकी क्या मदद करे?
मैं गदगद था. एक लेखक को और क्या चाहिए? पत्रकारिता का क्या असर होता है, यह मैंने उसी दिन जाना. मैंने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए. आप ज़रा मुझे एक कमरा दिला दीजिए. मैं बच्चों सहित दार्जीलिंग घूमने आया हूँ. बाक़ी बातें बाद में होंगी. उन्होंने एक लड़का भेजा. एक माध्यम दर्जे के होटल में एक बड़ा सा कमरा दिला दिया, बहुत ही सस्ते किराए में. शायद एक-तिहाई में. और हमने चार-पांच दिन बड़े आनंद से दार्जीलिंग भ्रमण किया. दोनों बहनों ने गोर्खाली लड़कियों की पोशाक पहन कर चाय की पत्तियां तोड़ते हुए फोटो खिंचवाईं. हमने टायगर हिल में सूर्योदय देखा. बेता पुरु तब दो-ढाई साल का था. ठण्ड से उसके होठ लाल हो गए. वह रोने लगा. लेकिन जैसे ही बाल सूर्य कंचनजंघा के ऊपर प्रकट हुआ, सारी ठण्ड दूर हो गयी. पुरु भी रोते-रोते अंगुली से कहने लगा, देखो- सूरज! एक दिन लोगों ने मुझे सुभाष घीसिंग से भी मिलवाया. तब उत्तरी बंगाल में उनकी तूती बोलती थी. उनके एक इशारे पर तूफ़ान मच जाता था. हम लोग घीसिंग के गाँव मिरिक भी गए. डीयर पार्क, एच एम आई, और भी कई जगहें देखीं. दार्जीलिंग की वह छाप मानस पटल से कभी नहीं मिटती. – गोविंद सिंह
गुरुवार, 9 मई 2013
कहानी दार्जीलिंग यात्रा की
रविवार, 5 मई 2013
अपने भीतर झांके प्रेस
प्रेस स्वाधीनता दिवस/ गोविंद सिंह
ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ रहे हैं, सभ्य हो रहे
हैं, प्रेस पर जकडबंदी बढ़ती जा रही है. यह जकडबंदी किसी एक कोने से नहीं बल्कि
समाज के चारों कोनों से हो रही है. कहते सब हैं कि प्रेस आज़ाद होनी चाहिए, लेकिन
जब बात अपने पर आती है तो कोई उसे आजादी नहीं देना चाहता. क्या राजनीति, क्या
उद्योग-व्यापार जगत, क्या सरकार, क्या समाज, हर कोई उसे अपनी जेब में रखना चाहता
है. पिछले साल यानी वर्ष २०१२ में ही कुल ७० पत्रकार दुनिया भर में मारे गए. जबकि
वर्ष १९९२ से अब तक ९८२ पत्रकार मारे गए हैं. १९६ देशों के मीडिया सर्वे में कहा
गया है कि दुनिया में ३५ फीसदी देश ही ऐसे हैं जहां प्रेस आज़ाद है. ३३ प्रतिशत
देशों में कामचलाऊ आजादी है जबकि ३२ प्रतिशत देशों में कोई आजादी नहीं है. हमारे देश की हालत भी बद से बदतर
होती जा रही है. रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स नामक संस्था द्वारा कराये गए १७९
देशों के सर्वे में हम १४०वें पायदान पर हैं. जबकि दो साल पहले हम १२२ वें स्थान
पर थे. यानी हमारे यहाँ प्रेस की आजादी लगातार क्षीण हो रही है. लेकिन यह केवल
हमारे देश की बात नहीं है, दुनिया के लगभग हर देश में प्रेस पर संकट है. हाँ, यह
जरूर है कि संकट के रूप अलग-अलग हैं. कहीं सरकारें ही उसे दबाने पर आमादा हैं तो
कहीं आतंकवादग्रस्त इलाकों में उन पर आतंकियों का दबाव है, कहीं फ़ौज उनके पीछे है
तो कहीं पुलिस या अन्य सुरक्षा बल. ये वे आंकड़े हैं, जो प्रकट हैं अर्थात दिखाई
देते हैं. यानी हिंसा-प्रतिहिंसाग्रस्त इलाकों के. अपने भीतर के दबाव के आंकड़े
नहीं मिल सकते.
जिन देशों में तानाशाही व्यवस्थाएं हैं, वहाँ
तो प्रेस की आजादी की बात करना ही निरर्थक है, लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक
व्यवस्थाएं हैं, वहाँ भी स्थितियां बदतर ही हो रही हैं. यूरोप के कुछ छोटे-छोटे
देशों को छोड़ दें, तो बाक़ी सभी देशों का हाल खराब ही है. यूरोपीय देशों की हालत भी
भलेही ऊपर से अच्छी दिखती हो, लेकिन सचाई यही है कि वहाँ प्रेस पर अलग किस्म के
दबाव हैं. अर्थात तानाशाही वाले देशों या संकटग्रस्त देशों में दमन साफ़-साफ़ दिखाई
पड़ता है तो पूंजीवादी और लोकतांत्रिक देशों में उसकी छाया ही दिखाई पड़ती है. यूरोप-अमेरिका
जैसे देशों की प्रेस आर्थिक मंदी जैसे संकटों से जूझ रही है. उसे अपना अस्तित्व बचाए
रखने के लिए अपने एजेंडे को ही बदलना पड़ रहा है. अपने बुनियादी उसूलों से ही
समझौता करना पड़ रहा है. वहाँ अखबारों को अपने नागरिकों की समस्याओं की बजाय उनकी बातों
को तवज्जो देनी पड़ रही है, जो इस अकाल वेला में विज्ञापन देकर उनका पेट भर सकें.
भारत
जैसे देशों में समस्या एकदम अलग है. हमारे यहाँ अभी संक्रमण का ही दौर चल रहा है. आर्थिक
सुधारों के बाद मीडिया का क्षेत्र अप्रत्याशित गति से बढ़ा है. अर्नेस्ट एंड यंग इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में मीडिया
की खपत लगातार बढ़ रही है. घरेलू मीडिया व मनोरंजन उद्योग वर्ष 2015 तक 25 अरब डालर से अधिक का हो
जाएगा जो 2010 में 16.3 अरब डालर था। सचमुच आज वह एक बड़े
उद्योग का रूप धारण कर चुका है. जिस रफ़्तार से वह बढ़ रहा है, उस अनुपात में वह पेशेवर
यानी संस्कारित नहीं हो पाया है. एक तरफ मिशनरी होने का पुरानी पीढ़ी का बोझ है तो दूसरी
तरफ व्यावसायिक बनकर धन भी कमाना है. यहाँ पत्र-स्वामियों या मीडिया घरानों की बड़ी
संख्या पहली या दूसरी पीढ़ी की है. नयी पीढ़ी के लिए मिशनरी मूल्यों का कोई अर्थ नहीं
रह गया है. इसी तरह हमारी राजनीति भी अभी परिपक्व नहीं हो पायी है. हालांकि
राजनेताओं की पिछली पीढ़ी पत्रकारिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर आज़ादी का आन्दोलन
लड़ रही थी, फिर भी अब के राजनेताओं में पत्रकारिता के उच्च मूल्यों के प्रति कोई
सम्मान नहीं दिखाई देता. दरअसल राजनीति के चरित्र में ही बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ
है तो क्या किया जा सकता है. हमने अपनी अर्थव्यवस्था को ग्लोबल तो कर दिया है, लेकिन
हमारे संस्कार अभी पुरातन ही हैं. हमारे यहाँ जो पूंजीवाद आया है, वह जनकल्याणकारी
पूंजीवाद नहीं है. उसे क्रोनी कैपिटलिज्म यानी लंगोटिया पूंजीवाद कहा जा रहा है.
अर्थात जो जनहित के लिए नहीं राजनेताओं- अफसरों के लंगोटिया दोस्तों को फायदा
पहुंचाने के लिए होता है. आर्थिक उदारीकरण का लाभ बहुत कम लोगों तक पहुंचा है. ऐसे
में प्रेस के मूल्य भी तेजी से बदल रहे हैं और उसके प्रति समाज की धारणा भी बदल
रही है. ज्यादातर राजनेता भी प्रेस को अपनी जेब में रखना चाहते हैं. सरकारें चाहती हैं कि प्रेस उसके प्रति दोस्ताना व्यवहार रखे. चूंकि अपने यहाँ अभी भी छोटे अखबार सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं, खासकर उन राज्यों में, जो औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए हैं, वहाँ निजी क्षेत्र के विज्ञापन नहीं मिल पाते. इसलिए अखबारों को पूरी तरह से सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. जाहिर है ऐसे राज्यों में अखबार खुल कर सरकारों की समीक्षा नहीं कर पाते. बिहार का उदाहरण सबके सामने हैं. प्रेस परिषद की टीम ने स्पष्ट कहा है कि वहाँ अघोषित सेंसरशिप लगी हुई है. छोटी जगहों पर तो समस्या और भी जटिल है. वहाँ नेता, अफसर और अपराधी सीधे-सीधे पत्रकार के सामने होते हैं. इसलिए परिस्थिति बेहद कठिन होती है. जिसके खिलाफ आप लिख रहे हैं, वह लिखने से पहले ही आपके हर शब्द पर नजर गडाए हुए है. आपको हर तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. प्रलोभन से नहीं माने तो दमन से मनाया जाता है. पत्रकार के पास क्या सुरक्षा है?
यह तो रहा बाहरी
दबाव. असली दबाव हमारे अपने भीतर का है. आनन्-फानन में उद्योग बन जाने के कारण
प्रेस के भीतर भी अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं. हम कहते हैं कि पत्रकारिता मिशन से
प्रोफेशन बन गयी है, यानी उसका पतन हो गया है. सवाल यह है आज कितने पत्रकार हैं जो
मिशनरी बनने को तैयार हैं? १९०९ में इलाहाबाद से छपने वाले अखबार ‘स्वराज्य’
द्वारा संपादक पद के लिए निकाला गया विज्ञापन देखने लायक है: ‘एक जौ की रोटी, और
एक प्याला पानी, यह शरहे-तनख्वाह (वेतन) है जिस पर स्वराज्य, इलाहाबाद के वास्ते
एडिटर मतलूब है. यह वह अखबार है, जिसके दो एडिटर बगावत आमेज मजामीन (विद्रोहात्मक
लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके हैं. अब तीसरा एडिटर मुहैया करने के लिए
जो इश्तिहार दिया जाता है, उसमें जो शरहे तनख्वाह जाहिर की गयी है, ऐसा एडिटर
दरकार है, जो अपने ऐशो-आराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी और एक प्याला पानी को
तरजीह दे.’ अर्थात ऐसी स्थिति के लिए आज कोई
भी पत्रकार तैयार नहीं होता. इसलिए आज के युग में सिर्फ मिशन के नारे से
काम नहीं चलेगा. अब सवाल यह है कि कम से कम पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से
क्या आज के पत्रकार या पत्र-स्वामी वाकिफ हैं?
आज़ादी से पहले प्रेस
का आकार छोटा था, उसने उद्योग का रूप धारण नहीं किया था. वही लोग इस पेशे में आते
थे, जो सचमुच पत्रकारीय मूल्यों के प्रति वफादार थे. आज ऐसा नहीं है. हर तरह के
लोग इस में घुस गए हैं. ऐसे मीडिया-स्वामी भी मैदान में आ गए हैं, जिनका
पत्रकारिता के प्रति कोई सरोकार नहीं है. पिछले साल हमने देखा कि एक बहुचर्चित
घराने के शीर्ष संपादकों को जेल जाना पड़ा. यदि वे सचमुच पत्रकारीय मूल्यों की
रक्षा के लिए जेल गए होते तो सारा मीडिया और समाज उनके पीछे खड़ा हो जाता. लेकिन
ऐसा नहीं हुआ. इसी तरह ऐसे ब्लैकमेलर, लौबीइंग करने वाले पत्रकारों की फ़ौज खड़ी हो
गयी है, जो प्रेस के बारे में बनी पुरानी धारणा को खंडित कर रहे हैं. नीरा रादिया
का उदाहरण सबके सामने है. जो शीर्ष स्तर पर पत्रकारों को मैनेज कर रहीं थीं. प्रेस
ज़रा भी आँखें दिखाने लगी कि क्या राजनीति, क्या सरकार, क्या ब्यूरोक्रेसी या
उद्योग जगत, हर कहीं प्रेस को मैनेज करने की बात होती है. जिसकी कोई औकात नहीं, वह
भी प्रेस को मैनेज करता-फिरता है. इंटरनेट नया माध्यम है. उसके माध्यम से होने
वाली पत्रकारिता को लेकर क़ानून अभी लचीले हैं. जिसका फायदा उठाकर लोग पत्रकारीय
नैतिकता की धज्जियां उड़ा रहे हैं. ऐसी स्थिति में यदि सरकार इनके खिलाफ कदम उठाने
की बात करती है तो क्या बुरा है? यानी खतरा हमारे भीतर है. हमारी पत्रकारिता एक
तरह से खुद पर हमले का न्योता दे रही है. कल तक जो जनता पत्रकारिता के पक्ष में
खड़ी नजर आती थी, वही आज क्यों उसकी बुराई करने लगी है? पत्रकारिता से आजिज आकर ही
लोग फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया की तरफ भाग रहे हैं. इसलिए पत्रकार साथियों
को चाहिए कि वे सोचें कि कि कल तक जो जनता उसके पीछे खड़ी रहती थी, आज क्यों वही
उसके पीछे पड़ गयी है? हमें सचमुच अपनी आजादी की रक्षा खुद करनी होगी. (
हिन्दुस्तान दैनिक में तीन मई, २०१३ को
प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप.)
शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013
सावधान! आगे नरक है
अंधेर नगरी/ गोविंद सिंह
यदि आपके मन में कभी यह सवाल उठता हो कि नरक
कैसा होता होगा तो कृपया एक बार सड़क मार्ग से रामपुर- बिलासपुर होते हुए नैनीताल
आइए. बिलासपुर से रुद्रपुर की दूरी महज १८ किलोमीटर है. यदि रेल से आयें तो यह
दूरी दस मिनट में कवर होती है और बस के हिसाब से १६ मिनट का फासला बैठता है. लेकिन
आप यह दूरी एक घंटे से पहले कवर नहीं कर सकते. यदि जाम लग जाए तब भगवान का ही
भरोसा है.
बिलासपुर और रुद्रपुर के बीच सड़क हमेशा खराब
रही है. सरकार चाहे किसी की हो. पहले बहन जी की सरकार होती थी, तब भी सड़क खराब ही
होती थी. जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो लगा था कि शायद अब इस सड़क के दिन
बहुरेंगे. लेकिन अब हाल और भी बदतर हो गया है. पहले सड़क के बीच गड्ढे होते थे, अब
गड्ढों के बीच कहीं-कहीं सड़क तलाशनी पड़ती है. यही नहीं अब ये गड्ढे रामपुर तक फ़ैल
गए हैं. आश्चर्य की बात है कि बार्डर क्रास करते ही यानी उत्तराखंड में दाखिल होते
ही सड़क ठीक हो जाती है. हालांकि इधर उत्तराखंड में भी सडकों का हाल खराब हो चला
है, लेकिन रामपुर- रुद्रपुर रोड जैसा हाल तो कहीं भी नहीं होगा.
इसलिए यदि आप सड़क मार्ग से नैनीताल आ रहे हों
तो कृपया अपना इरादा बदल दीजिए. आपकी कमर तो घायल हो ही जायेगी, सड़क की दुर्दशा
देख आप झुंझला उठेंगे. आप अपना आपा भी खो सकते हैं. कृपया कभी भी किसी गर्भवती
महिला को इस मार्ग से मत भेजी. बहुत रिस्की है. मुंबई से मेरे पत्रकार मित्र अनिल
सिंह सपरिवार हल्द्वानी आये. उन्हें पता नहीं किसने दिल्ली से टैक्सी लेने की सलाह
दे डाली. बिलासपुर- रुद्रपुर रोड ने उन्हें बेहद सदमे की स्थिति में डाल दिया.
बोले एक तो सड़क पर इतने गड्ढे, ऊपर से मुंह चिढाते हुए नेताओं के बड़े-बड़े
होर्डिंग. किसी में होली की बधाई तो किसी में नवरात्र की बधाई. बोले, इन बेशर्मों
को थोड़ी भी शर्म नहीं आती, जो हमें बधाई दे रहे हैं. बेहतर होता कुछ काम करते. होर्डिंग
पर इतना पैसा खर्च करने की बजाय सड़क ठीक करवाने में अपनी ऊर्जा लगाते. यह बात समझ
में नहीं आती कि सड़क का इतना-सा टुकड़ा क्यों हर बार उपेक्षित रह जाता है? उत्तर
प्रदेश सरकार को समझना चाहिए कि यहाँ से गुजरने वाला यात्री, चाहे वह सामान्य
यात्री हो या पर्यटक, कैसी टीस अपने दिल पर लेकर जाता होगा?
मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि एक बार
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस मार्ग से अपने ससुराल-प्रदेश में आयें
तो वे इस नारकीय सड़क को देख खुद शर्मसार हो उठेंगे. हो सकता है कि अपने मुख्यमंत्री
होने पर ही वे ग्लानि से भर उठें. और इस्तीफा दे डालें.
गुरुवार, 21 मार्च 2013
संसद में भारतीय भाषाओं की एकता
भाषा की राजनीति/ गोविंद सिंह

सरकार द्वारा सिविल सेवा परीक्षा में किये जाने
वाले तथाकथित सुधारों को ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने के बाद जिस तरह से निगवेकर
साहब ने अपना विरोध दर्ज किया है, वह और भी चौंकाने वाला है. वे कहते हैं कि हमारा
मकसद ऐसे लोगों को सिविल सेवा में लाना था, जिनके पास संवाद कर सकने की बेहतर
योग्यता हो, जो अपने अफसरों से अच्छी अंग्रेजी में बात कर सकें. यानी जिस जनता की
सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया जा रहा है, वह जाए भाड़ में. अंग्रेज़ी के जरिये यह
वर्ग अपने वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है. जनता की भाषा की उसे क्या परवाह! जैसे
संवाद केवल अंग्रेज़ी में ही होता हो! निगवेकर कहते हैं, हम चाहते थे कि सिविल सेवा
में ‘वायब्रेंट’ उम्मीदवार आयें. उन्हें कौन समझाए कि ‘वायब्रेंट’ सिर्फ अंग्रेज़ी
बोलकर नहीं पैदा होते. एक और चौंकानेवाली बात वे यह कहते हैं कि हमने अंग्रेज़ी की
अनिवार्यता की बात नहीं कही थी. तो किसने कही? आपकी सिफारिशों में साफ़-साफ़ कहा गया
है कि अंग्रेज़ी का 100 अंकों का एक पर्चा न
सिर्फ पास करना अनिवार्य होगा, बल्कि उसके अंक भी अंतिम मेरिट में जुडेंगे. इसी पर
तो आपत्ति थी, वरना दसवीं स्तर की अंग्रेज़ी तो पहले भी पास करनी होती थी, बस उसके अंक
मेरिट में नहीं जुड़ते थे. निगवेकर साहब कहते हैं कि इधर के वर्षों में ऐसे लोग अधिकारी
बन रहे थे, जो एक पेज साफ़ हिन्दी या अंग्रेज़ी नहीं लिख पाते, इसलिए यह करना जरूरी
था. लेकिन 1993 में शुरू किया गया 200 अंक का निबंध का पर्चा फिर क्या घास छील रहा था? यदि एक पूरा पर्चा निबंध
लिखवाकर भी आप भाषा ज्ञान नहीं जांच सकते तो फिर इसमें उम्मीदवार नहीं, महाशय आप
गुनाहगार हैं. एक अजीब तर्क यह दिया जा रहा है कि हाल के वर्षों में लोग तकनीकी
विषयों की जगह भाषा को ले रहे थे. सच बात तो यह है कि केवल भाषाओं को ही नहीं, वे
हर उस विषय को ले रहे थे, जिसे आसानी से रटा जा सके, और जो अच्छे अंक दिला सके.
इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन आदि ऐसे ही विषय हैं, जो विज्ञान, इंजीनियरिंग और
चिकित्सा के विद्यार्थी ले रहे थे. फिर आपकी आरी सिर्फ भारतीय भाषाओं की गरदन पर
ही क्यों चली? शायद ऐसे सवालों के जवाब उनके पास नहीं होंगे क्योंकि उनके मन में
पहले ही एक मैकालेभक्त बैठा था.
इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में
अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका या किसी और विदेशी भाषा
का ज्ञान आज की जरूरत है. लेकिन सिर्फ इसी कारण से अपनी भाषाओं को डुबो देना कहाँ
की समझदारी है?
भारतीय नौकरशाही के सामंती चरित्र के कारण ही 1979 में डीएस कोठारी ने सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं को जगह दिलाई थी और
अंग्रेज़ी के वर्चस्व को तोड़ा था. उसी के बाद गाँव-देहात के, निर्धन तबकों के,
दबी-कुचली जातियों के लोग भी इस प्रभु वर्ग में शामिल होने लगे थे. धीरे-धीरे वे
अपने वर्गीय हितों की बात भी उठाने लगे हैं. हाल के वर्षों में आपने पढ़ा होगा कि
किस तरह से किसी रिक्शे वाले का बेटा, किसी जूते गांठने वाले का बेटा, किसी चौकीदार-चपरासी
का बेटा या बेटी, किसी छोटे दूकानदार का बेटा आईएएस बन गया है. हर साल 4-5 सौ ऐसे युवा भारतीय भाषाओं के जरिये इस प्रतिष्ठित सिविल सेवा में अपनी
पैठ बना रहे थे. ऐसा नहीं कि वे अंग्रेज़ी जानते ही नहीं थे. अपनी भाषा के साथ वे
अंग्रेज़ी भी कामकाजी स्तर की जानते थे. प्रभु वर्ग को असली दिक्कत इन्हीं लोगों से
थी कि धीरे-धीरे वे उनके बीच जगह बना रहे हैं. अभी तक वे अंग्रेज़ी के आवरण में
अपनी कमियों को छिपा लिया करते थे. अब यह काम मुश्किल हो रहा था. इसीलिए उन्होंने
एक झटके में भारतीय भाषाओं को रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया. वे तो कामयाब भी
हो गए थे. यह तो तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें थीं कि सरकार को झुकना पड़ा और
मसले को ठंडे बस्ते में डाला गया.
अब असली मसले पर आयें. समस्त भारतीय भाषाओं के
बीच अंग्रेजियत के विरुद्ध आज जो राजनीतिक सहमति बनी है, इसे अभूतपूर्व समझना
चाहिए. ऐसा आज़ादी के आंदोलन के दौरान भलेही हुआ हो, पर उसके बाद कभी नहीं हुआ.
इसलिए यह टेम्पो बना रहना चाहिए. प्रभु वर्ग यही चाहेगा कि भारतीय भाषाओं के बीच
फूट पड़ी रहे, और अंग्रेज़ी राज करती रहे. हिन्दी वाले यह न समझें कि यह क्षणिक जीत
उनकी वजह से हुई है. वास्तव में सरकार को क्षेत्रीय ताकतों के डर से अपने कदम पीछे
खींचने पड़े हैं. इसमें दक्षिण भारतीय नेताओं की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है.
इसलिए भविष्य में भी भारतीय भाषाओं की इस लड़ाई में उनकी सक्रियता बनी रहे, इसके
लिए हिन्दी वालों को विशेष प्रयास करना चाहिए.
(साभार: अमर उजाला, २० मार्च)
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