शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

सावधान! आगे नरक है

अंधेर नगरी/ गोविंद सिंह

यदि आपके मन में कभी यह सवाल उठता हो कि नरक कैसा होता होगा तो कृपया एक बार सड़क मार्ग से रामपुर- बिलासपुर होते हुए नैनीताल आइए. बिलासपुर से रुद्रपुर की दूरी महज १८ किलोमीटर है. यदि रेल से आयें तो यह दूरी दस मिनट में कवर होती है और बस के हिसाब से १६ मिनट का फासला बैठता है. लेकिन आप यह दूरी एक घंटे से पहले कवर नहीं कर सकते. यदि जाम लग जाए तब भगवान का ही भरोसा है.
बिलासपुर और रुद्रपुर के बीच सड़क हमेशा खराब रही है. सरकार चाहे किसी की हो. पहले बहन जी की सरकार होती थी, तब भी सड़क खराब ही होती थी. जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो लगा था कि शायद अब इस सड़क के दिन बहुरेंगे. लेकिन अब हाल और भी बदतर हो गया है. पहले सड़क के बीच गड्ढे होते थे, अब गड्ढों के बीच कहीं-कहीं सड़क तलाशनी पड़ती है. यही नहीं अब ये गड्ढे रामपुर तक फ़ैल गए हैं. आश्चर्य की बात है कि बार्डर क्रास करते ही यानी उत्तराखंड में दाखिल होते ही सड़क ठीक हो जाती है. हालांकि इधर उत्तराखंड में भी सडकों का हाल खराब हो चला है, लेकिन रामपुर- रुद्रपुर रोड जैसा हाल तो कहीं भी नहीं होगा.
इसलिए यदि आप सड़क मार्ग से नैनीताल आ रहे हों तो कृपया अपना इरादा बदल दीजिए. आपकी कमर तो घायल हो ही जायेगी, सड़क की दुर्दशा देख आप झुंझला उठेंगे. आप अपना आपा भी खो सकते हैं. कृपया कभी भी किसी गर्भवती महिला को इस मार्ग से मत भेजी. बहुत रिस्की है. मुंबई से मेरे पत्रकार मित्र अनिल सिंह सपरिवार हल्द्वानी आये. उन्हें पता नहीं किसने दिल्ली से टैक्सी लेने की सलाह दे डाली. बिलासपुर- रुद्रपुर रोड ने उन्हें बेहद सदमे की स्थिति में डाल दिया. बोले एक तो सड़क पर इतने गड्ढे, ऊपर से मुंह चिढाते हुए नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग. किसी में होली की बधाई तो किसी में नवरात्र की बधाई. बोले, इन बेशर्मों को थोड़ी भी शर्म नहीं आती, जो हमें बधाई दे रहे हैं. बेहतर होता कुछ काम करते. होर्डिंग पर इतना पैसा खर्च करने की बजाय सड़क ठीक करवाने में अपनी ऊर्जा लगाते. यह बात समझ में नहीं आती कि सड़क का इतना-सा टुकड़ा क्यों हर बार उपेक्षित रह जाता है? उत्तर प्रदेश सरकार को समझना चाहिए कि यहाँ से गुजरने वाला यात्री, चाहे वह सामान्य यात्री हो या पर्यटक, कैसी टीस अपने दिल पर लेकर जाता होगा?
मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस मार्ग से अपने ससुराल-प्रदेश में आयें तो वे इस नारकीय सड़क को देख खुद शर्मसार हो उठेंगे. हो सकता है कि अपने मुख्यमंत्री होने पर ही वे ग्लानि से भर उठें. और इस्तीफा दे डालें.

गुरुवार, 21 मार्च 2013

संसद में भारतीय भाषाओं की एकता


भाषा की राजनीति/ गोविंद सिंह
दलीय सरहदों को लांघ कर संसद में भारतीय भाषाओं के पक्ष में विभिन्न राजनेताओं को बोलते देखना सचमुच सुखद आश्चर्य की तरह था. दक्षिण भारत के नेता अब तक हिन्दी के विरोध में तो बोलते थे, पर बदले में वे अकसर अंग्रेजी का समर्थन कर बैठते थे. लेकिन इस बार संघ लोक सेवा आयोग और प्रो. अरुण निगवेकर ने उन सब नेताओं को एक पाले में ला खड़ा कर दिया जो अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं और अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति चाहते हैं. हिन्दी वालों को अब तक यही लगता था कि जिस दिन हिन्दी राजनीतिक मुद्दा बन जायेगी, उस दिन सत्ता में उसका हक भी सुनिश्चित हो जाएगा. कहा जा सकता है कि इस बार उसकी थोड़ी-सी झलक मिली है. जिस तरह से तमाम भारतीय भाषाओं के पैरोकारों ने समवेत स्वर में अंग्रेजी की अनिवार्यता का विरोध किया, उसे एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए कि चलो हमारे राजनेताओं को देर से ही सही, हकीकत का एहसास हुआ और भविष्य में वे बिल्लियों के हिस्से की रोटी हड़पने वाले बन्दर को पहचान सकेंगे. साठ के दशक में शुरू हुए अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन की याद ताज़ा हो गयी. लेकिन यहीं ध्यान देने की बात यह भी है कि सरकार ने अभी इस मसले को पूरी तरह खारिज नहीं किया है, ठंडे बस्ते में ही डाला है. अंग्रेजी-परस्ती का विषधर कभी भी फन उठा सकता है. यानी लड़ाई अभी शुरू ही हुई है. उसे सिरे तक पहुंचाना आसान नहीं है.
सरकार द्वारा सिविल सेवा परीक्षा में किये जाने वाले तथाकथित सुधारों को ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने के बाद जिस तरह से निगवेकर साहब ने अपना विरोध दर्ज किया है, वह और भी चौंकाने वाला है. वे कहते हैं कि हमारा मकसद ऐसे लोगों को सिविल सेवा में लाना था, जिनके पास संवाद कर सकने की बेहतर योग्यता हो, जो अपने अफसरों से अच्छी अंग्रेजी में बात कर सकें. यानी जिस जनता की सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया जा रहा है, वह जाए भाड़ में. अंग्रेज़ी के जरिये यह वर्ग अपने वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है. जनता की भाषा की उसे क्या परवाह! जैसे संवाद केवल अंग्रेज़ी में ही होता हो! निगवेकर कहते हैं, हम चाहते थे कि सिविल सेवा में ‘वायब्रेंट’ उम्मीदवार आयें. उन्हें कौन समझाए कि ‘वायब्रेंट’ सिर्फ अंग्रेज़ी बोलकर नहीं पैदा होते. एक और चौंकानेवाली बात वे यह कहते हैं कि हमने अंग्रेज़ी की अनिवार्यता की बात नहीं कही थी. तो किसने कही? आपकी सिफारिशों में साफ़-साफ़ कहा गया है कि अंग्रेज़ी का 100 अंकों का एक पर्चा न सिर्फ पास करना अनिवार्य होगा, बल्कि उसके अंक भी अंतिम मेरिट में जुडेंगे. इसी पर तो आपत्ति थी, वरना दसवीं स्तर की अंग्रेज़ी तो पहले भी पास करनी होती थी, बस उसके अंक मेरिट में नहीं जुड़ते थे. निगवेकर साहब कहते हैं कि इधर के वर्षों में ऐसे लोग अधिकारी बन रहे थे, जो एक पेज साफ़ हिन्दी या अंग्रेज़ी नहीं लिख पाते, इसलिए यह करना जरूरी था. लेकिन 1993 में शुरू किया गया 200 अंक का निबंध का पर्चा फिर क्या घास छील रहा था? यदि एक पूरा पर्चा निबंध लिखवाकर भी आप भाषा ज्ञान नहीं जांच सकते तो फिर इसमें उम्मीदवार नहीं, महाशय आप गुनाहगार हैं. एक अजीब तर्क यह दिया जा रहा है कि हाल के वर्षों में लोग तकनीकी विषयों की जगह भाषा को ले रहे थे. सच बात तो यह है कि केवल भाषाओं को ही नहीं, वे हर उस विषय को ले रहे थे, जिसे आसानी से रटा जा सके, और जो अच्छे अंक दिला सके. इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन आदि ऐसे ही विषय हैं, जो विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा के विद्यार्थी ले रहे थे. फिर आपकी आरी सिर्फ भारतीय भाषाओं की गरदन पर ही क्यों चली? शायद ऐसे सवालों के जवाब उनके पास नहीं होंगे क्योंकि उनके मन में पहले ही एक मैकालेभक्त बैठा था.
इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका या किसी और विदेशी भाषा का ज्ञान आज की जरूरत है. लेकिन सिर्फ इसी कारण से अपनी भाषाओं को डुबो देना कहाँ की समझदारी है?
भारतीय नौकरशाही के सामंती चरित्र के कारण ही 1979 में डीएस कोठारी ने सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं को जगह दिलाई थी और अंग्रेज़ी के वर्चस्व को तोड़ा था. उसी के बाद गाँव-देहात के, निर्धन तबकों के, दबी-कुचली जातियों के लोग भी इस प्रभु वर्ग में शामिल होने लगे थे. धीरे-धीरे वे अपने वर्गीय हितों की बात भी उठाने लगे हैं. हाल के वर्षों में आपने पढ़ा होगा कि किस तरह से किसी रिक्शे वाले का बेटा, किसी जूते गांठने वाले का बेटा, किसी चौकीदार-चपरासी का बेटा या बेटी, किसी छोटे दूकानदार का बेटा आईएएस बन गया है. हर साल 4-5 सौ ऐसे युवा भारतीय भाषाओं के जरिये इस प्रतिष्ठित सिविल सेवा में अपनी पैठ बना रहे थे. ऐसा नहीं कि वे अंग्रेज़ी जानते ही नहीं थे. अपनी भाषा के साथ वे अंग्रेज़ी भी कामकाजी स्तर की जानते थे. प्रभु वर्ग को असली दिक्कत इन्हीं लोगों से थी कि धीरे-धीरे वे उनके बीच जगह बना रहे हैं. अभी तक वे अंग्रेज़ी के आवरण में अपनी कमियों को छिपा लिया करते थे. अब यह काम मुश्किल हो रहा था. इसीलिए उन्होंने एक झटके में भारतीय भाषाओं को रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया. वे तो कामयाब भी हो गए थे. यह तो तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें थीं कि सरकार को झुकना पड़ा और मसले को ठंडे बस्ते में डाला गया.
अब असली मसले पर आयें. समस्त भारतीय भाषाओं के बीच अंग्रेजियत के विरुद्ध आज जो राजनीतिक सहमति बनी है, इसे अभूतपूर्व समझना चाहिए. ऐसा आज़ादी के आंदोलन के दौरान भलेही हुआ हो, पर उसके बाद कभी नहीं हुआ. इसलिए यह टेम्पो बना रहना चाहिए. प्रभु वर्ग यही चाहेगा कि भारतीय भाषाओं के बीच फूट पड़ी रहे, और अंग्रेज़ी राज करती रहे. हिन्दी वाले यह न समझें कि यह क्षणिक जीत उनकी वजह से हुई है. वास्तव में सरकार को क्षेत्रीय ताकतों के डर से अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं. इसमें दक्षिण भारतीय नेताओं की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. इसलिए भविष्य में भी भारतीय भाषाओं की इस लड़ाई में उनकी सक्रियता बनी रहे, इसके लिए हिन्दी वालों को विशेष प्रयास करना चाहिए. 
(साभार: अमर उजाला, २० मार्च)

रविवार, 20 जनवरी 2013

गणतंत्र: ख़तरा बाहर से नहीं, भीतर से है


विमर्श/ गोविंद सिंह
अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा है, ‘भारत मानव जाति का अवलम्ब है, मानवीय आवाज की जन्मभूमि है, इतिहास की जननी है, महान गाथाओं की दादी है, परम्पराओं की परदादी है. भारत सचमुच मानव इतिहास की सबसे मूल्यवान चीजों का खजाना है.’ इतना सब होते हुए भी भारत स्वयं को विदेशी आक्रान्ताओं से बचा नहीं पाया और अंततः उसे दो शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा. और इन दो सौ वर्षों में हम एकदम पैदल हो गए. हमारे पास जो कुछ अच्छा था, श्रेयस्कर था, हमसे लूट लिया गया. दो सौ वर्षों के शासन में अंग्रेजों ने ऐसा आर्थिक कुचक्र चलाया कि हम सोने चिड़िया से भिखारी बन गए. हमारी आजादी की लड़ाई इसी कुचक्र के खिलाफ बगावत थी. और 1947 में आज़ाद होने के बाद हमने एक ऐसे गणतंत्र की नींव रखनी चाही जो टिकाऊ हो, जिसे कोई और पराई ताकत फिर से गुलाम न बना ले और जिसमें गण का महत्व सर्वोपरि हो.
आजादी के बाद हमने उन तमाम बुराइयों से लड़ाई लड़ी, जिनकी वजह से हम गुलाम हुए थे. 1952 में जब पहली बार देश में आम चुनाव हुए थे और देश की आम जनता को वयस्क मताधिकार इस्तेमाल करने का मौक़ा मिला था, तब इसे ‘इतिहास का सबसे बड़ा जुआ’ करार दिया गया था. लोगों को भरोसा ही नहीं था कि भारत जैसे देश में इस तरह की कवायद कामयाब हो सकती है. किसी भी नव-स्वतंत्र देश में ऐसी परिपक्वता नहीं देखी गयी थी. लेकिन वही चुनाव भारतीय लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद साबित हुआ. तब से अब तक 15 आम चुनाव हो चुके हैं, राज्यों में, शहरों में, स्थानीय निकायों, पंचायतों के सैकड़ों चुनाव हो चुके हैं, और हमारा लोकतंत्र तमाम झंझावातों से जूझते हुए आगे बढ़ता ही जा रहा है. हमारे आस-पास लगभग 100 देश आज़ाद हुए थे, उनमें से चीन, दक्षिण कोरिया और इजराइल को छोड़ दें तो बाक़ी के देश लोकतांत्रिक दृष्टि से हमसे बहुत पीछे हैं. ज्यादातर देश आपस में ही लड़-झगड कर मर-खप रहे हैं. पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश का हाल तो हम जानते ही हैं, अफ्रीकी देशों का हाल भी किसी से छिपा नहीं है. लेकिन भारत लगातार आगे बढ़ रहा है. दुनिया में यह कहने वाले विचारक कम नहीं हैं, जिनका मानना है कि यह सदी भारत की होगी. हमारी तमाम बुराइयों के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को अपने देश के युवाओं से कहना पड़ता है कि जाग जाओ, वरना बंगलूर आ जाएगा.
यह ठीक है कि हम कई मामलों में दुनिया के उन्नत देशों से बहुत पीछे हैं. हमारे यहाँ अमीरी-गरीबी की खाई काफी चौड़ी है, हमारे यहाँ आज भी बीस करोड लोगों के पास दिन भर में खर्च करने को बीस रुपये भी नहीं होते, अनपढों और पढ़े-लिखे अनपढों की तादात बढ़ती ही जा रही है, गाँव और शहर के बीच एक चौड़ी खाई है, जो न गांवों का विकास होने दे रही है और न ही शहरों को नियोजित होने दे रही. संसाधनों के वितरण में बहुत घालमेल हैं, लेकिन फिर भी देश बिना किसी खास बाधा के आगे बढ़ रहा है. एक तरफ अमर्त्य सेन कहते हैं, इस देश में एक साथ दो धाराएं दिखाई देती हैं. एक वे लोग हैं, जिनकी जीवन शैली कैलीफोर्निया के लोगों को भी मात दे दे. वहीं ऐसे लोग भी हैं, जो अफ्रीकी सब-सहारा के लोगों से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं. तो दूसरी तरफ ऐसे भी विचारक ( राम चंद्र गुहा) भी हैं, जो कहते हैं कि औद्योगीकरण के शुरुआती दौर में अक्सर विषमताएं आ ही जाती हैं. लेकिन जैसे-जैसे लोगों में जागरूकता आती जाती हैं, इस तरह की विषमता दूर होती जाती है. ब्रिटेन और अमेरिका भी इस दौर से गुजर चुके हैं. 
देखिए, गणतंत्र किसी एक की बपौती नहीं होती. यदि वह गण का तंत्र है तो उसे संभाल कर रखना भी गण का ही काम है. सरकारें तो आती-जाती रहती हैं. यदि गण ढाल बनकर खड़ा हो जाए तो ऐसे गणतंत्र को कोई  ताकत पराजित नहीं कर सकती. महर्षि अरविन्द ने कहा था कि ‘भारत को खतरा बाहर से नहीं अपने भीतर से है.’ इस भीतरी खतरे के ही कारण हम गुलाम हुए और इसी वजह से हम आज बांछित रफ़्तार से तरक्की नहीं कर पा रहे हैं. दरअसल गुलामी ने हमारी सोच को इतना कुंद बना दिया है कि हम हर कदम पर पर-निर्भर हो गए. अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में फैसले लेने में भी हमें संकोच होता है और हम पश्चिम की ओर देखते हैं. हमारा ज्ञान, हमारा विज्ञान तब तक पुष्ट नहीं होता जब तक कि पश्चिम की मोहर नहीं लग जाती. इसके लिए कौन दोषी है? हमारे पड़ोस में आतंकवादी रहता है, हम पुलिस को नहीं बताते, हमारे सामने कोई दुर्घटना होती है, हम मदद के लिए आगे नहीं आते. हम भ्रष्टाचार से आहत रहते हैं लेकिन खुद की सुविधा के लिए रिश्वत देने में संकोच नहीं करते. हमने भ्रष्टाचार का जनतंत्रीकरण कर दिया है. गुलामी ने हमें हर काम के लिए परमुखापेक्षी बना दिया है. पहले हम अपने गाँव का रास्ता खुद बना लिया करते थे, अब उसके लिए सरकारी योजना की बात जोहते रहते हैं. हम अपने राजनेताओं को कोसते रहते हैं लेकिन मतदान के वक्त हमारे विवेक पर पर्दा पड़ जाता है और हमें अपनी जाति-बिरादरी, धर्म और जान-पहचान वाले में ही सब गुण नज़र आते हैं. यानी जो कुछ इस गणतंत्र में स्याह है, उसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं. सच बात यह है कि हमें अभी स्वायत्त गण की तरह व्यवहार करना ही नहीं आया है. गणतंत्र ने हमें स्वाभिमान का दर्जा दिया है. इस गणतंत्र पर हम आत्मालोचन करें कि कि हमने इसे क्या दिया? परमुखापेक्षी होना स्वाभिमान का लक्षण नहीं है. इस गणतंत्र पर हम सचमुच स्वाभिमानी बनें, यही कामना है. ( दैनिक जागरण, २० जनवरी, २०१३ से साभार) 

शनिवार, 19 जनवरी 2013

फीस नहीं, गुणवत्ता बढ़ाइए

शिक्षा/ गोविंद सिंह

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के बाद भारतीय प्रबंध संस्थानों ने भी अपनी फीस बढाने की घोषणा कर दी है. जहां प्रौद्योगिकी संस्थानों ने वार्षिक फीस 50 हज़ार से 90 हज़ार कर दी है, वहीं प्रबंध संस्थानों ने भी 2009 की तुलना में तीन गुनी अर्थात 5 लाख से 15 लाख कर दी है. और यह तब है, जब कि ये संस्थान सरकारी हैं. यह सब इसलिए है क्योंकि सरकार इन संस्थानों पर यह दबाव डाल रही है कि वे अपने संसाधन स्वयं जुटाएं. इस तरह देश के इन श्रेष्ठ और अभिजात्य संस्थानों के दरवाजे आम आदमी के लिए लगभग बंद हो गए हैं. गरीब की तो बात ही छोडिए, आम मध्यवर्गीय भी इतनी रकम आखिर लाये तो लाये कहाँ से? कहने को आप कह सकते हैं कि बैंक से ऋण ले लीजिए, लेकिन ऋण की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम आदमी उनके पास तक फटकना नहीं चाहता. साथ ही ऋण का भुगतान भी आसान नहीं है.
एक ज़माना था, जब देश में छः प्रौद्योगिकी संस्थान और तीन प्रबंध संस्थान थे. उनका अपना रूतबा था. दुनिया के श्रेष्ठ संस्थानों में उनकी गणना होती थी. देश भर से अत्यंत मेधावी छात्र इनमें दाखिला लेते थे. दाखिले की पहली और अंतिम शर्त मेधावी होना ही हुआ करती थी. फीस की कोई दीवार इन विद्यार्थियों को रोक नहीं पाती थी. और दुनिया भर के श्रेष्ठ प्रतिष्ठानों के दरवाजे इन विद्यार्थियों के लिए खुले रहते थे. इस तरह भारत के शैक्षिक परिदृश्य में प्रौद्योगिकी और प्रबंध संस्थानों का अपना महत्व था. हमारे पास दुनिया को दिखाने के लिए इनके अलावा था ही क्या? इसी से इनकी ब्रांड वैल्यू बनी.
1991 के बाद आयी नयी आर्थिक आंधी ने इसी ब्रांड वैल्यू को भुनाया. सरकार के नीति निर्धारकों के लिए इससे अच्छा मौक़ा और क्या हो सकता था. लिहाजा उन्होंने सोचा कि इन्हें इतना महँगा कर दो कि आम आदमी इनके दरवाजों तक ही ना पहुँच पाए. आज इन संस्थानों में कौन दाखिला ले पाता है? ताज़ा नतीजे बताते हैं कि सबसे ज्यादा छात्र आइआईटी से निकले हुए हैं. वे ही टॉपर हैं. उसके बाद उन छात्रों का नम्बर आता है जो इसके लिए जमकर तैयारी करते हैं यानी कोचिंग लेते हैं. और तैयारी में खूब पैसा बहाते हैं. यदि किसी तरह आप वहाँ तक पहुँच भी गए तो बढ़ी हुई फीस आपको बाहर का दरवाजा दिखा देती है. अर्थात यदि आप गरीब हैं तो आप का आईआईएम में पहुँच पाना मुश्किल है. फिर सरकार ने इनकी ब्रांड वैल्यू को देखते हुए इनकी संख्या बढ़ा कर 13 कर दी है और आईआईटी की संख्या 16 कर दी है. इन सबको अभी शिक्षा के बाज़ार में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी है. अपना लोहा मनवाना है.
सवाल उठता है कि आखिर फीस बढाने का क्या औचित्य है? इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि संस्थानों की ब्रांड वैल्यू बनाए रखने के लिए उनके खर्चे बहुत बढ़ गए हैं, लिहाजा ये खर्चे फीस से ही उगाहे जा सकते हैं. फिर सरकार भी लगातार हाथ पीछे खींच रही है. वह कहती है कि संस्थान अपने संसाधन खुद जुटाएं. दुर्भाग्य यह है कि इन संस्थानों को निजी क्षेत्र के साथ मिल कर संसाधन जुटाने का अनुभव नहीं है. विदेशों में भी फीस कम नहीं होती. अमेरिका के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रों को पढ़ाई के साथ किसी न किसी प्रोजेक्ट में काम मिल जाता है. स्नातकोत्तर स्तर के छात्रों को कुछ नहीं तो टीचिंग असिस्टेंसशिप मिल जाती है, जिससे वे अपना होस्टल सहित बहुत सा खर्च निकाल लेते हैं. भारत से जाने वाले ज्यादातर मध्यवर्गीय छात्र एक सेमेस्टर की फीस का जुगाड करके ही वहाँ जाते हैं, बाक़ी खुद अर्जित कर लेते हैं. लेकिन हमारे देश के विश्वविद्यालय या संस्थान अभी इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं. वे फीस लेना तो जानते हैं लेकिन विद्यार्थी की समस्या को नहीं समझते.
ब्रांड से जुड़ा दूसरा मुद्दा है यहाँ से निकलने वाले छात्रों को मिलने वाला पैकेज. चूंकि पैकेज ज्यादा होता है, इसलिए संस्थान चाहते हैं कि उन्हें भी अपना हिस्सा मिले. अच्छा पैकेज दिलाने के लिए उन्हें कम मशक्कत नहीं करनी पड़ती. उद्योग क्षेत्र से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ता है, नौकरी देने वालों की आवभगत करनी पड़ती है, सोफ्ट स्किल्स सिखाने पर बहुत ध्यान दिया जाता है, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के भ्रमण आयोजित किये जाते हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रबंधन की शिक्षा में शो बिज़ यानी दिखावेबाजी बहुत बढ़ गयी है. यानी उनका खर्चा काफी बढ़ गया है, जिसे वे विद्यार्थी की जेब से निकालना ही जानते हैं.
मुक्त मंडी की चकाचोंध में यह सब स्वाभाविक है. लेकिन हमारे नीति नियंताओं को यह तो सोचना ही चाहिए कि इससे देश में एक नयी वर्गीय खाई बन रही है. आईआईएम से निकलने वाले छात्र को एक करोड का पैकेज मिल रहा है, जबकि दूसरे-तीसरे दर्जे के संस्थानों से एमबीए किये हुए युवा दर-दर भटक रहे हैं. मैकिन्से की हालिया रिपोर्ट बताती है कि चार में से एक इंजिनीयरिंग किया हुआ युवक और दस में से एक बीए पास युवक ही नौकरी के लायक है. बाक़ी कहाँ जायेंगे? वर्गीय खाई इतनी चौड़ी हो गयी है कि एक ही प्रतिष्ठान में काम करने वाले दो कर्मचारियों के वेतन  में सैकड़ों गुना का अंतर है.
यह भी देखने की बात है कि ज्यादा पैकेज और फीस की वजह से समाज में इन पाठ्यक्रमों का एक छद्म हौव्वा बन जाता है. एमबीए वालों का पैकेज बढ़ा तो सब एमबीए की ही तरफ भागने लगते हैं. निजी क्षेत्र में उसकी अंधी दौड़ शुरू हो जाती है. जहां शिक्षा पर नहीं, शो बिज़ पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. इसलिए आज यह जरूरी हो गया है कि प्रबंध शिक्षा के कुल योगदान की समीक्षा होनी चाहिए. आखिर इतने खर्च के बाद देश और समाज को इनका योगदान क्या है? किस तरह की संस्कृति वे उद्योग जगत को दे रहे हैं? क्यों इंजीनियरिंग के छात्र, जिन पर सरकार पहले ही भारी-भरकर राशि खर्च कर चुकी होती है, वे अपने क्षेत्र में न जाकर प्रबंधन में जा रहे हैं? इसकी भरपाई कैसे होगी? उनके अनुसंधान का कितना इस्तेमाल उद्योग जगत कर रहा है? इसलिए फीस नहीं गुणवत्ता बढ़ाइए. गरीब और होनहार के लिए अपने कपाट बंद न कीजिए. ( हिन्दुस्तान, १९ जनवरी, २०१३ से साभार.)