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सोमवार, 24 नवंबर 2014

आस्था के डेरे किधर जा रहे हैं?

धर्म-दर्शन/ गोविन्द सिंह
सतलोक आश्रम के बाबा रामपाल ने कानून-व्यवस्था से बैर मोल लेकर अपने आप को तो डुबाया ही, पंजाब-हरियाणा के अन्य डेरों को लेकर भी संदेह के घेरे में ला खड़ा कर दिया है. यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट को दोनों राज्यों की सरकारों को ये आदेश देना पड़ा कि वे अपने यहाँ स्थित डेरों का जायजा लेकर एक मुकम्मल रिपोर्ट प्रस्तुत करें. अदालत भी यह देख रही है कि किस तरह से ये डेरे इन राज्यों के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहे हैं और अपने आप को राज्य से ऊपर साबित करने की एक नई किस्म की होड़ को जन्म दे रहे हैं. इससे पहले डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम सिंह को अम्बाला की अदालत में पेश करने में जिस तरह से पुलिस-प्रशासन को नाकों चने चबाने पड़े थे और उससे भी पहले २००९ में विएना में डेरा सचखंड के दो बाबाओं पर जानलेवा हमला और एक की हत्या के बाद पंजाब में जिस तरह हिंसक झड़पें हुई थीं, उनसे ये संकेत मिल रहे थे कि पंजाब में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है. इसलिए देश के इस उत्तर-पश्चिमी हिस्से की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालनी चाहिए.
दरअसल डेरे आज न सिर्फ पंजाब-हरियाणा, बल्कि समूचे उत्तर भारत की एक सचाई हैं. लगभग पूरे हिन्दी-पंजाबी भाषी समाज पर उनका गहरा असर है. यह ठीक है कि रामपाल या आसाराम बापू जैसे बाबाओं के कारण आज सारे ही डेरे-आश्रम या संत-बाबा कठघरे में आ गए हैं, लेकिन अपने शुरुआती चरण में उन्होंने समाज-जीवन को काफी हद तक प्रभावित भी किया है. वे समाज हित के अनेक काम करते हैं, दलितों, वंचितों और भटके हुओं के जीवन में आशा का संचार भी करते रहे हैं, इसीलिए उनके अनुयायी भी तेजी से बढ़ते हैं. वह बात अलग है कि प्रतिष्ठा के चरम पर पहुँचने के बाद अक्सर उनका पतन शुरू हो जाता है और उनका हश्र रामपाल सरीखा होता है. उत्तर भारत में आज सतलोक आश्रम के अतिरिक्त संत निरंकारी मंडल, डेरा सच्चा सौदा, राधा स्वामी सत्संग (ब्यास), डेरा सचखंड बल्लां, डेरा बाबा बुड्ढा दल, डेरा भानियारवाला, दिव्य ज्योति जागृति संस्थान जैसे बड़े डेरे हैं, जिनके अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है, तो हर गाँव, हर कसबे में छोटे-छोटे डेरे भी हैं, जिनकी अनुयायी-संख्या १० हजार से एक लाख के बीच है. पंजाब-हरियाणा में कुल दस हजार के आसपास डेरे अस्तित्व में आ चुके हैं. ये डेरे अब पंजाब-हरियाणा की सरहदें लांघ कर उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक पहुँच रहे हैं.     
उत्तर भारत में डेरों का इतिहास ५०० साल से भी पुराना है. डेरा का मतलब है एक तरह का अध्यात्मिक शिविर या अड्डा. शुरू में कोई एक संत या अध्यात्मिक नेता अपने कुछ अनुयायिओं के साथ डेरे की स्थापना करता है. दरअसल भारत में इस्लाम के आगमन के साथ डेरों का भी आगमन हुआ. पीरों-फकीरों ने सबसे पहले अपने डेरे बनाए. पश्चिमी पाकिस्तान में तो ये डेरे आज बड़े शहरों का आकार ले चुके हैं. अपने यहाँ देहरादून शहर भी कभी गुरु का डेरा ही था. असल में सिख पंथ का उद्भव भी एक डेरे के रूप में ही हुआ. सिख पंथ के साथ कुछ और डेरे भी जन्मे. उदासी डेरा, डेरा बाबा राम थमन, नामधारी और नानकसर. ये डेरे सचाई का पाठ पढ़ाते थे. उनका मकसद समतावादी समाज की रचना करना होता था. वे भटके हुए इंसान को बुराई से भलाई के मार्ग पर लाने की कोशिश करते थे. इनके संसर्ग में आने से बहुतों के घर रोशन हुए. बहुतों ने नशाखोरी छोडी, बहुतों ने बुराई का रास्ता छोड़ अच्छाई का रास्ता अपनाया. तिहाड़ जेल में कैदियों को अच्छी राह पर लाने का काम भी इन्होने किया. वे सरकार, राजनीति  और धार्मिक-सांस्कृतिक नेतृत्व की कमियों को पूरा करते हैं. वे गरीब जनता के हितों का बखूबी ध्यान रखते हैं. आपदा के समय उनके स्वयंसेवक मदद के लिए पहुँचते हैं. पंजाब-हरियाणा में ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय हिन्दू या अन्य धर्मों की संस्थाएं भी यह काम कर रही हैं. इसलिए हर डेरे को शक की निगाह से नहीं देखा जा सकता.
लेकिन पंजाब-हरियाणा में डेरों की समस्या कुछ अलग है. पंजाब में कुल १२००० गाँव हैं जबकि ९००० डेरे हैं. ये डेरे आम तौर पर सिख पंथ के समान्तर खड़े हुए हैं. इनमें से ज्यादातर डेरे दलित और पिछड़े वर्गों के हैं. हालांकि सिख पंथ की स्थापना ही जातिविहीन और समतावादी समाज बनाने के लिए हुई थी, लेकिन कालान्तर में यह जातिवाद वहाँ भी उठ खडा हुआ. चूंकि दलित और पिछड़ी जातियों को सिख पंथ में वह जगह नहीं मिल पायी, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी, इसलिए उन्होंने डेरे बनाने शुरू कर दिए, जहां उनकी अध्यात्मिक भूख शांत होती है. और देखते ही देखते ये लोकप्रिय भी होने लगे. हाशिए में पडी जमातों ने इन्हें सर आँखों पर बिठाना शुरू कर दिया. अब चूंकि सिख पंथ में गुरु ग्रन्थ साहिब के अतिरिक्त कोई और गुरु नहीं बन सकता, इसलिए जब दलित और पिछड़ी जातियों के संत या बाबा गुरु की तरह उपदेश देने लगते हैं तो तनाव पैदा होता है. चूंकि अब ये जमातें भी आर्थिक तौर पर काफी तरक्की कर रही हैं. इसलिए उन्हें दबाया नहीं जा सकता क्योंकि वे उद्योग-व्यापार में हैं, सरकारी नौकरियों में हैं. साथ ही शिक्षा प्राप्त कर जागरूक भी हो रही हैं. यहाँ भी बड़े पैमाने पर विदेश से धन आ रहा है. तनाव की असली वजह यही है.
लेकिन असली समस्या तब पैदा होती है जब डेरा-प्रमुख अपने को कानून-व्यवस्था से ऊपर समझने लगता है. चूंकि इनके पास अनुयायियों की बड़ी संख्या होती है, इसलिए राजनीतिक दलों को उनमें अपना वोट बैंक दिखाई पड़ता है. हर राजनीतिक दल के लोग, यहाँ तक कि अकाली दल भी, उनके दरवाजे पर हाजिरी बजाते हैं. डेरे के संचालक भी चूंकि अल्पसंख्यकवाद और एक तरह के भय से ग्रस्त रहते हैं, इसलिए बड़े नेताओं के आगमन को वे भी अपने अस्तित्व के लिए शुभ मानते हैं. चूंकि डेरा- प्रमुख कोई बहुत अध्यात्मिक पुरुष नहीं होते, इसलिए वे आसानी से नेताओं के प्रलोभन में आ जाते हैं, उनकी महत्वाकांक्षा जागने लगती है. राजनीतिक संरक्षण मिलते ही डेरे अपने रास्ते से भटकने लगते हैं. वे स्वयं को नियम-क़ानून से ऊपर मान बैठते हैं और वे तमाम काम करने लगते हैं, जिनकी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती. यों देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय संस्थाएं भी इसी तरह काम करती हैं, लेकिन पंजाब-हरियाणा में चूंकि आबादी की संरचना कुछ अलग है, इसलिए वहाँ तनाव की स्थिति बनी रहती है.
अर्थात डेरों का मसला काफी पेचीदा और नाजुक है. डेरे जरूर हों, क्योंकि उनका होना कहीं न कहीं समाज के लिए हितकारी  भी है, वे सरकार का हाथ बंटाते हैं, लेकिन उन्हें वोट बैंक के रूप में न देखा जाए. उनकी गतिविधियों पर सरकारों को सख्त निगरानी रखनी चाहिए ताकि वे पथभ्रष्ट न हों. ( हिन्दुस्तान, २५ नवम्बर, २०१४ से साभार)

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

गंगा: हमारी सभ्यता की जननी

धर्म-संस्कृति/ गोविन्द सिंह
सात-आठ साल पहले की बात है. एक कालेज में पत्रकारिता पढ़ाने हरिद्वार गया हुआ था. हालांकि इससे पहले भी दो-एक बार हरिद्वार जाना हुआ था लेकिन इस बार कुछ फुर्सत में था. मित्र जीतेन्द्र डबराल ने कहा, शाम हो रही है, चलिए गंगा आरती देख आयें. हम जब हरकी पैड़ी पहुंचे, शाम ढल चुकी थी और हल्का अन्धेरा पसरने लगा था. चारों तरफ लोगों का हुजूम उमड़ा पड़ा था. वे सब नहाए हुए-से लग रहे थे. साधू गण, पण्डे-पुजारी अपने-अपने मंदिरों के द्वार पर खड़े हाथ में मशालें, बड़े-बड़े दीये लिए हुए गंगा मैया की आरती गा रहे थे, मैया का आह्वान कर रहे थे. सब-कुछ एकदम अलौकिक था. मैं अवाक-सा, मंत्रमुग्ध-सा देख रहा था. फिर लोग छोटे-छोटे पूड़ों में रखे दीपक गंगा जी को अर्पित करने लगे. गंगा की धारा सचमुच तट पर स्थित मंदिरों की मशालों के प्रतिबिम्बों और दीपों की जगमग-जगमग से दमक उठी. मैं उन अनगिनत दीपों को बहते हुए तब तक देखता रहता, जब तक कि वे आँखों से ओझल नहीं हो गए! भावनाओं का एक अदम्य ज्वार उमड़ रहा था. हजारों साल की परम्परा जैसे अपने उद्दाम वेग के साथ उमड़ रही थी. मुझे लगा कि धर्म और आस्था ही है जो इस देश को बचा कर रख सकती है. खुद गंगा को लेकर भी मन में अनेक सवाल उठ रहे थे कि आखिर क्या है इस नदी में, जो पूरा देश आज भी इसे उतनी ही आस्था से पूजता है, जितना हजारों साल पहले. हमारी स्मृति जहां तक जाती है, गंगा वहाँ तक हमें पूजनीय दिखाई पड़ती है. क्यों वह हमारे संस्कारों में गहरे रची-बसी है. तमाम आधुनिकता, तमाम प्रगतिशीलता, तमाम तार्किकता के बावजूद उसके प्रति आस्था का सैलाब उमड़ता ही जाता है. वह केवल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का घोल नहीं, वह हमारे लिए मां है, देवी है, जीवन दायिनी है, पाप-नाशिनी है और है मोक्ष-दायिनी. आखिर कैसे उसे यह दर्जा मिल गया?
भलेही वह धरती पर भगीरथ के प्रयत्न से साठ हजार सगर पुत्रों की तारणहार बनकर उतरी हो, लेकिन यहीं की होकर रह गयी. चाहती तो वह अपना काम समाप्त कर लौट सकती थी या सरस्वती की तरह अपना कोई और रूप धर लेती, आखिर इस धरती से उसे क्या मोह था कि वह लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन देने यहाँ रुक गयी? क्या धरती से उसे भी मोह हो गया? क्या उसके स्वभाव में ही पालनहार का गुण समाहित है? क्या इसीलिए वह आज तक मानव जाति को पाल-पोस रही है? 
भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ। महाभारत में गंगा का महात्म्य अनेक स्थलों पर उपस्थित है. वन पर्व में गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक दिये हैं, जिनमें कहा गया है: " यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईंधन को जला देती है।...नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है. वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।"
अनुशासन पर्व कहता है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत और आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, महान हैं। जीवन के प्रथम भाग में जो पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है।
यह सब यों ही नहीं कहा गया. गंगा के उपकार इतने ज्यादा हैं कि शास्त्रों को ये बातें अपने भीतर दर्ज कर लेनी पड़ीं. भारत के ११ राज्यों की ५० से ज्यादा आबादी की सेवा-टहल करती है गंगा. गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर तक लगभग २५०० किलोमीटर लम्बी यात्रा में वह लोगों का जीवन संवारती है.
लेकिन हम भारत के लोग इतने कृतघ्न हैं कि उसके तमाम उपकारों को भूलकर उसे ख़त्म करने पर तुले हैं. रोज उसमें ३३ हजार ६४० लीटर गंदा पानी डालते हैं. पहले कहा जाता था कि हरिद्वार-ऋषिकेश के बाद गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है, वह पीने लायक नहीं रहा. तब कहा जता था कि पहाड़ों में गंगा जल में जीवाणुओं को मारने की ताकत मौजूद रहती है, जो मैदान में आते-आते ख़त्म होती जाती है. लेकिन अब पहाड़ों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि देव प्रयाग और रूद्र प्रयाग जैसे इलाकों में ही गंगा जल प्रदूषित होने लगा है. कानपुर-इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते उसमें भयंकर जीवाणु पैदा हो जाते हैं, जो मनुष्य के लिए जानलेवा होते हैं. जबकि गंगाजल को पंचामृत का एक अमृत माना जाता रहा है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश, बिहार, और बंगाल के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोग देश के किसी भी अन्य इलाके की तुलना में ज्यादा कैंसर-आशंकित हैं. लखनऊ के भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान का अध्ययन कहता है कि कानपुर में बिठूर से शुक्लागंज तक गंगा के पानी में डायरिया, खूनी पेचिश और टायफाइड जैसी बीमारियाँ पैदा करने वाले जीवाणु मौजूद हैं. गंगा एक्शन प्रोग्राम जैसे कार्यक्रमों के बावजूद गंगा की हालत दिन पर दिन खराब ही होती जा रही है. ऊपर से राजनीतिक दल जब चुनाव में वोट पाने के लिए गंगा यात्रा जैसे ढोंग करते हैं तो दुःख होता है. दरअसल हमारी राजनीति बुरी तरह से विकृत हो चुकी है. वह जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करती है. वोट पाने के लिए गंगा ही क्यों, वह किसी को भी भुना सकती है. गंगा का यह हाल न सिर्फ सेहत और प्रदूषण के लिए खतरनाक है, बल्कि भारत की हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता और संस्कृति के लिए भी ख़तरा है. (नैवेद्य, देहरादून, मार्च, २०१४ से) 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

धर्मगुरु का पतन कैसे हुआ

धर्म/ गोविन्द सिंह
एक ज़माना था जब धर्मगुरुओं ने हमें विश्व भर में प्रतिष्ठा दिलाई थी. लेकिन हाल के वर्षों में उन्होंने हमें बहुत लज्जित किया है. लगातार एक के बाद एक ऐसे किस्से सामने आये हैं, जिनके बारे में सुनते ही उबकाई आने लगती है. हम यह नहीं कहते कि सभी धर्मगुरु एक से हैं या जो आरोप उन पर लगे हैं, वे सही ही हैं. वह सब साबित करना क़ानून का काम है, लेकिन जिस तरह से धर्मगुरुओं की बाढ़ आ गयी है और जिस तरह की पंचतारा कम्पनियां उन्होंने खोल ली हैं, ये बहुत अच्छा संकेत नहीं हैं. वे लगातार धन-संचय, व्यापार और ऐय्याशी के आरोपों से घिरते जा रहे हैं. धर्मगुरुओं के ज्यादातर संगठन अवैध कारोबार के अड्डे बनते जा रहे हैं. समाज में धर्म का प्रचार-प्रसार हो, यह अच्छी बात है लेकिन धर्म के नाम पर कुछ लोगों का व्यापार देखते ही देखते अरबों का हो जाए, और उनकी ऐय्याशी के चर्चे समाज में हर आम-ओ-ख़ास की जुबां पर आ जाएँ, इससे बुरी बात और क्या हो सकती है? इससे तो धर्म की हानि ही होगी.
यह सोचने की बात है कि समाज में अचानक यह धर्म की बाढ़ कैसे आ गयी? यही वह बिंदु है, जहां इस बीमारी का मूल कारण छिपा है. आजादी के बाद हमारे समाज-जीवन से वास्तविक धर्म धीरे-धीरे गायब होता गया है. जो जीवन शैली हमने अपना ली है, उसमें धन की, भौतिक समृद्धि की तो पर्याप्त जगह है, लेकिन जिन कारणों से हमारा समाज जाना जाता था, वे सब लुप्त होते गए. त्याग और सादगी हमारी मुख्य पहचान थी, उन्हें हमने भुला दिया. जीवन में से जैसे अध्यात्म गायब हो गया. धर्म और अध्यात्म हमारे कदम-कदम पर था. उनके बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकते थे. लेकिन अंग्रेज़ी शिक्षा ने वह सब हमसे छीन लिया. भारतीय जीवन मूल्य जैसे भुला दिए गए. किसी भी राष्ट्र के जीवन में संस्कार भरती है शिक्षा. और जब शिक्षा ही पराये अर्थात पश्चिम का गुणगान करने लगे तो भावी संतानें दोगली होनी ही थीं. हम आधुनिक और विज्ञान सम्मत शिक्षा के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हर बात के लिए पश्चिम की ओर मुंह ताकना कहाँ तक जायज है?अंग्रेजों ने समझा कि हमारे जाने के बाद भी हमारी शिक्षा बरकरार रहेगी. हमारे जीवन मूल्य सुरक्षित रहेंगे. हम चले जायेंगे लेकिन हमारे मानस-पुत्र राज करेंगे. बहुत हद तक यह हुआ भी है. लेकिन आप किसी भी सभ्यता को इतनी जल्दी समाप्त नहीं कर सकते. आप हमसे हमारा वर्तमान छीन सकते हैं, हमारे वर्तमान को अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. लेकिन हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता को नहीं मिटा सकते. हमारे इतिहास और परम्पराओं को हमसे नहीं छीन सकते. बिना हमसे छीने हमारे भूगोल को नहीं बदल सकते. इस प्रकार पिछले १५-२० वर्षों से, ख़ासकर विश्व फलक पर भारत के अभ्युदय के बाद दुनिया भर में भारत को जानने-समझने की ललक बढ़ी है. फिर हमने जिस तरह की समाज-व्यवस्था और अर्थनीति को अंगीकार किया है, जिस तरह का इंसान हम बना रहे हैं, उसने आग में घी डालने का काम किया. अर्थात पश्चिम आधारित हमारे विकास मॉडल ने जिस तरह की आपाधापी को जन्म दिया है, जिस तरह से शहरीकरण बढ़ रहा है, उसमें मनुष्य लगातार भीड़ में भी अकेला महसूस कर रहा है. वह धन के पीछे दौड़ रहा है. यह एक अंतहीन दौड़ है. ऐसे में जब आधुनिक मानव थक-हार कर बैठ जाता है, ‘सब कुछ’ प्राप्त कर लेने के बाद भी अतृप्त रह जाता है, तब उसे धर्म की याद आती है. अपनी जड़ों की ओर मुड़ने का मन होता है. आपको आश्चर्य होगा कि हमारे ज्यादातर साधु-सन्यासी भी अमेरिका जाकर ही तृप्त होते हैं. बिना अमेरिका का ठप्पा लगे उन्हें बड़ा धर्मगुरु नहीं मन जता. जो लोग धर्म-विरोधी, भारतीयता-विरोधी शिक्षा ग्रहण कर अमेरिका पहुँचते हैं, एक समय आता है, जब वे मोहभंग के शिकार बनते हैं. उन्हें रह-रह कर अपनी परम्पराएं याद आती हैं. अपने पूजा-विधान, कर्मकांड याद आते हैं. ऐसी अवस्था में जैसे ही कोई ‘संत’ चार शब्द संस्कृत के बोल देता है, उसे सर-आँखों पर बिठा लिया जाता है. यही वजह है की हर स्वामी अमेरिका से लौट कर ही अपना मठ बनाता है. यही हालत अब अपने देशवासियों की भी हो रही है. इसीलिए वे भी धर्म की ओर लौट रहे हैं. एकाकी परिवार में सुकून के पल खोजने वे अक्सर धर्मगुरुओं के पास जा पहुँचते हैं. यही नहीं कभी ज्योतिषियों के पास, कभी ओझे-सयानों के पास तो कभी तांत्रिकों के पास जा पहुँचते हैं. जब घर के गुरु उपलब्ध न हों तो बाहरी गुरुओं की तलाश ही होनी है. इस तरह हाल के वर्षों में गुरुओं की डिमांड बेतहाशा बड़ी है. जब धर्मगुरुओं की मांग बढ़ी तो आपूर्ति भी बढनी ही थी. वह बात अलग है कि मांग के अनुपात में प्रशिक्षित गुरुओं की आपूर्ति नहीं हो सकती थी. इतनी बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे ही नहीं. यही वजह है जो भी चालाक थे, वे इस पेशे में घुसने लगे. एक बार एक व्यक्ति दफ्तर में मिलने आये. उनका रंगरूप देखकर मैं हैरत में आ गया. युवावस्था में तो वह ऐसे न थे. वह तो निहायत बदमाशों की श्रेणी में आते थे. अब प्रौढावस्था में अचानक उन्हें गेरुए वस्त्र पहने, गले में रुद्राक्ष की माला लटकाए देख आश्चर्य हुआ. आखिर किसी व्यक्ति का इतना हृदय परिवर्तन कैसे हो सकता है? हमने पूछा कि काम कैसा चल रहा है. बोले बहुत अच्छा. ईश्वर-कृपा से किसी चीज की कमी नहीं. गाडी है, बँगला है, नौकर-चाकर हैं. राजनीतिक पहुँच है. क्या नहीं है? इस समृद्धि का राज खोलते हुए अंत में जाते-जाते बोल गए कि ‘राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे तीन शनि-मंदिर डाल लिए हैं’.     
तो मित्रो टीवी पर प्रवचन देते जो सैकड़ों धर्मगुरु दिखाई पड़ते हैं, उनमें से अधिकाँश ऐसे ही ‘गुरु’ हैं. उनके चोले को देखकर हमें गलतफहमी में नहीं आ जाना चाहिए. थोडा-सा भजन-कीर्तन कर लेने, गीता-रामायण के कुछ श्लोक-चौपाइयां रट लेने, प्रवचन के चार-छः शब्द सीख लेने, कुछ हास्य, कुछ सेक्स और कुछ लटके-झटके अपनाकर भक्त मंडली का मनोरंजन कर लेने भर से कोई संत नहीं बन सकता. इसलिए सावधान होकर चुनिए अपना गुरु. बेहतर तो यह होगा की अपने अंतर के गुरु को पहचानिए. बाह्य गुरु इतनी आसानी से नहीं मिला करते. (नैवेद्य, देहरादून, दिसम्बर २०१३ में प्रकाशित)