शनिवार, 2 जून 2012

लोकतंत्र में यह कैसी दास प्रथा!


 नागरिक जीवन / गोविंद सिंह

हमें बचपन से पढाया जाता है कि आजादी के बाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई. यहाँ हर नागरिक समान है, सबको समान अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हैं. हमारा संविधान बाकायदा इस बात की गारंटी देता है. लेकिन हकीकत कुछ और ही है. सच यह है कि हम एक नयी तरह के उपनिवेशवाद में जीने को अभिशप्त हैं. हमारे यहाँ नयी तरह का आतंरिक उपनिवेशवाद चल रहा है. दिल्ली से राज्यों की राजधानी, राज्यों की राजधानियों से विभिन्न अंचलों के प्रमुख शहरों और फिर वहाँ से जिला मुख्यालयों, मुख्यालयों से तहसील मुख्यालयों और फिर वहाँ से भी छोटे-छोटे कस्बों और गांवों पर शाशन की सीढ़ी बनी हुई है. यानी हर कोई किसी न किसी का उपनिवेश है. ऊपर को बढ़ने वाली हर सीढ़ी पर जीवन की स्थितियां बेहतर हो जाती हैं. इसलिए निचले पायदान पर खडा व्यक्ति अपने आपको हीन से हीनतर  समझता है.
आजकल यहाँ यानी हल्द्वानी में बिजली, पानी और गैस की जबरदस्त किल्लत देख कर बड़ी शिद्दत के साथ यह एहसास होता है. मैं जिस इलाके में रहता हूँ, उस इलाके में पिछले एक महीने से पानी की सप्लाई नहीं हो रही. यों पहले भी ऐसा होता रहा है. अक्सर कह दिया जता है कि मोटर फुक गयी है. वह १५-२० दिन में ठीक होकर आयेगी तब कुछ होगा. इस बार मोटर को फुके एक महीना हो गया है, लेकिन वह ठीक नहीं हो पा रही. जो रसूखदार लोग हैं, उनके यहाँ जल संस्थान का टैंकर पहुँच जाता है, बाक़ी लोग निजी टैंकर वालों से पानी खरीदने को विवश हैं. कोई सुनवाई नहीं है. हर अधिकारी अगले की जिम्मेदारी बताकर पल्ला झाड लेता है. यही स्थिति बिजली की है. पिछले वर्षों में हमने सुना था कि नेता लोग इसे ऊर्जा प्रदेश बना रहे हैं. कहा गया था कि इस प्रदेश के पास न सिर्फ अपने उपभोग के लिए प्रचुर मात्रा में बिजली है, बल्कि हम अन्य प्रदेशों को भी बिजली बेच सकेंगे.
लेकिन हकीकत यह है कि हमें दिन में अनेक बार बिजली कटौती का दंश झेलना पड़ता है. बिजली एक घंटे के लिए आती है, और दो घंटे के लिए चली जाती है. यहाँ भी इन्वर्टर का व्यापार धडल्ले से चल रहा है. जिसके पास सामर्थ्य है, वह इन्वर्टर लगाता है, जनरेटर लगाता है, फिर एसी और उम्दा श्रेणी का कूलर लगाता है, जिसके पास नहीं है, वह ताकता रहता है.
गैस की किल्लत तो यहाँ हमेशा ही बनी रहती है. नौ महीने पहले जब मैं यहाँ आया था, तभी मैंने गैस कनेक्शन के लिए अप्लाई कर दिया था, लेकिन अभी तक वह नहीं लगा. मैं भी देख रहा हूँ कि वह कौन सा नया रिकार्ड बनाती है! लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यहाँ गैस के लिए हमेशा लाइन लगी रहती है. लोग अपना सिलेंडर लेकर किसी चौराहे पर लाइन लगाते हैं. गैस की गाड़ी आती है और आगे के निश्चित लोगों को देकर चली जाती है. जिनका नंबर नहीं आता, वे फिर किसी और दिन का इन्तज़ार करते रहते हैं. आज मेरे मकान मालिक का बेटा टूटू तडके साढ़े तीन बजे ही सिलेंडर लेकर चौराहे पर गया तो उसका ६६वाँ नंबर आया. यानी लोग रात दो बजे से ही लाइन पर लग गए थे. लगभग २०० लोग लाइन में थे. दोपहर तक भी गैस नहीं आयी तो लोगों को हंगामा खडा करना पड़ा. तब तीसरे दिन का आश्वासन देकर अधिकारी दफा हुए. यह एक दिन का मामला नहीं, हमेशा का है.
सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? गैस एक उपभोक्ता जरूरत है. हम उसे खरीदते हैं. फिर इस तरह लाइन में लगने की जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? दिल्ली में तो ऐसा नहीं होता. देहरादून में भी नहीं होता. अब तो खैर वहाँ हमारे पास पाइप्ड गैस है, उस से पहले जब भी जरूरत होती हम फोन कर देते और गैस वाला घर पर सिलेंडर छोड़ जाता. किल्लत होती तो समय ज्यादा लगता, वरना दो-चार दिन में मिल जाती. कभी मुश्किल नहीं हुई. फिर क्यों हल्द्वानी के लोगों को ऐसी सुविधा मयस्सर नहीं? यही नहीं, और पीछे जाएँ तो वहाँ के लोग बुनियादी जरूरत की चीजों के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे हैं. यह एक अत्यंत खराब, उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है. आप कहते हैं, लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं. क्यों नहीं करेंगे वे पलायन! जब सुविधाएँ कुछ ही जगहों पर सिमटी हों तो लोग क्यों नहीं दौडेंगे उनकी तरफ? यह कैसा लोकतंत्र है कि कुछ लोग तो सुविधाओं का जरूरत से ज्यादा उपभोग करें और बाक़ी के लोग मुंह ताकते रहें? यानी कुछ शासक हैं, बाक़ी सारे दास!    

10 टिप्‍पणियां:

  1. नीरज कुमार:
    सही कहा गोविंद जी, लोकतांत्रिक उपनिवेशवाद... और इसमे किसी को कोई ख़ामी नहीं दिखती।

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  2. Amit Arora:
    This is indeed Depressing and disturbing. India story has died before it was born.

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  3. वेड विलास उनियाल:
    गोविंदजी छोटे शहरों की दिक्कत अपनी तरह की है। अब देखिए हर नेता अधिकारी किसी का मौसा है किसी का पूफा, किसी की चाची, किसी का क्लासफेलो। कोई विरोध में खड़ा हो तो कैसे। सुबोध उनियालजी के घर एक दिन शादी के 70 कार्ड थे। कई ऐसे जिन्हें उनका परिवार जानता ही नहीं था। इंदिरा ह्देयेश को अगर जुखाम हो जाए तो सात सौ पहाड़ियों के फौन उन्हं आ जाएंगे, लेकिन महान लोकगायिका कबोतरी देवी इलाज के लिए तरस रही है, पहाड़ी चुप है। हमारी अपनी सोच में कमी है। उसे हम भुगत रहे हैं। आगे भी भुगतेंगे।

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  4. रॉय तपन भारती:
    मैंन पढ़ा, छोटे क्स्बों के दर्द पर सरकार कब ध्यान देगी? मेरे चाचा के बच्चे लालकुआं और पंतनगर मे रहते हैं उनके मुंह से ऐसी ही परेशानियां सुन रखी थी।

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  5. दुखदर डरावना सच है। कोई क्‍यों दिल्‍ली या देहरादून छोड़कर कस्‍बे में जाना चाहेगा। समझा जा सकता है कि कोई सरकार तैयारी करती है कि डॉक्‍टरों को एमबीबीएस के बाद गांव में जाकर एक डेढ़ साल का अनुभव लेना है तो कैसे लोग थरथराने लगते हैं। क्‍यों लोग महानगरों में गिरी पड़ी हालत में भी टिके रहते हैं या फिर क्‍यों निचले पायदान से किसी भी हाल में छलांग लगाकर महानगरों में चले जाना चाहते हैं। उपनिवेशों के उपरी पायदान पर कमसे कम व्‍यवस्‍था काम करती दिखती है। नीचे जाते जाते वह केवल कुछ लोगों के लिए ही काम लायक रह जाती है।

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  6. Hamaari vywasthaa - "loktantrik upniveshvaad" sahi kahaa apne.
    Pahadon men to ye samasyaa aam hai , "Haldwani" jaisaa shahar, jahan "international airport" ki baat chal rahi ho, esi samasyaa se grasit hai - Ashcharya !!

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  7. Govind ji, aapne sahee dhang se Haldwani ke karobaar ko pakda hai. Gas, bijli, paani sab garbaraa raha hai, Maine bhi Haldwani chuna rahane ke liye, lekin har baar das din mein wahan se bhagna parta hai. Aapke Haldwani aane se kam se kam is taraf aapne ungli uthai hai, ki meri bhi hausla afzai hui hai. Aapne ekdam sahee lalkara hai.

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  8. हल्‍द्वानी तो फिर भी जाना पहचाना है। यहां स्थिति ये है तो बाकी पहाड़ी इलाकों की हालत के बारे में सोचा जा सकता है। खूबसूरती से इतर पहाड़ की तस्‍वीर दिखाने के लिए धन्‍यवाद सर,,,

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  9. The issues of LPG, electricity,water, sanitation,health etc. are the symptoms of larger malady affecting not only Haldwani but nation at large. To my understanding it is the mis-governance or no governance at large which has resulted in the epidemic of chaos at the growing urban centers of India.

    Governance is too important to be left only to our elected representatives and public servants.Professional management will create a 'metro' in all sphere of public utilities otherwise languishing like 'railways'.

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  10. Shamsul Islam:
    bhai saheb,lovely to see your blog and sad to hear about your distress. however,i feel you are luckier missing all these basic things in hills. imagine, delhi, a concrete jungle and residents living as bar-be-ques. incidently, i am in london british library collecting material on my new work on muslims against partition.

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