रविवार, 20 जनवरी 2013

गणतंत्र: ख़तरा बाहर से नहीं, भीतर से है


विमर्श/ गोविंद सिंह
अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा है, ‘भारत मानव जाति का अवलम्ब है, मानवीय आवाज की जन्मभूमि है, इतिहास की जननी है, महान गाथाओं की दादी है, परम्पराओं की परदादी है. भारत सचमुच मानव इतिहास की सबसे मूल्यवान चीजों का खजाना है.’ इतना सब होते हुए भी भारत स्वयं को विदेशी आक्रान्ताओं से बचा नहीं पाया और अंततः उसे दो शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा. और इन दो सौ वर्षों में हम एकदम पैदल हो गए. हमारे पास जो कुछ अच्छा था, श्रेयस्कर था, हमसे लूट लिया गया. दो सौ वर्षों के शासन में अंग्रेजों ने ऐसा आर्थिक कुचक्र चलाया कि हम सोने चिड़िया से भिखारी बन गए. हमारी आजादी की लड़ाई इसी कुचक्र के खिलाफ बगावत थी. और 1947 में आज़ाद होने के बाद हमने एक ऐसे गणतंत्र की नींव रखनी चाही जो टिकाऊ हो, जिसे कोई और पराई ताकत फिर से गुलाम न बना ले और जिसमें गण का महत्व सर्वोपरि हो.
आजादी के बाद हमने उन तमाम बुराइयों से लड़ाई लड़ी, जिनकी वजह से हम गुलाम हुए थे. 1952 में जब पहली बार देश में आम चुनाव हुए थे और देश की आम जनता को वयस्क मताधिकार इस्तेमाल करने का मौक़ा मिला था, तब इसे ‘इतिहास का सबसे बड़ा जुआ’ करार दिया गया था. लोगों को भरोसा ही नहीं था कि भारत जैसे देश में इस तरह की कवायद कामयाब हो सकती है. किसी भी नव-स्वतंत्र देश में ऐसी परिपक्वता नहीं देखी गयी थी. लेकिन वही चुनाव भारतीय लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद साबित हुआ. तब से अब तक 15 आम चुनाव हो चुके हैं, राज्यों में, शहरों में, स्थानीय निकायों, पंचायतों के सैकड़ों चुनाव हो चुके हैं, और हमारा लोकतंत्र तमाम झंझावातों से जूझते हुए आगे बढ़ता ही जा रहा है. हमारे आस-पास लगभग 100 देश आज़ाद हुए थे, उनमें से चीन, दक्षिण कोरिया और इजराइल को छोड़ दें तो बाक़ी के देश लोकतांत्रिक दृष्टि से हमसे बहुत पीछे हैं. ज्यादातर देश आपस में ही लड़-झगड कर मर-खप रहे हैं. पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश का हाल तो हम जानते ही हैं, अफ्रीकी देशों का हाल भी किसी से छिपा नहीं है. लेकिन भारत लगातार आगे बढ़ रहा है. दुनिया में यह कहने वाले विचारक कम नहीं हैं, जिनका मानना है कि यह सदी भारत की होगी. हमारी तमाम बुराइयों के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को अपने देश के युवाओं से कहना पड़ता है कि जाग जाओ, वरना बंगलूर आ जाएगा.
यह ठीक है कि हम कई मामलों में दुनिया के उन्नत देशों से बहुत पीछे हैं. हमारे यहाँ अमीरी-गरीबी की खाई काफी चौड़ी है, हमारे यहाँ आज भी बीस करोड लोगों के पास दिन भर में खर्च करने को बीस रुपये भी नहीं होते, अनपढों और पढ़े-लिखे अनपढों की तादात बढ़ती ही जा रही है, गाँव और शहर के बीच एक चौड़ी खाई है, जो न गांवों का विकास होने दे रही है और न ही शहरों को नियोजित होने दे रही. संसाधनों के वितरण में बहुत घालमेल हैं, लेकिन फिर भी देश बिना किसी खास बाधा के आगे बढ़ रहा है. एक तरफ अमर्त्य सेन कहते हैं, इस देश में एक साथ दो धाराएं दिखाई देती हैं. एक वे लोग हैं, जिनकी जीवन शैली कैलीफोर्निया के लोगों को भी मात दे दे. वहीं ऐसे लोग भी हैं, जो अफ्रीकी सब-सहारा के लोगों से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं. तो दूसरी तरफ ऐसे भी विचारक ( राम चंद्र गुहा) भी हैं, जो कहते हैं कि औद्योगीकरण के शुरुआती दौर में अक्सर विषमताएं आ ही जाती हैं. लेकिन जैसे-जैसे लोगों में जागरूकता आती जाती हैं, इस तरह की विषमता दूर होती जाती है. ब्रिटेन और अमेरिका भी इस दौर से गुजर चुके हैं. 
देखिए, गणतंत्र किसी एक की बपौती नहीं होती. यदि वह गण का तंत्र है तो उसे संभाल कर रखना भी गण का ही काम है. सरकारें तो आती-जाती रहती हैं. यदि गण ढाल बनकर खड़ा हो जाए तो ऐसे गणतंत्र को कोई  ताकत पराजित नहीं कर सकती. महर्षि अरविन्द ने कहा था कि ‘भारत को खतरा बाहर से नहीं अपने भीतर से है.’ इस भीतरी खतरे के ही कारण हम गुलाम हुए और इसी वजह से हम आज बांछित रफ़्तार से तरक्की नहीं कर पा रहे हैं. दरअसल गुलामी ने हमारी सोच को इतना कुंद बना दिया है कि हम हर कदम पर पर-निर्भर हो गए. अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में फैसले लेने में भी हमें संकोच होता है और हम पश्चिम की ओर देखते हैं. हमारा ज्ञान, हमारा विज्ञान तब तक पुष्ट नहीं होता जब तक कि पश्चिम की मोहर नहीं लग जाती. इसके लिए कौन दोषी है? हमारे पड़ोस में आतंकवादी रहता है, हम पुलिस को नहीं बताते, हमारे सामने कोई दुर्घटना होती है, हम मदद के लिए आगे नहीं आते. हम भ्रष्टाचार से आहत रहते हैं लेकिन खुद की सुविधा के लिए रिश्वत देने में संकोच नहीं करते. हमने भ्रष्टाचार का जनतंत्रीकरण कर दिया है. गुलामी ने हमें हर काम के लिए परमुखापेक्षी बना दिया है. पहले हम अपने गाँव का रास्ता खुद बना लिया करते थे, अब उसके लिए सरकारी योजना की बात जोहते रहते हैं. हम अपने राजनेताओं को कोसते रहते हैं लेकिन मतदान के वक्त हमारे विवेक पर पर्दा पड़ जाता है और हमें अपनी जाति-बिरादरी, धर्म और जान-पहचान वाले में ही सब गुण नज़र आते हैं. यानी जो कुछ इस गणतंत्र में स्याह है, उसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं. सच बात यह है कि हमें अभी स्वायत्त गण की तरह व्यवहार करना ही नहीं आया है. गणतंत्र ने हमें स्वाभिमान का दर्जा दिया है. इस गणतंत्र पर हम आत्मालोचन करें कि कि हमने इसे क्या दिया? परमुखापेक्षी होना स्वाभिमान का लक्षण नहीं है. इस गणतंत्र पर हम सचमुच स्वाभिमानी बनें, यही कामना है. ( दैनिक जागरण, २० जनवरी, २०१३ से साभार) 

शनिवार, 19 जनवरी 2013

फीस नहीं, गुणवत्ता बढ़ाइए

शिक्षा/ गोविंद सिंह

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के बाद भारतीय प्रबंध संस्थानों ने भी अपनी फीस बढाने की घोषणा कर दी है. जहां प्रौद्योगिकी संस्थानों ने वार्षिक फीस 50 हज़ार से 90 हज़ार कर दी है, वहीं प्रबंध संस्थानों ने भी 2009 की तुलना में तीन गुनी अर्थात 5 लाख से 15 लाख कर दी है. और यह तब है, जब कि ये संस्थान सरकारी हैं. यह सब इसलिए है क्योंकि सरकार इन संस्थानों पर यह दबाव डाल रही है कि वे अपने संसाधन स्वयं जुटाएं. इस तरह देश के इन श्रेष्ठ और अभिजात्य संस्थानों के दरवाजे आम आदमी के लिए लगभग बंद हो गए हैं. गरीब की तो बात ही छोडिए, आम मध्यवर्गीय भी इतनी रकम आखिर लाये तो लाये कहाँ से? कहने को आप कह सकते हैं कि बैंक से ऋण ले लीजिए, लेकिन ऋण की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम आदमी उनके पास तक फटकना नहीं चाहता. साथ ही ऋण का भुगतान भी आसान नहीं है.
एक ज़माना था, जब देश में छः प्रौद्योगिकी संस्थान और तीन प्रबंध संस्थान थे. उनका अपना रूतबा था. दुनिया के श्रेष्ठ संस्थानों में उनकी गणना होती थी. देश भर से अत्यंत मेधावी छात्र इनमें दाखिला लेते थे. दाखिले की पहली और अंतिम शर्त मेधावी होना ही हुआ करती थी. फीस की कोई दीवार इन विद्यार्थियों को रोक नहीं पाती थी. और दुनिया भर के श्रेष्ठ प्रतिष्ठानों के दरवाजे इन विद्यार्थियों के लिए खुले रहते थे. इस तरह भारत के शैक्षिक परिदृश्य में प्रौद्योगिकी और प्रबंध संस्थानों का अपना महत्व था. हमारे पास दुनिया को दिखाने के लिए इनके अलावा था ही क्या? इसी से इनकी ब्रांड वैल्यू बनी.
1991 के बाद आयी नयी आर्थिक आंधी ने इसी ब्रांड वैल्यू को भुनाया. सरकार के नीति निर्धारकों के लिए इससे अच्छा मौक़ा और क्या हो सकता था. लिहाजा उन्होंने सोचा कि इन्हें इतना महँगा कर दो कि आम आदमी इनके दरवाजों तक ही ना पहुँच पाए. आज इन संस्थानों में कौन दाखिला ले पाता है? ताज़ा नतीजे बताते हैं कि सबसे ज्यादा छात्र आइआईटी से निकले हुए हैं. वे ही टॉपर हैं. उसके बाद उन छात्रों का नम्बर आता है जो इसके लिए जमकर तैयारी करते हैं यानी कोचिंग लेते हैं. और तैयारी में खूब पैसा बहाते हैं. यदि किसी तरह आप वहाँ तक पहुँच भी गए तो बढ़ी हुई फीस आपको बाहर का दरवाजा दिखा देती है. अर्थात यदि आप गरीब हैं तो आप का आईआईएम में पहुँच पाना मुश्किल है. फिर सरकार ने इनकी ब्रांड वैल्यू को देखते हुए इनकी संख्या बढ़ा कर 13 कर दी है और आईआईटी की संख्या 16 कर दी है. इन सबको अभी शिक्षा के बाज़ार में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी है. अपना लोहा मनवाना है.
सवाल उठता है कि आखिर फीस बढाने का क्या औचित्य है? इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि संस्थानों की ब्रांड वैल्यू बनाए रखने के लिए उनके खर्चे बहुत बढ़ गए हैं, लिहाजा ये खर्चे फीस से ही उगाहे जा सकते हैं. फिर सरकार भी लगातार हाथ पीछे खींच रही है. वह कहती है कि संस्थान अपने संसाधन खुद जुटाएं. दुर्भाग्य यह है कि इन संस्थानों को निजी क्षेत्र के साथ मिल कर संसाधन जुटाने का अनुभव नहीं है. विदेशों में भी फीस कम नहीं होती. अमेरिका के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रों को पढ़ाई के साथ किसी न किसी प्रोजेक्ट में काम मिल जाता है. स्नातकोत्तर स्तर के छात्रों को कुछ नहीं तो टीचिंग असिस्टेंसशिप मिल जाती है, जिससे वे अपना होस्टल सहित बहुत सा खर्च निकाल लेते हैं. भारत से जाने वाले ज्यादातर मध्यवर्गीय छात्र एक सेमेस्टर की फीस का जुगाड करके ही वहाँ जाते हैं, बाक़ी खुद अर्जित कर लेते हैं. लेकिन हमारे देश के विश्वविद्यालय या संस्थान अभी इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं. वे फीस लेना तो जानते हैं लेकिन विद्यार्थी की समस्या को नहीं समझते.
ब्रांड से जुड़ा दूसरा मुद्दा है यहाँ से निकलने वाले छात्रों को मिलने वाला पैकेज. चूंकि पैकेज ज्यादा होता है, इसलिए संस्थान चाहते हैं कि उन्हें भी अपना हिस्सा मिले. अच्छा पैकेज दिलाने के लिए उन्हें कम मशक्कत नहीं करनी पड़ती. उद्योग क्षेत्र से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ता है, नौकरी देने वालों की आवभगत करनी पड़ती है, सोफ्ट स्किल्स सिखाने पर बहुत ध्यान दिया जाता है, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के भ्रमण आयोजित किये जाते हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रबंधन की शिक्षा में शो बिज़ यानी दिखावेबाजी बहुत बढ़ गयी है. यानी उनका खर्चा काफी बढ़ गया है, जिसे वे विद्यार्थी की जेब से निकालना ही जानते हैं.
मुक्त मंडी की चकाचोंध में यह सब स्वाभाविक है. लेकिन हमारे नीति नियंताओं को यह तो सोचना ही चाहिए कि इससे देश में एक नयी वर्गीय खाई बन रही है. आईआईएम से निकलने वाले छात्र को एक करोड का पैकेज मिल रहा है, जबकि दूसरे-तीसरे दर्जे के संस्थानों से एमबीए किये हुए युवा दर-दर भटक रहे हैं. मैकिन्से की हालिया रिपोर्ट बताती है कि चार में से एक इंजिनीयरिंग किया हुआ युवक और दस में से एक बीए पास युवक ही नौकरी के लायक है. बाक़ी कहाँ जायेंगे? वर्गीय खाई इतनी चौड़ी हो गयी है कि एक ही प्रतिष्ठान में काम करने वाले दो कर्मचारियों के वेतन  में सैकड़ों गुना का अंतर है.
यह भी देखने की बात है कि ज्यादा पैकेज और फीस की वजह से समाज में इन पाठ्यक्रमों का एक छद्म हौव्वा बन जाता है. एमबीए वालों का पैकेज बढ़ा तो सब एमबीए की ही तरफ भागने लगते हैं. निजी क्षेत्र में उसकी अंधी दौड़ शुरू हो जाती है. जहां शिक्षा पर नहीं, शो बिज़ पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. इसलिए आज यह जरूरी हो गया है कि प्रबंध शिक्षा के कुल योगदान की समीक्षा होनी चाहिए. आखिर इतने खर्च के बाद देश और समाज को इनका योगदान क्या है? किस तरह की संस्कृति वे उद्योग जगत को दे रहे हैं? क्यों इंजीनियरिंग के छात्र, जिन पर सरकार पहले ही भारी-भरकर राशि खर्च कर चुकी होती है, वे अपने क्षेत्र में न जाकर प्रबंधन में जा रहे हैं? इसकी भरपाई कैसे होगी? उनके अनुसंधान का कितना इस्तेमाल उद्योग जगत कर रहा है? इसलिए फीस नहीं गुणवत्ता बढ़ाइए. गरीब और होनहार के लिए अपने कपाट बंद न कीजिए. ( हिन्दुस्तान, १९ जनवरी, २०१३ से साभार.)     

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

क्रांति की दहलीज पर खड़ी भारतीय शिक्षा

शिक्षा/ गोविंद सिंह


वर्ष 2012 में भारतीय शिक्षा का फलक विस्तृत हुआ है, लेकिन उसकी गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं दिखाई देता। देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 450 से बढ़ कर 612 हो गई है। कालेजों की संख्या भी 33 हजार को पार कर गई है। लेकिन विश्व स्तर पर हुए सर्वे में इस साल एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान 200 के भीतर जगह नहीं बना पाया। हाल तक 2-4 संस्थान इसमें जगह बना लेते थे। संयुक्त राष्ट्र की विश्व शिक्षा सूची में शामिल कुल 181 देशों में भारत का स्थान 150वें करीब है। एक और अंतरराष्ट्रीय संस्था आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने कहा है कि 2015 तक भारत में स्नातकों की संख्या अमेरिका से ज्यादा हो जाएगी और चीन के बाद वह दूसरे नंबर पर आ जाएगा। हमारी आबादी चीन के बाद सबसे ज्यादा है तो हमारे ग्रेजुएट भी ज्यादा होंगे। लेकिन इसी संस्था का सर्वे आगे कहता है कि गुणवत्ता के लिहाज से हम 73 देशों में 72वें स्थान पर हैं।
खाली पदों का चक्रव्यूह मैकिन्से का हाल का एक अध्ययन कहता है कि भारत के 10 कला स्नातकों और चार इंजीनियरिंग स्नातकों में से एक-एक ही नौकरी के लायक हैं। ऐसी 'निर्गुण' शिक्षा का क्या फायदा? जहां तक विस्तार का सवाल है, वह तो होना ही है। आज भी हमारे देश में स्कूलों में दाखिले का अनुपात 78 प्रतिशत ही है। उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते यह 13 प्रतिशत रह जाता है। अमेरिका का उच्च शिक्षा में दाखिले का अनुपात ही 83 फीसदी है। इससे जाहिर होता है कि गुणवत्ता तो दूर, हम अभी दाखिले के स्तर पर ही बहुत पीछे हैं। हमारी सरकारों की प्राथमिकता सूची में शिक्षा कहीं है ही नहीं। केंद्र में तो फिर भी शिक्षा की बात करने वाले मिल जाते हैं, राज्यों की राजनीति का तो मिजाज ही बदल गया है। वहां शिक्षा का कभी कोई जिक्र तक नहीं करता। देश में 13 लाख स्कूली अध्यापकों के पद खाली हैं। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में 40 फीसदी पद रिक्त हैं। सर्व शिक्षा अभियान जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में भी सात लाख अध्यापकों का टोटा है।
एजुकेशनल इमर्जेंसी उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाली संस्था नैक का कहना है कि 90 फीसदी कालेज और 70 फीसदी विश्वविद्यालय औसत दर्जे से नीचे हैं। व्यावसायिक संस्थानों का नियमन करने वाली संस्था एआईसीटीई के मुताबिक़ 90 प्रतिशत कालेज उसके मानकों का पालन नहीं करते। इसीलिए हमारे नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था आपात स्थिति में है। ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा को कहना पड़ता है कि हमारे विश्वविद्यालय 19वीं सदी के माइंड सेट में जी रहे हैं। अमर्त्य सेन को विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के लिए कुलाधिपति बनाया गया। इस बात को पांच साल होने को आए, लेकिन इस साल भी वह शुरू नहीं हो पाया। यहां की लाल फीताशाही से वे आजिज आ चुके हैं। मनमोहन सरकार के पिछले कार्यकाल में उच्च शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का बड़ा शोर था। लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक इस साल भी पास नहीं हो पाया। असल बात यह है कि यहां आने में किसी महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय की दिलचस्पी भी नहीं रह गई है।
अभी तक महज छह विदेशी विश्वविद्यालय थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी के साथ भारत में हैं। हार्वर्ड ने मुंबई में भारतीय उद्यम में एक कोर्स चलाने की घोषणा की थी लेकिन अभी तक उसका खाका सामने नहीं आया है। शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी निवेश का लक्ष्य 30 फीसदी है, लेकिन अभी तक यह सिर्फ 15 प्रतिशत पर अटका हुआ है। दो लाख से अधिक विद्यार्थी हर साल पढ़ने के लिए विदेश चले जाते हैं और हर साल सात अरब डॉलर पानी में बहा देते हैं। उन्हें अपने देश के किसी विश्वविद्यालय पर भरोसा क्यों नहीं होता? यहां कालेज की दहलीज पर पैर रखने वाले छात्रों की सालाना तादाद साढ़े चार करोड़ है। ज्ञान आयोग कहता है कि 2020 तक 800 विश्वविद्यालय और होने चाहिए। क्योंकि तभी हम उच्च शिक्षा में 30 फीसदी दाखिले तक पहुच पाएंगे। यह अकेले सरकार के वश की बात नहीं है। जो स्वदेशी निजी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं, उनका स्तर बहुत नीचे है, और विदेशी विश्वविद्यालय दृश्य से गायब हैं। यानी 2012 में भी हमारी शिक्षा का परिदृश्य कोई ऐसा संकेत नहीं दे गया, जिससे हम कह सकें कि अब हम बाकी दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल सकते हैं। हम तो आज थाईलैंड, सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, कोरिया से भी बहुत पीछे हैं। आखिर ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हम बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन उन्हें धरातल पर उतारने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती।
डिजिटल रेवॉल्यूशन फिर भी कुछ चीजें हैं जो आशा जगाती हैं। जाते-जाते यह साल आकाश टैबलेट का सुधरा हुआ संस्करण दे गया, जो छात्रों को 1800 रुपए का पडे़गा। इससे शिक्षा के क्षेत्र में एक डिजिटल क्रांति आने की उम्मीद है। राष्ट्रीय शिक्षा मिशन के तहत देश के 25 हजार कॉलेजों और 419 विश्वविद्यालयों को सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये आपस में जोड़ने की शुरुआत हो चुकी है। आपस में जुड़कर ये संस्थान पढ़ाई की सामग्री साझा कर सकते हैं। भारतीय शिक्षा में अभी तक आईसीटी का खास इस्तेमाल नहीं हो पाया है। लेकिन यदि यह हो गया तो दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों के विद्यार्थी इससे बहुत लाभान्वित हो सकेंगे। नए वर्ष में एक बात यह अच्छी हो रही है कि तमाम इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी संस्थानों की एक ही प्रवेश परीक्षा होने जा रही है, जिसमें 12 वीं के अंकों का भी महत्व रहेगा। इससे कोचिंग संस्थानों का दबदबा शायद कुछ कम हो। सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल जाने के बाद शिक्षा के अधिकार को भी अब शायद पूरी तरह लागू किया जा सके। नए आर्थिक माहौल में हमारी शिक्षा व्यवस्था भी नई उड़ान भरना चाहती है। इसके लिए निजीकरण जरूरी है, लेकिन ध्यान रखना होगा कि निजी संस्थान कहीं डिग्री बांटने की दुकान बन कर न रह जाएं। (नवभारत टाइम्स | Dec 27, 2012 से साभार )

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

केजरीवाल की कंटीली राह

राजनीति/ गोविंद सिंह  
अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के राजनीति में उतरने के फैसले को किसी गुनाह की तरह से नहीं, एक जनांदोलन की स्वाभाविक परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए। यह घोषणा ऐसे समय में हुई है, जब भारत की जनता पारंपरिक राजनीति से आजिज आ चुकी है और शिद्दत से विकल्प की जरूरत महसूस कर रही है। हमारा संसदीय लोकतंत्र असहाय अवस्था में पड़ा हुआ है। वह लंगोटिया पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म का पोषक भर बनकर रह गया है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल का ऐलान ताजा हवा के झोंके की तरह है। राजधानी दिल्ली में निजी वितरण कंपनियों द्वारा रातोंरात बिजली की दरें बढ़ाए जाने के खिलाफ जिस तरह से उन्होंने उग्र आंदोलन छेड़ रखा है, उससे यह एहसास मजबूत ही होता है। इसीलिए उन्हें देख कर अन्य दलों के पैर तले की जमीन खिसकती नजर आ रही है।
नई पीढ़ी का आंदोलन
आजादी के बाद से ही हम सुनते आए हैं कि राजनीति में अच्छे लोगों को आना चाहिए। पर सचाई यह है कि अच्छे लोग राजनीति से दूर छिटकते गए हैं। नतीजा यह हुआ कि हमारी राजनीति वंशवाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार की बंधक बनकर रह गई है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के भीतर ये अवगुण जरूरी बुराइयों की तरह पसर गए हैं। टीएन शेषन की तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव प्रक्रिया इतनी खर्चीली है कि अकूत धन के बिना कोई ईमानदार व्यक्ति चुनाव जीतने की कल्पना ही नहीं कर सकता। पिछले साल अन्ना आंदोलन शुरू हुआ, तो उसमें बड़ी संख्या में उन युवाओं ने शिरकत की, जो देश में परिवर्तन चाहते थे। वे किसी पार्टी या विचार को नहीं पहचानते थे। सिर्फ देश को वर्तमान बदहाली से बाहर निकालना चाहते थे। वे एक ऐसे विकल्प का सपना देख रहे थे, जो देश को सुरक्षित भविष्य की गारंटी देता हो। इस फेसबुक पीढ़ी को अनायास ही जैसे आशा की एक किरण नजर आने लगी थी।
अन्ना की दुविधा
यह ठीक है कि अन्ना आंदोलन इस जन सैलाब को इकट्ठा नहीं रख पाया। यह आंदोलन कोई काडर, राजनीतिक दल या संगठन तो था नहीं। यह तो भावनाओं का स्वत:स्फूर्त उद्रेक था। लेकिन इससे यह साबित होता है कि देश में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत अंतर्धारा बह रही है। अरविंद केजरीवाल ने इस अंतर्धारा को बखूबी पहचाना है। बदलावकामी नई पीढ़ी को राजनीतिक ताकत में बदल पाना अरविंद केजरीवाल के लिए अत्यंत दुष्कर होगा, लेकिन यह प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जहां तक अन्ना का सवाल है, उनकी स्थिति गांधी की तरह है। वे दलगत राजनीति में शामिल नहीं हो सकते थे। वे बदलाव की बात तो करते थे लेकिन सत्ता सौंपने के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं था। कांग्रेस की बुराई करते हैं तो उन पर भाजपाई होने का ठप्पा लगता है, भाजपा की बुराई करते हैं तो वामपंथी होने का। इसलिए केजरीवाल अन्ना आंदोलन के सिद्धांतों को व्यावहारिक अंजाम दे रहे हैं। 
हमें नहीं मालूम कि केजरीवाल कहां तक अपने उसूलों पर टिके रह पाते हैं , लेकिन उनकी यह पहल गलत नहीं है। केजरीवाल की खूबी यह है कि वे संपूर्ण विकल्प का खाका पेश कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के बाद यह पहला मौका है जब कोई आमूल परिवर्तन की बात कर रहा है। पिछले दिनों आई उनकी किताब ' स्वराज ' को पढ़ते हुए लगा कि हमारे राजनेताओं ने जिस तरह से लोकतंत्र को अपने सुविधातंत्र में बदल दिया है , उसको वह उखाड़ फेंकना चाहते हैं और इसके लिए उनके पास पूरी रणनीति है। केजरीवाल के विरोधी उन्हें लोकतंत्र विरोधी कहते हैं , जबकि उनकी किताब बताती है कि वह गांधीगीरी के रास्ते पर हैं। अरविंद केजरीवाल प्रत्यक्षत : जनता का राज चाहते हैं। आज लोकतंत्र में से लोक नदारद है। केजरीवाल कहते हैं कि विकास की योजनाएं ऊपर से थोपी नहीं जाएंगी , वे जरूरत के हिसाब से व्यवस्था के निचले पायदान पर बनेंगी और लागू होंगी। इस तरह सौंदर्यीकरण जैसी बेतुकी योजनाओं पर खर्च नहीं होगा और दलाली भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।
जनता ही तय करेगी कि खर्च कहां और कैसे होगा। ग्राम पंचायतों से लेकर शहरी निकायों तक व्यवस्थापिका से जुड़े कर्मचारी और अफसर जनता के सीधे नियंत्रण में होंगे। आज की तारीख में गांवों की सेवा में नियुक्त व्यक्ति दरअसल गांव वालों पर हुक्म चलाता है। केजरीवाल का सिद्धांत विधानसभा और संसद तक पहुंचकर विधायिका और कार्यपालिका पर नकेल डालने की बात करता है। यानी नेता सदन में वही बात उठाए , जिसे जनता चाहती है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो जनता को राइट टु रिकॉल यानी वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए। वे मतदान में राइट टु रिजेक्ट के पैरोकार हैं। यानी चुनाव में जनता को हक़ होगा कि अगर कोई भी प्रत्याशी उन्हें पसंद हो तो वे सबको नकार सकें।
जनता का फैसला
केजरीवाल की आर्थिक रणनीति का खाका भी जनता के ही इर्द - गिर्द घूमता है। उनका कहना है कि संसद में जो नीतियां बनती हैं , वे जनता से पूछ कर तो बनती नहीं। ही हमारे नेता बहस करने या सवाल पूछने से पहले अपनी जनता से सलाह - मशविरा करते हैं। हाल के वर्षों में जिस तरह से एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण का हिंसक विरोध अलग - अलग सरकारों को झेलना पड़ा , वह इसी नीति का नतीजा था। यदि पहले ही जनता से विचार - विमर्श करके फैसला किया होता तो सिंगूर या भट्टा - पारसौल जैसी घटनाएं घटी होतीं। ऊपर से थोपी गई योजनाएं ( चाहे वे बड़े बांध हों या आदिवासी इलाकों में खनन के ठेके ) बिना जनता की सहमति के लागू नहीं की जा सकेंगी। ये बातें पहले भी कही गई हैं , लेकिन केजरीवाल जिस तरह से आमूल बदलाव के पैरोकार बनकर उभरे हैं , उसमें इन्होंने नया अर्थ ग्रहण किया है। केजरीवाल मध्यवर्ग के लिए नई आशा लेकर आए हैं , हालांकि राजनीति में उनकी सफलता की बात अभी बेमानी होगी।